Saturday, March 5, 2016

जहां जनादेश की शासन में कोई भूमिका ही नहीं थी

फ़ोटो 'द हिन्दू' से साभार

क़र्ज़

-संजय चतुर्वेदी

एक ओर पुनर्जागरण के विद्रूप का दौरदौरा था
दूसरी ओर नेहरूबुद्धिबाबुओं का कब्ज़ा ख़त्म नहीं हो रहा था
उन्हें लेकर लोगों में जो गूंगा गुस्सा था
उससे उग्र स्मृतिवाद को हवा मिल रही थी
लोहिया को मारकर अपराध, विदूषण और व्याभिचार की रियासतें बन चुकी थीं
आधुनिकतावादी
राष्ट्रवाद को छोड़कर बाकी हर चीज़ के साथ थे
भले वह देश का विनाश करने वाली हो
भेल वह घोर अन्धकारवादी, आदिम और हिंसक हो
लेकिन राष्ट्रवाद का विरोध करती हो
अंतर्राष्ट्रीयता पर उस नस्ल का कब्ज़ा हो चुका था
जिसका विचार से कोई मतलब ही नहीं था
अपने को कम्युनिस्ट बताने वाले बहुत से लोग
अपनी ज़मीन पर दूसरों के नंगनाच को समर्थन देने के अलावा
एक दौर से पहले के भारतीय इतिहास पर थूक रहे थे
उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि इससे ज़्यादा वे क्या करें
पता नहीं वे कैसे या उनमें से कितने कम्युनिस्ट थे
ऐसे में मैनेजमेंट गुरुओं ने वर्ल्ड बैंक से मिलकर
विकास और खुशहाली की वह सत्ता बनाई
जहां जनादेश की
शासन में कोई भूमिका ही नहीं थी
वह वोटलहर का गांजा बनकर रह गया
इस विचित्र सत्ता में क़र्ज़ और उसे चुकाने के नियम एकदम उलट गए
और सारा देश जिनका ऋणी था
वे ऋण की वजह से आत्महत्या करने लगे.

(२००६)
 


1 comment:

SeemaSingh said...

ओह ! दुखती हुई सच्चाई है , पर सच तो सच होता है न मीठा न कडुवा ,