Thursday, March 10, 2016

तसव्वुर मुलाहिज़ा हो आँखों ने बकरी को भी कुत्ता देखा - पतरस बुख़ारी का व्यंग्य


कुत्ते
– पतरस बुख़ारी

इल्मुल्हैवानत (जीवविज्ञानके प्रोफ़ैसरों से पूछा. सलोतरियों से दरयाफ़त किया. ख़ुद सर खपाते रहे. लेकिन कभी समझ में ना आया कि आख़िर कुत्तों का फ़ायदा क्या  है? गाय को लीजिए दूध देती है. बकरी को लीजिए, दूध देती है और मेंगनियां भी. ये कुत्ते क्या  करते हैं? कहने लगे कि कुत्ता वफ़ादार जानवर है. अब जनाब वफ़ादारी अगर इसी का नाम है कि शाम के सात बजे से जो भोंकना शुरू किया तो लगातार बग़ैर दम लिए सुबह के छः बजे तक भौंकते चले गए.तो हम लंडूरे ही भले, कल ही की बात है कि रात के कोई ग्यारह बजे एक कुत्ते की तबीयत जो ज़रा गुद गुदाई तो उन्होंने बाहर सड़क पर आकर तरह का एक मिसरा दे दिया. एक-आध मिनट के बाद सामने के बंगले  में एक कुत्ते ने मतला अर्ज़ कर दिया. अब जनाब एक कुहनामशक उस्ताद को जो ग़ुस्सा आया, एक हलवाई के चूल्हे में से बाहर लपके और भिन्ना के पूरी ग़ज़ल मक़ता तक कह गए. इस पर शुमाल मशरिक़ की तरफ़ एक क़द्रशनास कुत्ते ने ज़ोरों की दाद दी. अब तो हज़रत वो मुशायरा गर्म हुआ कि कुछ ना पूछिए, कमबख़्त बाज़ तो दो-दो ग़ज़लें लिख लाए थे. कई एक ने क़सीदे के क़सीदे पढ़ डाले, वो हंगामा गर्म हुआ कि ठंडा होने में ना आता था. हमने खिड़की में से हज़ारों दफ़ा “आर्डर आर्डर” पुकारा लेकिन कभी ऐसे मौक़ों पर प्रधान की भी कोई भी नहीं सुनता. अब उनसे कोई पूछिए कि मियां तुम्हें कोई ऐसा ही ज़रूरी मुशायरा करना था तो दरिया के किनारे खुली हवा में जाकर तब्अ-आज़माई करते ये घरों के दरमयान आकर सोतों को सताना कौन सी शराफ़त है.

और फिर हम देसी लोगों के कुत्ते भी कुछ अजीब बदतमीज़ वाक़ये हुए हैं. अक्सर तो उनमें ऐसे क़ौम परस्त हैं कि पतलून कोट को देखकर भूँकने लग जाते हैं. ख़ैर ये तो एक हद तक काबिल-ए-तारीफ़ भी है. इस का ज़िक्र ही जाने दीजिये. उस के इलावा एक और बात है यानी हमें बारहा डालियां लेकर साहिब लोगों के बंगलों पर जाने का इत्तिफ़ाक़ हुआ, ख़ुदा की क़सम उनके कुत्तों में वो शाइस्तगी देखी है कि अश-अश करते लौट आए हैं. जूं ही हम बंगले  के अंदर दाख़िल हुए, कुत्ते ने बरामदे में खड़े खड़े ही एक हल्की सी “बख” कर दी और फिर मुँह-बंद करके खड़ा हो गया.हम आगे बढ़े तो उसने भी चार क़दम आगे बढ़कर एक नाज़ुक और पाकीज़ा आवाज़ में फिर “बख” कर दी. चौकीदारी की चौकीदारी, मौसीक़ी की मौसीक़ी. हमारे कुत्ते हैं कि ना राग ना सुर. ना सर ना पैर. तान पे तान लगाए जाते हैं. कहीं के ना मौक़ा देखते हैं, ना वक़्त पहचानते हैं, गुल-बाज़ी किए जाते हैं. घमंड इस बात पर है कि तानसेन इसी मुल्क में तो पैदा हुआ था.

