(एक और
रीपोस्ट)
दारू
पीना सीखे हुए साल भर हो गया था. नैनीताल शहर की रोमान्टिकपन्थी के चक्कर में
मोफ़्फ़त की मार भी पड़ चुकी थी. घर से मिलनेवाली पाकेटमनी हम मित्रों के
मिलौचा-प्रोग्रामों की भेंट चढ़ जाया करती थी और पन्द्रह तारीख़ आते ने आते फ़ोकट
दारू पिलाने वाले महात्माओं की खोज शुरू हो जाती.
इस
संकटपूर्ण समय में शहर में मेरा जलवा एक प्रतिभावान छोकरे के रूप में क्या फैलना
चालू हुआ कि कई सारे नौकरीपेशा, बिजनेसरत लोगों से
दोस्ती हो गई. ये सब किसी न किसी रूप से कला-साहित्त के मारे थे.
इनकी
संगत में होता यूं था कि रोज़ फ़ोकट दारू पीने को मिल जाती थी और झील किनारे देर रात
टहलते आवारागर्दी और मौज के अनन्त सेशन्स चलते थे. मेरी अपनी कैपेसिटी अब पव्वे के
आसपास पहुंचा चाहती थी.
एक
दिन इन्हीं पुरोधाओं द्वारा नैनीताल से दसेक किलोमीटर दूर किलबरी नामक स्थान पर
पिकनिक का प्लान बनाया गया. किलबरी में वन विभाग का गेस्ट हाउस है जिसे बाकायदा
बुक करा लिया गया था.
पिकनिक
पार्टी में जगतदा बतौर लीडर शामिल थे. जगतदा ज़बरदस्त एक्टर थे और सारा शहर उन्हें
इस वजह से ज़्यादा जानता था बजाय इस के कि वे बड़े अफ़सर भी थे. पार्टी के अन्य
सदस्यों में नरेश जोशी यानी नरदा, राजेशदा, लल्तू दाज्यू और मैं थे.
नरदा
का यू.एस.पी. यह था कि वे दारू पीने के बाद मस्ती के पहले दौर में दोस्तों को बहुत
दर्दनाक चिकोटियां काटते थे, दूसरे दौर में मां-बहन
की गालियां सुनाते हुए शहर भर की सुन्दरियों पर लानत भेजते और तीसरे में लुढ़क जाने
से पहले उपस्थित मित्रों को प्रसाद के तौर पर एक-एक लात रसीद
किया करते. नरदा वकील भी थे.
राजेशदा
भांग और चरस को भी दारू के बराबर सम्मान दिये जाने के हिमायती थे, सो नैसर्गिक था वे बहुत कम बोलते थे. अच्छी कदकाठी वाले राजेशदा
दारू-सत्रों के उपरान्त पूर्णटुन्नों को घर पहुंचाने का कार्य बचपन से ही करते आए
थे, ऐसा कहा जाता था. नैनीताल में उनका अपना पैतृक बिजनेस
था.
लल्तू
दाज्यू के तो क्या कहने - हारमोनियम थाम लेते तो पानी जैसा बहा देते सुरों को, और पक्के राग गाते हुए ऐसी ऐसी तानें छेड़ा करते कि उफ़! वे नौकरी करते थे
कहीं.
ये
चारों चालीस-पैंतालिस के फेरे में थे - चारों शादीशुदा थे, उनके बच्चे थे. बस कला-साहित्त के कीड़े ने उन्हें ऐसा काटा था कि मुझ
बीसेक साल के लौंडे को बड़ा कलापारखी समझते थे जबकि मुझे सिवाय बात-बात पर मीर और
चचा ग़ालिब के शेर सुनाने और छात्र संघ के चुनावों के पोस्टर बनाने के अलावा कुछ
नहीं आता था. नहीं, नहीं! ऐसा नहीं है कि मैं कुछ और नहीं
करता था. मैं दारू भी पीता था. और एक तरह से दारु और कला-साहित्त की ऐसी संगत
बैठती कि अपने से दूनी उमर के इन महानुभावों की निस्बत में बहुत अपनापन महसूस होता
था. भाग्यवश ये सब आज भी मेरे अंतरंग मित्र हैं.
