Tuesday, March 22, 2016

फिर क्या-क्या रंग बहे उस दम, कुछ ढलक-ढलक कुछ चिपक-चिपक

बाबा नज़ीर अकबराबादी की एक और रचना-


जब आई होली रंग भरी, सो नाज़ो अदा से मटक-मटक
और घूँघट के पट खोल दिये,वह रूप दिखाया चमक -चमक
कुछ मुखड़ा करता दमक-दमक कुछ अबरन करता झलक-झलक
जब पांव रखा खु़शवक़्ती से तब पायल बाजी झनक-झनक
कुछ उछ्लें, सैंनें नाज़ भरें, कुछ कूदें आहें थिरक-थिरक

यह रूप दिखाकर होली के, जब नैन रसीले टुक मटके
मंगवाए थाल गुलालों के, भर डाले रंगों से मटके
फ़िर स्वांग बहुत तैयार हुए, और ठाठ खु़शी के झुरमुटके
गुल शोर हुए खु़शहाली के, और नाचने गाने के खटके
मरदंगे बाजी, ताल बजे, कुछ खनक-खनक कुछ धनक-धनक

पोशाक छिड़कवां से हर जा, तैयारी रंगी पोशों की
और भीगी जागह रंगों से, हर कुंज गली और कूचों की
हर जा गह ज़र्द लिबासों से, हुई ज़ीनत सब आगोशों की
सौ ऐशो तरब की धूमें हैं, और महफ़ि़ल में मै नोशों की
मै निकली जाम गुलाबी से, कुछ लहक-लहक कुछ छलक-छलक

है धूम खुशी की हर जानिब और कसरत है खुशवक्ती की
हैं चर्चे होते फ़रहत के, और इशरत की भी धूम मची
खूबाँ के रंगीं चेहरों पर हर आन निगाहें हैं लड़तीं
महबूब भिगोयें आशिक को और आशिक हँसकर उनको भी
खुश होकर उनको भिगोवे हैं , कुछ अटक-अटक कुछ हुमक-हुमक

वह शोख़ रंगीला जब आया , यां होली की कर तैयारी
पोशाक सुनहरी , जे़ब बदन और हाथ चमकती पिचकारी
की रंग छिड़कने की क्या - क्या , उस शोख़ ने हरदम अय्यारी
हमने भी 'नज़ीर' उस चंचल को फिर खूब भिगोया हर बारी
फिर क्या-क्या रंग बहे उस दम कुछ ढलक-ढलक कुछ चिपक-चिपक

[अबरन = आभूषण, खु़शवक्ती = समय की अनुकूलता, सौभाग्य, पोशों = वस्त्र, ज़र्द लिबासों =  वासंती वस्त्र, ज़ीनत = सुन्दरता,आगोशों = बगल, गोद, ऐशो तरब = आनन्द, फ़रहत / इशरत = खुशी, आनन्द]


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