इसी बोल से शुरू होने
वाला लता मंगेशकर का गाया कोई साठ साल पुराना गीत आज लगातार मुझे याद आ रहा है
क्योंकि यह मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण जगह पर हमेशा विराजमान रहने वाले
भाई-पिता-दोस्त-कवि वीरेन डंगवाल के सबसे प्रिय गीतों में से एक था. वे इसे कभी
कभार गाया भी करते थे – बाकायदा.
फ़रीद अयाज़ क़व्वाल और
उनके साथी पेश करते हैं इसी शानदार रचना को एक अलग अंदाज़ में.
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