सुबह
सात बजे तल्लीताल रिक्शा स्टैंड पर इकठ्ठा हुए सारे - पिकनिक वाली पोशाकों में -
यानी स्पोर्ट शूज़, जीन्स, टी
शर्ट, हैट, काले चश्मे, पिठ्ठु, टू इन वन, कैसेट
वगैरह. जगतदा के कन्धे पर भरवां बन्दूक लगी हुई थी. प्लान यह था कि जल्द से जल्द
किलबरी पहुंचकर शिकार पर निकला जाएगा - पांचेक जंगली मुर्गियां चित्त की जाएंगी,
लकड़ियां वगैरह इकठ्ठा करके खाना बनेगा, दारू
पी जाएगी और मौज के समुन्दर में गोता लगाया जायेगा.
रसद
के नाम पर चावल और मसाले ले जाए जा रहे थे. किलबरी में सिवाय गेस्ट हाउस और कुछ
नीचे एक बेहद छोटे गांव के कुछ नहीं था.
तल्लीताल
से किलबरी जाने के लिए पहले स्नोव्यू चढ़ना पड़ता है. सात बजकर सात मिनट पर जगतदा ने
ओल्ड मॉंक की बोतल खोल ली ताकि चढ़ने में ताकत मिले. रिक्शा स्टैण्ड जैसे सार्वजनिक
जगह पर ही बोतल मुंह में लगाकर एक-दो जलते हुए पैग हलक में ठूंसे गए, बन-आमलेट का भोग लगाया गया और अजगर जैसी मरियल चाल से चढ़ना शुरू किया गया.
हर मोड़ पर बोतल पास-ऑन की जाती और करीब नौ बजे तक घिसटते चलते, लतीफ़ों और किस्सों की मौज के बीच पहली बोतल निबट गई. मैंने इस से पहले
प्रभाती कभी नहीं की थी सो अभी यह समझ पाने की स्थिति में नहीं था कि अच्छा लग रहा
है या नहीं. उतना नशा भी नहीं हो रहा था. मुझे उम्मीद थी जगतदा रात के वास्ते एक
बोतल से ज़्यादा माल लाया होगा क्योंकि मैं अपनी कैपेसिटी भी चैक करना चाहता था इस
पिकनिक में.
स्नोव्यू
पहुंचते पहुंचते दस बज गया. हमें पूर्वनिर्धारित प्लान के मुताबिक अब तक किलबरी का
आधा रास्ता तय कर लेना था पर नरदा सब को चिकोटियां काट काट कर बता रहा था कि कोई
जल्दी नहीं है और शिकार के लिए चार-एक बजे के बाद का समय सबसे उत्तम होता है.
स्नोव्यू आते आते भूख लग आई थी. कुछ नाश्ते का ऑर्डर दिया गया और देखते न देखते
दुसरी बोतल मेज़ पर थी. आधी पौनी बोतल सूती जा चुकी थी जब मुझे अपने पेट की तरफ़ से
"हो गया!" की पुकार आ गई. मेरा फ़िलहाल का कोटा पूरा निबट चुका था लेकिन
मेरे बहादुर वरिष्ठ साथियों द्वारा पी गई रम ऐसा लगता था उनकी ऐड़ियों या हद से हद
घुटनों को भिगा सकी. दूसरी बोतल निबटी और हम रस्ता लग लिये. दारू और भोजन की
मात्रा ज़्यादा हो गई थी और हमारा टल्लीदल सुस्त चाल से मंज़िल-ए-मकसूद की जानिब
रेंग रहा था.
