Wednesday, June 14, 2017

रसूल हम्ज़ातोव की 'मेरा दाग़िस्तान' - 4

दाग़िस्तान की अवार स्त्रियाँ
इस पुस्‍तक का रूप और इसे कैसे लिखा जाए

            पड़ा रहेगा सदा म्‍यान में जो खंजर
            जंग उसे लग जाएगा,
            पड़ा रहेगा वीर अगर सोता घर में
            वह तो तोंद फुलाएगा.

                                                            खंजर पर आलेख

            डाल दिया है धागा मैंने सूई में
            पर मैं जाने कैसा कोट बनाऊँगा?
            तार कसे, कर लिया उन्‍हें सुर में मैंने
            पर मैं जाने कैसा गाना गाऊँगा?


मेरे बेचैन, मेरे वफादार घोड़े के नाल अच्‍छी तरह लगे हुए हैं. मैंने खुद उसकी हर टाँग उठाकर नालों की मजबूती जाँच ली है. मैंने अपने हाथों से उस पर जीन रखा है, उसकी पेटी कसी है. उँगलियाँ भी मुश्किल से पेटी के नीचे जाती हैं. घोड़े पर अच्‍छी तरह और बढ़िया ढंग से जीन कसा गया है.

मेरे पिता जी से कुछ-कुछ मिलते-जुलते बुजुर्ग ने मुझे लगामें पकड़ाईं. चंचल आँखोंवाली छोटी-सी लड़की ने मेरी तरफ चाबुक बढ़ा दिया. पड़ोस की पहाड़िन पानी से भरी हुई गागर लिए जान-बूझकर सामने की ओर मेरे नजदीक से गुजरी. इस तरह उसने मेरी शुभ यात्रा की कामना की.

गाँव में जिस किसी के पास से भी मेरा घोड़ा गुजरा, उसी ने मुझे यह कहा, 'तुम्‍हारा सफर कामयाब रहे!'

गाँव के छोर पर युवा पहाड़िन ने खिड़की में जलता हुआ लैंप रख दिया. इस तरह उसने मुझसे यह कहा -

'इस खिड़की, इस रोशनी को नहीं भूलना. जब तक तुम लौटोगे नहीं, यह लैंप जलता रहेगा. दूर के रास्‍ते में, कठिन और बुरे मौसम में रातों और सालों के दौरान यह तुम्‍हें रोशनी देगा. लंबे सफर से थक-हारकर जब तुम अपने गाँव के करीब पहुँचोगे, तो यही सबसे पहले तुम्‍हें अपनी चमक दिखाएगा. इस खिड़की और इस रोशनी को याद रखना.

अपने प्‍यारे गाँव को एक बार फिर से देखने के लिए मैं मुड़ता हूँ. घर की छत पर मुझे माँ दिखाई देती है. वह सीधी और एकाकी खड़ी है. वह अधिकाधिक छोटी होती जाती है - चपटी छत की आड़ी रेखाओं में सीधा बिंदु-सा लग रही है. आखिर, अगले मोड़ के बाद पहाड़ मेरे गाँव के सामने आ जाता है और मुड़कर देखने पर पहाड़ के सिवा मुझे और कुछ भी दिखाई नहीं देता है.

सामने भी मुझे पहाड़ ही दिखाई दे रहा है. मगर मुझे मालूम है कि उसके पीछे बहुत बड़ी दुनिया है. दूसरे गाँव हैं, बड़े नगर हैं, महासागर हैं, रेलवे स्‍टेशन, हवाई अड्डे हैं और किताबें हैं.

दागिस्‍तान की प्‍यारी धरती के रास्‍ते पर घोड़े के नाल बज रहे हैं. सिर के ऊपर पहाड़ों की चोटियों से पथराया हुआ-सा आकाश है. कभी वह धूप से चमक उठता है, कभी उस पर सितारे जगमगा उठते हैं, कभी वह बादलों से ढक जाता है और कभी पृथ्‍वी को बारिश से धो देता है.

            रुक जाओ, ऐ घोड़े मेरे, रुक जाओ
            नहीं अभी मैंने मुड़कर, पीछे देखा,
            प्‍यारा-प्‍यारा गाँव हमारा रहा वहाँ
            धुँधली पड़ती जाती अब जिसकी रेखा.
            सरपट उड़ते जाओ तुम घोड़े मेरे
            क्‍यों हम देखें मुड़-मड़कर?
            भाई, दोस्‍त मिलेंगे हमको वहीं सभी
            हम जा निकलें, जहाँ, जिधर.

