ये राजनीति देशद्रोही
है
-सुंदर चंद ठाकुर
इस संसार में कुछ भी
अकारण नहीं होता. हर घटना के पीछे कोई न कोई वजह होती है. अगर पिछले एक-डेढ़ साल
में हमने पहले असहिष्णुता के मसले पर लेखकों,
बुद्धिजीवियों को अपने पुरस्कार लौटाते देखा, फिर
दादरी में बीफ की हैरान-परेशान करने वाली वारदात हुई, हैदराबाद
में रोहित वेमुला ने हमारे रोंगटे खड़े कर दिए और इन दिनों जबकि जेएनयू में
उमर-कन्हैया पर लगे देशद्रोह के आरोपों की पृष्ठभूमि में एक खास वर्ग दूसरे लोगों
की शिनाख्त करने में जुटा हुआ है कि कौन देशभक्त है, कौन
देशद्रोह, तो यह सब बेवजह नहीं हो रहा. यह एक सोची समझी
राजनीतिक रणनीति के तहत किया जा रहा है क्योंकि ऐसा घिनौना काम सिर्फ राजनीति में
संलग्न और सत्ता के लोलुप लोग ही कर सकते हैं. हालांकि इसमें हैरान होने जैसा कुछ
नहीं, क्योंकि ऐसा सिर्फ भारत में नहीं हो रहा. जहां भी
सत्ता पर नजर होगी, वहां सोच में ऐसी कृपणता आ जाना लाजिमी
है. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप भी यही कर रहे हैं.
लेकिन वहां उनके खिलाफ खुले पत्र भी लिखे जा रहे हैं. एक पत्रकार ब्रैंडन स्टेनटन
ने अपनी एक चर्चित पोस्ट में मुसलमानों को डिफेंड करते हुए ट्रंप पर नफरत फैलाने
का आरोप लगाया है. लेकिन हिंदुस्तान में पत्रकार सहिष्णु हैं. वे जानकर भी बात को
खुलकर नहीं कह रहे.
देशभक्ति के नाम पर अगर हम बार-बार सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों की बात करेंगे, तो यह हमारी मानसिक दरिद्रता को ही दिखाएगा. अगर किसी को अपनी देशभक्ति का सबूत देने के लिए भारत माता की जय का नारा लगाना पड़े, तो यह एक दयनीय स्थिति है. हद यह है कि मेरे पास एक लेखक का व्हाट्सऐप संदेश आया जिसमें उन्होंने सुबह-सुबह गुड मॉर्निंग की बजाय 'भारत माता की जय' से एक दूसरे को ग्रीट करने का आह्वान किया है. कुछ तो गड़बड़ है. तिरंगा फहराना अनिवार्य. राष्ट्रगान अनिवार्य. राष्ट्रगान नहीं गाया, तो आपकी पिटाई कर देंगे. भारत माता की जय नहीं की तो वे आपके खिलाफ सरकारी कार्रवाई करेंगे. ऐसा किसी आजाद मुल्क में तो नहीं होता. तालिबान जरूर ऐसे फरमान जारी करते हैं और जो उनका पालन नहीं करता उसे दोजख की राह भी दिखा देते हैं. मगर यह हिंदुस्तान है. यहां कैसे-कैसे महान मनीषी, समाज सुधारक और देशभक्त हुए. महात्मा गांधी की कैसी भी आलोचना करें, मगर उन्हें राष्ट्रपिता कहने में किसे गुरेज होगा. उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना की थी जहां समाज के हर वर्ग का विकास हो, हर धर्म बराबर हो. मगर उन्हें उनकी इसी परिकल्पना के चलते एक खास तरह के विकास की संकल्पना करने वाली विचारधारा ने मार डाला. नाथूराम गोडसे ने तो सिर्फ गोली चलाई पर गांधी जी को मारा एक विचारधारा ने ही. कहीं यह वही विचारधारा तो नहीं, जो फिर से सिर उठा रही है?
वैसे तो देशभक्ति एक ऐसी चीज है, जो एक व्यक्ति के आचरण में छिपी रहती है. अगर देश का कोई व्यक्ति अपने नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए अपनी देखभाल कर रहा है, परिवार का भरण-पोषण कर रहा है, तो इतना भी बहुत है उसे देशभक्त मानने के लिए. इस लिहाज से हर आदमी, जो नागरिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है, वह देशद्रोही है. इस मानदंड पर देश के अधिकांश रईसों और राजनेताओं को देशद्रोही कहा जा सकता है क्योंकि वे टैक्स चुराते हैं और देश से कमाया गया धन काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा करते हैं. मगर मौजूदा राजनीति उन्हें निशाना नहीं बना रही. उसके निशाने पर रोहित, उमर और कन्हैया और उनके समर्थन में उतरे मध्यवर्गीय लेखक, चिंतक और सेकुलर लोग हैं. मौजूदा सरकार को देशभक्ति का ऐसा बुखार चढ़ गया है कि उसने अपना विरोध करने वाले हर व्यक्ति को देशद्रोही घोषित करने की ठान ली है. इसका ताजा उदाहरण मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत आने वाली संस्था नैशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) द्वारा उर्दू लेखकों के लिए जारी किया गया फरमान है जिसके तहत उन्हें यह घोषित करने को कहा गया है कि उनकी किताबों में सरकार और देश के खिलाफ कोई सामग्री नहीं है अन्यथा उन पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी. मेरी जानकारी में आजाद भारत में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.
एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सबको अपनी तरह से जीने का हक है और सरकार का यह काम है कि वह नागरिकों के इस हक की रखवाली करे. मगर राजनीति ने हमेशा से ही अपने निहित स्वार्थों के लिए लोगों को बांटने का काम किया है. मौजूदा राजनीति भी यही कर रही है, लिहाजा देशद्रोही लोग नहीं, यह राजनीति है, जिसमें लगभग सभी पार्टियां शामिल हैं.
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