Friday, February 26, 2016

बुद्ध और गूलर के पेड़ों को कभी नहीं हुई दातून की ज़रुरत

सुमना रॉय

सुमना रॉय से मेरी पहचान उतनी ही है जितनी कविता के एक पाठक की एक कवि से हो सकती है. सुमना की कविताओं से मेरी पहचान मेरी दोस्त अरुंधती घोष की मार्फ़त संभव हुई. पाठकों को याद होगा कुछ समय पहले अरुंधती घोष की कई कविताओं का हिन्दी अनुवाद कबाड़खाने पर छापा गया था और उन्हें पाठकों ने हाथो-हाथ लिया था. उन्हीं की फेसबुक वॉल पर मुझे सुमना की दो कविताएं पढने को मिलीं जिनकी थीम मेंडलीफ़ की पीरियोडिक टेबल के दो रासायनिक तत्व - कैल्शियम और लोहा थे. उन्हें पढ़ना एक नयी तरह की रचना प्रक्रिया से गुज़रना था जो चीज़ों को देखने की एक बिलकुल अलहदा और खिलंदड़ी से भरे तर्क से लैस दृष्टि देती है. उसके बाद उनकी कई अन्य कविताओं से रू-ब-रू हुआ.   

खैर. मैंने सुमना से उनकी कुछ कविताओं को हिन्दी में अनूदित करने की अनुमति चाही तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. अंग्रेज़ी भाषा में लिखने वाली सुमना की रचनाएं देश-दुनिया की नामी पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित हो चुकी हैं और आधुनिक कविता के सजग दायरों में उनकी उपस्थिति को दर्ज किया जाता रहा है. उनकी कुछ कविताएं मैं आज से आपके साथ साझा करने जा रहा हूँ.

सुमना रॉय जलपाईगुड़ी गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज के मानविकी विभाग में पढ़ाती हैं. उनके पहले उपन्यास 'लव इन द चिकन्स नेक' को मान एशियन लिटरेरी प्राइज़, 2008 के लिए नामित किया गया था.  सुमना के बारे में मैं और भी बताना चाहता हूँ लेकिन वह समय आने पर. फिलहाल पढ़िए पेड़ों को विषयवस्तु बनाकर लिखी गईं उनकी तीन कविताएं. 


विन्सेंट वान गॉग की पेंटिंग 'लार्ज प्लेन ट्रीज़' (1889)


पेड़ों के परवर्ती जीवन और उनके प्रेमी

-सुमना रॉय


एक.

(जगदीश चन्द्र बोस का घर, मायापुरी, दार्जिलिंग)

मैं यहाँ एक विदेशी भाषा सीखने आई हूँ -
होनी चाहिए पौधों की कोई मातृभाषा?
आदिवासियों के लिए पेड़ और घर के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द
समान थे.
और सो यह पहाड़ी घर जगदीश चन्द्र बोस का.
आसान है इसे किसी लोककथा में बदल देना,
कि वैज्ञानिक को पेड़ के रूप में पुनर्जीवित हुआ माना जाय.
चम्पा के सात भाइयों की तरह?
लेकिन उन्हें यातना मिली थी, बोस को नहीं.
मुश्किल होता है किसी पेड़ के इतिहास के बारे में सोच पाना
उसके भीतर किसी आदमी के बगैर. पेड़ की जगह आदमी, कथा की जगह पेड़.
दार्जिलिंग के लॉयड्स बोटैनिकल गार्डन में
मैं आप्रवासियों को तलाशती हूँ, भली तरह यात्रा करने वाले पौधे
जो शायद बोस की प्रेरणा रहे होंगे -
‘जीवित चीज़ें होते हैं पौधे’, विचार जो अब
सूक्ति है पाठ्यपुस्तकों में.
पहाड़ी चढ़ाई के मेरे रास्ते में घास की ख़ुदकशी है, मिट्टी की
ख़ामोशी है.
कभी-कभी एक दूसरा ही समय-क्षेत्र – देर से जागा करते हैं फूल.
मैं सोचती हूँ मिथकों की बाबत –
वैज्ञानिकों का भुलक्कड़न, 
कटहल के शिशु, जैसे यामिनी रॉय की ‘माँ और शिशु’,
गेछो भूत, बंगाली पेड़ों के प्रेत,
मौसमी पौधों का अनमनापन.
क्या ये शंकुवृक्ष याद करते होंगे बोस को?
या दीवारों पर की काई, इंतज़ार करने की सज़ा?
खिड़की एक आईना है बोस के अपर्याप्त बैठकखाने में.
साफ-सफाई ने इसके साथ बड़ी हिंसा की है,
घास अब केवल दूसरी तरफ़ हरी है.
लकड़ी के मकान में एक भी बर्तन या गुलदान नहीं है.
अपनी ही हैरत से रुंध जाता है मेरा गला – मेरे भीतर उगने लगता है एक शवदाहगृह.
पौधों के व्यक्तित्वों का एक इतिहास भर होता है वनस्पतिविज्ञान.
   
