Monday, March 16, 2015

उसने डुबो लिया है इच्छा-पुरुषों का सारा प्रारब्ध - अरुंधती घोष की कविता – 1




बंगलौर में रहनेवाली अरुंधती घोष मेरी मित्र हैं. दुनिया भर में घूमती रहती हैं और कला इत्यादि से सम्बंधित कुछ काम भी करती हैं. कोई साल भर से ऊपर उनसे मेरी पहचान हुई जब दिल्ली में प्रशांत चक्रबर्ती और वृंदा बोस द्वारा आयोजित ह्यूमैनिटीज़ अंडरग्राउंड की सेमिनार में उन्होंने मुझे वीरेन डंगवाल की कविता 'पी टी ऊषा'  को उद्धृत करने पर बधाई दी थी. धीरे-धीरे हमारी मित्रता घनी होती गयी है. लम्बे-लम्बे टेलीफोन वार्तालापों के दरम्यान हमने दुनिया भर की कविता-कला-साहित्य के बारे में बातें की हैं अलबत्ता अक्सर हमारी बातें बेसिरपैर की हुआ करती हैं.

अरुंधती ने लगातार आग्रह करने के बाद कुछ ही दिन पहले मुझे अपनी कुछ कवितायेँ भेजीं – ये कविताएँ बांग्ला से अंग्रेज़ी में अनुवाद के रास्ते पहुँची हैं. उन्हें बरास्ता हिन्दी आपके सामने रखना शुरू रहा हूँ. आज दो कवितायेँ-

शुक्रिया अरुंधती!       

जादूगरनी

स्त्री एक थी
स्वेच्छाचारिणी,
असंसारिणी,
मन्त्र पढ़ती, खोज लाती मनुष्यों को, खोदती कुंएं,
लंगर धंसा देती उनके जल भीतर
छाया की मानिंद हो जाया करती अदृश्य
अहंकार से भरी

स्वेच्छाचारिणी,
असंसारिणी,
एक थी
इच्छाओं वाली स्त्री

युद्धविराम

युद्धविराम की पुकार लगाई है देह ने
टांग दी है उसने अपनी तलवार

दोनों बाँहें पसारे, अस्थियों के शिशिर को गले लगा
उदार होकर उसने त्याग दी हैं कितनी ही वासनाएँ
कितने सारे जन्मों के युद्ध के खेलों से किनारा कर
उसने डुबो लिया है इच्छा-पुरुषों का सारा प्रारब्ध

तब भी
जल की गहराइयों के भीतर वह कांपती, कांपती ही रहती है 
देह दूसरी वह, बिखरी हुई इसी देह में.

1 comment:

naveen kumar naithani said...

कितने सारे जन्मों के युद्ध के खेलों से किनारा कर
उसने डुबो लिया है इच्छा-पुरुषों का सारा प्रारब्ध
हिला देने वाली कविता....