सबने
अपने अपने हिसाब से अपनी गति निर्धारित कर ली थी. नरदा बहुत तेज़ तेज़ चलता हुआ
हमारी निगाहों से ग़ायब हो चुका था. मैं और लल्तू दाज्यू साथ साथ थे जबकि तीसरी सब
- पार्टी में जगतदा और राजेशदा "हम आ रहे हैं एक एक लगा के" कह कर
चरसठुंसी सिगरेट बनाने के उद्देश्य से कुछ पीछे रुक गए थे. रास्ता वीरान था, सिवाय एकाध दूधियों के जो नैनीताल में दूध बांटकर अपने टट्टुओं को हांकते
अपने घर लौट रहे थे. लल्तू दाज्यू इन दूधियों से कुमाऊंनी में कुछ चुहल करते और
देर तक हंसते जाते. अपने टू इन वन पर उन्होंने मेहदी हसन की कोई ग़ज़ल लगा ली थी और
सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं टाइप माहौल की सर्जना होने लगी थी. दोपहर का करीब एक
बजा था, सूरज सिर पर था पर उसकी टक्कर का सूरज हम उदरस्थ कर
चुके थे और मौज आनी शुरू हो गई थी.
किलबरी
से एक किलोमीटर पहले नरदा बुरांश के एक पेड़ की छांह में लधरा हुआ था. पास पहुंचे
तो देखा नरदा ने अपना पिठ्ठू तकिये जैसा बनाया हुआ था और बाकायदा ख़र्राटों की बहार
छाई पड़ी थी. मैं और लल्तू दाज्यू भी वहीं बैठ गए. ढाई-तीन बज चुका था. हमें जगतदा
और राजेशदा का इन्तज़ार करना ही श्रेयस्कर जान पड़ा ताकि आगामी कार्यक्रम को चॉक आउट
किया जा सके.
करीब
आधे घन्टे बाद खरामा खरामा डोलते, किसी बात पर ठठाकर हंसते
दोनों का आगमन हुआ. राजेशदा का पीठ्ठू सबसे बड़ा था और संभवतः सबसे भारी भी क्योंकि
ठोस और द्रव दोनों तरह की रसद उसमें लदी हुई थी. उन्होंने बेहोश सोये नरदा को देखा
और हंसने के क्रम को जारी रखते हुए नरदा की पिछाड़ी पर लात लगाई. किसी दुस्वप्न से
जैसा जागे नरदा ने "अबे इत्ती मत पिया करो सालो!" कहकर हमें हड़काया और
चलने की हमारी रफ़्तार का मज़ाक बनाया. नरदा अपना पिठ्ठू थामकर उठने को हुआ तो नीचे
बैठता हुआ जगतदा बोला कि किलबरी आ ही गया है ऐसी क्या जल्दी है. राजेशदा से बोतल
निकालने को कहा गया और एक-एक शॉर्ट खींचा गया. मुझ नए नए शराबी की आंखें मुंद जैसी
रही थीं और दाल-भात खाने की इच्छा हो रही थी. लेकिन मेरे वरिष्ठ साथी उतने ही
ऊर्जावान लग रहे थे जैसे वे लगा करते थे.
बुरांश
के पेड़ के नीचे दारूवन का निर्माणकार्य पूरा करने के उपरान्त करीब पन्द्रह मिनट
में हम किलबरी डाकबंगले के भीतर थे. आलीशान ब्रिटिशकालीन बंगला जिसमें कभी जिम
कॉर्बेट तक आकर रहा करते थे आज जगतदा जैसे शिकारी के नेतृत्व में आए कलाग्रस्त
शराबियों की सोहबत पाकर अपने को धन्य समझ रहा होगा, ऐसा
कुछ कहकर ललतू दाज्यू ने समां बांधने कि कोशिश की. हमने उन्हें बहुत तवक्को नहीं
दी और अपने झोले-झिमटे नीचे धरे. चौकीदार ने चाय के बारे में पूछा तो जगतदा ने उसे
प्यार से लताड़ा कि गुरू क्या हम यहां चाय पीने आए हैं. पानी, कांच के गिलास वगैरह मंगाए गए और चौकीदार को भुजिया इत्यादि तैयार करने का
निर्देश देते हुए इत्तला दी गई कि हम लोग आधे घन्टे के भीतर शिकार पर निकलने वाले
हैं. महौल बनाने में उस्तादी रखने वाले लल्तू दाज्यू ने इस बार अपने टू इन वन पर
"आए कुछ अब्र कुछ शराब आए" लगाया तो जगतदा बोला कि यार लल्तू बैटरी खत्म
हो जाएगी तो रात में दारू कैसे पिएंगे बिना म्यूज़िक के.
