अनुपम जी नहीं रहे. सुबह सुबह भाई
पीयूष दइया का यह मैसेज आया. अफ़सोस कि भले लोग जिनकी वजह से बकौल वीरेनदा
"ज़िंदगी में मानी पैदा होते हैं" लगातार घटते जा रहे हैं. अनुपम मिश्र
जिस जगह को खाली कर गए हैं उसे भर पाना असंभव होगा.
उन्हें श्रद्धांजलि के तौर पर
फिलहाल उनकी अद्भुत पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' से एक अंश. जल्द ही उन पर और
उनके काम पर और भी.
तालाब का लबालब भर जाना भी एक
बड़ा उत्सव बन जाता. समाज के लिए इससे बड़ा और कौन सा प्रसंग होगा कि तालाब की अपरा
चल निकलती है. भुज (कच्छ) के सबसे बड़े तालाब हमीरसर के घाट में बनी हाथी की एक
मूर्ति अपरा चलने की सूचक है. जब जल इस मूर्ति को छू लेता तो पूरे शहर में खबर फैल
जाती थी. शहर तालाब के घाटों पर आ जाता. कम पानी का इलाका इस घटना को एक त्योहार
में बदल लेता. भुज के राजा घाट पर आते और पूरे शहर की उपस्थिति में तालाब की पूजा
करते तथा पूरे भरे तालाब का आशीर्वाद लेकर लौटते. तालाब का पूरा भर जाना, सिर्फ एक घटना नहीं आनंद है, मंगल सूचक है, उत्सव है, महोत्सव
है. वह प्रजा और राजा को घाट तक ले आता था.
पानी की तस्करी? सारा इंतजाम हो जाए पर यदि पानी की तस्करी न रोकी जाए तो अच्छा खासा तालाब देखते-ही-देखते सूख जाता है. वर्षा में लबालब भरा, शरद में साफ-सुथरे नीले रंग में डूबा, शिशिर में शीतल हुआ, बसंत में झूमा और फिर ग्रीष्म में? तपता सूरज तालाब का सारा पानी खींच लेगा. शायद तालाब के प्रसंग में ही सूरज का एक विचित्र नाम ' अंबु तस्कर ' रखा गया है. तस्कर हो सूरज जैसा और आगर यानी खजाना बिना पहरे के खुला पड़ा हो तो चोरी होने में क्या देरी?
सभी को पहले से पता रहता था, फिर भी नगर भर में ढिंढोरा पिटता था. राजा की तरफ से वर्ष के अंतिम दिन, फाल्गुन कृष्ण चौदस को नगर के सबसे बड़े तालाब घड़सीसर पर ल्हास खेलने का बुलावा है. उस दिन राजा, उनका पूरा परिवार, दरबार, सेना और पूरी प्रजा कुदाल, फावड़े, तगाड़ियाँ लेकर घड़सीसर पर जमा होती. राजा तालाब की मिट्टी काटकर पहली तगाड़ी भरता और उसे खुद उठाकर पाल पर डालता. बस गाजे- बाजे के साथ ल्हास शुरू. पूरी प्रजा का खाना-पीना दरबार की तरफ से होता. राजा और प्रजा सबके हाथ मिट्टी में सन जाते. राजा इतने तन्मय हो जाते कि उस दिन उनके कंधे से किसी का भी कंधा टकरा सकता था. जो दरबार में भी सुलभ नहीं, आज वही तालाब के दरवाजे पर मिट्टी ढो रहा है. राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले उनके अंगरक्षक भी मिट्टी काट रहे हैं, मिट्टी डाल रहे हैं.
उपेक्षा की इस आँधी में कई तालाब फिर भी खड़े हैं. देश भर में कोई आठ से दस लाख तालाब आज भी भर रहे हैं और वरुण देवता का प्रसाद सुपात्रों के साथ-साथ कुपात्रों में भी बाँट रहे हैं. उनकी मजबूत बनक इसका एक कारण है, पर एकमात्र कारण नहीं. तब तो मजबूत पत्थर के बने पुराने किले खँडहरों में नहीं बदलते. कई तरफ से टूट चुके समाज में तालाबों की स्मृति अभी भी शेष है. स्मृति की यह मजबूती पत्थर की मजबूती से ज्यादा मजबूत है.
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