Sunday, March 1, 2015

इन्साफ़ का समोसा या समोसे का इन्साफ़

वुसतुल्लाह ख़ान की एक पुरानी पोस्ट बीबीसी के हिन्दी ब्लॉग से साभार  –


क़िस्सा ये है कि लाहौर के लोकल एडमिनिस्ट्रेशन ने एक पुराने क़ानून के तहत अबसे तीन बरस पहले समोसा बनाने वालों को हुक्म दिया कि ख़बरदार अगर किसी ने आज के बाद एक समोसा छह रूपए से ज़्यादा का बेचा तो उसपर कड़ा जुर्माना किया जाएगा.


समोसा बनाने वाले इस हु्क्म से डरने के बजाए हाई कोर्ट में चले गए.
मगर हाई कोर्ट ने सरकार और समोसा बनाने वालों की दलील सुनने के बाद ये फैसला दिया कि चुंकि ख़ुद समोसा इस मुकदमे में अपना बचाव करने के काबिल नहीं लिहाजा ये मुकदमा खारिज किया जाता है.
लेकिन समोसा साज़ों ने हार नहीं मानी और इस फैसले के ख़िलाफ़ जस्टिस इफ्तिख़ार चौधरी की सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया.
अदालत ने फैसला सुनाया कि समोसे पर पंजाब फूड स्टफ कंट्रोल एक्ट 1958 लागू नहीं होता लिहाज़ा पंजाब हुकुमत समोसे की कोई फिक्स क़ीमत मुकर्रर नहीं कर सकती.समोसा किस क़ीमत पर बिकता है ये मामला समोसे और उसे बेचनेवाले का मसला है लिहाजा हुकुमत पंजाब आइंदा इस तरह के मामले में अपनी टांग न अड़ाए तो बेहतर है.
ये फैसला आने की देर थी कि समोसा मारे ख़ुशी के छह रूपए की सीढ़ी से बारह रूपए की छत पर कूद गया और अब वो पकौड़ो, कचौरियों और जलेबियों को हिक़ारत से देख रहा है जिनकी क़ीमत और अवक़ात कोई पूछने वाला नहीं.
सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस लिहाज़ से अहम है कि दो-ढ़ाई साल पहले वो चीनी और पेट्रोल की क़ीमत तय करने के बावजूद अपने फैसले पर अमल नहीं कर सकी. न ही किसी प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी के ख़िलाफ़ स्विस कोर्ट को ख़त लिखवा सकी.
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यक़ीनन समोसे के हक़ में फैसला करते हुए सोचा होगा कि चूंकि समोसे को किसी प्रधानमंत्री की तरह पद से नहीं हटाया जा सकता है इसलिए इज्ज़त इसी तरह बचाई जा सकती है कि समोसे को बरी कर दिया जाए.
मेरे एक वकील दोस्त का कहना है कि अदालत के इस फैसले के पीछे ज़बरदस्त बुद्धिमत्ता है.
समोसे के हक़ में फैसले से साबित हो गया है कि इंसान और समोसा बराबर हैं.
ये बात यक़ीनन अदालत के सामने रही होगी कि समोसा सिर्फ़ लाहौर या पंजाब का मसला नहीं है बल्कि ग़ालिब, बॉलीवुड, मेंहदी हसन, बासमती चावल और आम की तरह पूरे दक्षिणी एशिया की धरोहर है.ये काबुल से कन्याकुमारी तक, मुल्ला उमर से नरेंद्र मोदी तक सबको पसंद है.
इसे जितने शौक़ से मुस्लिम लीग और जमाएते इस्लामी वाले खाते हैं उतने ही शौक़ से जनसंघी, सीपीआईएम और कांग्रेस वाले भी ख़रीदते हैं.
सोवियत यूनियन टूट गया, बर्लिन की दीवार गिर गई, इस्लामाबाद में मुशर्रफ़ , दिल्ली में बाजपेयी और बिहार में लालू न रहा मगर समोसे में आज भी आलू है और कल भी रहेगा.
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने समोसे को क़ीमत के बंधन से आज़ाद करके जो ऐtiहासिक फै़सला किया है किया है उसकी ज़बरदस्त सराहना होनी चाहिए
अलबत्ता इंसाफ़ से जलने वाले कुछ लोग ये ज़रूर कहते हैं कि इस वक़्त पाकिस्तान की अदालतों में ऊपर से नीचे तक तक़रीबन दस लाख मुक़दमे कई बरस से सुनवाई का इंतज़ार कर रहे हैं. क़ाश ये मुक़दमा करने और लड़ने वाले भी समोसा होते तो कितना अच्छा होता...

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