फ़िराक़
हूं मैं न जोश हूं मजाज़ हूं मैं सरफ़रोश हूं
-राजकुमार केसवानी
कहते
हैं 'इस दुनिया
में हर इंसान ख़ाली हाथ आता है और ख़ाली हाथ जाता है.' कितनी
अजीब सी बात है कि ज़माने ने इस बात को इंसानी वजूद का सबसे अहम जुमला मान रखा है.
सोचता हूं इतने बड़े इंसानी नक्शे में, कहने वालों को सिर्फ
हाथ ही क्यों नज़र आया ? सपने देखने वाली आंखें नज़र क्यों
नहीं आईं? पूरे इंसानी वजूद में सबसे आला मकाम पर बैठा दिमाग़
नज़र क्यों नहीं आया? उस दिमाग़ में पैदा होते सवालों का ख़याल
क्यों नहीं आया? यह भी तो एक सवाल ही है.
मैं
जानता हूं कि इस दुनिया में इंसानों के पास जितने सवाल हैं इस दुनिया के कारीगरों
ने उससे कहीं ज़्यादा जवाब ईजाद कर रखे हैं. एक सवाल करो तो फ़ौरन दस दिशाओं से दस
जवाब सामने आ खड़े होते हैं. दर हक़ीक़त, जवाब के
जामे में वो भी सवाल ही होते हैं, फिर भी वो जवाब ही होते
हैं.
आख़िर
इस दुनिया में एक सवाल के कितने जवाब हैं? ...आसमान
में मौजूद तारों जितने? फिर सवाल आता है कि आख़िर आसमान में
तारे कितने हैं? ...या...या...या फिर हमारे सारे सवालों के
असल जवाब ही इन तारों में छिपे हैं? और अगर ऐसा है तो सोचता
हूं मेरे सवालों के जवाब किस तारे के पास हैं? हर एक सवाल के
जवाब में एक नया सवाल तो पैदा हो जाता है लेकिन जवाब न जाने किस जगह बैठा अपनी
हस्ती पर इतराता रहता है.
अपनी
उम्र के तमाम बरस, इसी तरह के बेवक़ूफी से लदे
सवालों के साथ पहरों आसमान में टंगे इन तारों को घूरता रहा हूं. जवाब तो क्या ही
मिलना था अलबता टिम-टिम कर मुस्कराते तारों को देखते-देखते अपने सवालों को भूल
जाता हूं और थक-हार कर तारों के साथ ही ख़ुद भी मुस्कराने लगता हूं. फिर हौले-हौले
तारे भी गुम होने लगते हैं. उजाला फैल जाता है. उजाले के साथ ही एक बार फिर सामने
होती है दुनिया और इस दुनिया के सवाल. हर दौर के का यही मसला है.
ऐसे
ही किसी गुज़रे वक़्त में, एक शख़्स हज़ारों सवालों के
काफिले के साथ इस ज़मीन पर यहां से वहां और कहां से कहां भटकता रहा. उसके सवालों के
बदले हर बार उसे नए सवाल थमा दिए जाते. वह शायर था. निहायत जज़्बाती इंसान था. था
बड़ा जंग-जू, मगर था तो इंसान ही. लिहाज़ा वो आसमानों की
बेरुख़ी से हारकर ख़ुद से ही सवाल करता था -
ऐ ग़मे दिल क्या करूं?
वहशते-दिल क्या करूं?
क्या करूं? / क्या करूं? / क्या करूं?
दिल
ने कहा - मियां, जवाब तो नहीं है, शराब
है. सो बस, उसी को जवाब मानकर उसे ही गले लगा लिया.
यह
शख़्स था मजाज़. असरार-उल-हक़ 'मजाज़'. हिंदुस्तानी शायरी का शहज़ादा जिसे उर्दू का कीट्स कहा गया. मगर यह मजाज़
था कौन? मैं आपसे कसम खाकर कहता हूं कि मैं ख़ुद बरसों से इस
सवाल को सीने में लिए भटक रहा हूं. कौन था यह मजाज़?
ख़ुदा
के वास्ते मुझ पर इसलिए न हंसे कि इसे इतना भी पता नहीं कि मजाज़ कौन है. और उसी के
साथ यह भी गिनवा दें कि जनाब, मजाज़ फलां तारीख़,
फलां जगह पैदा हुए थे और बड़े अज़ीम शायर थे. इस पर मेरा जवाब होगा
कि इसे अगर आप मेरे सवाल का जवाब मानते हैं तो अर्ज़ है कि इस आम से जवाब में एकाध
माशा और जोड़कर मैं आपको सुनाए देता हूं. लेकिन इस गुज़ारिश के साथ कि इस सवाल को
ज़रा और गहराई से सोचें तो हो सकता है आपको कई सारे न पूछे हुए सवालों के जवाब भी
ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएं. मगर इन जवाबों में मेरा जवाब शामिल नहीं है.
मजाज़
की बात शुरू करने से पहले निहायत ज़रूरी है कि आपको याद दिला दूं कि हमारे दौर का
एक बड़ा तबका इस ख़ूबसूरत शायर को अक्सर उसकी एक बेहद मक़बूल नज़्म से पहचानता आता
है. पिछले कोई 63 बरस से यह एक फिल्मी गीत की शक्ल में उसकी पहचान का परचम बनकर एक
बलंद मकाम पर लहराता रहता है. यह गीत है 'ऐ ग़मे-दिल
क्या करूं' असल में मजाज़ की नज़्म 'आवारा'
के दो अंतरे भर हैं. इसे फिल्म 'ठोकर'(1953) के लिए संगीतकार सरदार मलिक ने कम्पोज़ किया है. तलत महमूद ने असल
में और शम्मी कपूर ने पर्दे पर गाया है.
