शाम-ए-फाकिर: फाकिर की जिंदगी की धूप और
कुछ घने छाये
(जालंधर से कबाड़ी योगेश्वर सुयाल की रपट)
चलती
राहों में यूं ही आंख लगी है फाकिर.
भीड़
लोगों की हटा दो कि मैं जिंदा हूं अभी.
सुदर्शन
कामरा के बारे में मशहूर है कि फिरोजपुर में नाकाम इश्क को भुलाने वह जालंधर चले
आए थे. पिता उन्हें अपनी तरह डॉक्टर बनाना चाहते थे. यहां डीएवी कॉलेज में पढ़ते
हुए शायरी में डूबे. दुनिया ने उन्हें सुदर्शन फाकिर (1934-2008) के तौर पर जाना.
केएल
सहगल हॉल में शाम-ए-फाकिर में उनकी पत्नी, दोस्तों और चाहने वालों ने उनके किस्से सुनाए. कुछ जज्बाती.
कुछ उनकी फक्कड़ी के. कुछ क्रिएटिविटी के. खालसा कॉलेज में प्रोफेसर रहीं सुदेश
फाकिर ने कहा – उसकी किस गजल को पसंद करूं. मुझे तो वो शायर
ही पसंद था. दस साल तक उसका इंतजार किया मैंने.
गजलजो
जगजीत सिंह और फाकिर के रिश्ते पर पंजाब में अक्सर बहस होती है. किसने किसे पहचान
दिलाई? रिटायर्ड डिप्लोमेट
सुरिंदरलाल मलिक ने कहा – फाकिर के ही गीत थे, जिन्होंने जगजीत को मशहूरी दिलाई. दोनों मेरे दोस्त थे. गुमनाम तखल्लुस से
शायरी करने वाले मलिक जालंधर में सन 1959-60 में लॉ करते हुए
फाकिर के दोस्त बने. हम एक दिन शराब की तलाश में बाहर निकले थे. बरसात होने लगी.
मेरे मुंह से निकला – हम तो समझे थे बरसात में बरसेगी शराब.
फाकिर ने जवाब दिया – आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया.
बाद में फाकिर की यह गजल बड़ी मशहूर हुई.
उनकी
पत्नी गीतांजलि मलिक थोड़ी जज्बाती होकर बोलीं : फाकिर भाईसाहब की मैं दीवानी थी.
मगर मेरे झगड़े भी बहुत होते थे. मैं उनकी शराब छुड़ा देती थी. उनसे कहती थी कि
जालंधर में रहो या भाभी को भी मुंबई ले आओ. पूछती थी कि आपने भाभी को दिया क्या है? वह कहते थे – मैंने
घर दिया. बेटा दिया.
आदमी
आदमी को क्या देखा, जो भी देगा वही खुदा
देगा. ये गजल उनकी कुछ दिनों बाद मशहूर हुई.
मगर मैं
कहना चाहूंगी कि ये जो कवि-शायर होते हैं, अपने घर की फिक्र बिल्कुल नहीं करते. सारी उम्र उनकी
बीवियां तड़पती रहती हैं. उन्होंने सुदर्शन फाकिर मेमोरिलय सोसाइटी के जरिए पिता को
याद करने के लिए मानव फाकिर को बधाई दी.
कौमें
जिंदा रहें, इसलिए पुरखों को याद
रखना लाजिमी है. बाद में जुल्फिकार खान ने कहा –
वो एेसे इंसान थे, जिन्होंने अपनी शायरी से कई लोगों का कत्ल कर दिया. शुरुआत की – दिल के दीवारो-दर पे क्या देखा, बस तेरा नाम ही लिखा
देखा, तेरी आंखों में हमने क्या देखा, कभी
कातिल, कभी खुदा देखा.
ढाई
घंटे की महफिल में उन्होंने गुमनाम और राजेंद्र रहबर को भी सुनाया.
फिर
फाकिर पर ही खत्म की –
चंद
मासूम से पत्तों का लहू है फाकिर,
जिसको
महबूब के हाथों की हिना कहते हैं.
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