Saturday, January 28, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - तेरह



परमौत की प्रेम कथा - भाग तेरह

जीभ से होंठ चाटते हुए राका ने कैसेट मेज़ पर धरा और रज़ाई समेटकर चारों के वास्ते जगह बनाई. मसालों और सड़े हुए मोजों की ठोस गंध खोली की हवा में ठहरी हुई थी. अतिथिगण इधर-उधर देखते हुए इस अलौकिक कमरे का जायजा ले रहे थे जब सबसे पहले हरुवा भन्चक की जुबान खुली - "अरे राका गुरु, भीसीआर कां है भीसीआर? और तुमारे यहाँ तो टीवी भी नहीं दिखा रहा ... कहीं बेफालतू का टामा पिलाने को तो नहीं लाये हो अपने महल में?"

"सब इंतजाम है चचा. सब इंतजाम है. जरा बैठो तो सही आराम से. थोड़ा गला-हला तर कर लेते हैं पैले." राका त्वरित व्यवस्था करने में जुटा हुआ था. उसके पास दो ही गिलास थे. वो भी खद्दर यानी स्टील के. उसने खाट के नीचे एक परिचित पोटली में हाथ डालकर पान मसाले का एक बड़ा खाली डिब्बा निकाला और उसे गिरधारी को थमाता हुआ बोला - "मेरा इसी में बना देना यार उस्ताज. पानी की बाल्टी नीचे है ..."

राका ने खूंटियों पर टंगे चार-छः चीथड़ों को हटाया तो एक खिड़कीनुमा झिरी नमूदार हुई. झिरी पर मुंह लगाकर उसने आवाज़ दी - "तिलुवा! ओ तिलुवा! मर तो नहीं गया बे!"

अतिथि-समुदाय की निगाहें भी झिरी से लग गईं. एक-दो बार तिलुवा नामक अपने पड़ोसी को पुकारने के बाद भी जब उस पार से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो राका ने झुककर खाट के नीचे से एक लंबा सा बांस निकाला और उसे झिरी से घुसाकर नीचे करते हुए एक्सपर्ट की तरह किसी चीज़ को कोंचना शुरू किया.

उसके ऐसा करते ही उस पार से "ओईजा वे ..." की कराह निकली और उसके बाद राका को समर्पित प्रेमपूर्ण धाराप्रवाह गालियों का सिलसिला चला.

"पैले भीसीआर दे जरा फिर हो जाना टोटिल रे तिलुवा ... दाज्यू लोग आये रहे आज पाल्टी करने बेटे" अपनी सफलता पर मुदित राका ठठाकर हंसा.

कुछ और गाली-गलौज के उपरान्त झिरी से रामायण देखने की मशीन हस्तांतरित की गई और राका ने चीथड़ों को यथावत सजा दिया. पान मसाले के डिब्बे में भरे पेयपदार्थ को उदरस्थ करने के साथ ही वह "अभी आया" कहकर बाहर चला गया. हरुवा  भन्चक ने काफी देर तक बिना ढक्कन वाले इस वीसीआर को नज़दीक से देखा और कैसेट को थामे खाट के एक कोने पर लधर गया था जबकि परमौत और गिरधारी मधुबाला की धुंआई हुई फोटो का नज़दीकी मुआयना कर रहे थे.

दो या तीन मिनट बाद अपनी खोपड़ी पर शटरवाला काला-सफ़ेद टीवी लादे राका ने कमरे में एंट्री ली. टीवी को गैस-भट्टी के ऊपर टिकाकर उसने सूचित किया - "यहाँ जगह ही नहीं है तो इस चक्कर में गुसलखाने में फिट कर रखा है साले को ..."

अब उसने आलू-प्याज और आटे-बेसन वगैरह के बोरों को इस तरतीब में लगाया कि टीवी रखने को ठीकठाक साइज़ का ढुलमुल प्लेटफार्म जैसा बन गया. टीवी, वीसीआर और तार वगैरह का जोड़-जंतर करने में उसे कुल पांचेक मिनट और लगे. जिस विशेषज्ञता के साथ राका इस कार्य को अंजाम दे रहा था उस से ज़ाहिर होता था कि उसने इसकी प्रैक्टिस में कई सारे मंगलवार इन्वेस्ट किये होंगे. तीनों मेहमान उसके इस मशीनी अंदाज़ से बहुत ज़्यादा इम्प्रैस नज़र आ रहे थे और बहुत बारीकी से हर स्टेप को अपने दिमागों में दर्ज करते जाते थे.

