(पिछली क़िस्त से आगे)
परमौत की प्रेम कथा - भाग पांच
गोदाम
पहुंचकर उसने सबसे पहले नब्बू डीयर से टू-इन-वन पर 'मैबूब मेरे' लगाने को कहा. गाना
शुरू होते ही वह आँखें मूंदकर दीवार से सिर टिकाए लेट गया. नब्बू डीयर के मुंह पर
एक कमीनी काइयां हंसी तैरने लगी और मैं और गिरधारी सवालिया निगाहों से कभी परमौत
के देखते कभी एक दूसरे को. गिरधारी मेरे कान में फुसफुसाया - "पंडित गुरु,
आज खेल करियाया दिक्खे परमौद्दा. ऐसी हालत तो खेल के बाद ही होने
वाली हुई."
परमौत
के चेहरे पर मोहब्बत में पड़ चुकने की की गर्वीली असहायता पसरी हुई थी और उसका हाल
वैसा ही था जैसा एक असली आशिक का होने के बारे में तमाम ग्रंथों में बताया जा चुका
है.
फिर
हमारा रोज़ का कार्यक्रम शुरू हुआ. इधर-उधर की बातों के दरम्यान पता ही नहीं चला कब
परमौत ने जल्दी जल्दी अपना तीसरा भी खेंच दिया था और उसकी आँखें डबडबा गईं. उसने
टू-इन-वन को बंद कर दिया और काफी गहरे स्वर में हमसे मुखातिब हुआ - "यार
मैंने ना तुम लोगों से झूठ बोला था. मेरा कोई चक्कर नईं चल्ला पिरिया के साथ. और
बात ये है कि ... "
"हमें
पहले से पता था बेटे. ऐसेई दो दिन में हो जा रई लौंडिया सैट? हमें देखो पैन्चो आधी उम्र निकल
गयी साली ..." नब्बू डीयर ने अपनी गलाज़त भरी असफल प्रेमकथा का रेफरेंस देना
शुरू किया ही था कि परमौत बोला - "देखो यार नबदा, एक तो
पिरिया को तुम आज से लौंडिया कहना बंद करो. और नम्बर दो बात ये सुनो कि सादी उससे
ही करके दिखाऊंगा तुम सब सालों को. और तीसरी बात ये कि उसके आगे तुम्हारी जो है ना
वो ... क्या नाम कहते हैं ... वो वहीदा रैमान भी फेल है ... मल्लब पिरिया के सामने
सब फेल हुआ ..."
उसके
बाद अगले आधे घंटे तक वह बेहद अंतरंगता और अपनेपन के साथ पिरिया का नखशिख वर्णन
करता रहा और "अब पिरिया नईं तो कुछ नईं यार ..." की कराह के साथ उसने
अपना इमोशनल मोनोलॉग समाप्त किया. हम तीन मोहब्बत के मारों को परमौत से ईर्ष्या
हुई. वैसे तो हमें खुश होना चाहिए थे कि उसका पिरिया-पुराण झूठा निकला लेकिन
सच्चाई यह थी कि हम दोस्तों में वह इकलौता था जिसे मोहब्बत करने का अधिकार था. वह
ईमानदार था, साहसी था
और सबसे बड़ी बात यह कि उसके पास खूब पैसे थे.
परमौत
को उस रात बहुत देर तक नींद नहीं आई. उसने खुद को पिरिया के साथ उन सभी सिचुएशंस
में फिट किया जिनकी उसे याद थी. कभी वे दोनों दिलीप कुमार-वहीदा रहमान बन जाते, कभी देवानंद-वहीदा रहमान तो कभी
राजेश खन्ना-मुमताज. दिल, वफ़ा, इश्क़, सनम, प्यार आदि से अटे
लुच्चे गानों का कोरस उसकी आत्मा बजता रहा.
