Monday, January 2, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - दो


परमौत की प्रेम कथा - भाग दो


छविराम और फूलन की प्रेमकथा के सुखद अंत ने परमौत को भीतर तक झकझोर डाला. फूलन जिस गणिया उर्फ़ छविराम को एक सदी से लाटा और खबीस कहकर दुत्कारती रही थी, उसके छत से छलांग मारते ही उस की हो गयी. अस्पताल से घर वापस जाने का रास्ता रोडवेज़ बस अड्डे की बगल से गुजरता था और रोडवेज़ बस अड्डे से लगे तमाम ठेलों पर ग़म ग़लत करने की सुविधा मिली हुई थी. सो दिनदहाड़े रम के अद्धे को जल्दी जल्दी बन-आमलेट के साथ निबटा कर नब्बू डीयर और परमौत फिटफोर होकर अपने-अपने घरों की राह लगने को थे जब नब्बू डीयर ने उसे ज्ञान दिया: "अगर लौंडिया ना कह रही है तो इसका मतलब ना कभी नहीं होता परमौत भाई. बस मौब्बत में हार नहीं माननी हुई. मुकेस नहीं कैता है कि कहीं दूर जब दिन ढल जाए तो सांझ की दुलन नजर बचाए. दुलन तो परमौत भाई, नजर बचाने ही वाली हुई. वही उसका फर्ज ठैरा. हमारा फर्ज ठैरा कि लगे रहो. मुझी को देख ना कैसे चूतियों की तरे रोज साला ड्यूटी करने कॉलेज जा रहा हूँ इत्ते सालों से. अब लगे हैं ..."

हमारा फर्ज ठैरा कि लगे रहो - नब्बू डीयर ने परमौत को मोक्ष प्राप्ति का सदियों से आजमाया मार्ग दिखा दिया था. लगे रहो कि चमत्कार कभी भी घट सकता है. लगे रहो कि तुम्हारी किस्मत भी गणिया लाटे की तरह कभी भी सैट हो सकती है. लगे रहो कि ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं. लगे रहो कि लगे रहना हमारा फर्ज हुआ.

अगली सुबह परमौत ने तय किया कि अब वह कॉलेज कभी नहीं जाएगा और न ही मोहब्बत के किसी भी मामले में अब से नब्बू डीयर से किसी भी तरह की कोई राय लेगा. छविराम की उपलब्धि का गवाह बन चुकने के बाद नब्बू डीयर की मोहब्बत उसके लिए मिसाल नहीं हो सकती थी. अपनी स्टोरी उसने खुद लिखनी होगी.

इस प्रकार के प्रेरक विचारों ने परमौत को अगले कई दिनों तक एक अजीब तरह की कैफियत में मुब्तिला रखा लेकिन हल्दी-धनिया पाउडर इत्यादि के धंधे से होने वाली इफरात कमाई और उसे कमाने में लगने वाले श्रम ने शनैः शनैः परमौत को फिर से दुनियादारी की तरफ धकेल दिया और उसकी प्राथमिकताएं फिर से बदल गईं.

परमौत को अपनी प्रेमहीन ज़िंदगी में मज़ा तो नहीं आता था पर उतना खराब भी नहीं लगता था. वह नियमपूर्वक हमारी महफ़िलों में महीने में एक बार आता और खूब पैसे फूंक कर चला जाता. लेकिन इधर हमारी पार्टियों की पुरानी वाली रंगत थोड़ा फीकी पड़ने लग गयी थी. दारू पीकर अक्सर अश्लील शायरी सुनाने वाले गिरधारी लम्बू को उसके बाप ने एकाधिक बार जल्दी हिल्ले से लग जाने की हिदायत और ऐसा न होने की हालत में घर से नड़ी हो जाने की चेतावनी दे दी थी जिसकी वजह से उसका नैसर्गिक हरामीपन बुझ गया था और वह इन मौकों पर परमौत से बिजनेस करने के रहस्य सीखा करता. नब्बू डीयर देवदास हुआ चाहता था और फ्री की दारू पीकर अब भी मुकेश के ही गाने गाता हुआ खुदकशी जैसी हालत कर लिया करता. मेरी अपनी स्थिति गिरधारी लम्बू और नब्बू डीयर के बीच की थी और मैं सेफ खेलते हुए जिंदगानी बसर करने की कायर और दब्बू और नाकामयाब कोशिशों में लगा हुआ था. दारू अब भी हमारे द्वारा जीवन में की हुई सबसे बड़ी खोज थी और किसी लौंडिया की मोहब्बत हासिल न कर पाना सबसे बड़ी नाकामयाबी. मेहदी हसन की गजल की तर्ज़ पर संक्षेप में कहा जाए तो हमारी दावतें मनहूस से मनहूसतर और फिर मनहूसतम होती जा रही थीं.