इस में शक नहीं कि हमारे ताल्लुक़ात कुत्तों से ज़रा कशीदा ही रहे हैं. लेकिन हमसे कसम ले लीजीए जो ऐसे मौक़ा पर हमने कभी सीतागिरी से मुँह मोड़ा हो. शायद आप उस को ताल्ली समझें लेकिन ख़ुदा शाहिद है कि आज तक कभी किसी कुत्ते पर हाथ उठ ही ना सका. अक्सर दोस्तों ने सलाह दी कि रात के वक़्त लाठी छड़ी ज़रूर हाथ में रखनी चाहीए कि दाफे बलियात है लेकिन हम किसी से ख़्वाह-मख़ाह अदावत पैदा नहीं करना चाहते. कुत्ते के भौंकते ही हमारी तबई शराफ़त हम पर इस दर्जा ग़लबा पा जाती है कि आप अगर हमें उस वक़्त देखें तो यक़ीनन यही समझेंगे कि हम बुज़दिल हैं. शायद आप उस वक़्त ये भी अंदाज़ा लगा लें कि हमारा गला ख़ुशक हुआ जाता है. ये अलबत्ता ठीक है ऐसे मौक़ा पर कभी गाने की कोशिश करूँ तो खरिज के सुरों के सिवा और कुछ नहीं निकलता. अगर आपने भी हम जैसी तबीयत पाई हो तो आप देखेंगे कि ऐसे मौक़ा पर आयत-ऊल-कुर्सी आपके ज़हन से उतर जाएगी उस की जगह आप शायद दुआए क़नूत पढ़ने लग जाएं.

बाज़-औक़ात ऐसा इत्तिफ़ाक़ भी हुआ है कि रात के दो बजे छड़ी घुमाते थेटर से वापिस आरहे हैं और नाटक के किसी ना किसी गीत की तर्ज़ ज़हन में बिठाने की कोशिश कर रहे हैं चूँकि गीत के अलफ़ाज़ याद नहीं और नौ मश्की का आलम भी है इसलिए सीटी पर इकतिफ़ा की है कि बेसुरे भी हो गए तो कोई यही समझेगा कि अंग्रेज़ी मौसीक़ी है, इतने में एक मोड़ पर से जो मुड़े तो सामने एक बकरी बंधी थी. ज़रा तसव्वुर मुलाहिज़ा हो आँखों ने उसे भी कुत्ता देखा, एक तो कुत्ता और फिर बकरी की जसामत का. गोया बहुत ही कुत्ता. बस हाथ पांव फूल गए छड़ी की गर्दिश धीमी धीमी होते होते एक निहायत ही नामाक़ूल, ज़ावीए पर हवा में कहीं ठहर गई. सीटी की मौसीक़ी भर थरथरा कर ख़ामोश हो गई लेकिन क्या मजाल जो हमारी थूथनी की मख़रूती शक्ल में ज़रा भी फ़र्क़ आया हो.गोया एक बे-आवाज़ लै अभी तक निकल रही है .तिब का मसला है कि ऐसे मौक़ों पर अगर सर्दी के मौसम में भी पसीना आजाए तो कोई मज़ाइक़ा नहीं बाद में फिर सूख जाता है .

चूँकि हम तबन ज़रा मुहतात हैं. इसलिए आज तक कुत्ते के काटने का कभी इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ. यानी किसी कुत्ते ने आज तक हमको कभी नहीं काटा अगर ऐसा सानिहा कभी पेश आया होता तो इस सरगुज़श्त की बजाय आज हमारा मर्सिया छप रहा होता. तारीख़ी मिसरा दुआइया होता कि “इस कुत्ते की मिट्टी से भी कुत्ता घास पैदा हो” लेकिन..

कहूं किस से में कि क्या है सुग़रा बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक-बार होता

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