Saturday, February 25, 2017

मतलब कुछ तो ये बन्दा खुदा से ज़रूर लेकर आया था - वेदप्रकाश शर्मा के बहाने

हाल ही में दिवंगत हुए वेदप्रकाश शर्मा पर यह लेख मेरे आग्रह पर ऋषि उपाध्याय ने कुछ दिन पहले भेजा था. व्यस्तताओं के चलते इसे यहाँ नहीं लगा सका. ऋषि की कविताओं पर एक पोस्ट जनवरी 2015 में कबाड़खाने पर पोस्ट की गयी थी. उनका परिचय जानने के लिए इस पोस्ट पर जाया जा सकता है - बहोत काम पड़ा है आर. डी. : ऋषि उपाध्याय से मिलिए 




बात बरसों पुरानी है,मेरे बचपन की. हमारे दादाभाई याने कपिल भैया ने अपनी  बुक स्टाल के लिए कहीं से एक बोरा भर के पुराने उपन्यास खरीद लिए. दादा भाई की नासमझी और बकौल ताऊ जी पैसे को आग लगाने वाले इस कृत्य से घर में अजीब मातम पसर गया. बगैर खाना खाये ताऊ जी का घर से जाना और देर शाम वापस लौटना और हम बच्चों का रजाई में दुबके ही अंदाज़ा लगाना चलता रहा की अब दादा भाई का क्या होगा. फिर दादाभाई ने हिम्मत जुटा कर जब ताऊजी से ये कहा की ये सब नॉवेल पुराने हैं मगर ज़्यादातर उपन्यास वेदप्रकाश शर्मा के हैं. रजाई में दुबके हमें ताऊजी की हूँ ...  सुनाई दी और सुनाई दिया अगला वाक्य - चलो कम से काम इतना दिमाग तो लगाया की वेद प्रकाश के उपन्यास लाया...

उस रात ये ज्ञान मिला की ये वेदप्रकाश साहब जो आज दादाभाई के लिए संकटमोचन बन गए थे कोइ बड़े सेलेब्रिटी हैं. और वाकई कुछ और बड़ा होने पर उनका सेलेब्रिटित्व ,चोरी छुपे पढ़े गए कुछ उपन्यासों में साबित हो गया.

तो यूँ समझिये ये लुगदी साहित्यकार दशकों तक शहरों से छोटे-छोटे गांव तक दादाभाई जैसे कई लोगों के बुक स्टाल हिट करवाने में योगदान करते रहे साथ ही तकरीबन दो-तीन पीढ़ियों को ये काग़ज़ी चरस परोसते रहे.

आज उनके जाने पे उनके साहित्य पे कोई सम्मान जनक भाषण लिखने का कारण नहीं बनता पर हकीकत ये है की प्रेमचंद और रेणु को आउट डेटेड मान चुकी हमारी पीढ़ी के हाथ में किताबें बचाये रखने का क्रेडिट शर्मा जी दिया जा चाहिए.

भाईसाब, हमने अपने कस्बों में होटलों पर और चाय की टपरियों में नशेड़ियों के जानिब दिनभर नॉवेल चाटते तकरीबन हर उम्र के लोग देखे हैं. शायद आज भी हम इतना वक़्त अपने सबसे बुरे अडिक्शन-सेलफोन को ना देते होंगे वैसे वाली दीवानगी हुआ करती थी उनके नॉवेल्स की उस दौर में. मतलब कुछ तो ये बन्दा खुदा से ज़रूर लेकर आया था.


आठ लाइन की एक कविता फेसबुक पे पोस्ट करने के बाद हम हांफने लगते हैं ये गुरु १७३ उपन्यास लिखा गए जिसमे कई बेस्ट सेलर और कुछ तो करोड़ों प्रतियों में बिकने वाले। स्वीकार कर लीजिये की हमारी पूरी जनरेशन अपने साहित्यिक रुचियों के अधोपतन में कुछ चटपटा ढूंढ रही थी और शर्मा जी ने अपनी चाट परोस दी और ऐसे परोसी की वो दशकों तक चटकारे देती रही और  ही नहीं प्रेमचंद और रेणू तम्बाकू के गुटके की पुड़िया में लिपट गए और शर्मा जी हमारे दादाभाई के उद्धारक बन गए.

आप बेशक उन्हें ये कह के गरिया सकते हैं की किताबें तो मस्तराम की भी बिकी हैं उन्हें भी साहित्य रत्न नवाज़ा जाए? पर जिस तरह ध्रुपद गायन के गायन के दौर में दादरा, टप्पा ख़याल और ठुमरी को हेय संगीत माना जाता था और आज यही सब शास्त्रीय परम्परा के अभिन्न अंग हैं उसी तरह कौन जाने आने वाली कोई जमात शर्मा जी के १७३ नगों को हिंदी साहित्य की धरोहर घोषित कर दे.


अंत में बस इतना ही  कि हज़ारों परिवर्तनों और भाषाई, सांस्कृतिक और वैचारिक घालमेल से समृद्ध हमारी भाषा को आने वाले कई परिवर्तनों के लिए तैयार रहने की चेतावनी देते हुए वेदप्रकाश शर्मा जी को नमन करें.

1 comment:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन डॉ. अमरनाथ झा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।