जलसा से शेफ़ाली फ्रॉस्ट की कविताएं – 1
फ़ोटो urbanruralfabric.blogspot.com से साभार |
क्या
?
-शेफ़ाली फ्रॉस्ट
क्या
यह चौराहे पर सिटपिटाई हुई औरत,
हरे
कनटोप में संभाले दुधमुंहा बच्चा,
हार
सकती है अपने पांच पति, लाल
बत्ती के जुए में ?
उतार
सकती है गले में बंधा रतजगों का तमगा ?
बढ़
कर आगे उलट सकती है अमरुद वाले का ठेला,
'दो रूपए
का एक दो, वर्ना शोर मचाउंगी!
तुम
लुटेरे हो, छीन
रहे हो बच्चे से मेरे पेड़ पर झूलने का हक़,
और
टहनी पर लटक जाने का हक़,
जो
सिर्फ़ मेरा है !'
क्या
तोड़ सकता है,
रोडवेज़
की नीली बस का ड्राइवर रामगुलाम,
चढ़ा कर पहिया,
सूर्या
प्रॉपर्टीज़ की खाली पड़ी, दस
मंज़िला इमारत,
जहाँ
घुप्प अँधेरे में चाँद की अर्थी,
दे
रही है कन्धा उन पांच परिवारों को,
जो
जकड कर बाजुओं में एक दूसरे,
फिर तीसरे को,
मर
गए शहर की सर्दी से,
उन्हें
और कोई घर नहीं मिला
फैब
इण्डिया की सुनहरी किनारी निगल रही है उस लड़की का दुपट्टा,
जो
बीच ट्रैफिक में खड़ी है मेरे लिए,
कटोरा
भर कड़वे तेल से भरे मीठे उलाहने के साथ,
'अठन्नी
डाल रही हो, यह है तुम्हारा शनि का दान?'
दस
रूपए में पांच बेच रहा है बॉल पेन, नारियल और रूमाल,
खटखटा
कर बंद गाड़ियों के शीशे,
बाजू
से नाक पोंछने वाला अधनंगा लड़का ।
वो
सड़क किनारे पैदल चलता,
पचास
पैसे का एक गिलास पानी पी कर,
कुल्ले करता,
तेल
लगे बालों में कंघी घुमाता आदमी,
उतार
सकता है धूल से भरा चेहरा,
जो
शहर की गलियों ने उसे बिना पूछे पहनाया है ?
उड़
सकता है क्या राजीव चौक पर, चीर कर
मैट्रो की छत,
पीली
लाइन की भीड़ में अटका, वो मॉल
में टाइल पोंछने वाला लड़का,
जिसने
आज लड़की देखी, नवेली
!
जो
हवाई जहाज में बैठ कर कल जा रही है सिंगापोर,
सधे
हुए मांबाप के साथ,
जहाँ
वो ढांक देगी उबासियों से अपनी
आइफ़िल
टावर, स्टेचू
ऑफ़ लिबर्टी, लीनिंग टावर ऑफ़ पीज़ा,
और
वो जितनी भी इमारतें हैं जिन्हे देखा है उस लड़के ने,
कुओनी
ट्रेवल के परचे में,
पहली
फ्लोर के एस्कलेटर से निकलते ही,
बास्किन रौबिन के बाजू वाले बाथरूम के पास
छोटी, काली गाड़ी में चालीस पार की औरत,
जो
हरी बत्ती के बीचों बीच
रिवर्स
गियर से निकाल रही है, बीस
साल में पहली बार,
पति
की नामुरादी, ससुर
का गुस्सा,
बिना
सिन्दूर की माँग,
बच्चे
की फीस, चावल
के दाम,
बिफ़र
रहा है कमख़याली पर उसकी
वो
हरी पट्टी वाले स्वेटर का आदमी,
ऑफिस
कैब से उगल दिया जाता है जो
साइबर
पार्क की सीढ़ियों पर,
अंदर
और अंदर,
नीचे
और नीचे,
जो
हर लंच में बाहर आ कर गुमटी पर कॉफ़ी पीता है, शकरकंदी खाता है,
ठहाके
लगाता है उन पट्टियों पर,
जो
रौंद रौंद कर उसका सीना, सिलाई
और ऊन से
भेजती
हैं चिट्ठियां, हर
महीने की पहली तारीख,
"बाथरूम
की छत धसक गयी पिछली बरसात
ब्लड
टेस्ट वाले का उधार चुकाना है इस बार ।"
उतार
सकता है कपड़े,
खुले
आसमान तले, वो
बंगाली रिक्शेवाला
जो
आगे वाले ऑटो की पीली पिछ्वाड़ी पर देखता है,
कोकाकोला
पीती हीरोइन,
झटकता
है माथे का पसीना, बाएं
हाथ की मुड़ी हुई उंगली से,
एक
हाथ से घुमाता टेढ़ा पहिया,
दूसरे
से उठाता है, कीचड़
में गिरा मोटा आदमी,
तरेरती
है खटकती आँख,
टैरिलीन
की पीली साड़ी में उसकी जोरू,
'ए जी,
इससे तो गाँव क्या बुरा था?'
वो
आदमी मुँह से निकालता हुआ झाग,
जो
खड़ा है हाथ लपेटे उखड़ी दीवार के प्लास्टर से,
जिसके
शरीर के नीचे का हिस्सा,
गीला
हो रहा है,
और
जो अब नहीं सोचता कि
सड़क
पार करती धानी साड़ी में लिपटी औरत उसे देख कर मुहं बिचका रही है,
कैसे
कहे उस बड़ी गाड़ी में चढ़े आदमी से,
"तेल
लगी मुस्कान से तुमने दिल नहीं खींचा मेरा!
भर
दिया बस्ते में मेरे
वो
ढेर सारा आक्रोश,
जो
काफ़ी था पहनने के लिए कल !
आज
उतर रहा है सड़कों पर उनींदा,
सैंकड़ों
पहियों की मशक्कत के बाद,
टैम्पो
के पिछवाड़े में,
पहिये
की रौंद में,
कॉफ़ी
की दुकान में,
शनि
के दान में,
अमरुद
के पेड़ में,
मैट्रो
की चेन में,
भीड़
इतनी है लेकिन,
आदमी
कुल्ला करे की तक़रार,
प्यार
करे कि मन भर सिन्दूर डाल कर
ताकता
रहे आसमान,
निगल
जाता है यह शहर
खिड़की
से आँख,
दरवाज़े
से धड़,
अकेले
ही अकेले,
अलग
ही अलग ।"
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