किधर जा रहा हूँ मैं? कैसे मैं अपना सही रास्‍ता चुनूँ? कैसे कई किताब लिखूँ?

नोटबुक से . अब दागिस्‍तान में युवाजन हमारी राष्‍ट्रीय पोशाकें नहीं पहनते. वे मास्‍को, त्बिलिसी, ताशकंद, दुशंबे और मिन्‍स्‍कवासियों की तरह पतलून, कोट, बुशर्ट और कमीज के साथ टाई पहनते हैं.

गानों-नाचों की कलाकार मंडलियाँ ही अब राष्‍ट्रीय पोशाकें पहनती हैं. हाँ, शादी के मौके पर किसी को पुरानी पोशाक पहने देखा जा सकता है. अगर कभी कोई दागिस्‍तानी ढंग के कपड़े पहनना चाहता है, तो दोस्‍तो, जान-पहचान के लोगों से या किराये पर कपड़े लेता है. अपनी दागिस्‍तानी पोशाक तो उसके पास होती नहीं. थोड़े में, अगर यह न कहा जाए कि राष्‍ट्रीय पोशाक गायब हो गई है, तो यह कहा जा सकता है कि गायब हो रही है.

मगर बात यह है कि कुछ कवियों की कविताओं का राष्‍ट्रीय रूप भी गायब होता जा रहा है और वे उस पर गर्व भी करते हैं.

मैं भी यूरोपीय सूट पहनता हूँ, मैं भी पिता जी का चेर्केसी कोट नहीं पहनता. मगर अपनी कविताओं को आकृतिहीन सूट नहीं पहनाना चाहता. मैं चाहता हूँ कि मेरी कविताओं का हमारा, दागिस्‍तानी रूप ही हो.

मैं भला क्‍या हूँ! कुछ ही दशाब्दियों का जीवन मिला है मुझे. ये दशाब्दियाँ ऐसे वक्‍त में आ गई, जब सभी लोग पतलून, बूट और कोट पहने घूमते हैं. कविताओं का अपना जीवन होता है. उनकी जन्‍म-मरण की अपनी अवधियाँ होती हैं. अपनी कविताओं के बारे में मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ. मुमकिन है कि वे मेरे बाद जिंदा न रहें.

मास्‍को में मैंने बलूत का एक पुराना पेड़ देखा. कहते हैं कि रौद्र इवान ने उसे रोपा था. इसका मतलब यह है कि जब तक वह बड़ा होता रहा, शुरू में लोग बोयारों की पोशाकों, इसके बाद वास्‍कटें और पाउडर लगे विग, फिर ऊँचे टोप और काले फ्राककोट, इसके पश्‍चात बुद्योन्‍नी टोपियाँ तथा चमड़े की जाकटें, फिर साधारण कोट और चौड़ी मोहरीवाले पतलून और इसके बाद तंग पतलून पहनते रहे... और बलूत मानो लोगों से यह कहता रहा कि अगर आपके करने को और कुछ नहीं, तो वहाँ नीचे भागकर जाइए, अपने कपड़े बदल आइए. मेरे जिम्‍मे तो अपना काम है - सूरज की किरणों को लोकना और उन्‍हें मजबूत बजती हुई लकड़ी और उन बीजों में बदलना, जिनसे ऐसे ही जानदार वृक्ष जन्‍म लेते हैं.

पहाड़ों में कहा जाता है कि पोशाक से आदमी का पता चलता है और घोड़े से सूरमा का. यह कहावत सुनने में तो बढ़िया लगती है, मगर मुझे अनुचित-सी प्रतीत होती है. चीते की खाल पहने हुए आदमी का बहादुर होना लाजिमी नहीं. कभी-कभी इस्‍पाती कवच के नीचे भी बुजदिल का दिल हो सकता है.

कारण कि अनेक बार सुंदरता की वजह से मरे द्वारा चुने हुए तरबूज के सफेद और फीका निकल आने पर मुझे गुद्दी खुजलानी पड़ी है.

कारण कि एक बार कोई ऊनसूकूलवासी अपनी प्रेमिका को नमदे के लबादे में लपेटकर उड़ा ले गया, मगर जब लबादा उतारा, तो प्रेमिका की जगह पोपले मुँहवाली उसकी नानी सामने दिखाई दी.