अगले
दिन क्लास शुरू होने में अभी पांच मिनट थे. परमौत के क्लास में घुसते ही ससी और
उसकी लम्बी वाली सखी ने उसकी बगल वाली दोनों सीटों पर कब्ज़ा कर लिया. दो दिन बाद
इंट्रो-दावत होनी थी और इवेंट मैनेजमेंट का जिम्मा इन दो चुलबुली कन्याओं ने
सम्हाल लिया था. परमौत को मेन्यू समझाना शुरू किया ही गया था और दो-तीन लड़कियां
उनसे लगभग चिपक कर इधर-उधर खड़ी हो गईं. प्रिया की तरफ एक चोर निगाह देखने पर उसने
पाया कि वह उसी तरह पेन का सिरा अपने दांतों में दबाये थी. तमाम रंगीन पैराहनों और
उनकी खुशबुओं की भारी गमक के इतने नज़दीक होने के बावजूद परमौत को वैसा नशा महसूस
ही नहीं हुआ जैसा पिछले दिन तक हुआ करता था. ससी और उसकी सखियों ने मेन्यू डिस्कस
करने के चक्कर
में रौला काटा हुआ था जबकि उसका अपना मन प्रिया के हाथों में थमी पेन के प्रति
घनघोर ईर्ष्या से भरता जा रहा था. प्रिया की सुन्दर प्रोफाइल पर दूसरी चोर निगाह
डालते ही उसे अपने गाल शर्म की वजह से गर्म होना शुरू होते महसूस हुए. उसका कंठ
सूख गया और शराब की ज़ोरों की तलब हुई.
क्लास
ख़त्म हुई. परमौत का मन घर में नहीं लगा. उसे हमारी संगत के लिए गोदाम में जाने की
इच्छा भी नहीं हुई. वह बस अपनी पिरिया के साथ रहना चाहता था. उसने अपनी मोपेड
निकाली और निरुद्देश्य रुद्दरपुर की तरफ निकल गया.
अगला
दिन भी उसी तरह बीता. ससी और उसकी लम्बी सखी का अपने साथ इस तरह का व्यवहार करने की व्याख्या
उसने गिरधारी लम्बू की शब्दावली में करना प्रारंभ की तो उसे समझ में आया कि वे
दोनों उसे लाइन मार रही थीं. उसे उनकी मूर्खता और नादानी पर अफ़सोस हुआ. काश वह
उनसे कह पाता कि सुन्दरियो इस रास्ते से पास मिलना नामुमकिन है क्योंकि उसकी पूरी
चौड़ाई घेर कर उसकी और पिरिया की मोहब्बत मेल रेंगना शुरू कर चुकी थी. उस दिन
पिरिया ने सफ़ेद रंग का लखनऊ चिकन का कुरता पहना हुआ था और सफ़ेद रंग की ही सैंडल. उसने
जाना कि पिरिया अब सिर्फ उसी के लिए ड्रेस बदल-बदल कर आ रही थी और रोज़ उसकी
थोड़ी-थोड़ी हत्या करना ही उसका मकसद रह गया था.
किसी
तरह ये साली इंट्रो-पाल्टी निबट जाए तो अगला कदम उठाया जाए - यह सोचता हुआ परमौत
जब गोल्डन पहुंचा उसने देखा कि सारी लड़कियां साड़ी पहन कर आई थीं. जानेमन ने बसन्ती
साड़ी पहनी थी. पिछले बैच के लड़के-लडकियाँ भी बुलाये गए थे. परमौत की आँखें अपना
पल्ला सम्हालती और तनिक उदास नज़र आ रही ख़्वाबों की मलिका पर ठहरने को ही थीं कि अमिताब
बच्चन टाइप बालों वाला एक लंबा सुदर्शन लड़का भीतर आया. लम्बे लड़के के आते ही
पिरिया के चेहरे पर मुस्कान तैर आई और उन्होंने एक दूसरे से आँखों ही आँखों में
हैलो बोला. परमौत ने इस हैलो को ताड़ लिया.
मोहब्बत
की दास्तान हो और उसमें कोई रकीब न हो! - फिल्मों में देखे और नब्बू डीयर के
निर्देशन में उन्हीं से सीखे गए सारे सबक परमौत को याद हो आये और उसने जाना कि हो
न हो अमिताब भी उसकी पिरिया से मोहब्बत करता था. यह भी हो सकता था कि उनका सिस्टम
ऑलरेडी बन चुका हो. इस दूसरे विचार ने परमौत की सिट्टीपिट्टी गुमा दी. उसका दिमाग
फटने को हो गया.
ससी से "अभी आता हूँ" कह कर वह एक झपट्टे में गोल्डन से बाहर निकला और मुख्य सड़क की साइड में लगी पेशाब की शाश्वत गंध से ठस रहने वाली संकरी गली में घुस गया. उसने अपनी जैकेट की भीतर की जेब से जिन का पव्वा निकाला और एक सांस में पूरा खेंच दिया. गले में जैसे आग लग गयी, अलबत्ता मिनट बीतते न बीतते उसकी आत्मा के भीतर शान्ति पसरने लगी. अब वह ठहरकर सोचने की हालत में आ गया था. आस्तीन से मुंह पोंछकर वह रेस्तरां में घुसा जहां दही-भल्ले और आलू की टिकिया परोसी जा चुके थे. ससी ने अपने बगल की सीट परमौत के लिए रिज़र्व रख छोड़ी थी.
