Saturday, March 12, 2016

साहिर की मोहब्बतें


एक सरकश से मुहब्बत की तमन्ना
राशिद अशरफ़

साहिर लुधियानवी मुहब्बत के आदमी थे. सरहद के इधर भी और सरहद के उधरभी जो देखता था, साहिर के सह्र में मुबतला हो जाता था .शख़्सियत का सह्र था, सरकशी का या शायरी का,  ख़ुदा जाने लेकिन था जान-लेवा  लेकिन साहिर के लिए नहीं, बल्कि उनके जादू से घायल होजाने वालों के लिए . ज़रा नाम भी तो देखिए कि कैसे कैसे क़द्दावर लोगों के आते हैं. हाजिरा मसरूर भी ख़ुद को न रोक पाई थीं. १९४६ के आख़िर में बंबई के अख़बारात में उनकी हाजिरा मसरूर से मंगनी की ख़बर की इशाअत का तज़किरा हमीद अख़तर  ने अपने ख़ाके में किया है. लेकिन साहिर ही थे जो भाग निकले थे.

सरापा जमाल ही जमाल, इन्किसार ही इन्किसार, लखनऊ की तहज़ीब का नमूना, साहिर को हाजिरा मसरूर से शादी पर आमादा करने में ऐसे उलझे कि ख़ुद को उलझा बैठे और उनकी परेशानी उस वक़्त दो-चंद हुई जब हाजिरा मसरूर की बहनें आईशा जमाल और ख़दीजा मस्तूर उनसे साहिर की शिकायत करने आ धमकें.

साहिर के इस रवैय्ये की वजह से बने भाई को तरक़्क़ी-पसंद तहरीक को नुक़्सान पहुंचने का ख़दशा खाए जाता था. मगर ये कोई पहला मौक़ा तो था नहीं. हमीद अख़तर के मुताबिक़ इस से क़ब्ल अमृता प्रीतम, लता मंगेशकर और सुधा मल्होत्रा सब साहिर की साहिरी के असीर रह चुके थे.

ख़ालसा स्कूल लुधियाना की अशर कौर तो माज़ी का क़िस्सा बन चुकी थी. साहिर की पहली मुहब्बत

सुधा मल्होत्रा से मुआमला ख़त्म हुआ तो एक फ़िल्मी अख़बार ने तबसरा किया था कि साहिर को अपने नाम के साथ स्कैंडल बनाने का शौक़ है. वो मुहब्बत का खेल खेलते हैं और जब ताल्लुक़ात कामियाबी की मंज़िल तक पहुंच जाते हैं तो ख़ुद ही पीछे हट जाते हैं.

एक बरस हुआ जब लाहौर के माहनामा अलहमरा में कराची से ताल्लुक़ रखने वाले अदीब--मुतर्जिम क़ाज़ी अख़तर जूना गढ़ी का एक मज़मून शाय हुआ. क़ाज़ी साहिब लाहौर गए थे और हमीद अख़तर से साहिर लुधियानवी और हाजिरा मसरूर की मंगनी ख़त्म होने का सबब खोज लाए थे. लिखते हैं:

“उर्दू ज़बान की एक मारूफ़ अफ़्साना निगार की जो इन दिनों मुंबई ही में मुक़ीम थीं, मंगनी साहिर लुधियानवी के साथ हो चुकी थी. साहिर को एक ऐसे मुशायरे में शरीक हो कर अपनी शहरा आफ़ाक़ नज़म ताज-महल सुनाना थी जिसमें जोश मलीहाबादी भी शिरकत करने वाले थे जो अलफ़ाज़ के ग़लत तलफ़्फ़ुज़ को कभी बर्दाश्त नहीं करते थे. चूँकि साहिर लुधियानवी अहल--ज़बान नहीं थे लिहाज़ा उन्होंने अपनी नज़म ताज-महल में इस्तिमाल किए गए लफ़्ज़ मक़ाबिर के सही और दरुस्त तलफ़्फ़ुज़ के बारे में इन ख़ातून से राय तलब की. उन्होंने बताया कि सही तलफ़्फ़ुज़ मक़ाबिर यानी ब के नीचे ज़ेर आएगा. गोया ये मिसरा यूं हो जाएगा: मुर्दा-शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली. जोश साहिब ने साहिर को जो मलाहयां सुनाई होंगी, उनका अंदाज़ा आप इस वाक़े से लगा सकते हैं कि साहिर ने फ़ील-फ़ौर इन ख़ातून से अपनी मंगनी के ख़ातमे का ऐलान कर दिया.”