जो भी हो नब्बू डीयर की पुरातन टेक कि भगवानजी के घर देर है अंधेर नहीं हम सब की और ख़ास परमौत की अकेली रातों में आशा का संचार करती रहती थी. हमारी संगत ने उसे भी डेबोनेयर जैसा साहित्य खरीदने और देखने का चस्का लगवा दिया था जिन्हें वह बड़े सलीके से अपनी खाट की मटियल निवाड़ की परतों के मध्य छिपाए रखता था. उसका खरीदा इन साहित्यिक पत्रिकाओं का ज़खीरा हमारे लिए दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय बन गया था.

परमौत के दिल में मुहब्बत के कीड़े को फिर से रेंगने पर मजबूर कर देने का श्रेय इस दफ़ा भगवान का नहीं बल्कि विज्ञान को दिया जाना चाहिए. यह अस्सी की दहाई के आख़िरी बरस थे जब हल्द्वानी जैसे पिछड़ा समझे जाने वाले नगर में भी देश के प्रधानमंत्री के तकनीकी सलाहकार सैम पित्रोदा के कहने पर कम्प्यूटर सिखाने वाले स्कूल खुलना शुरू हुए. इस तौर पर इस कहानी में सैम बाबा का योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी माना जाएगा जितना शीरीं फरहाद की कहानी में बांसुरी का और छविराम-फूलन की कहानी में तिकोनिया के छोले भटूरों का था.

गांधी आश्रम से सटी एक बदरंग इमारत की दूसरी मंजिल पर नगर का दूसरा कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर खुला और इस बाबत अखबार में पर्चे बंटवाये गए. यह परचा परमौत के दूरदर्शी भाई परकास ने भी देखा. पुश्तैनी धंधा बहुत ज्यादा फ़ैल चुका था और उसे और ज़्यादा फैलाने की हसरत रखने वाले परकास को किसी ने समझा दिया था कि आने वाला समय कम्प्यूटर का होनेवाला है. परकास के खुद के बच्चे अभी इतने बड़े न हुए थे कि उन्हें इस नई साइंस को सिखाने भेजा जाता सो इस काम के लिए परमौत को जबरिया चुन लिया गया. परमौत को दिन में दो से चार का समय आराम करने को मिला करता था लेकिन बड़े भाई ने अपना धर्म निभाते हुए उसमें भी सेंध लगा दी और एक रात खाना खाते समय उसे इस खाली समय का उपयोग कम्प्यूटर सीखने जाने का फरमान सुनाया.

धो-धो कर सप्लीमेंट्री से इंटर पास करने के बाद परमौत किसी भी तरह की पाठ्यपुस्तकों की छाया तक से दूर रहना चाहता था लेकिन भाई के "फीस के आठ सौ रुपे जमा करा दिए हैं तुम्हें आदमी बनाने के लिए" के कारण उसे कम्प्यूटर की क्लास में जाना पड़ा. लंच में भरपूर दाल-भात सूत चुकने की वजह से उसकी आँखें भारी हो रही थीं और वह आदतन बिस्तर पर ढुलकने जा ही रहा था जब पीछे से आकर परकास ने उसकी पीठ पर धौल जमाई.

