Wednesday, March 16, 2016

आई एम दी ब्रदर-इन-लॉ ऑफ डॉक्टर राजेंद्र शर्मा


दूसरे की महिमा ढोनेवाले
-हरिशंकर परसाई

मैं उनका परिचय कराता हूं. उनका नाम है – रघुनाथ प्रसाद पांडे. मैं कहता हूं ‘आपसे मिलिए. आप हैं श्री रघुनाथ प्रसाद …’ वे बीच में बोल पड़ते हैं – आई एम दी ब्रदर-इन-लॉ ऑफ डॉक्टर राजेंद्र शर्मा. इसके पहले कि मैं उनका नाम पूरा बताऊं, वे डॉ. राजेंद्र शर्मा के ब्रदर-इन-लॉ हो जाते हैं. किसी को भी उन्होंने अपना पूरा नाम मालूम नहीं होने दिया है. लिहाजा जब वे आते दिखते हैं, तो लोग कहते हैं – ‘देखो ब्रदर-इन-लॉ आ रहे हैं!’

ऐसे ही एक निहायत शरीफ आदमी हैं. सारी अच्छाइयां उनमें हैं. बस एक ही खराबी है – उनके ससुर बड़े और मशहूर आदमी थे. यों बहुतों के ससुर बड़े और मशहूर होते हैं. पर कई दामाद अपने ससुर की महिमा ढोने की जिम्मेदारी नहीं लेते. कुत्ता खुशकिस्मत है, जो कि अपने फादर-इन-लॉ को नहीं जानता, ना उनकी महिमा से वाकिफ है. वह अपने ही स्वर में भौंक लेता है. जो दुम हिलाता है, वह भी उसकी अपनी होती है.

ये भले आदमी हर बात पर अपने ससुर का संदर्भ निकाल लेते हैं. फर्नीचर की बात हो रही है, तो वे अपने फादर-इन-लॉ की पसंदगी की बात चला देंगे. सब्जी खरीदते दिख गए, तो मैंने कहा, ‘सब्जी खरीदी जा रही है.’ उन्होंने टमाटर छांटना बंद कर दिया और बताने लगे कि ससुर साहब को कौन-सी सब्जी पसंद थी और वे कहां से मंगाते थे. एक दिन पड़ोस के बीमार बच्चे के लिए डॉक्टर बुलाने जा रहे थे. मैंने पूछ लिया, ‘इतनी फुर्ती में कहां जा रहे हैं?’ वे बोले, ‘वर्मा साहब के लड़के की तबीयत बहुत खराब है. फादर-इन-लॉ जब तक थे, मोहल्ले में किसी को चिंता की जरूरत नहीं थी.’ उधर वर्मा साहब का बच्चा चीख रहा था, इधर ये मुझे बता रहे थे कि ससुर साहब ने किन-किनकी जान बचाई थी. बेचारे अच्छा काम करने निकलते हैं कि रास्ते में फादर-इन-लॉ अटका लेते हैं. अगर उनके घर में कभी आग लग जाए तो वे बुझाने के पहले यह बताएंगे कि फादर-इन-लॉ कैसे आग बुझाते थे. उनकी पत्नी चिल्लाएंगी कि घर फुंका जा रहा है. फायर ब्रिगेड बुलाओ न. ये कहेंगे, ‘ठहर जा. जाता तो हूं… हां, तो एक दिन शाम को फादर-इन-लॉ ने देखा कि घर से धुआं निकल रहा है….’ सोचता हूं एक दिन उनसे कहूं, ‘आपने सुना, वे जो दीक्षित जी हैं न, उन्हें जूते पड़ गए. तब वे कहेंगे, ‘हां कभी-कभी ऐसा मौका आ जाता है. फादर-इन-लॉ को भी कई बार जूते पड़े. मगर फादर-इन-लॉ का जूते खाने का तरीका निराला था.’

हम अपनी जाति की हजारों सालों की महिमा पीठ पर लादे दुनिया के बाजार में घूम रहे हैं. लोग कहते हैं – पूर्वजों की तो बहुत लदी है. कुछ अपनी भी तो रखो. हम जवाब देते हैं, रखने के लिए जगह कहां है? देख लो पीठ पर तिलभर भी जगह नहीं.’                     

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