Thursday, February 4, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 1

अयोध्याप्रसाद गोयलीय ने 'शायरी के नए मोड़' नाम से पांच खण्डों में उर्दू कविता की नई धारा के प्रमुख शायरों और उनकी शायरी पर विस्तार से चर्चा की है. इस के तीसरे खण्ड का शुरुआती हिस्सा इसरारुल हक़ 'मजाज़' से वाबस्ता है. आज उसी से कुछ अंश आपको पढ़वाता हूँ -


आग थे इब्तदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं, खाक़ इंतिहा है ये  
- मीर   

हाय रे भाग्य की विडम्बना! लखनऊ के बलराम हॉस्पिटल में अत्यंत दयनीय, शोचनीय एवं असहाय स्थितियों में वही मजाज़ मर गया जिसके नाम पर कभी इस्मत चुगताई के शब्दों में - "गर्ल्स कॉलेजों में लाटरियाँ डाली जाती थीं. और उसके अशआर तकियों के नीचे छिपाकर आंसुओं से सींचे जाते थे;  और कुवाँरियाँ अपने आइन्दा होने वाले बेटों के  नाम उसी के नाम पर रखने की कसमें खाती थीं, न जाने किस अरमान के बदले में?"

मजाज़ की शायरी पर अलीगढ़ कॉलेज की लडकियां किस हद तक फ़रेफ्तः (मुग्ध) थीं? इस्मत चुगताई की ज़बाने-मुबारक से सुनिए, जो खुद भी उन दिनों वहां पढ़ती थीं - "लड़कियां मौसमी छुट्टियां गुज़ारने अपने-अपने घरों को सिधारों चुकी थीं. सिर्फ चन्द फूटे नसीबों वाली, जिनके घर दूर थे, या कोई हमसफ़र न मिला था, हॉस्टल में सहमी हुई नज़र आती थीं ... दिन तो किसी-न-किसी तरह ज़बरदस्ती हंसी-खेल में घसीट डालते, पर ज्यूँ ही शाम का सुरमई साया सहन में रेंगना शुरू करता, दम बौखला उठते और नामालूम सा धीमे-धीमा खौफ़ गला दबोचने लगता. चुपके-चुपके गिनती की आठ-दस लडकियां एक-दूसरे के करीब खिसक आतीं. घरों की याद दिल में सुलग उठती और बेइख्तियार सर जोड़कर आंसू बहाने शुरू कर दिए जाते. आंसू पोंछे जाते और फिर घुल-मिलकर जीने की कोशिश शुरू हो जाती ... वही लम्बा-चौड़ा मकबरे की तरह सुनसान हॉस्टल, जहां छुट्टियां गुजारनी थीं. फिर घुटन और बढ़ गयी. खामोशी गहरी हो गयी. एक ख़ला सी दिलों में फैलने लगी. उसी ख़ला में आवाज़ आई - 

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं ...

"चौंककर जो हमने देखा तो यह चॉकलेट-जैसी सोंधी रंगत वाली महमूदः थी जो हम सब से दूर दरी के कोने पर हाथों का तकिया रखे अपनी आंसू-भरी आवाज़ में गुनगुना रही थी. फिर तो सितारे टूटने लगे, मोतियों की लडियां ठेस से बिखरकर दुपट्टों में उलझ गईं, सीनों में हूकें उठने लगीं. लेकिन जब शोले भड़क उठे, पैमाने छलक पड़े और सीनों के ज़ख्म महक उठे तो ड्रामा शायरी की हदों से गुज़रकर भौंडे किस्म की भों-भों में फिसल आया. वह धूम धाम की सफ़े-मातम बिछी कि मुहर्रम मंद पड़ गए."

"ये नज़्म मजाज़ की किताब आहंग से पढी गयी थी. इस किताब की फिर इतनी चाहत बड़ी कि ईदी-बकरीदी नुमाइश के पैसों से छः-छः सात-सात कापियां खरीद डालीं. तोहफे हैं तो आहंग के. गरज सारे बोर्डिंग में आहंग चल पड़ी. दिलो-दिमाग पर कुछ इस तान से आहंग छाई कि मालूम होता था कोई वबा बोर्डिंग पर टूट पड़ी है. यहाँ तक कि कान पाक गए, सुनते-सुनते जी मतला उठे."

'छिः तौबा है, तुम तो मर जाओ उस पर जाकर.'

'पढ़ना-वढ़ना छोडो जी, उसके दर पे धरना दे दो जाके.'

'सफ़िया (मजाज़ की बहन) से कहो, तुम्हारी शादी करा दे.'

'वाह तुम न कर लो शादी.'

"कड़वे-कड़वे जुमले चलते, जो जल जाते और मुंह सूज जाते. 'ये सब जिन्सी भूक है. जहाँ लड़के का नाम सुना, मर मिटीं,' -नाक पे ऐनक लगाए टीचर्स बड़बड़ाईं  - 'ज़ेहनी गिलाज़त' - ये लीजिये मज़ाक ख़त्म, जुर्म साबित, मुजरिम सहम कर रह गए. होंट साकित हो गए. मगर दिल लर्जां. यहाँ कमबख्त शाइर से जान न पहचान. सरोकार ही कब था शायरी से? जो रिश्ता क़ायम हो चुका था, वो क़ायम रहा. उसे तानो-तिश्नों की संगबारी न तोड़ सकी."

(जारी) 


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