सभी
ने इस बारे में हामी भरी तो टेप बन्द कर दिया गया. मैं अलबत्ता अब हैरत कर रहा था
कि राजेशदा कितनी दारू लाया होगा और अगर शराब रात को पी जाएगी तो अब तक क्या किया
गया और क्या किया जाने वाला है.
शिकार
पर निकले तो नरदा के और मेरे पैर डगमग करने लगे थे. हमें चुपचाप पीछे आने का
निर्देश देकर जगतदा बन्दूक थामे मुर्गियों की टोह ले रहे थे. चार-पांच बजे से करीब
साढ़े छह बजे तक उन्होंने तीन जगह मुर्गियां देखकर फ़ायर किये पर कुछेक पंखों को
छोड़कर हाथ कुछ नहीं आया. इस बीच राजेशदा और लल्तू दाज्यू ने भी हाथ आजमाए पर कुछ
मिला नहीं. हल्का अंधेरा घिरने को हुआ तो जगतदा बोला कि छर्रे बहुत कम बचे हैं और
अब डाकबंगले जाने में ही भलाई है. रात को आसानी से मुर्गियां मारी जा सकती हैं ऐसा
उन्होंने किसी किताब में पढ़ रखा था.
डाकबंगले
पहुंचकर और टुन्न होने की प्रक्रिया में इस बार चौकीदार को भी शरीक किया गया
क्योंकि शिकार करने के उपरान्त उसी ने मुर्गियां छीलनी थीं और उन्हें पकाना भी था.
चौकीदार अकेला रहता था और मुकेश के गानों का शौकीन था. जगतदा के टू इन वन की बैटरी
घुस गई थी और तीन-चार पैग खेंच लेने के बाद चौकीदार ने "एक धनवान की बेटी ने
निरधन का दामन छोड़ दिया" की कराहनुमा तान छेड़ी हुई थी.
समय
बीतता जा रहा था. रात बाकायदा हो चुकी थी. डाकबंगले में लाइट नहीं थी पर चौकीदार
ने दो पैट्रोमैक्स जलाकर अच्छी रोशनी कर दी थी. पहले तो सब ने जगत दा के असफल शिकार
अभियान को लेकर उनकी खूब ऐसीतैसी की. जल्द ही महफ़िल अपने उरूज पर आ गई और मेरे
वरिष्ठ पथप्रदर्शक ऐसी ऐसी बातों से माहौल को जमाए हुए थे कि भूख अब किसी ब्लैक
होल में तब्दील होकर पेट के किसी गुप्त हिस्से में छुप चुकी थी. इन लोगों के अनुभव
का संसार इस कदर भरपूर था कि मुझे उनसे ईर्ष्यापूर्ण मोहब्बत हो चुकी थी जो किसी
चस्के की तरह आज तरह लगी हुई है.
खा़स
'पीने' के साथ के वास्ते लाया गया सामान अब राजेशदा
के थैले से एक एक कर बाहर निकल रहा था. रेडीमेड कवाब, काजू,
पिस्ते और पापड़ इत्यादि. इन्हें खाना शुरू किया तो मेरी भूख का
दैत्य एक बार फिर बड़ा होना शुरू हो गया. गप्पों के बाद अब गायन का सत्र चालू हुआ.
गायन के उपरान्त पुनः गप्पें और फिर वही रिपीट.
चौकीदार
अब ऊंघ रहा था और नरदा ने सबको लातें रसीद करना चालू कर दिया था. जगतदा ने मुझसे
मेरे अपेक्षाकृत ज़्यादा चुपचुप रहने का सबब पूछा तो मैंने भूख की बात बताई. भूख का
नाम लेते ही सबकी भूख जाग गई. घड़ी साढ़े ग्यारह बजा रही थी. शिकार का कार्यक्रम
रद्द करने में ही भलाई समझी गई क्योंकि किलबरी के आसपास का जंगल बाघों और भालुओं
का घर भी हुआ करता था. चौकीदार को हिलाकर जगाया गया और खाने के बारे में पूछा गया
तो उसने बताया कि उसके पास मुठ्ठी भर दाल के अलावा कुछ नहीं. जगतदा ने उससे कहा कि
हमारे लाए चावल को मसालों और नमक के साथ उबाल दे. चौकीदार पता नहीं घाघ था या
हमारा हितैषी. बोला:"नीचे झोपड़ी में शेरसिंह ने मुर्गे पाले हुए हैं. वो बेच
देगा तो साब लोगों की दावत पूरी हो जाएगी."
