Thursday, October 22, 2015

चाचा का ख़त है, हमें जो ग़लत बोलता वो ग़लत है

ओकलाहामा में बाफ़ोमेट की मूर्ति

ये कमज़र्फ लोगों का घुन लोकतन्तर
-संजय चतुर्वेदी

बड़े चैन से ज़िन्दगी कट रही थी 
सदाव्रत, पंजीरी घणी बट रही थी
सभी मालिकों से बड़ी बन रही थी
रुसूखों की लस्सी वहीं छन रही थी

वो कल्चर का शेवा ग़िज़ा-माल-मेवा 
वो अफ़सुर्दा शामों की साहित्य-सेवा 

ये जाने कहां से जनादेश आया 
ये मरदूद परजा का सन्देश आया 
ये आधी सदी का जतन फोड़ डाला 
मैं कहता हूँ सारा वतन तोड़ डाला 

ये जाहिल कुतर्की सवालों का मन्तर
ये कमज़र्फ लोगों का घुन लोकतन्तर

मलाई की लाइन कटी, प्लेट ख़ाली
लगी गैस बनने करें क्या सवाली 
सभी मिलने वाले अदीबों के आला 
सदा सिद्ध-श्यापा, तरीका निकाला 

वही लोकतन्तर जिसे हम बनाएं 
वही लोकतन्तर जिसे हम चलाएं 

हमारे ही मनसूब हों हर जगह पर 
हमारे ही महबूब हों हर जगह पर 
हमारी सहाफ़त हमारे सहीफ़े
हमारे ही चेले लपेटें वज़ीफ़े

नहीं तो समझ लो नहीं चलने देंगे 
ये जम्हूर-ए-जाहिल नहीं पलने देंगे 

ये इल्म-ओ-सुख़न में घुसेंगे मवाली 
ये वाणी की टुच्ची करेंगे दलाली 
दलाली जो करनी थी  हम ही क्या कम थे 
इसी ऐब में अपने सारे ख़सम थे 

ये दीगर है मसला कि हम लाअहल थे 
गिरोहों में बैठे हुए युक्तिबल थे 

विधा खो गई उसमें व्यापी किताबें
बिना कुछ लिखे कितनी छापी किताबें 
ये बे जौक़ बन्दे इन्हें क्या पता है 
उरूज-ए-हुनर, फ़िक्र-ओ-फ़न क्या बला है  

हमारे ही हाथों में चाचा का ख़त है 
हमें जो ग़लत बोलता वो ग़लत है.

2 comments:

आशुतोष कुमार said...

निशाना किस पर है ? क्या पुरस्कार-प्रत्यर्पक लेखकों पर ? अगर हाँ , तो यह नज़्म कवि गौरव चौहान के इन दिनों प्रसिद्ध हो रहे गीत ," हैं साहित्य मनीषी या फिर अपने हित के आदी हैं " से कुछ बेहतर है !

जसवंत लोधी said...

वाह वाह Seetamni. blogspot. in