राका ने "जयहो" का नारा बुलंद किया और कैसेट घुसाकर स्विच ऑन किया. टीवी चालू हो गया और साथ ही बहरा कर देने वाली आवाज़ के साथ उसकी नीली स्क्रीन पर ओलों की बरसात का मंजर भी. सबकी निगाहें टीवी पर थीं. वीसीआर से खटक-खटक की कुछ आवाजें निकलना शुरू हुईं और भीतर टेप घूमने लगा. स्क्रीन पर ओलों की बरसात बंद हो गयी और आवाज़ भी. इनकी जगह तेज़-तेज़ भागती चमकीली आड़ी लकीरों ने ले ली.

"आयेग ... अभी आयेगा ..." कहकर राका टीवी पर निगाहें गडाए तीनों मेहमानों को दिलासा देने लगा. जब दो मिनट तक आड़ी लकीरें आना बंद नहीं हुईं तो राका ने "ट्रेकिंग ठीक करनी पड़ेगी" कहकर स्विच ऑफ किया और कैसेट बाहर निकालकर पेंचकस खोजने लगा.

पेंचकस ढूँढने में पांच मिनट जाया हुए. पेंचकस मिला तो राका मिट्टी के तेल की बोतल खोजने लगा. वह मिली तो उसे रुई की दरकार हुई. दसेक मिनट में इस सब चीज़ों को इकठ्ठा करने के उपरान्त उसने मिट्टीतेल में भीगे रुई के फाहे से वीसीआर के हैड को काफी देर तक घिसा और फूफू कर उसे सुखाने का नाटक किया. कैसेट फिर से डाला गया. ओलों की बरसात ने फिर से दर्शकों का स्वागत किया.

"साला तार उखड़ गया लगता है" कहकर टीवी फिर से बंद हुआ. वीसीआर की लीड को काले-सफेद टीवी के लिए कम्पैटिबल बनाने के उदेश्य से आगे से काटकर उसके तारों के त्रिशूल को नंगा किया गया था ताकि वे टीवी के पीछे पेंचों में किसी तरह फंसाए जा सकें. तार वाकई उखाड़ गया था बल्कि टूट भी गया था और उसे दुबारा कारआमद बनाने के लिए ब्लेड की ज़रुरत हुई. राका फिर से भागकर गुसलखाने गया और ब्लेड लेकर आया. पंद्रह मिनट तक चले इस कार्यक्रम के बाद जब सब कुछ ठीकठाक जैसा हो गया, राका ने मेहमानों को आँख मारने की नीयत से पलटकर देखा. परमौत और गिरधारी ने खर्राटे मारने शुरू कर दिए थे. हरुवा भन्चक जगा हुआ था और विस्फारित नेत्रों से रामायण शुरू होने का इंतज़ार कर रहा था.

राका के कहनेपर परमौत और गिरधारी को जगाया गया. चारों चैतन्य हो गए तो टीवी चालू किया गया और उसमें बाकायदा रामायण सीरियल आने लगा था. कैसेट खासा घिसा हुआ था लेकिन पात्र पहचानने में आ रहे थे.

"आगे बढ़ा राका यार ..." कहता हुआ गिरधारी स्क्रीन के और नज़दीक पहुँचने की कोशिश करने लगा.

राका ने हामी भरते हुए सर हिलाया और फॉरवर्ड बटन दबा दिया. छवियों ने तेज़-तेज़ भागना शुरू कर दिया. एकाएक एक मुटल्ली सी अँगरेज़ महिला स्क्रीन में दिखनी शुरू हो गयी.

"रोक रोक यहीं रोक ..." गिरधारी के कहने से पहले ही राका ने बटन से हाथ हटा दिया. थोड़ी बहुत ट्रेकिंग आने लगी थी पर सब नज़र आ रहा था. लड़की एक बड़े से कमरे में बैठी ड्रायर से बाल सुखा रही थी. उसके सामने एक बोतल धरी थी और एक भरा हुआ नफीस गिलास भी. दो खाली गिलास मेज़ पर और थे. पार्श्व में अंग्रेज़ी गाना बज रहा था. परमौत और हरुवा का मुंह खुला हुआ था जबकि अनुभवी राका और गिरधारी एक दूसरे को इशारों में " सीन अभी शुरू होने वाला है " कह रहे प्रतीत होते थे.

