Wednesday, March 16, 2016

तीस सेर घी में छः परांठे

अब्दुल हलीम शरर की किताब 'गुज़िश्ता लखनऊ' का एक और अंश:

नवाब गाज़ीउद्दीन हैदर
अमीरों का शौक़ देखकर बावर्चियों ने भी तरह-तरह की नयी चीज़ें ईजाद करना शुरू कर दीं – किसी ने पुलाव अनारदाना ईजाद किया, उसमें हर चावल आधा पुलक की तरह लाल और चमकदार होता और आधा सफ़ेद, मगर उसमें भी शीशे की-सी चमक मौजूद होती. जब दस्तरख्वान पर लाकर लगाया जाता तो मालूम होता कि प्लेट में चितकबरे रंग के जवाहिरात रखे हुए हैं. एक और बावर्ची ने नौरत्न पुलाव पकाकर पेश कर दिया जिसमें नौरत्न के मशहूर जवाहिरात की तरह नौ रंग के चावल मिला दिए और फिर रंगों की सफाई और आबोताब अजीब लुत्फ़ पैदा कर रही थी.  इसी यारह ख़ुदा जाने कितनी ईजादें हो गईं जो तमाम घरों और बावर्चीखानों में फ़ैल गईं.


गाज़ीउद्दीन हैदर को जो अवध के पहले बादशाह थे, परांठे पसंद थे. उनका बावर्ची हर रोज़ छः परांठे पकाता और फ़ी परांठा पांच सेर के हिसाब से तीस सेर घी रोज़ लिया करता. एक दिन प्रधानमंत्री मोतमदउद्दौला आगा मीर ने शाही बावर्ची से पूछा, “अरे भाई ये तीस सेर घी क्या होता है?” कहा, “हुज़ूर परांठे पकाता हूँ. कहा, “भला मेरे सामने तो पकाओ.” उसने कहा, “बहुत ख़ूब.” परांठे पकाए. जितना घी खपा खपाया और जो बाकी बचा फेंक दिया. मोतमदउद्दौला आगा मीर ने ये देखकर हैरत से कहा, “पूरा घी तो ख़र्च नहीं हुआ?” उसने कहा “अब ये घी तो बिलकुल तेल हो गया, इस काबिल थोड़े ही है कि किसी और खाने में लगाया जाए.” वजीर से जवाब  तो न बन पड़ा मगर हुक्म दे दिया कि आइन्दा से सिर्फ पांच सेर घी दिया जाया करे, फ़ी परांठा एक सेर घी बहुत है.” बावर्ची ने कहा “बेहतर, मैं इतने ही घी में पका दिया करूंगा.” मगर वजीर की रोकटोक से ऐसा नाराज़ हुआ कि मामूली किस्म के परांठे पकाकर बादशाह के खाने पर भेज दिए. जब कई दिन ये हालत रही तो बादशाह ने शिकायत की कि “ये परांठे अब कैसे आते हैं?” बावर्ची ने अर्ज़ किया “हुज़ूर जैसे परांठे नवाब मोतमदउद्दौला बहादुर का हुक्म है, पकाता हूँ.” बादशाह ने असल वजह पूछे तो उसने सारा हाल बयां कर दिया. फ़ौरन  मोतमदउद्दौला की याद हुई. उन्होंने अर्ज़ किया, “जहाँपनाह, ये लोग ख्वामख्वाह को लूटते हैं.” बादशाह ने इसके जवाब में दस-पांच थप्पड़ और घूंसे रसीद किये. ख़ूब ठोंका और कहा, “तुम नहीं लूटते हो? तुम जो सारी सल्तनत और अरे मुल्क को लुटे जाते हो और वो भी मेरे ख़ासे के लिए, ये तुम्हें नहीं गवार है?” बहरहाल मोतमदउद्दौला ने तौबा की, काँ अमेठे तो खिलअत अता हुआ जो इस बात की निशानी मानी जाती है कि आज जहाँपनाह ने अपना स्नेह भरा हाथ फेरा है. फिर अपने घर आये. उसके बाद उन्होंने कभी उस रकाबदार पर ऐतराज़ न किया और वह उसी तरह से तीस सेर घी रोज़ लेता रहा. 

(जारी)

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