क्लास में घुसते ही परमौत को जैसे फालिज मार गयी. बारह बाई बारह के कमरे में बनी क्लास में कुल जमा आठ कुर्सियां थीं - चार अगली कतार में चार पिछली में. सात कुर्सियां भरी हुई थीं और आठवीं परमौत की राह देख रही थी. इन सातों कुर्सियों पर सात सलवार सूट विराजमान थे. सलवार सूटों को देखते ही परमौत घबराकर वापस घर लौटने को मुड़ा ही था कि एक लौंडेनुमा मास्टर ने पीछे से आकर उसे हकबका दिया - "यू मस्ट बी अवर ओनली मेल स्टूडेंट?" उसी ने उसे कक्षा में धकेलकर भीतर किया और पिछली कतार की कोनेवाली सीट पर स्थापित होने में मदद की. परमौत की बगल में बैठे सलवार सूट ने अपनी कुर्सी चार-पांच इंच उस तरफ को सरका ली.

लौंडे मास्टर ने सबसे पहले क्लास के सदस्यों से अपना परिचय देने को कहा. अगली कतार के सलवार सूटों ने एक-एक कर अपना इंट्रोडक्शन देना शुरू किया. परमौत की आँखें जमीन पर लगी हुई थीं और वह इस आकस्मिक घटना से सदमे में था. सलवार सूट बोल रहे थे और उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. अलग अलग सलवार सूटों की अलग अलग महकों का मिक्सचर ओल्ड मंक के चार पैग से ज़्यादा टुन्नकारी था. छः इंट्रोडक्शन हो चुके थे जब परमौत को भान हुआ कि उसकी बगल में बैठी लड़की खड़ी होकर अपना नाम पता बता रही थी - "सर माई नेम इज प्रिया एंड आई स्टडी इन ..." परमौत ने ज़िंदगी में पहली बार किसी लड़की को अपना नाम बोलते हुए सुना. चोट्टी आँख से उसने प्रिया के पैरों को देखा. पैरों के नाखूनों पर लगी गुलाबी नेलपालिश की अंधा कर देने वाली चौंध में परमौत बेसुध होने को था जब उसे अपने कंधे पर एक हाथ महसूस हुआ.

"इट्स योर टर्न सर. प्लीज़ इंट्रोड्यूस योरसेल्फ़." लौंडा मास्टर उससे कह रहा था और सात रंगबिरंगी पोशाकें उस पर लगी हुई थीं. वह खड़ा हुआ तो उसके पैर काँप रहे थे. सबसे पहले उसे इस बात पर शर्म आई कि वह हवाई चप्पल पहन कर आया था जिसमें उसके भौंडे पैर और भी बेडौल और भद्दे लग रहे थे.

बहुत हिम्मत करके उसके कंठ से फूटा - "सर माई नेम इज परमौत सरमा ..."

सारे सलवार सूट फिक्क से समवेत हँसे और लौंडे मास्टर ने उसे तकरीबन जिहिदाकते झिड़कते हुए कहा - "अपना नाम तो ठीक से बोलना सीख लो यार. इट्स प्रमोद नॉट परमौत". लडकियां इस बार थोड़ा जोर से हंसीं.

इस अपमानजनक घटना के बीत जाने पर परमौत जब वापस सीट पर बैठा तो जैसे वह दूसरा ही कोई ही बन चुका था. अपनी शर्म और ग्लानि और अपमान के बीच उसने ताड़ लिया था कि बगल की सीट वाला सलवार सूट बिलकुल नहीं हंसा था और उसकी निगाहें परमौत पर लगी हुई थीं.