"तू
चले कां गया था रे परमोद ... छी तेरी तो टिक्की भी ठंडी हो गई ..." ससी ने उस
पर अधिकारपूर्ण लाड़ उड़ेलते हुए कहा और रूमाल से नाक पोंछी - "बाब्बाहो कितनी
तो मिर्च डाल रखी रे इसने ..."
परमौत
के भीतर घुसी जिन ने उसे एक निर्लिप्त महात्मा साधु में तब्दील कर दिया था. उसने
पाया कि सामने वाली मेज़ पर अमिताब और पिरिया साथ साथ बैठे हुए थे. पिरिया की चम्मच
में दही-भल्ले का टुकड़ा था और चम्मच थामे हुए उसके हाथ की कनिष्ठा नैसर्गिक तरीके
से हवा में उठी हुई थी. उसे याद आया एक पिक्चर में वहीदा रहमान को भी ऐसे ही कुछ
खाते हुए दिखाया गया था. कुछ भी खाते या पीते हुए ऐसी उठी हुई कनिष्ठा को परमौत के
अचेतन ने हमेशा आभिजात्य से जोड़कर देखा था. उसे पिरिया से रश्क हुआ क्योंकि खुद
उसे तरीके से चम्मच से खाना नहीं आता था.
अचानक
साधु बाबा ने परमौत के भीतर के प्रेमी को लात मारकर चौकन्ना किया कि पिरिया और
कमीने लम्बू के बीच होने वाला किसी भी तरह का संवाद उसकी निगाहों से बचना नहीं
चाहिये क्योंकि सवाल परमौत और पिरिया की मोहब्बत के भविष्य का था. कहीं ऐसा न हो
कि अमिताब उसे ले उड़े. उसने पाया कि पिरिया और कमीने लम्बू के दरम्यान कोई
वार्तालाप नहीं हो रहा था. लम्बू टिक्की भकोस रहा था जब उसकी सफ़ेद कमीज़ के कॉलर पर
थोड़ी सी चटनी टपक पड़ी. पिरिया ने झटपट अपने बटुए से रूमाल निकाला और उसे लम्बू को
थमाने के बजाय खुद ही उसके कॉलर को पोंछ दिया.
यह
सब बिजली की तेज़ी से हुआ और किसी ने इसे देखा तक नहीं लेकिन महात्मा परमौत ने इस
पांचेक सेकेण्ड के इस पूरे दृश्य को स्लो मोशन में देखा और उसे जैसे मोक्ष की तरफ़
ले जाने वाले अंतर्ज्ञान की प्राप्ति हो गयी. "स्साले ..." उसकी
अंतरात्मा उससे संवाद कर रही थी "देख क्या रहा है. लगा इस चूतिये लम्बू के
चार रैपट और ले जा अपनी मोहब्बत को चाँद के पार जैसे मीना कुमारी को राजकुमार ले
गया था उस गाने में ... है तेरे बूते का? तू क्यूं ऐसा करने लगा बे डरपोक! अब तो जान गया है
ना कि पिरिया और लम्बू का सिस्टम बना हुआ है. कुछ भी कर ले बे परमौतिया, रहेगा तू हल्दी-धनिया बेचने वाला ही. एक बार शीशे में अपनी शकल तो देख
लेता यार. ये बोकिये जैसे मुरदार सूरत लेकर तू पिरिया जैसी वहीदा रहमान को पाने की
सोच भी कैसे लेता होगा रे हुड्ड! ..."
परमौत
की जिनपूरित आत्मा हताशा के पाताल में लुढ़कने लगी और सारी कायनात उसके लिए मर गयी.
उदासी, नैराश्य और बेचारगी का गुबार लिए वह पाल्टी निबटाकर हम लोगों की शरण
में पहुंचा. इतने सालों की दोस्ती की याददाश्त में उस रात ऐसा पहली बार हुआ कि
हमने परमौत को बाकायदा रोते हुए देखा. वह पता नहीं कहाँ से मेहदी हसन की
ग़ज़लों का एक कैसेट खरीद लाया था और 'तेरी महफ़िल में हम न होंगे' को
तीसरी बार सुनते हुए उसकी रुलाई फूट पड़ी और उसे रोता देखकर गिरधारी लम्बू तक की
ऑंखें छलक आईं.
"अरे
यार परमौद्दा ऐसे जो क्या करते हैं यार दाज्यू ... " जहां गिरधारी परमौत को
दिलासा देकर चुप कराने की कोशिश कर रहा था, नब्बू डीयर अपने दोस्त को मोहब्बत में पड़ी पहली मार
का लुत्फ़ लेता हुआ दोनों से बोला - "अबे ऐसा ही होता है इस साली में बेटा.