कारण कि अबूतालिब ने मुझे सुनाया कि कैसे एक बार उन्‍हें दूर के गाँव में शादी पर बुलाया गया और वहाँ वे जुरना बजाते रहे. शादी धूम-धड़ाके से होती रही. गाँव के सामनेवाले मैदान में तीन दिन तक जुरना झनझनाता रहा, ढोल ढमकता रहा, वायलिन दर्दीली तानें सुनाती रही, हार्मोनियम बजता रहा और गीत गूँजते रहे. जैसा कि दागिस्‍तान में कहा जाता है, 'ढम-ढम भी थी और छम-छम भी', यानी सुनने को भी कुछ था और खाने-पीने को भी. सारा गाँव शादी में आया और बच्‍चे से बूढ़े तक हर कोई थोड़ा-बहुत नाचा भी.

शादी के तीसरे दिन चौधरी के कहने पर ऐलान करनेवाले ने ऊँची आवाज में यह घोषणा की कि अब दूल्‍हा और दुलहन नाचने के लिए मैदान में निकलेंगे. तीन दिनों के दौरान दूल्‍हे को तो सभी ने देखा था, मगर दुलहन सारा वक्‍त दुपट्टा ओढ़े बैठी रही थी. तीन दिन अबूतालिब उसकी बढ़िया पोशाकों को देखता रहा था. उसकी भड़कीली पोशाकें शायद काकेशियाई कविता-संग्रह के रंग-बिरंगे मुखावरण की याद दिलाती रही थीं.

दुलहन जब उठी और नाच के घेरे में आई, तो उसके शरीर की काठी से अबूतालिब कुछ चौंके. मोटापे की दृष्टि से तो राजकीय साहित्‍य प्रकाशन-गृह द्वारा प्रकाशित किर्गीज महाकाव्‍य 'मानास' भी उसका क्‍या मुकाबला कर सकता था. दुलहन चेहरे से पर्दा हटाने को तैयार हुई; सभी बुत-से बन गए और अबूतालिब ने भी अपनी साँस रोक ली. लीजिए, दुलहन ने दुपट्टा हटाया यानी वह क्षण आया, जिसका तीन दिन से इंतजार हो रहा था...

दुलहन की एक आँख खूंजह को देख रही थी, तो दूसरी बोतलीख को. गुस्‍से से एक-दूसरी से रूठी हुई आँखों के बीच बहुत लंबी और भद्दी-सी नाक टिकी हुई थी.

अबूतालिब का दिल उदास हो गया. इसके बाद वे न तो जुरना बजा पाए और न ही उनका कुछ खाने को मन हुआ. उन्‍हें शादी के जशन से जाना पड़ा.

मेरे ख्‍याल में अबूतालिब ने कुछ बढ़ा-चढ़ाकर यह किस्‍सा सुनाया था.

फिर भी अच्‍छी सज्‍जा बुरी किताब को नहीं बचा सकती. उसका सही मूल्‍यांकन करने के लिए उस पर से पर्दा हटाना जरूरी है.

कारण कि एक ऐसा भी साल था, जब पहाड़ी नारियों की स्थिति और उनके साथ पुरुषों के व्‍यवहार का सवाल उचित ऊँचे स्‍तर पर और 'उग्रतम रूप' में उठाया गया था.

उस साल पति अपनी पत्‍नी को एक भी भला-बुरा शब्‍द कहने की जुर्रत नहीं कर सकता था. मामूली घरेलू झगड़े पर भी पति को पार्टी हलका कमिटी में बुलाकर डाँट पिलाई जाती थी. इसलिए कि किसी तरह का शिकवा-शिकायत न हो, सबसे पहले तो हलका पार्टी कमिटी के सभी कर्मचारियों की एक-एक करके मलामत की गई. उसी साल पहाड़ी औरतों की अक्‍सर कांग्रेसें हुईं, जिनमें मनमाने ढंग से इतने शब्‍द कहे गए, जितने बाद की सारी कांग्रेसों में नहीं कहे गए होंगे.

उसी साल इतवारों को एक लंबी-चौड़ी औरत बाजारों में गैर-कानूनी माल बेचने के लिए आने लगीं. मिलीशियामैन उसे टोकते हुए डरता था कि कहीं स्‍वतंत्र और समानाधिकारी पहाड़ी औरत के साथ कोई ज्‍यादती न हो जाए. मगर फिर भी तीसरे इतवार को उसने सहमते-सहमते इस पहाड़ी औरत को चेतावनी दे दी और पाँचवें इतवार को - जो भी होना हो, सो हो! - उसे हिरासत में लेकर थाने ले जाने का फैसला किया.