इतना मीठा कोई नाम भी हो सकता है, उसकी कल्पना से परे था. "प्रिया ... प्रिया ... प्रि ... या ... .. प्रि ... या ... .. प्रि ... या ... .. प्रि ... या ... " लौंड कम्प्यूटर मास्टर, छः सलवार सूटों की हंसी, आठ सौ की फीस, नब्बू डीयर की नसीहतों और हल्द्वानी के दो कौड़ी के झंडू जीवनराग को घंट पर स्थापित कर परमौत के भीतर प्रेम का विनाशकारी संगीत बजना शुरू हो गया था.

***

उस शाम परमौत पाल्टी का पूरा साज-सामान लेकर अचानक ही गोदाम पहुंच गया. मैं और गिरधारी लम्बू डेढ़ घंटे से कांच के गिलास और माचिस की मदद से खेला जाने वाला परम भुस खेल चैंटू खेल रहे थे. नब्बू डीयर की आँख आई हुई थी और वह अपने पिताजी का काला सूरदासी चश्मा लगाए  था जो उन्हें सरकारी अस्पताल से मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद मिला था. इसके अलावा नब्बू डीयर एक पुरानी पेन्सिल को मुकेश के दर्द भरे नगमों के कैसेट के छेद में घुसाकर उसके टेप को सुलटाने की कोशिश कर रहा था. पिछली रात जब हमारी गरीबों वाली पार्टी चल रही थी और नब्बू तीन पैग पीकर हौल में आकर "ओ जानेवाले हो सके तो लौट के आना" मिमियाने लगा था, गिरधारी लम्बू ने उसे "चोप्प भैं ..." कह कर छुपाने की कोशिश की थी. नब्बू का मुकेश-प्रेम इस से ज़रा भी आहत नहीं हुआ और उसने चुप होते ही टू-इन-वन पर वह कैसेट लगा दिया. गिरधारी  ने थोड़ी देर बर्दाश्त किया पर इस बार "हटा माचो ..." कह कर टू-इन-वन से कैसेट निकालकर गुस्से के एक दौरे में उसका जितना टेप निकल सकता था उतना निकाला और दो और गालियाँ देकर बाहर का रुख किया.

ज़ाहिर है पिछली रात की पार्टी खराब हो जाने का असर उस समय तक भी काफी बचा हुआ था. नब्बू अपने नियत  समय पर गोदाम पहुंच गया था और उसने हमसे कोई दुआसलाम नहीं की. बाज़ार से अद्धा लाने की बात हुई तो उसने चुपचाप अपनी जेब से बीस का नोट निकलाकर हमारी चैंटू टेबल पर रखा और टेप सुलटाने ने मसरूफ हो गया. गिरधारी लम्बू अद्धा लाया और उसके तीन बराबर पैग बनाकर उसने हमें थमाए जिन्हें बिना अधिक फॉर्मल्टी के उदरस्थ कर लिया गया. हम बात नहीं कर रहे थे और सारा माहौल माचिस की डिब्बी के कांच के गिलास से टकराकर मेज़ पर गिरने की खटक-खट आवाज़ से भरा हुआ था. कभी कभार जब माचिस गिलास के भीतर घुस जाती तो ही इस आवाज़ में थोड़ा अंतर आता. कुल मिलाकर हम तीनों यह खासा निराशापूर्ण माहौल रच पाने में सफल हुए थे.

