Sunday, February 7, 2016

मजाज़ और मजाज़ - 5

मजाज़ का विकास अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के वातावरण में हुआ. यहीं से उन्होंने बी.ए. किया, यहीं से उन्हें शयराना शोहरत मिली. यहीं वे हयातुल्लाह अंसारी, सब्त हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी, अली सरदार ज़ाफ़री, जां निसार अख्तर और जज़्बी जैसे ख्याति पाने वालों के सहपाठी रहे. यहीं उनकी शायरी में क्रांतिकारी और राष्ट्रीय भावों का समावेश हुआ. यहीं के मादक वातावरण में उनके हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा. अलीगढ़ की मेरिस रोड पर, जिसे सिविल लाइन्स जैसी मनोरंजक और सौन्दर्यस्थली समझा जाता है, मजाज़ का परिवार रहता था. यह स्थान सौन्दर्य-उपासकों के मनबहलाव के लिए कलकत्ते की चौरंगी और दिल्ली का कनॉट प्लेस था. इसी मेरिस रोड पर यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसरों के बंगले, गर्ल्ज़ कॉलेज और गर्ल्ज़ हॉस्टल्स थे.  सड़क के दोनों तरफ़ आम और जामुन के वृक्षों की क़तार, बहती हुई नहर, पपीहे की पीहू-पीहू, कोयल की कूक और अँधेरे में जुगनुओं की चमक से ऐसा मादक और रोमांचक वातावरण रहता था कि चन्द्रमुखियों और छ्बीलों को बरबस सैर के लिए खींच लेता था. फिर मजाज़ तो इस रंगीन और नशीली रोड पर रहते ही थे.

इसी रंगीन माहौल में सराबोर रहकर उन्होंने 'नज़रे-अलीगढ़' उन्नीस अशआर की नज़्म कही, जिसके कुछ शेर यूं हैं -

हर आन यहाँ सहबा-ए-कुहन इक साग़र-ए-नौ में ढलती हैं
कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है

यां हुस्न की बर्फ़ चमकती है, यां नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ इक नगमा है, हर अश्क यहाँ इक मोती है

हर शाम है शाम-ए-मिश्र यहाँ हर शब है शबे-शीराज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ

यह दश्त-ए-जुनूं दीवानों का यह बज़्म-ए-वफ़ा परवानों की
यह शहर तरब रूमानों का, यह ख़ुल्द-ए-बरी अरमानों की

इस फर्श से हमने उड़-उड़ कर अफ़लाक के तारे तोड़े हैं
नाहीद से की है सरगोशी परवीन से रिश्ते जोड़े हैं

इस बज़्म में तेगें खींची हैं, इस बज़्म में सागर तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं

इस बज़्म में नेज़े फेंके हैं इस बज़्म में खंज़र चूमे हैं
इस बज़्म में गिर-गिर तड़पे हैं, इस बज़्म में पीकर झूमे हैं

यां हमने कमन्दें डाली हैं, यां हमने शब खूं मारे हैं
यां हमने कबाएं नोची हैं, यां हमने ताज उतारे हैं

यह था वह मादक और रसीला खुशी से भरा माहौल जहाँ सौन्दर्य-पिपासु आँखों से पीते थे और झूमते थे. इसी आनंद-विभोर क्रीड़ास्थल में मजाज़ की शाइरी ने अंगड़ाईयाँ लीं, यहीं जवां हुए और यहीं मजाज़ किसी के नैन-बान से घायल हुए.

इश्क़ करते हैं उस परीरू से
'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं

मजाज़ भी इश्क़ के मामले में मीर जैसा ही दीवानापन कर बैठे.

(जारी)       

1 comment:

Reena Pant said...

आभार ,इतनी सूंदर पोस्ट के लिए।उर्दू शब्दों का अनुवाद मिल जाता तो ज़ायका दुगुना हो जाता।