मैं नहीं कह रहा था पहले कि मत पड़ रे परमौदिया ये प्यार-फ्यार के चक्कर में. अब तो
साले ऐसे ही रोयेगा ये ज़िंदगी भर." फिर उसने मुझे जबरिया उठाकर कहा -"चल
पंडित ज़रा हवा खा के आते है बाहर की यार. शाम से ही ये रोने पीटने के चक्कर में
दिमाग खराब हो रहा पैन्चो ... बंद करो बे सालो ये ढें-ढें अब ... भूख अलग लग रही
कब से ..."
हम
गिरधारी और परमौत को वहीं बिलखता छोड़कर बाहर घूमने लगे. एक घटिया ठेले ठंडा भुटुवा
खाते मुझे पहली बार परमौत की फिकर हुई. मैं सोच रहा था कि अगर परमौत को पिरिया से
मोहब्बत है तो फिर ऐसी क्या दिक्कत आ रही होगी कि उसे सबके सामने रोने का सहारा
लेना पड़ गया. "पंडित बेटे, लौंडिया का भेद तो भगवानजी तक नहीं लगा पाए ठैरे. ये तो साला परमौतिया
लाटा ही हुआ. कुछ कह दिया होगा उस लौंडिया ने."
मुझे
अच्छा नहीं लग रहा था. हमने पैसे दिए और जल्दी जल्दी गोदाम पहुंचे. छोटा वाला शटर
पूरा उठा कर गिरधारी बाहर खड़ा सिगरेट फूंक रहा था. "परमौद्दा तो फुल टैट हो
के सो गया यार पंडित. और तुम साले कहाँ निकल गए थे बे? आंतें चिपक गयी साली भूख से यार
... "
परमौत
गोदाम में मुर्दों की तरह बेसुध सोया था. उसे उठा सकना असंभव था सो हम तीनों ने भी
वहीं रात गुजारनी थी. गोदाम में जो भी सड़ियल दरी, पुराने कम्बल, बोरियां-कट्टे
और अखबार वगैरह थे, उन्हीं को ओढ़-आढ़ कर जस-तस हमने वहीं सोने
का जुगाड़ बनाया. सुबह सतनारायण गली से आने वाले बेसुरे भजनों की आवाज़ से सबकी नींद
ने एक साथ खुली.
इतनी
बुरी तरह सोने के कारण हमारी शक्लें भूत-भिसौणों जैसी हो रही थीं. पिछली रात के
बारे में एक भी शब्द नहीं बोला गया और हम एक साथ ठठाकर हंसे. मुंह में पानी लगा, अपने कपड़ों से धूल झाड़ हमने चाय
की तलाश में रोडवेज़ का रुख किया. बाहर अभी ठीक से उजाला नहीं हुआ था. बैग-अटैची
लदे एकाध रिक्शों की आवाजाही थी जिन पर दिल्ली से आई नाईट बसों से हल्द्वानी पहुंचे
अलसाए यात्री अपने ठिकानों की तरफ़ जा रहे थे. "यू ... यू ... यू ... और हाट्ट ... हाट्ट
... हाट्ट" कहते सोते हुए कुत्तों को जगाते, लाठियां
थामे दो-चार बेमतलब बूढ़े अपना बेमतलब का मॉर्निंग वॉक कर रहे थे. नब्बू डीयर ने भी
एक छोटा सा ढेला उठाया और सड़क किनारे सो रहे एक कुत्ते को दे मारा. क्याऊँ-क्याऊँ
करता मरियल कुत्ता अपनी दुबली सी पूंछ को पैरों के बीच घुसाए हमें गालियां बकता
स्टेडियम की दिशा में भाग चला. नब्बू डीयर की आत्मा तृप्त हुई और वह मक्कार हंसी
हँसता हुआ बोला "ठिक्क मुंडी में लगी स्साले की ..."
परमौत
और मैं सबसे पीछे थे. मैं उससे रात उसके रोने का कारण पूछता इसके पहले ही वह धीमे
से मुझसे बोला - "तुम्हारी भाबी को एक साले लम्बू हीरो ने पहले से ही सैट कर
रखा हुआ पंडित यार."
"फिर
अब?" मैंने
सवालिया निगाह उस पर डाली.
"अब
क्या? अब घंटा.
मामू कहेंगे पिरिया के लौंडे मुझसे. और क्या ..." वह हंसा. मुझे मालूम था वह
भीतर से रो रहा था.
(जारी)
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