परमौत के भीतर आने पर हमें थोड़ा सा अचरज और बहुत सारी खुशी का अनुभव हुआ. अचरज इसलिए कि हम भुक्खड़ों पर परमौत की दयादृष्टि अमूमन महीने में एक बार पड़ती थी और वह दृष्टि पिछले सनीचर को ही पड़ी थी.  खुशी इसलिए कि हमें खुश करने का माल वह दूनी मात्रा  में लेकर आया था. वह अतीव उत्फुल्लित था और जिस मुद्रा में वह मेरे बगल में आकर लधरा उस से ज़ाहिर था उसके पास समय काफी समय था. उसकी लाई पहली बोतल निबटने तक नब्बू डीयर के कैसेट का टेप कुछ कांट-छांट के बाद काम करने लगा था और बाकायदा बज रहा था. गिरधारी लम्बू को भी फिलहाल मुकेश से कोई दिक्कत नहीं हो रही थी. टेप के कुछ हिस्से बुरी तरह मुची गए थे जिन्हें काटना पड़ा था और 'जिस गली में तेरा घर न हो बालमा' वाले गाने का  अच्छा खासा हिस्सा गायब हो गया था और वह "जिस गली" से सीधा "में कई रंगरंलियाँ सही" पर पहुँच जा रहा था. गाना तीसरी बार बज रहा था और उसी हिस्से पर पहुंचा ही था कि परमौत ने झटके से उठकर टू-इन-वन बंद करते हुए नब्बू डीयर के कान में फुसफुस करते हुए कुछ कहा जिसे सुनते ही नब्बू के हाथ से गिलास नीचे गिरकर टूटा और उसकी चीकट जैकेट रम के गिरने से और भी चीकट और चमकदार हो गयी.

"नब्बू! फिर फोड़ दिया भैं... " काफी देर से चुप बैठा गिरधारी हँसता हुआ खड़ा हुआ और एक पुराने गत्ते पर कांच के टुकड़े इकठ्ठा करने ही लगा था कि नब्बू के विस्फारित नेत्रों को देखकर थम गया.

"अबे हुआ क्या? ऐसे क्या देख रिया? दारू ही तो है साली. और बना देता हूँ तेरा एक. परमौद्दा दो-दो बोतल लाये रहे आज बेटा."

"दारू नईं गिरधारी, भाभी लाया है तेरा परमौद्दा आज. भाभी समझता है लफंडर!" यह परमौत था.

परमौत किसी उद्घोषक की तरह गोदाम के बीचोबीच खड़ा हो गया था और एक पुराने अखबार को मोड़कर उसका माइक बनाए मुस्करा रहा था.

"क्या बे परमौत, आज चढ़ गयी तुझे भी बेटा. मैं पैले ही कह रहा था तुजसे कि धीरे धीरे पीनी चैये.” मेरी बात को अनसुना करते हुए परमौत ने लाउडस्पीकर पर बोलना शुरू किया - "नब्बू गुरू की दया से तुमारे परमौत को भी साली मोहब्बत हो गयी है आज पंडित बेटे! चूतियापन्थी वाली नहीं असली वाली. असली वाली लौंडिया ने आज मुझसे वोई कै दिया है जिसे सुनने को नब्बू गुरू छत्तीस साल से कॉलेज के चक्कर लगा रे. बुरा मती मानियो नब्बू उस्ताज, इत्ता मज़ा आता है ना जब असल वाली लौंडिया असल में कैती है कि ..." वह गंभीर मुद्रा बनाते हुए खामोश हो गया.   

"क्या कैती होगी यार परमौद्दा?" गिरधारी जो इस मामले में सबसे अनाड़ी था, परमौत की चमचागीरी करने के किसी भी मौके को नहीं छोड़ता था.

"घंटा कैती होगी इस परमौतिया से लम्बू बेटे. ऐसेई हो जा रही होगी कोई लौंडिया सैट! बेटे उसके लिए भौत मेनत करनी पड़े है ..." नए गिलास में अपना पैग बनाते नब्बू ने उलाहना देते हुए कहा.

परमौत इस सब से असम्पृक्त होकर अखबार का लाउडस्पीकर मुंह पर लगाए लगाए ही अपनी आवाज़ धीमे करता बोला - " गिरधारी बेटा, उसने आज मुझसे कै दिया कि आई लव यू ..."