दो.

शक्ति चटोपाध्याय का घर, बहारू, दक्षिण चौबीस परगना

‘तुम साधारण वर्ग से हो या अनुसूचित जाति से?’
बहारू में सुपारी के एक पेड़ से पूछा गया एक सवाल है यह.
शक्ति चटोपाध्याय पूछ सकते थे यह सवाल,
अलबत्ता क्या वे पेड़ के तने पर इसे उकेरते किसी
असुरक्षित प्रेमी की तरह,
सरकारी जनगणना की सूची में तब्दील करते उसकी छाल को?
शक्ति के हरे कमरे की जगह, मुझे दीखता है लाल-
कृष्णचूड़ के नारंगी फूलों में जमा हुआ मिट्टी का रक्त,
पेड़ धरती का हीमोग्लोबिन चूसती एक जोंक.
मुर्दाघर होते हैं बहारू के खेत हर सुबह;
जमादार फूलों के शवों को इकठ्ठा करता है धरती के
सामूहिक ताबूत में.
शक्ति के पुराने घर के नज़दीक, पत्तियां हिलती हैं झंडों जैसी,
एक बुरी मनोदशा की तरह, विचारों की दिशा के बरखिलाफ़.
शक्ति जानते थे पेड़ों के कारण
मानवीय जगहों में उपजने वाले अजनबियों के भय को - बिस्तरे, बसें, गुसलखाने.
मैं अचानक चीन्हती हूँ आत्मघाती दीखते पेड़ों को,
शक्ति ने शायद झिड़का होता उन्हें.
‘क्या बगीचा अपने भीतर के हर पौधे को जानता है?’
उन्होंने अपनी विख्यात कविता में पूछा था, याद है तुम्हें?
बस में चढ़ती हुई मैं जीवन बीमा पॉलिसियों के बारे में सोचती हूँ 
जिन्हें धुत्त कवि ने सम्भवतः खरीदा होगा इन पेड़ों के लिए.
बाद में, पार्कों के भीतर, मुझे फ़क़त सरकटी झाड़ियाँ दीखती हैं,
डराई गयी घास पर खड़े हरे कनिष्क.
हर पेड़ एक लोककथा होता है.
किसी-किसी से ही गिरते हैं उपदेश पत्तियों की मानिन्द.

तीन.

बोधिवृक्ष, बोधगया

यहाँ आप अपने दांत साफ़ किये बगैर आ सकते हैं -
बुद्ध और गूलर के पेड़ों को कभी नहीं हुई
दातून की ज़रुरत.
एम्बुलेंस के साइरनों की तरह जगहों के घेरे रहने वाले मिथक -
रोगी, तीर्थयात्री और पर्यटक सारे एक से होते हैं.
आप पेड़ों के पास इसलिए आते हैं कि इंतज़ार की पोर्नोग्राफ़ी से बच सकें.
पेड़ के नीचे छांह और छाया के दरम्यान के पट्टीदार मिश्रण में
बैठे रहने में कोई बात तो होनी चाहिए.
दूसरे पुरुषों ने चुना जंगल में देशनिकाला, वनवास -
राम, पांच पांडवों और उनकी पत्नियों ने.
केवल सिद्धार्थ आये एक अकेले पेड़ के पास, वासना से बचने को.
जंगल छिपने की जगह होता है जहां पेड़ों के साथ प्रतियोगिता करते हैं मनुष्य.
सो गौतम ने चलना बंद कर मूँद लीं अपनी आँखें.
आँखों, टांगों, कंघियों और शब्दों की व्यर्थता –
यह सब पेड़ से सीखा बुद्ध ने.
आज, केवल बम हैं जीवित बुद्ध.
जब गया में एक फटा, सारे भाग गए थे,
सिवा पेड़ों के.
क्योंकि मृत्यु मांग करती है चलने की.
फिलहाल, पल्लवित होने के की खीझ के बाद,
मैं केवल ढूंढती हूँ पेड़ का हृदय.
बगैर बीज के फल होती हैं बंदूकें,
बगीचों में भरे पड़े हैं दगाबाज़ पेड़.
अब मुक्त हूँ मैं.
सिर्फ मैं जानती हूँ कि बुद्ध है पेड़.
और यह कि एक पेड़ थे बुद्ध.

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