लड़की उठाकर अपने लम्बे बालों को झटकती है और गिलास से एक घूँट पीती है.

"अंग्रेजों के मज़े हैं बाप कसम यार ... औरतें भी दारू हड़का लेने वाली ठैरीं. वैसे ये पी क्या रही होगी यार परमोदौ ..." हरुवा ने अपनी अनर्गल फुसफुस चालू कर दी थी.

दरवाज़ा खुलता है और डाक्टर जैसा दिख रहा एक लंबा तगड़ा आदमी भीतर घुसता है. डाक्टर औरत से हाय हूय करता हुआ उसे होंठों पर चूम लेता है.

"यौ ... देखो स्साले को ..."

फिर दोनों बैठ जाते हैं. औरत खाली गिलास में दारू भरकर डाक्टर को देकर कुछ कहती हुई हंसती है. डाक्टर भी पीने लगता है. उनको पीता देख तीनों ने अपने-अपने पात्रों को दुबारा भर लिया और आँखें टीवी पर चिपका लीं. डाक्टर और महिला अब नाचने लगते हैं.

"राजकपूर भी ऐसे ही नाचने वाला हुआ क्या नाम कहते हैं उस पिक्चर में राका गुरु ..."

महिला अपना सर डाक्टर के कंधे पर रख देती है. डाक्टर एक झटके में उसे अपनी बांहों में उठा लेता है. महिला की गाउननुमा पोशाक एक तरफ को हट जाती है और उसकी उघड़ी हुई एक जांघ सारी स्क्रीन पर क्लोज़ अप में आ जाती है.

"ओईजा ... अब ..." हरुवा की लार टपकने लग गयी.

महिला को वैसे ही उठाये डाक्टर एक दूसरे कमरे में जाता है और बड़े प्यार से महिला को बिस्तर पर लिटा देता है. डाक्टर महिला को थोड़ी देर तक चूमता है और उठकर अपना कोट उतारता है. लाईट चली गयी.

"हाट्ट पैन्चो ..." राका की खोली से सामूहिक आह निकली.   

उक्त आह को निकालने के बाद चारों कोई बीसेक सेकेण्ड तक सन्नाटे में बैठे रहे. तब राका ने कहा - "अपनी जगह बैठे रहना यार सब. देखता हूँ मोमबत्ती-फोमबत्ती कुछ. देखना बोतल नीचे ना गिर जाए साली कहीं ..." राका ने चीथड़ों वाली झिरी के पास जाकर आवाज़ दी - "तिलुवा! तिलुवा बे! लाइट चली गयी ..."

"तो सो क्यूँ नहीं जाता राका ..." उधर से उनींदी आवाज़ में उत्तर मिला.

"जरा देख के आ तो ... कहीं फ्यूज़ तो नहीं उड़ गया साला"

"फ्यूज़ तो अब है ही नहीं वहां दाज्यू. लाइनमैन डायरेक्ट नहीं बना गया था पिछले हफ्ते तुमारे कहने पर ... अब सो जाओ यार ... एक बज गया एक ..."

"मर साले ..." कहकर राका ज्यों ही पलटा उसका पैर बाल्टी से टकराया जिसे कुछ ही देर पहले हरुवा ने खाट के नज़दीक रख लिया था. बाल्टी के ज़मीन पर औंधे होने की आवाज़ आई और अचानक लगी टक्कर से राका का बैलेंस बिगड़ गया और वह "ओ बाबू ..." कहता हुआ खाट पर मौजूद अपनी अतिथित्रयी पर गिरा.  हरुवा हाथ में भरा गिलास लिए बैठा था जिसके भीतर का द्रव इस घटना की परिणति में सभी के ऊपर थोड़ा-थोड़ा गिर गया. चारों उठने को हुए तो घायल राका कराहता हुआ बोला - "अबे खाट पर ही बैठे रहो यार परमौद्दा ... नीचे सब पानी-पानी हो रहा साला. आ जाएगी लाइट भी ..."

बनी-बनाई पार्टी के यूं अचानक बिगड़ जाने और घटनास्थल के बदल चुके जुगराफिए से वाकिफ होने में सबको पांचेक मिनट का समय और लगा. राका ने मेज़ के किसी कोने पर धरी मोमबत्ती को ढूंढ कर जला लेने में भी सफलता हासिल कर ली थी.

