कल मैंने अस्ताद देबू के उस नृत्य की एक झलक पेश की थी जो उन्होंने ऋषिकेश में हुए कार्यक्रम 'लहर लहर कबीर' में किया था. उसी पोस्ट में मैंने भाई शिवप्रसाद जोशी के के लेख का ज़िक्र किया था जिसे उन्होंने उस कार्यक्रम को देखने के बाद लिखा था, बराय मेहरबानी उन्होंने वह लेख मुझे अभी अभी मेल से भेजा है.
आपकी खिदमत में रखता हूँ-
अस्ताद
देबू के नृत्य में कबीर
-शिवप्रसाद जोशी
वह
नृत्य की पारंपरिक संरचनाओं में विखंडन था. उसमें परंपरा का लोच इस क़दर समाया हुआ
था कि वो उत्तर आधुनिक भी नहीं था. वो एक आधुनिक नृत्य था जिसमें कबीर की परंपरा
से आया विद्रोह आड़ा तिरछा होकर छटपटाता रहता था. अस्ताद देबू ने शायद पहली बार
कबीर की रचना को भंगिमा दी थी.
कबीर
इस तरह से भी भंगिमा में भी देखे जा सकते हैं, ये अस्ताद देबू ने अपनी विनम्र और
विकट प्रस्तुति में दिखलाया.
ऋषिकेश
में योगी अरविंद फ़ाउंडेशन के कार्यक्रम लहर लहर कबीर में ये एक प्रस्तुति
थी. वहां कबीर को सबसे निकट से गाने वाले कुमार गंधर्व की पत्नी वसुंधरा कोमकली,
उनकी बेटी कलपिनी कोमकली, छन्नुलाल मिश्र, शुभा मुद्गगल, प्रह्लाद टिपाणिया भी थे.
गंगा नदी पर मंच बना था.
कबीर
की जो लहर पछाड़ें खाती हुईं कभी बहुत शांत आवेग में हमारी चेतना पर उतरती थी, उस लहर
के सबसे पास जाने का साहस अस्ताद देबू ने उस रात किया. प्रकाश का सुंदर व्यवस्थित
विधान, टेप से गूंजता कबीरवाणी का आलाप और मंच पर बीचोंबीच मौजूद देबू. समस्त
कलात्मक विधाओं को आत्मसात करते हुए उनका नृत्य प्रारंभ हुआ. कबीर ने कहा है - रूप
रेख जेहि है नहीं, अधर अधरे नहिं देह, गगन मंडल के मध्ये रहता पुरुष बिदेह....
अस्ताद
देबू इस बिदेह की रचना अपने नृत्य में कर रहे थे. वो उसे दिखाकर भी नहीं दिखाना
संभव कर रहे थे. यूरोप से सूफ़िज़्म से भारतीय नृत्य विधाओं से अस्ताद देबू ने कई
चीज़ें बटोरी हैं. उनके नृत्य में हड़बड़ी नहीं है. वो एक शांत तल्लीनता के साथ
मंच में हर तरफ़ जाते हैं. सफ़ेद लिबास में जैसे एक रुह यहां से वहां भटकती हुई.
अस्ताद
देबू मंच के हाशियों पर चले गए. उन्होंने अपने नृत्य के महत्त्वपूर्ण मोड़ उन्हीं
ख़तरनाक दुर्गम हाशियों पर निर्मित किए. कुछ इंच की जगह थी. मंच और नदी के बीच.
वहां वो ख़ुद को साध रहे थे और कबीर को. हम लोग घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए दर्शक
नृत्य और कबीर और साहस और संतुलन को सांस रोक कर देख रहे थे. रोशनियां नहीं थी.
रात का कालापन नहीं था. नदी की लहरों का कंपन नहीं दिखता था. उस पर गिरती
झिलमिलाहटें नहीं दिखती थी. एक परछाई दिखती थी. बस एक भटकाव. न जाने वो हमारे ही
भीतर घुमड़ता था और तैरता रहता था.
मंच
के पिछले कोने पर जहां एक पांव भर की जगह थी पानी और मंच के दरम्यान वहां अस्ताद
देबू नृत्य में दुस्साहस जोड़ रहे थे. कबीर को साबित करते हुए मानो. तकाज़े की
लकीर दुनियादारी की लकीर जीवन और मृत्यु की लकीर मुश्किलों की लकीर से बेफ़िक्र
नृत्य में कबीर की साफ़गोई को प्रकट करते हुए.
पता
चला किसी अप्रिय स्थिति के लिए गोताखोर पुलिस के जवान तैनात थे. लेकिन अस्ताद देबू
ने अनुशासन, संतुलन, धैर्य और सिमिट्री का ऐसा जादू बुना हुआ था कि बड़ी सहजता से
वो इस पार आ गए. मंच की परिधि के भीतर आ गए. अपनी पोशाक को लहराते हुए जैसे एक छवि
से अनेक छवियां सृजित करते हुए और आख़िर में मंच से उतरकर पानी के पास उनका
प्रणाम.
इस
सोए हुए अहंकारी स्वार्थी ईर्ष्यालु असहिष्णु होते जाते समाज में कबीर की उपस्थिति
की सार्थकता बनाए रखने के लिए लहर लहर कबीर जैसे कार्यक्रम उपयोगी हो सकते
हैं. ये समाज जो देखते ही देखते कहां से कहां जाता है. नफ़रत, बेईमानी, अन्याय और बर्बरता
की ओर, दुष्टताओं को नष्ट करने का साहस छोड़कर भयग्रस्त और उदासीन होते जाने की ओर
और उन्हें क़िस्मत या नियति कहकर उन्हें जगह देते जाने की ओर. इस विकार और कुटिल
विरोधाभास को समझने के लिए विचार और जीवन में भी लहर लहर कबीर जाना होगा जानना
होगा.
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