अब एक कल्ट बन चुकी अब्दुल हलीम शरर की किताब
‘गुज़िश्ता लखनऊ’ से आपको चन्द हिस्से आज से पढवाने जा रहा हूँ. आनंद लें –
दिल्ली में बिरयानी का ज़्यादा रिवाज़ है और
था. मगर लखनऊ की सफ़ाई-सुथराई ने पुलाव को उस पर तरजीह दी. आम लोगों की नज़र में
दोनों लगभग एक ही हैं, मगर बिरयानी में मसाले की ज़्यादती से सालन मिले हुए चावलों
की शान पैदा हो जाती है और पुलाव में इतना स्वाद उर इतनी सफ़ाई-सुथराई थी कि
बिरयानी उसके सामने मलगोबा सी मालूम होती है. इसमें शक नहीं कि मामूली किस्म के
पुलाव से बिरयानी अच्छी मालूम होती है. वह पुलाव खुश्का (उबाले हुए चावल) मालूम
होता है जो खराबी बिरयानी में नहीं होती. मगर बढ़िया किस्म के पुलाव के मुकाबले
बिरयानी नफ़ासतपसंद लोगों की नज़र में बहुत ही लद्धड़ और बदनुमा खाना है. बस यही
फर्क था जिसने लखनऊ में पुलाव को ज़्यादा प्रचलित कर दिया.
पुलाव वहां कहने को तो सात तरह के मशहूर
हैं, इनमें से भी गुलज़ार पुलाव, नूर पुलाव, कोको पुलाव, मोती पुलाव और चम्बेली
पुलाव के नाम हमें इस वक़्त याद हैं. मगर सच्चाई यह है कि यहाँ के ऊंचे लोगों के
दस्तरख्वान पर बीसियों तरह के पुलाव हुआ करते थे. मुहम्मद अली शाह के बेटे मिर्ज़ा
अजीमुश्शान ने एक शादी के मौके पर समधी मिलाप की दावत की थी जिसमें खुद नवाब वाजिद
अली शाह भी शरीक थे. उस दावत में दस्तरख्वान पर नमकीन और मीठे कुल सत्तर किस्म के
चावल थे.
गाज़ेयूद्दीन हैदर बादशाह के शासन-काल में
नवाब सालारजंग के खानदान से एक रईस थे – नवाब हुसैन अली खां, उन्हें खाने का बड़ा शौक़ था ख़ास तौर पर पुलाव. उनके दस्तरख्वान
पर बीसियों तरह के पुलाव हुआ करते और वो ऐसी नफ़ासत के साथ तैयार किये जाते कि शहर
भर में उनकी शोहरत हो गयी. यहाँ तक कि रईसों और अमीरों में से कूई उनके मुकाबले की
जुर्रत न कर सका. खुद बादशाह उनसे ईर्ष्या करते थे और खाने के शौकीनों में वह ‘चावल
वाले’ मश्ह्हूर हो गए. नसीरुद्दीन हैदर के शासन-काल में बाहर का एक बावर्ची आया जो
पिसते और बादाम की खिचड़ी पकाता, बादाम के सुडौल और साफ सुथरे चावल बनाता, पिसते की
दाल तैयार करता और इस नफ़ासत से पकाता कि मालूम होता कि बहुत ही उम्दा, नफ़ीस और
फरैरी माश की खिचड़ी है मगर खाइए तो और ही लज्ज़त थी और ऐसा जायका जिसका मज़ा ज़बान को
ज़िन्दगी भर न भूलता.
नवाब सआदत
अली खान के ज़माने में एक बाकमाल बावर्ची सिर्फ चावलों की गुलत्थी पकाता, मगर ऐसा गुलत्थी
जो शाही दस्तरख्वान की रौनक और तत्कालीन
नवाब को बहुत ही पसंद थी. शहर के सारे रईस इसी तमन्ना में रहते थे कि उसका एक
ग्रास खाने को मिल जाए. मशहूर है कि नवाब आसफुद्दौला के सामने एक नया बावर्ची पेश
हुआ. पूछा गया, “क्या पकाते हो?” कहा, “सिर्फ माश (उड़द) पकाता हूँ.” पूछा “तनख्वाह
क्या लोगे?” कहा, “पांच सौ रुपये.”
नवाब ने नौकर रख लिया. मगर उसने कहा, “मैं चन्द शर्तों पर
नौकरी करूंगा.” पूछा, “वो शर्त क्या हैं?” कहा, “जब हुज़ूर को मेरे हाथ की दाल का
शौक़ हो एक रोज़ पहले से हुक्म हो जाए और जब इत्तला दूं कि दाल तैयार है तो हुज़ूर
उसी वक़्त खा लें.” नवाब ने शर्तें भी मंज़ूर कर लीं.
चन्द माह बाद उसे दाल पकाने का हुक्म हुआ. उसने तैयार की और
नवाब को ख़बर की. उन्होंने कहा, “अच्छा दस्तरख्वान बिछा.” मगर नवाब बातों में लगा
रहा. उसने जाकर फिर इत्तला दी कि “खासा तैयार है.” नवाब को फिर आने में देर हुई.
उसने तीसरी बार ख़बर की और इस पर भी नवाब साहब न आये तो उसने दाल की हांडी उठाकर एक
सूखे पेड़ की जड़ में उड़ेल दी और इस्तीफा देकर चला गया. नवाब को अफ़सोस हहा, ढुंढवाया
मगर उसका पता न चला. मगर चन्द रोज़ बाद देखा कि जिस दरख्त के नीचे दाल फेंकी गयी थी
वह हरा-भरा हो गया. इसमें शक नहीं कि इस घटना में अतिशयोक्ति है मगर इससे इतना तो
अंदाजा हो जाता है कि दरबार में बावर्चियों की कैसी कद्र होती थी और अगर कोई
बाकमाल बावर्ची आ जाता तो उसे किस उदारता के साथ रोक लिया जाता था.
(जारी)
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