"चलो" कहकर राजेशदा और जगतदा ने चौकीदार के साथ नीचे शेरसिंह की झोपड़ी
का रुख़ किया. करीब बीस मिनट बाद जगतदा पैर बंधा हुआ एक आलीशान और तन्दुरुस्त
मुर्गा थामे अन्दर घुसे. "जै हो!" कहते हुए लल्तू दाज्यू ने जगतदा के
गले से लिपटकर मुर्गे का मुआयना किया. "बहुत हैल्दी है साला. दो किलो से कम
तो मीट क्या ही निकलेगा."
"दो सौ रुपए ले लिये साले ने बेटा. अब कुछ माल तो निकलना ही चाहिये
ना!" पीछे से आते राजेशदा बोले.
भोजन
आ चुका था, यह तथ्य हमारी भूख को बैकग्राउन्ड में
धकेलने को पर्याप्त था. जगतदा अपनी शिकार न कर पाने की शर्म से अभी तक उबर नहीं
पाया था ऐसा लगा. उन्होंने और रम खेंची. हाहाहीही का सिलसिला जो फिर चालू हुआ तो
समय को जैसे पंख लग गए. जगतदा अपने रंग में आ गया था और नाटकों के अपने डायलॉग्स
बोलने लगा था. किसी ज़माने में जगतदा ने सिकन्दर का पार्ट खेला था. वह अक्सर
रमातिरेक में इसी पारसी स्टाइल नाटक के अपने संवाद बोला करता था. इस सांस्कृतिक
कार्यक्रम का समय परम्परा से ही सोने से ठीक पहले का नियत था. जगतदा को दारू लग
जाने का मतलब यह माना जाता था कि अब कोटा निबट गया और शरीफ़ लोगों की तरह जल्दी से
खाना खा कर सो जाने का बखत आ चुका.
सिकन्दर
के संवाद बोलते जगतदा अपनी रौ में आ गया था और हम बहुत ज़्यादा लुत्फ़ लूट रहे थे.
इस सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक अहम हिस्सा यह होता था कि सामने वालों में से किसी
एक ने पोरस बन जाना होता था और हां-हूं की टेक लगाते रहना होती थी. किलबरी के
डाकबंगले में यह काम लल्तू दाज्यू ने सम्हाला हुआ था. लेकिन सुबह सात बजे से दारू
पीते पीते उनका भूसा भर चुका था और हां-हूं करते किसी क्षण उनकी आंख लग गई.
मैं
बीच बीच में एक निगाह उल्टा कर धरे गए पैर बंधे जीवित डिनर की तरफ़ डालकर यह जान
गया था कि खाना तो अब कल सुबह ही मिलेगा. मुर्गा इस असुविधापूर्ण पोज़ीशन के बावजूद
माहौल का मजा ले रहा लगता था. चौकीदार ने एक नींद निकाल ली थी और आंखें खोले वह
यकीन करने का प्रयास कर रहा लगता था कि ये जीवित दैत्य भी इसी धरती के बाशिन्दे
हैं.
लल्तू
दाज्यू के इस तरह सो चुकने को संभवतः जगतदा ने अपना अपमान समझा और एक निर्णायक
क्षण में वे लपक कर मेज़ पर खड़े हो गए. उन्होंने एक द्रवित दृष्टि बंधे हुए मुर्गे
पर डाली और उनकी आंखों से टपटप आंसुओं की धारा बहने लगी. भावातिरेक में उन्होंने
मुर्गे को संबोधित किया: "मेरे भाई तेरा यह अपमान सिकन्दर से और बरदाश्त नहीं
होता. सिकन्दर के सामने पोरस को इस तरह बांध दिया जाए, ऐसा यूनान के खून में नहीं होता, मेरे दोस्त!"
