दिल्ली में हुई उस सेमीनार में प्रशांत और बृंदा ने भारत भर से कला-साहित्य में लगे अनूठे लोगों का जमावड़ा तैयार किया था, जिसमें हिस्सा लेना मेरे लिए एक अविस्मरणीय अनुभव था.
सबसे ज़्यादा मुझे जिस बात ने प्रभावित और बहुत प्रसन्न किया वह थी इन दोनों और इनके छात्रों के बीच की बेहतरीन कैमिस्ट्री. डिग्री की पढाई कर रहे ये बीस-इक्कीस साल के लड़के-लडकियां सही मायनों में आधुनिक तो थे ही, हर कोई अपने अपने तरीके से रचनाकर्म के साथ जुड़ा हुआ था. साथ ही एक प्रतिबद्ध राजनैतिक और सामाजिक चेतना से लैस यह नई पौध बहुत गहरे हमारे समाज के सबसे ज़रूरी सरोकारों से मन से जुड़ी हुई थी. इन सबको बनाने में कहीं न कहीं प्रशांत और उनकी गहरी प्रतिबद्धता का बड़ा योगदान रहा होगा - ऐसा मानने में मुझे कोई संशय नज़र नहीं आता.
इनमें से कुछ को आप कबाड़खाने में पढ़/ सुन चुके हैं - प्रतीक्षा पाण्डेय, टीना दास और दिशा रॉयचौधरी इनमें से कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हें अभी बहुत लम्बी रचनात्मक यात्राएं तय करनी हैं.
अपनी कवितायेँ यहाँ लगाने देने की अनुमति देने का आभार प्रशांत!
अपनी कवितायेँ यहाँ लगाने देने की अनुमति देने का आभार प्रशांत!
जिह्वा
-प्रशांत
चक्रबर्ती
पटराए दांतों से
किनारों पर
कुतरी हुई
उभरी हुई सामने
वह बंट जाएगी दो
फांकों में, तुम देखोगे उसे
गुस्सैल भुक्खड़
लहराती हुई
और ताज़ा गढ़े गए
रक्त से भरे तुम्हारे मुंह से
छलकेगा
निखालिस क्रोध
बिना
प्रतिद्वंद्वी वाला एक एकाकी खेल
बांधे रखता है
हमें
बिना
प्रतिद्वंद्वी वाला एक एकाकी खेल
एक अनुष्ठान,
रक्त और गारे का
बना
एक संधिकारी
बिचौलिया
वसीयत में देता
है हमें
युद्ध
आप उसे ईश्वर कह
सकते हैं.
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