Sunday, December 18, 2016

कम से कम चुप तो न रहूँ


कोशिश
-कुमार अम्बुज

कही जा सकती हैं बातें हज़ारों
यह समय फिर भी न झलकेगा पूरा
झाड़ झंखाड़ बहुत
एक आदमी से बुहारा न जाएगा
इतना कूड़ा

क्या बुहारूं
क्या कहूं, क्या न कहूं?
अच्छा है जितना झाड़ सकूं, झाडूं
जितना कह सकूं, कहूं


कम से कम चुप तो न रहूँ.

1 comment:

KESHVENDRA IAS said...

चुप न रहने की गहन जिम्मेदारी साहित्य को अपने कंधे पर बखूबी उठानी पड़ती है | जब समय असहमत हो तो कुछ कह पाना भी या कहे तो कुछ कह पाने का साहस दिखाना भी बड़ी बात है | इस छोटी गहन सारपूर्ण कविता के लिए साधुवाद |