Monday, January 2, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - तीन


परमौत की प्रेम कथा - भाग तीन

(पिछली क़िस्त से आगे) 

परमौत ने प्रिया नाम्नी जिस नीले सलवार सलवार सूट के बारे में जो कुछ हमसे बोला था वह झूठ था. इस बात को केवल परमौत ही जानता था. कम्प्यूटर की क्लास में दूसरे दिन वह लेट पहुंचा. वह इस दैवीय संयोग पर निर्भर होकर क्लास में गया था कि प्रिया वही नीला सलवार सूट पहने उसी सीट पर बैठी मिलेगी. यह साफ़-साफ़ अनुभव की कमी का मामला था. 

उसकी सीट खाली थी और पांच-छः इंच अलग खिसकाई हुई. सर झुकाए वह जैसे ही बैठा उसने पाया कि उसके बगल की सीट पर बैठा बादामी-हरा सलवार सूट कोई और था. परमौत ने ताड़ लिया कि उसका साइज़ प्रिया से फर्क था. उसके अलावा सारों की रंगत भी बदली हुई थी. क्लास का पूरा डेढ़ घंटा वह नज़रें नीची किये बैठा रहा. जब-जब उसकी निगाह बगल वाले सलवार सूट के पैरों पर पड़ती उसकी साँसें रुक सी जातीं और उसे अपना कलेजा गले में फंसा लगने लगता. फैशनेबल सैंडल पर लाल रंग का पान का पत्ता बना हुआ था और बांये पैर के सबसे छोटे अंगूठे पर चमचम करती अंगूठी चस्पां थी. शनैः-शनैः परमौत को इस बादामी-हरे से भी मोहब्बत जैसा कुछ हो चुकने का नशीला अहसास होने लगा. उसके नाम से अनभिज्ञ परमौत ने उसे फिलहाल पिरिया नंबर दो के नाम से अपने भीतरी कम्प्यूटर में रजिस्टर कर लिया.

शाम को मसालों की पेटी लादे रुद्दरपुर की तरफ मोपेड भगाते परमौत को अहसास हुआ कि ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत है जिसे इन सुन्दर सलवार सूटों की क़ुरबत में हर बीतते दिन के साथ और भी खूबसूरत होते चला जाना है. रुद्दरपुर में उसने अपने लिए उन्हीं दिनों चलन में आया सफ़ेद-नीला जूता खरीदा और सेन्ट की एक शीशी भी. हल्द्वानी की तरफ वापस लौटते उसने पाया कि उसे कोई ऐसा फ़िल्मी गीत गुनगुनाने की ज़रुरत हो रही थी जो नब्बू डीयर के मनहूस गीत-संग्रह में न हो. चुंगी से पहले पड़ने वाले ठेके से उसने दारू की दो बोतलें थामीं और सीधा गोदाम का रुख किया.

गोदाम में हमारी मनहूस त्रयी दोपहर से ही परमौत और पिरिया के सद्यः-प्रस्फुटित प्रेम सम्बन्ध का पोस्टमार्टम करने में पूरे उत्साह के साथ जुटी रही थी. गिरधारी लम्बू इस घटना को आर्थिक दृष्टिकोण से देखने का हिमायती था और उसका कहना था कि उसके बाप के पास भी परकास के बराबर पैसे होते तो वह भी महंगी कम्प्यूटर क्लास में जाकर किसी भी लौंडिया को सैट कर सकता था. उसकी टेक यह थी कि कॉलेज में जाने वाली लड़कियों के स्टैण्डर्ड और कम्प्यूटर क्लास में जाने वाली लड़कियों के स्टैण्डर्ड में धरती आसमान का अंतर होता है और यह भी कि परमौत जैसा अनपढ़ जाहिल बिजनेसमैन पिरिया को डिज़र्व नहीं करता. 

नब्बू डीयर का दामन उनके काल्पनिक धनवान की काल्पनिक बेटी ने हजारवीं बार छोड़ दिया था जिसकी भरपाई करने के लिए उसने दोपहर में ही जिन का पव्वा समझ लिया था. वह दोस्त दोस्त ना रहा वाला गाना रिवाइंड करके सुनता जाता था और बार-बार कहता था कि परमौत को मोहब्बत करना उसने सिखाया था और उसे इस बात का क्रेडिट न देकर परमौत बर्बादी की राह पर लग चुका था. नब्बू डीयर के मुताबिक़ प्यार-मोहब्बत में सम्पूर्ण बर्बादी पहली शर्त होती है और परमौत की बर्बादी भी जल्द ही हल्द्वानी शहर दखने वाला है. मेरे विचार थोड़ा अलहदा थे. मैं मानता था कि परमौत और पिरिया का भाग्य जो भी हो, परमौत के सौजन्य से होने वाली हमारी मासिक अय्याशी में कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए और इस महोद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें यथासंभव कोशिश करनी चाहिए कि परमौत का दिल हमारी किसी भी बात से न दुखे. सच बात तो यह थी कि हम तीनों को भी पिरिया से मोहब्बत हो गयी थी.