वहां
से जगतदा ने छलांग सी मारी और मुर्गे के सामने बैठ कर सुबकते हुए उसे देखने लगे.
हकबकाया मुर्गा भी उन पर निगाहें डाले था. अचानक जगतदा दहाड़ा: "सेनापति! कहां
हो सेनापति!"
काफ़ी
देर से चुपचाप बैठा नरदा झटके से उठा और उनके पास जाकर बोला: "आदेश विजेता
सिकन्दर! आदेश!"
"बन्दी को मुक्त किया जाए!"
बन्दी
को मुक्त किया गया. "सुनो पोरस! सिकन्दर किसी को इस तरह की नाइन्साफ़ी बरदाश्त
नहीं!" नरदा से मुख़ातिब होकर सिकन्दर महान ने आदेश दिया: "बन्दी को खुले
आकाश ने नीचे ले जाया जाए!"
बन्दी
को खुले आकाश के नीचे ले जाया गया. राजेशदा और लल्तू दाज्यू आंखें मूंदे मरे का
अभिनय कर रहे थे. मैंने पहली बार इस कोटि के सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने का
सौभाग्य पाया था. नरदा सेनापति थे सो उन्हें तो बाहर जाना ही था. मैं और चौकीदार
दोनों अधमरे हो चुके थे लेकिन इस नाटक को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सके. जगतदा
अपनी बन्दूक में छर्रे भर कर बाहर आ गए थे. बाहर अंधेरी रात थी. चौकीदार ने एक
पैट्रोमैक्स बरामदे में धर दिया. बरामदे के आगे थोड़ी सी खुली जगह थी. मुर्गे को
जगतदा के आदेसानुसार उसी जगह पर धर दिया गया. बेचारा मुर्गा अब भी डरा हुआ था और
हम दानवों को हैरानी से देख रहा था.
"लैट्स हैव अ डुएल ओ नाइट ऑव द ब्लू कासल! हेयर कम्स किंग आर्थर ऑव
कैमेलॉट!" बरामदे के खम्भे के पीछे पोज़ीशन लेते हुए सिकन्दर अब किंग आर्थर
में तब्दील हो गया था. पैट्रोमैक्स की भकभक रोशनी काफ़ी मन्द पड़ चुकी थी. बन्दूक से
धांय की आवाज़ आई और हवा में बारूद की गन्ध फैल आई. हमारा डिनर गायब था.
जगतदा
वापस जगतदा बन गया था. और काफ़ी पशेमानी झेल चुकने के बाद अब और डायलॉग बोलने की
स्थिति में नहीं बचा था.
हम
भूखे ही जाकर सोने की जुगत में लग गए. नींद आने को ही थी कि दरवाज़े पर साहब! साहब!
की आवाज़ आई. मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा चौकीदार था. "शेरसिंह आया है साहब.
मुर्गा वापस लाया है. कह रहा था कि आप लोगों ने उसे खाया क्यों नहीं. वो तो वापस
घर आ गया."
जगतदा
जगे हुए थे शायद. वहीं से झेंपते-झींकते बोले: "यार इसे कह दो कि काट वाट के
पका दे! भूख से आंतें चिपक गईं साली!"
करीब
साढ़े तीन बजे चौकीदार ने खाना पक चुकने की सूचना दी. भोर साढ़े चार-पांच बजे तक
हमारा भोज चला. दारू कब की निबट चुकी थी. भरपेट मुर्गा-भात ठूंसकर हम बिस्तर की
तरफ़ जा रहे थे. बाहर परिन्दे फड़फड़ाने-गाने वगैरह लगे थे.
"बाहर जंगली मुर्गियां फड़फड़ाने लग गई हैं शायद! चलता है बेटा शिकार पे?"
कोने के एक बिस्तर पर लेटे नरदा ने डकार लेते हुए जगतदा को छेड़ा.
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