"दस मिनट और देखते हैं यार राका. लाइट आई तो ठीक हुआ नहीं तो घर जाते हैं अपने-अपने. चचा साथ आया हुआ तो भन्चक भी लगनी ही हुई."   यह परमौत था.

"अरे घर-हर जाओगे बाद में परमौद्दा. अभी तो भौत माल बचा है ..."

परमौत ने राका द्वारा मोमबत्ती की रोशनी में पाल्टी दोबारा चालू करने के प्रयासों को ज्यादा उत्साहित नहीं किया और सावधानी से अपने पैर नीचे रखकर जूता तलाशने लगा. हरुवा भन्चक को काफी मज़ा आ रहा था और वह जल्दी निकालने के मूड में नहीं लगता था. वह काफी देर से चुप था सो कर्नल बन कर अचानक उसने अपनी अंडबंड शुरू कर दी - "माई डीयर भतीजा प्लीज़ डू सम मोर इंतज़ार ऑफ़ दी लाइट एंड लुक एट दिस फोटुक ऑफ़ दी गिरधारीज़ ब्वारी मल्लब होने वाली वाइफ ऑफ़ दी राका टीचर. व्हेयर इज दी फोटुक ऑफ़ माई ब्वारी मल्लब होने वाली वाइफ ऑफ़ दी यू? आई एम ए कन्नल हरीश चन्न टेलिंग यू दैट दिस इंग्लैण्डिया रामायण ऑफ़ दी टीवी-फीवी इज नॉट ए पोसिबुल विदाउट लभ ... एंड लभ इज दी टाइप ऑफ़ ए टू ... वन इज ऑफ़ पतंगा टाइप ..."

इस भौंरा-पतंगा दर्शन से अब तक चट चुके परमौत ने कोई जवाब न देते हुए जूते पहनते हुए सूचना दी कि वह घर जा रहा है, हरुवा चाहे तो वहीं रात गुज़ार सकता है. गिरधारी भी उठने लगा तो हरुवा को भी उठने की मजबूरी थी. राका के निर्देशन में तीनों गीले फर्श और गलियारे को पार कर सड़क पर आये ही थे कि लाइट आ गयी. इस आकस्मिक घटना के बाद एक छोटी-मोटी मीटिंग हुई जिसके बाद तय पाया गया कि हरुवा भन्चक रात बिताने के लिए राका के पास ही रह जाएगा. वह मुटल्ली अँगरेज़न और डाक्टर की कहानी के अगले एपीसोड को देखने पर अड़ा हुआ था.

दो से अधिक बज चुका था. परमौत और गिरधारी लम्बू डगमग मौज में कुछ गाते-गुनगुनाते अपने-अपने घर जा रहे थे. जिस जगह से गिरधारी के घर का रास्ता फटता था वहां सड़क किनारे पत्थर की एक पुरानी बेंच थी. मोबाइल पाल्टी के मौकों पर इस बेंच पर बैठकर सत्संग करना आवश्यक माना जाता था सो वे दोनों भी उसी पर बैठ गए. गिरधारी ने इत्मीनान से सुरती बनाई और उसे फांकने से पहले पिरिया का ज़िक्र छेड़ा - "भाबी के क्या हाल चल रहे यार परमौद्दा ... बहुत दिन से तूने बताया नहीं कुछ"

"कुच्छ नहीं. क्या चलता है! कम्प्यूटर जाना जब से बंद करा है तब से एक बार भी नहीं देखा है उसको. हफ्ता हो गया होगा ..." इतना कहते-कहते अचानक परमौत रुआंसा हो आया.

गिरधारी ने सुरती फांकने का कार्यक्रम मुल्तवी करते हुए गंभीर मुखमुद्रा बनाकर कहा - "देख यार परमौद्दा मैं तो एक बात जानने वाला हुआ. करना हुआ तो करना हुआ. नहीं करना हुआ तो नहीं करना हुआ. मल्लब कोई भी चीज. सादी करनी हुई तो सादी करनी हुई. प्यार करना हुआ तो प्यार करना हुआ. उस दिन बता नहीं रहा हुआ वो नबदा. बाकी मेरे लायक जो काम होगा वो करने को मैं हम्मेसा तैयार हुआ. तुजे पता ठैरा. मुझको एक बार भाबी दिखा दे परमौद्दा. जहाँ से कहेगा वहाँ से उठा के ले आया जाएगा फिर उसको. अब तेरा ऐसी सकल बनाना जो अच्छा लगता होगा मुझको ..." उसने परमौत का हाथ थाम लिया.

