शुभा रोहतक में रहती हैं. उनका सधा हुआ गद्य मुझे बहुत प्रभावी और आकर्षक लगता रहा है और मैं
खोज-खोज कर उनका लिखा सब कुछ पढ़ने की कोशिश करता हूँ. उनके लेखन के कई टुकड़े कबाड़ख़ाने पर समय-समय पर पोस्ट किये जाते रहे हैं. अभी- अभी उन्होंने फेसबुक पर
यह पोस्ट लिखी है. सन्दर्भ हरियाणा में पिछले महीने हुई हिंसा और पागलपन है.
जिस तरह की छवियाँ इस पोस्ट में आ गई हैं, उनके बाद मैं भी कहता
हूँ – “हाँ, मेरा चेहरा भी कालिख से पुता है.”
शुभा की ताज़ा पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से साभार -
पिछले दिनों
लगातार मैं हरियाणा के उन इलाकों मे टीम के साथ जा रही हूं जहां लूटपाट, आगज़नी और हिंसा हुई थी. हमने जले हुए स्कूल, कॉलेज, लाइब्रेरी देखीं. कैसा लगेगा जब आप 20 हज़ार किताबों वाली लाईब्रेरी के नाम पर काली
चौखट से कालिख से मढ़े हाल में घुसते हैं और किताबों की जगह वहां राख की मोटी चादर
मिलती है? आप उस पर पैर रखने
से बचते हैं पर आप बच नहीं पाते. नर्सरी स्कूल में बच्चों की रंगीन कुर्सी जली हुई. हमारे बच्चे फिर इसी जगह पढ़ने आयेंगे!
क्या वे सुरक्षित रहेंगे? लैंग्वेज लैब जली हुई, जले कम्प्यूटरों के कंकाल, जले हुए कैन्टीन, स्टाफ रूम, प्रिंसिपल रूम, शिक्षकों
की जली गाड़ियां, स्कूल
कॉलेज की जली गाड़ियों की क़तारें, संगीत
पाठशाला मे जला हुआ तबला, जलतरंग के
टूटे हुए प्याले, बच्चों
की जली कापियां.
मैं काम के बीच से ये पोस्ट लिख रही हूं. मैं जैसे ख़ुद राख़ में डूबी हूं. मेरा चेहरा कालिख से पुता है. अपना साफ चेहरा किसी और के चेहरे की तरह याद आ
रहा है. बात करते
हुए लोग बार-बार 1947 के विभाजन की स्मृति बीच में ले आते हैं.
शुभा |
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