ख़ैर हाजिरा मसरूर का ये मुआमला तो साहिर लुधियानवी की उफ़्ताद तबा के बाइस ख़त्म हुआ लेकिन फिर अमृता प्रीतम को क्या कहिये कि शादी तो इमरोज़ से की और वही इमरोज़, सलीम पाशा को एक मुलाक़ात में बताते हैं कि ये जानते हुए भी कि अमृता साहिर से प्यार करती है, मैं अमृता से प्यार करता हूँ. मैं उसे स्कूटर पर बिठा कर स्टूडियो ले जाता तो वो मेरे पीछे बैठी मेरी कमर पर साहिर साहिर लिखती रहती. अमृता ने यादों के लम्स में अपने महबूब को कुछ इन अलफ़ाज़ में याद किया था:

यही वो चेहरा था जिसने मेरे अंदर इन्सानियत की वो जोत जगाई कि मुल्क की तक़सीम के वक़्त,
तक़सीम के हाथों तबाही से दो-चार हो कर भी
जब मैं ने इस हादिसे के बारे में क़लम उठाया
तो दोनों गिरोहों की ज़्यादतियां बग़ैर किसी रियाइत या रेज़र वीशीन के कलमबंद कर सकी.

इसी अमृता प्रीतम ने साहिर की मौत की ख़बर सुनकर क़लम उठाया और उसे यूं ख़िराज--तहिसीन पेश किया था:

यार बदनीयत या
तुमने तो यार हमारे साथ बदनीयती कर दी
हमने तो तेरे नाम पर दुनिया के लाखों इल्ज़ाम लिए
और आज तुम ही दग़ा कर रहे हो
यार बदनीयत या
चलो जहां चलोगे हम साथ चलेंगे
अगर मौत के रेगिस्तान से भी गुज़रना होगा तो गुज़़रेंगे
*

नरेश कुमार शाद को दिए एक इंटरव्यू में साहिर ने एक क़हक़हे के साथ शादी ना करने के सवाल के जवाब में कहा था – “कुछ लड़कियां मुझ तक देर में पहुंचीं और कुछ लड़कियों तक मैं देर में पहुंचा.”

बाक़ौल कैफ़ी आज़मी, शादियां उन पर मंडलाईं, मंडलाती रहीं और मंडला के रह गईं  मगर साहिर हर मर्तबा बच निकले.

लुधियाना के एक ज़मींदार घराने में अबदुलहई के नाम से पैदा होने वाला साहिर लुधियानवी , निजी ज़िंदगी में निहायत शर्मीला और बुज़दिल इन्सान था, इतना कम हिम्मत कि उस में लाहौर के नाशिर चौधरी नज़ीर से अपनी किताब तल्ख़ीयां की बक़ाया रक़म मांगने का हौसला भी ना था. ये काम भी उसके अज़ीज़ दोस्त ए हमीद  ही को करना पड़ा था. ग़रज़ पूरी हुई तो दोस्तों का ये टोला अनार कली में वाक़्य मुमताज़ होटल में चाय और पेस्ट्री खाने जा पहुंचा जो इन दिनों एक अय्याशी तसव्वुर की जाती थी. वो ज़माना भी ख़ूब था, मुंबई की ज़बान में कहिए तो सब दोस्त कड़के होते थे. इन सभों की एक रात ऐसे ही कटी थी, मांगे के सिगरटों पर गुज़रा करते.

मुफ़लिसी ने सभों को दबोचा हुआ था लेकिन हौसले जवान थे. रात के आख़िर होते होते सब ख़ाब--ख़रगोश के मज़े ले रहे थे. पौ फटी, साहिर ने हमीद के सामने ये हसीन राज़ अयाँ किया कि उस के पास दो रुपये हैं. सालिम दो रुपये. दोनों दोस्तों ने रेलवे स्टेशन का रुख किया जहां चाय और सिगरट, दोनों ही का बंदोबस्त था.

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