परमौत खुशबू लगाकर गोदाम में घुसा तो हम सन्नाटे में आ गए. आलू के थैलों जैसे उसके पैर सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज़ में अटाये जा चुके थे और उसने दारू की बोतलों के साथ साथ एक बड़ा सा झोला भी बीच में रखा. "अरे यार तुम्हारी पिरिया भाबी ने ये साला सेन्ट आज गिफ्ट में दे दिया. बोलने लगी आप नहीं लगाएंगे तो हम बुरा मान जाएंगे. भौत नखरे दिखाती है साली. कह रही थी हमें आपके फ्रेंड्स से मिलना है. मैंने कह दिया मेरे फ्रेंड्स भौत बड़े वाले हरामी हैं. ऐसे वैसे नहीं मिलते हर किसी से. उसके लिए इंतज़ार करो माई डीयर. और ये देखो सालो ..."

झोले में हम तीनों के लिए नाप के हिसाब के वैसे ही जूते रखे हुए थे. "अब इन्हीं को पहन के हमारी टीम हल्द्वानी भर की लौंडियों के साथ सिस्टम बनाया करेगी पैन्चो! ये नब्बू गुरु के जूते देखो जरा. इनसे तो जो काम बनने वाला भी होगा ना पंडित, वो भी लग जाएगा साला. अबे लौंडिया सबसे पैले जूते देखती है बेटे जूते. जैसे मकान की मजबूती मकान की बुनियाद में होती है वैसे ही आदमी और उसकी मोब्बत की मजबूती उसके जूते में होती है. जूते बढ़िया होंगे तभी तो सिस्टम सई और पक्का बनेगा. अबे देख क्या रहे हो. निकालो गिलास-फिलास." इसके बाद परमौत ने नब्बू डीयर का पुराना तकियाकलाम दोहराया जिसे उसने कई महीनों से इस्तेमाल करना बंद कर दिया था - "आत्तो पाल्टी होगी." उतने महंगे जूते खरीदना हममें से किसी के भी बाप के बस की बात नहीं थी. हम सब परमौत के लिए सामने पड़े रम के गिलासों की तरह कृतज्ञताभाव से लबालब भर गए. 

पाल्टी के दौरान परमौत ने पिरिया की सैंडल पर लगे लाल दिल का वर्णन खूब चटखारे ले कर किया. उस रात नब्बू डीयर ने उसी लाल दिल को अपनी हथेलियों पर थामे रखने का सपना देखा. फिसलन से भरपूर उस दिल को सही से थामने में उसे बहुत मशक्कत करनी पड़ रही थी.

तीसरे दिन परमौत के साथ कम्प्यूटर क्लास में पिछले दिन जैसा ही घटा. इस दफ़ा फिर से सलवार सूट बदल गया था और नीली जीन्स पहने था. जीन्स पहनी किसी भी लड़की को परमौत ने पहली बार इतनी नज़दीकी से महसूस किया था और कहना न होगा उसके प्रति उसका अनुराग जागकर न सिर्फ उठ खड़ा हुआ, वह बाकायदा डिस्को जैसा कोई नाच भी नाचने लगा.

कम्प्यूटर संस्थान में बीते शुरुआती दो सप्ताहों में के भीतर ही परमौत को अपनी सातों सहपाठिनियों के पैरों, अंगूठों, चप्पलों, जीन्स, सैंडलों, खुशबुओं इत्यादि से प्रेम होता चला गया. चेहरा वह किसी का भी नहीं पहचानता था. शुरू के दिन एक से शुरू हुई पिरियाओं की संख्या अधिकतम यानी सात हो चुकी थी. इन सातों पिरियाओं को अपने भीतर की एक पिरिया में जस-तस ठूंस कर वह हर शाम हमें अपनी मोहब्बत के नवीनतम मरहले की कहानियां बताता था.

गिरधारी लम्बू इस बात को लेकर सुनिश्चित था कि परमौत ने अब तक बड़ा वाला गेम भी खेल लिया होगा लेकिन नब्बू और मुझको परमौत के संस्कारों पर पूरा भरोसा था और हम उसकी और पिरिया की मोहब्बत को इन घटिया बातों से दूर रखने के पक्षधर थे.

