Wednesday, March 11, 2015

आप से तुम तुम से तू उर्फ़ पेट में फिर गुड़गुडू

संजय चतुर्वेदी की एक सामयिक प्रतिक्रिया - 


अस्सी के दशक में उस्ताद दाग़ दहलवी की जो एक ग़ज़ल ग़ुलाम अली की गायकी के मार्फ़त फिर से मक़बूल हुई थी ("रंज़ की जब गुफ़्तगू होने लगीआप से तुम तुम से तू होने लगी") उसके मिसरे को ठोक-पीट के जो आजकल दिल्ली में चल रहा है उस तमाशे को देखिए! किमाश्चर्यम्!



फ़ंड की जब गुफ़्तगू होने लगी
आपमें फिर तू ही तू होने लगी

चार दिन की चाँदनी में भीग के
अब गुनाहों की सुबू होने लगी

नेचरोपैथी हुनर में मिल गई
पेट में फिर गुड़गुडू होने लगी

ऊँट आया बावरों के हाथ में
उसकी दुर्गत चार सू होने लगी

ब्लेकमेलर तिलमिलाने लग पड़े
शायद उनकी आबरू होने लगी

पार्टी के बीज में षड़यंत्र थे

सो वहीं से फिर शुरू होने लगी

1 comment:

Rahul Gaur said...

Ashok Ji
I have been trying to search for a poetry compilation of Sanjay Chaturvedi Ji. Can you kindly help?
Regards