देह में घुसी दारू और गिरधारी के सहानुभूतिपूर्ण उदगारों का वही नैसर्गिक प्रभाव पड़ा जो पड़ना था. परमौत भीषण इमोशनल हो गया. उसकी आँखें डबडबा आईं और उसने गिरधारी के हाथ को और जोर से थामते हुए कहा - "अब मर जाता हूँ यार ... साली नरक बन गयी जिन्दगी गिरधारी गुरु! ... सुबे हो, साम हो, काठदाम जाओ, रुद्दरपुर जाओ, कहीं जाओ, जहाँ जाओ वही दिखती है यार हर जगे ... मल्लब यहाँ दिखती है ..." कहकर परमौत ने सीने पर हाथ लगाकर चेहरे पर एक पिक्चर में देखे गए नायक जैसे भाव लाने का प्रयास किया.

"हूँ ... यहाँ दिखना तो कोई भौत अच्छा नहीं हुआ परमौद्दा ... भाबी को देखना हुआ तो अपनी आँख से देखना हुआ ... ये कोई साला राजकपूर-दिलीपकुमार जैसा चूतिया बन के 'यहाँ दिखती है' 'यहाँ दिखती है' कह के डाड़ जो क्या मारते रहनी हुई हर बखत ..." परमौत की नक़ल जैसी बनाते हुए गिरधारी बोला.

"इतना सित्तिल थोड़ी होने वाला हुआ जैसा तू कह रहा है, गिरधारी ... आँख से देखने को चैये ठैरी ताकत और वो साली हो गयी ठैरी ख़तम ... कम्प्यूटर जाता था वहां जाना भी साला बंद करा दिया वो दो बौड़म छोकरियों ने ... कहीं से एक फोटुक ही मिल जाती पिरिया की यार गिरधर ... एक फोटुक ही तो मांग रहा हुआ मैं भगवान से ..."

"ल्ले ... अब भगवान जी जो क्या देने वाले हुए फोटुक परमौद्दा ... फोटुक देने वाला हुआ तुमारा लौंडा मल्लब ये गिरधर सिंग लम्बू ... पैले कैता तो जने कब ले आता भाबी की फोटुक तेरे लिए ... वो राका टाइप में फरेम कर के लगा लेना फिर ..." गिरधारी ने अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने के बाद परमौत को पुनः छेड़ा - "फोटुक-होटुक से  सादी जो क्या कर सकने वाले हुए ददा. सादी तो भाबी से ही होने वाली ठैरी. और उसके लिए तूने मुझको बताना हुआ कि गिरधर ये है तेरी भाबी. जो तेरी सादी फिक्स नहीं करा दी एक हप्ते में गिरधर ने तब कहना परमौद्दा ..."

गिरधारी लम्बू के तमाम प्रस्ताव आकर्षक थे लेकिन परमौत को फिलहाल अपने सुकून के लिए एक अदद पिरियाचित्र चाहिए था जिसे वह एक बटुवा खरीदकर उसमें स्थापित करना चाहता था ताकि जब मन करे और जितना मन करे, उसके दीदार कर सके.

"फोटुक लाएगा कां से ...?"

"वो मेरा हैडेक हुआ ददा. पैले तो मुझको दिखाएगा ना कि गिरधर ये है तेरी भाबी. उसके बाद जो तेरी सादी फिक्स नहीं करा दी एक हप्ते में गिरधर ने तब कहना परमौद्दा ..." गिरधारी ने अपना डायलॉग रिपीट करते हुए परमौत को ढाढस दिया और आँख मारते हुए कहा "परमौद्दा, दो दिन में फोटुक और एक हप्ते में सादी ... चल अब उठके एक चक्कर रोडवेज जाते हैं. सिगरट की तलब लग रही बड़ी देर से ..."

एक दूसरे का हाथ थामे दोनों मित्र रोडवेज़ के रास्ते पर थे. योजना बनी कि अगले दिन कम्प्यूटर क्लास के समय गिरधारी और शेष गोदाममंडल को विधिवत पिरिया की झलक दिखला दी जाएगी और उसके अड़तालीस घंटों के बाद गिरधारी लम्बू अपना पहला वादा निभा देगा.


(जारी)  

1 comment:

Unknown said...

लोक को सहेजता बेहद प्रभावी लेखन ।