इतने सारे प्रेम के अधिक्य ने परमौत के भीतर के मर्द को इतना साहस दे दिया था कि अब वह कभी कभार निगाह उठाकर सलवार सूटों के चेहरों को भी सेकेण्ड भर के लिए देख लिया करता. एक चेहरे पर निगाह पड़ती और उसे बिजली का झटका लगता - कोई भी इतना सुन्दर कैसे हो सकता था! धीरे-धीरे ही सही पर महीना बीतते न बीतते उसे अपनी सहपाठिनियों के चेहरों को थोड़ा ठहरकर देखने और उनमें फ़र्क करने का शऊर भी आ गया. इतने सालों से हल्दी-धनिया और अन्य मसालों के सैकड़ों हिसाब-किताबों से रोज़ दो-चार होने के कारण उसका दिमाग इस काम में पारंगत हो चुका था और उसने अपने अनुभवी मन के भीतर उन्हें पिरिया नंबर वन से लेकर पिरिया नंबर सेवेन तक के हिसाब से दर्ज कर लिया था. सातों ने किस दिन क्या पहना था इसकी लिस्ट भी उसने बाकायदा नियमपूर्वक बनाना शुरू कर दिया था.

उसने तय किया हुआ था कि उन सातों से मोहब्बत करने का अधिकार अगर पूरे नगर में किसी को था तो उसे क्योंकि वह उन सब की मोहब्बत में आकंठ डूबा हुआ था. उसे इस बात का अहसास भी था कि उसने अब तक किसी एक लड़की से बात भी नहीं की थी. उसके क्लास में घुसते ही लड़कियों में एक अजीब तरह की हिकारतभरी खुसफुस शुरू हो जाती थी और वह कॉपी-किताब खोलकर पढ़ने की एक्टिंग करने लगता.

ऐसी ही खुमारी में एक महीना बीता होगा जब क्लास में उसके घुसते ही तीन पिरियाएं उसके सामने आईं. उनमें से जिसके हाथ में एक डायरी थी, उस से बोली - "शन्डे को हम लोग ने ना इंट्रो पाल्टी रक्खी है गोल्डन में. शब को पच्चिश-पच्चिश रुप्ये जमा करने हैं बल. शर कै रे थे. आज क्लाश बी नईं होने वाली है बल. आप अपने पैंशे अबी दे रे हो या फीर कल घर शे लाओगे?" तीनों पिरियाएं एक दूसरे से सट के खड़ी थीं और परमौत को अपने ऐन सामने बस तीन रंगबिरंगी पर्वतश्रृंखलाएं जैसी नज़र आईं. मतलब इतना ज्यादा मज़ा! उसने सोचा और उसे गश आने को जैसा हो गया. वह कुछ कहता उससे पहले ही दूसरी वाली पर्वतश्रृंखला बोली - "मल्लब जिसके पास पच्चिस नईं हैं वो बीस बी दे सकता है लेकिन पाल्टी सन्डे को ई होगी. सर बता रे थे पिछले बैच के बच्चे बी आएँगे कै रे थे. और आज ना हमने समोसा पाल्टी रख रखी. अब आप निकालो आज के पांच रुप्ये." पर्वतश्रृंखलाओं की संख्या अब सात हो चुकी थी.

परमौत अपने अगले मूव की बाबत कुछ सोचता इससे पहले ही सबसे लम्बी वाली पिरिया बोल पड़ी - "आपके वाले पांच रुप्ये आज हम दे दे रहे. कल को लौटा देना ज़रूर करके हाँ. आप दो समोसे खाओगे कि तीन." पिरियाओं की संख्या को सात से छः बनाती हुई वह चुलबुल चुलबुल करती अपने बगल में खड़ी भूतपूर्व बनने जा रही पिरिया नंबर चार से बोली - "ससी, मैं तो यार तीन खाऊँगी हाँ. बाद में सिकायत झन करना. वो उप्पर वाली दूकान से लाना हाँ. ... अब जा क्यूँ नी री जल्दी बजार को. कहीं ख़तम नि हो जाएं समोसे यार ... छी रे ..." पर्वतश्रृंखलाएं अब खिलखिला रहीं थीं और क्लास अचानक मृत्योपरांत मिलने वाले स्वर्ग में तब्दील हो चुकी थी.

अधबेहोश हो चुके निश्शब्द परमौत की समझ में इतना ही आया कि इन लड़कियों ने समोसे खाने हैं औए पाल्टी करनी है और वे उससे पैसे मांग रही हैं. उसने अपनी जाकिट की भीतर की जेब में हाथ डाला और पचास-पचास के नोटों की रबड़बैंड लगी बहुत ज़्यादा मोटी गड्डी बाहर निकाली, जिसे उसने सुबह से अब तक काठगोदाम से हल्द्वानी के बीच पड़ने वाले तमाम दुकानदारों से उगाह कर तैयार किया था. गड्डी निकालने के चक्कर में दस-बीस-पचास-सौ के ढेर साले खुले नोट भी फर्श पर गिरकर बिखर गए.

"ओईजा! इन्ने पैंसे. बाब्बाहो!" सलवार सूटों की सामूहिक चीख निकल गयी.


(जारी)  

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