मिलीशियामैन जब तक उसे सड़क पर से अपने साथ ले जाता रहा, सभी तरफ से उस पर उँगलियाँ उठती रहीं और हैरान होते रहे कि स्‍वतंत्र और दासता मुक्‍त हुई पहाड़ी नारी को हिरासत में लेने की उसे हिम्‍मत ही कैसे हुई.

वहाँ, बाजार के भीड़-भड़क्‍के में इस माल बेचनेवाली औरत को अच्‍छी तरह देख पाना मुश्किल था, मगर अब कई चीजें, जैसे कि स्‍कर्ट के नीचे से झाँकते हुए बहुत ही बड़े-बड़े जूते मिलीशियामैन का ध्‍यान आकर्षित करने लगे.

'हाँ, यहाँ जरूर दाल में कुछ काला है!' मिलीशियामैन ने सोचा और औरत के मुँह पर से दुपट्टा हटा दिया. हैरानी से उभरी-उभरी आँखों और चट्टान पर उगी कँटीली झाड़ी जैसी मूँछोंवाले जवान मर्द का चेहरा मिलीशियामैन के सामने था.

कुछ कलाकार भी, जिनमें प्रतिभा, सब्र और आत्‍म-सम्‍मान की कमी होती है, अपना माल बेचने के लिए पराये कपड़े पहन लेते हैं, बाहरी रूप की चमक-दमक से विचारों की दुर्बलता को छिपाते हैं. मगर यदि पेट में चूहे कूद रहे हों, तो बाँकपन से फर की टोपी ओढ़ने में क्‍या तुक है?

ऐसे ही लकड़ी का बना हुआ खंजर चाहे कितना ही सुंदर क्‍यों न हो, उससे तो चूजे को भी नहीं काटा जा सकता. वह तो सिर्फ इसी लायक है कि बारिश की धार को काट ले.

ऐसे ही गुड़ियों की शादी करने से बच्‍चे पैदा नहीं होते. ऐसे ही जब लड़के की सुन्‍नत करनी होती है, तो उसे हंस का पंख दिखाया जाता है. मगर ऐसा तो सिर्फ धोखा देने के लिए किया जाता है. हंस के पंख से सुन्‍नत नहीं हो सकती, इसके लिए तेज चाकू की जरूरत होती है.

मगर पाठक बच्‍चे नहीं है कि उनकी आँखों में धूल झोंकी जाए और मैं अभिनेता नहीं हूँ कि म्‍यान में, चाहे वह असली और सोने का मुलम्‍मा चढ़ी हो, दफ्ती का खंजर डाले फिरूँ.

बेशक यह सही है कि म्‍यानों की भी जरूरत होती है - उनके बिना खंजरों को जंग लग जाता है. म्‍यान अगर सुंदर हों, तो अच्‍छा ही है;

बेशक यह सही है कि जब कोई सूरमा धावे में कोई कीमती चीज लेकर लौटता है, तो बीवी घोड़े की गर्दन पर रेशमी रूमाल बाँधती है;

बेशक यह सही है कि बहुत ही बढ़िया विचार के लिए बहुत ही प्राणहीन भाषा तो ऐसे ही है, जैसे मेमने के लिए भेड़िया;

बेशक यह सही है कि मजबूत-से-मजबूत छकड़ा ऊबड़-खाबड़ रास्‍ते में धचके खा सकता है और खड्ड में भी गिर सकता है;

बेशक यह सही है कि गधे का साज घोड़े की पीठ की शोभा नहीं बढ़ा सकता और बढ़िया घोड़े का जीन गधे की पीठ पर शोभा नहीं देगा.

यहाँ मैं आपको एक बालखारीवासी और उसकी बूढ़ी घोड़ी का किस्‍सा सुनाता हूँ.

एक बालखारीवासी और उसकी बूढ़ी घोड़ी का किस्‍सा.

एक बार बालखारीवासी ने अपनी बेचारी बूढ़ी घोड़ी पर गमले, गागरें, सुराहियाँ और रकाबियाँ लादीं और चल दिया उन्‍हें गाँवों में बेचने.