हमारे किसी भी समारोह आज तक किसी ने ऐसी बात नहीं की थी. मोहब्बत, आशिकी, लव, प्यार, इश्क - थे तो ठोस शब्द पर उनके मानी हमारे लिए फिल्मों के गानों की ही तरह अमूर्त और वास्तविकता से खासे परे थे. लोग किताबों में मोहब्बत करते थे, उनकी मोहब्बतों पर कहानियाँ लिखी जाती थीं, दिलीप कुमार और वहीदा रहमान ऐसी कहानियों पर बनी फिल्मों में एक्टिंग किया करते थे और मुकेश जैसा गानेवाला उसी पर बने गीतों को गाता हुआ हमेशा ऐसा अहसास दिलाता था जैसे गाना ख़तम होते ही उसे हार्ट अटैक पड़ेगा और वह टें बोल जाएगा. पर हल्द्वानी जैसे पिछड़े और अविकसित नगर में कोई लड़की किसी लड़के से 'आई लव यू' कह दे, ऐसे सीन का तसव्वुर तक कर सकना हमारे तसव्वुर से बाहर की बात थी. वह भी तब जब कि लडके का नाम परमौत हो.

मुझे भे लगा कि परमौत मज़ाक कर रहा है लेकिन जब उसने नीचे बैठकर मेरा हाथ थाम लिया और बोला "यार पंडित दिल का मामला है यार. अब इस में बस थोड़ी चलने वाला हुआ किसी का. हो गया लव तो हो गया. बस. ख़तम.हो गया साला!" उसने अपना बची हुई रम एक सांस में खेंची और आस्तीन से होंठ पोंछता हुआ बोला "किसी से कहियो मती यार तुम लोग. अब चलो आज नेगी के यहाँ शिकार भात सूतने चलते हैं."

नेगी के यहाँ शिकार भात खाने का मतलब होता था बड़ी पार्टी. और मौका वाकई बड़ी पार्टी का था क्योंकि एक लड़की ने परमौत से मोहब्बत होने का ऐलान किया था. हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि खुश हुआ जाए या खीझा जाये. मोहब्बत करने के लिए हम तीनों अपने आप को काफी ज़्यादा एलिजिबल समझाते थे - परमौत से कहीं ज्यादा. ऊपर से हमारा तो रियाज़ भी था. मैं मन ही मन भुनभुना भी रहा था कि सारी चीज़ें एक ही आदमी के हिस्से कैसे आ सकती हैं - पैसा भी, मोपेड भी, लड़की भी, मोहब्बत भी. हमने परमौत को अपने अपने तरीकों से झूठी बधाइयाँ दीं और प्यार-मोहब्बत की बाबत अपने अपने द्वारा अर्जित ज्ञान की औकात से उसे सलाहें भी दीं. दारू का अतिरेक होने के बावजूद भी नशा अभी पूरा नहीं हुआ था सो नेगी के यहाँ एक अद्धा और मंगाया गया और उसका श्राद्ध होते न होते नब्बू डीयर से रहा न गया और बोटी चाबते हुए उसने परमौत से पूछ ही लिया - "परमौत वस्ताज, वो मल्लब नाम क्या बताया था तुमने भाभीजान का? ... मल्लब लौंडिया का नाम पूछ रहा था मैं जरा सा."

परम संतुष्टि वाली एक भरपूर डकार निकालकर परमौत ने हिकारत से हम तीनों को देखते हुए कहा - "पिरिया ... पिरिया है तुम्हारी होने वाली भाबी का नाम नब्बू बेटे ..."

(जारी)

2 comments:

के सी said...

ऐसी उम्दा क़िस्सागोई है कि मैं इसे पढने का इंतज़ार करता हूँ.

दौर ऐसा है कि किताबें बेशुमार झांसों के साथ पेश की जा रही हैं. अन्दर फूटी कौड़ी नहीं निकलती. मगज ख़राब होने का सामान खुद खरीदना पड़ रहा है. एक आप हैं कि समय निकाल नहीं पाते और महीनों बरसों में अधूरे छूटे किस्सों को अपडेट करते हैं. हल्द्वानी के किस्से और लपूझन्ना दोनों आपके मूड से पूरी हो जाये. तो एक पार्टी मैं भी अपने दोस्तों को दूंगा. शिकार-भात वाली.

उमेश विश्वास said...

बार बार मज्जा, हर बार मजा।