कहते
हैं कि मजाज़ ने बम्बई के मरीन ड्राईव पर रात में तन्हा फिरते हुए यह नज़्म लिखी थी.
मुझे तो इस नज़्म का हर लफ्ज़ अपने दिल के की-बोर्ड की रीड की तरह लगता है. ज़रा सा
छू लो तो दिल से एक सदा सी गूंज जाती है. ख़ास कर तब जब शायर कहता है 'ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं'. ये मेरे मरने का मकाम है. लेकिन उफ्फ ये बे-ग़ैरती! मर-मर के भी इस तरह
जीना सिखा देती है कि मानो कभी मरे भी न थे.
रात हंस-हंसकर ये
कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी
शहनाज़े-लालारुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर
ऐ दोस्त वीराने में चल
इक महल की आड़ से निकला
वो पीला माहताब (चांद)
जैसे मुल्ला का
अमामा(पगड़ी), जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी,
जैसे बेवा (विधवा) का शबाब
ऐ ग़मे दिल क्या करूं,
ऐ वहशते दिल क्या करूं?
आपने
देखा कि मजाज़ का चांद पीला है. ज़र्द है. महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब!
अब
हक़ तो यह है कि आगे बिना एक लफ्ज़ दाएं-बाएं किए मजाज़ की असल बात पर आ जाऊं. उतर
प्रदेश के ज़िला बाराबंकी के एक कस्बे रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 को पैदाइश. तमाम
बच्चों की तरह मां-बाप की ज़िद के आगे सर झुकाकर स्कूल जाना पड़ा. पढ़ते-पढ़ाते
अलीगढ़ यूनीवर्सिटी भी पहुंच गए.
मजाज़
के पिता सिराज-उल-हक़, लखनऊ के नज़दीक एक कस्बे
रुदौली के बड़े रुत्बे वाले ज़मींदार थे. पढ़े-लिखे इंसान थे सो पलंग पर लेटकर
हुक्का पीने की बजाय सरकारी नौकरी करते थे. सिराज साहब की औलादें तो बहुत हुईं
लेकिन बचीं सिर्फ पांच औलादें : आरिफ़ा, सफ़िया, हमीदा, अंसार और इसरार. उन्होने अपनी इन औलादों को
हर मुम$िकन बेहतरीन तरबीयत और बेहतरीन तालीम देने में कोई
कसर न छोड़ी. बड़ी बेटी सफिया की शादी मशहूर शायर जां निसार अख़्तर से हुई और इन
दोनो की दो औलादें जावेद अख़्तर और डाक्टर सलमान अख़्तर हैं. बेटे असरार-उल-हक़ 'मजाज़' को बेहतर से बेहतर तालीम देने की कोशिश की.
इसी कोशिश के नतीजे में मजाज़ स्कूल से होकर अलीगढ़ यूनीवर्सिटी तक जा पहुंचे. एमए
कर रहे थे तभी दिल्ली में 'आवाज़' नाम
की एक पत्रिका के असिस्टेंट एडीटर की नौकरी मिल गई. आल इंडिया रेडियो की इस
पत्रिका में वे महज़ एक साल ही काम कर पाए.
असल
में अलीगढ़ पहुंचते-पहुंचते ही मजाज़ शायरी की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके थे और
शेर कहने लगे थे. 1929 में उनका परिवार आगरा में था और वहीं सेंट जान्स कालेज में
उनका दाख़िला हुआ. तब उनका घर वहां 'हींग की मंडी'
में था जहां मशहूर शायर फ़ानी बदायूनी उनके पड़ोसी थे. जज़्बी और आले
अहमद सुरूर कालेज के साथी. यहां के माहौल ने जादू सा असर किया. शेर तो पहले से ही
कह रहे थे मगर उस पर रंग आया यहां अलीगढ़ में. और क्यों न हो. जब ' मरने की दुआएं क्यों मांगू, जीने की तमन्ना कौन करे
/ ये दुनिया हो या वो दुनिया, अब ख़्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे'
जैसी ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहने वाले शाइर मोईन एहसन जज़्बी जैसे दोस्त
मिले. उस वक़्त जज़्बी 'मलाल' और मजाज़ 'शहीद' तख़ल्लुस इस्तेमाल करते थे.
और
अब जो मजाज़ हुए तो उनकी शायरी में प्रगतिशीलता का वह रंग आया कि 1936 में
प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ तो मजाज़ की शायरी को एक मिसाली शायरी माना गया.
मजाज़
को बड़ी कम मुहलत मिली थी इस दुनिया में जीने की. कुल जमा 44 साल. कितनी अजीब बात
है दुनिया के तमाम अच्छे और सच्चे लोग इसी तरह जाते हैं. मसलन सआदत हसन मंटो - 43
साल,
शिव कुमार बटालवी 37 साल, महान रूसी लेखक चेख़व
44 साल, निकलई गोगोल 43 साल, अंग्रेज़ी
का प्रसिद्ध कवि शैली - 33 साल, रूमानी कविता का शहज़ादा जान
कीटस तो महज़ 25 साल ही जी पाया.
(जारी)
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