Wednesday, February 3, 2016

रीपोस्ट : हुकुम सदर की फन्टश फूं

आठ साल पुरानी यह पोस्ट मित्र और बड़े भाई आशुतोष बरनवाल के लिए खासतौर पर लगाई जा रही है.


हुकुम सदर की ...
बीसेक साल पुरानी बात होगी. नैनीताल में पढ़ते हुए जब भी मौका मिलता था हम दो - चार दोस्त अक्सर रानीखेत की तरफ़ निकल जाया करते थे. रानीखेत से हम दोस्तों का अपनापा नैनीताल में पढ़ने वाले अपने दीप भाई की वजह से पैदा हुआ था और अब भी क़ायम है. दीप भाई रानीखेत के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते हैं.

ख़ैर उन दिनों नैनीताल में पढ़ाई करते हुए, हमारी आवारागर्दी में शराब नामक तत्व की नई नई घुसपैठ हुई थी और झूठ क्यों कहूं उसमें काफ़ी मज़ा आने लगा था. शराब महंगी होती थी और पैसे नहीं होते थे. जैसे तैसे महीने में एकाध बार 'मिलौचा' करके चार-पांच यार लोग अद्धा खरीद लाते थे. उसी में बाका़यदा पार्टी हो जाया करती थी. तलब अलबत्ता हमेशा अधूरी ही संतुष्ट हो पाती थी.

इन विषम परिस्थितियों में दीप भाई रानीखेत में मिलने वाली इफ़रात दारू का आईना झलकाते झलकाते हमें जब तब वहां ले जाया करते थे. रानीखेत में कुमाऊं रेजीमेन्ट का मुख्यालय है और रानीखेत शहर देश के बचे-खुचे कैन्टोनमेन्टों में है. जाहिर है फ़ौजी भाइयों की मेहरबानी से सस्ती दारू की सप्लाई वहां सदैव ज़ोरों पर रहती है. यह शराब सस्ती होने के साथ साथ बिना मिलावट की भी होती थी. सुधीजन 'आर्मी की है' जुमले का महात्म्य समझते होंगे.

रानीखेत क्लब में हर बृहस्पतिवार को सिविलियनों के लिये चार बोतलें ऑफ़ीसर्स मैस से आती थीं. क्लब में एकाध साल पहले आग लगी थी और वह बिल्कुल उजड़ा हुआ रहा करता था. सन १९३२ से वहां काम कर रहे बहादुरदा (जो नब्बे से ऊपर के हो चुकने के बावजूद आज भी कार्यरत हैं) नाप नाप कर चार रुपये प्रति पैग के नियत रेट पर तबीयत हरी करने का सत्कर्म किया करते थे. चूंकि क्लब वीरान रहा करता था सो ज़्यादातर लोग वहां आग लगने के बाद से आना बन्द कर चुके थे और बृहस्पतिवार के इस कार्यक्रम की ख़बर बहुत गोपनीय तरीके से कुछ ही लोगों को मालूम थी. इस ख़बर को जानने वाले भाग्यशालियों में दीप भाई के कारण हम भी शामिल थे.

अक्सर बृहस्पतिवारों को हम लोग किसी न किसी बहाने से रानीखेत निकल जाया करते थे. बृहस्पतिवार की आधी रात को क्लब से मीठी नीमबेहोशी में बाहर निकलना रूटीन में शुमार हो गया था. हम लोग अक्सर वापस दीप भाई के घर की तरफ़ पैदल जाते हुए आर्मी स्कूल और एम ई एस कॉलोनी के आगे से गुज़रते थे. पहरेदार गश्त लगाया करते थे और हमें दूर से आता देख कर पहले सीटी बजाते थे, फिर ज़ोर से कुछ शब्द कहते थे और हमें नज़दीक से देख लेने के बाद उनका व्यवहार सामान्य हो जाता था. उनके बोले गये शब्द शुरू में मेरे ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ा करते थे. असल में जानने की न ताब होती थी न इच्छा.

बाद में ध्यान देने पर अस्पष्ट तरीके से 'हुकुम सदर की फन्टश फूं' जैसा कुछ लगातार सुनाई देने लगा. अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण यह काफ़ी आकर्षक लगने लगा.

एक बार मैं इस बात का ज़िक्र कई साल बाद अपने एक कर्नल दोस्त से कर बैठा. वह सुनकर हंसते हंसते दोहरा हो गया. सामान्य हो चुकने के बाद उसने जो बताया उसका सार कुछ यूं था:

इंग्लैण्ड में युद्ध के समय, रात को अपनी छावनियों की पहरेदारी कर रहे सैनिक को जब भी किसी तरह की मानवीय आहट सुनाई देती थी तो वह पूछा करता था : "Who comes there? Friend or foe?" इस की प्रतिक्रिया में दूसरी तरफ़ से मिलने वाले के उत्तर पर ही पहरेदार की अगली कार्रवाई निर्भर किया करती थी.

"Who comes there? Friend or foe?" ही इस पोस्ट के शीर्षक का ध्वन्यानुवाद है.

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