एक अवार गाँव में उस दिन घुड़दौड़ों का जशन था. जोशीले जवान अपने और भी ज्‍यादा जोशीले घोड़ों पर इस गाँव की तरफ जा रहे थे. जवान भी बढ़िया थे और घोड़े भी. जवान भी सुडौल और सुंदर थे और उनके घोड़े और भी ज्‍यादा सुडौल और सुंदर थे. जवानों की आँखों में दिलेरी और शोखी की चमक थी और घोड़ों की आँखों में बेचैनी की.

घुड़सवार एक कतार में खड़े होने शुरू हो गए थे कि अचानक शांत बालखारीवासी अपनी बूढ़ी घोड़ी पर उसी मैदान में सामने आ गया. बालखारीवासी ऊँघता-सा लगता था और उसकी घोड़ी तो जैसे चलते-चलते ही सोती जाती थी. जवान लोगों ने बालखारीवासी से मजाक करना शुरू किया.

'आओ, तुम भी हमारे साथ घुड़दौड़ में शामिल हो जाओ!'

'लाओ, तुम्‍हारी बूढ़ी घोड़ी को भी तेज घोड़ों में शामिल कर लें.'

'भला यह तुम्‍हारी बूढ़ी घोड़ी क्‍यों न हमारे तेज घोड़ों से हाड़ करें?'

'हमारे साथ दौड़ाओ इसे, वरना हमारे घोड़ों के नाल कौन समेटेगा.'

इन सभी मजाकों के जवाब में बालखारीवासी ने अपनी घोड़ी से चुपचाप मिट्टी के बर्तन, गागरें-सुराहियाँ और रकाबियाँ उतारनी शुरू कीं. बड़े इतमीनान से उसने अपनी चीजों का ढेर लगाया, इतमीनान से घोड़ी पर सवार हुआ और जवानों के करीब अपनी घोड़ी ले जाकर खड़ी कर दी.

जवानों के घोड़े अपने सुमों से जमीन खोद रहे थे, अपनी टाँगों को ऊपर उठाकर पिछली टाँगों पर खड़े हो रहे थे, जब कि बालखारीवासी की घोड़ी सिर झुकाए ऊँघ रही थी.

तो घुड़दौड़ शुरू हुई, जोशीले घोड़े बवंडर की तरह भाग चले. धूल का बादल उड़ा और इसी बादल में, उसके सिर पर बालखारीवासी की घोड़ी भी भाग चली. घुड़दौड़ का एक चक्‍कर, दूसरा और फिर तीसरा चक्‍कर खत्‍म हुआ. सभी घोड़ों को थकते हुए देख रहे थे, पहले तो वे पसीने से तर-ब-तर हुए, फिर उन पर झाग उभरा और वह गोलों के रूप में गर्म धूल में गिरने लगे. तेज घोड़ों की टाँगें मानो अधिकाधिक बेजान होती जाती थीं, उनकी रफ्तार धीमी पड़ती जाती थी. जवान अपने घोड़ों पर चाहे कितने ही चाबुक बरसाते, चाहे जूतों की कितनी ही एड़ियाँ मारते, पर किसी भी तरह तो घोड़े अधिक तेज नहीं दौड़ते थे. सिर्फ बालखारीवासी की बूढ़ी घोड़ी ही पहले की तरह दौड़ती जाती थी - न तेज, न धीमे, पहले तो वह सबसे पीछेवाले घोड़ों से आगे निकली, फिर आगेवाले घोड़ों के बराबर हुई और बाद में, आखिरी दसवें चक्‍कर में, उनसे भी आगे निकल गई.

इनाम का शानदार रूमाल बालखारीवासी की बूढ़ी घोड़ी की झुकी हुई गर्दन पर बाँधना पड़ा. बालखारीवासी बड़े इतमीनान से अपनी घोड़ी को मिट्टी के बर्तनों के ढेर के पास ले गया, उन्‍हें लादा और आगे चल दिया.

घुड़दौड़ों के मुकाबले में ऐसी घटनाएँ साहित्‍य में कहीं अक्‍सर होती हैं.

नोटबुक से. जो कविताएँ आसानी से लिखी गई थीं, उन्‍हें पढ़ना कठिन होता है. जो कविताएँ मुश्किल से लिखी गई थीं, उन्‍हें पढ़ना आसान होता है. कविता का रूप और भाव - ये तो मानो पोशाक और व्‍यक्ति होते हैं. अगर आदमी भला, समझदार और नेक हो, तो वह अपने अनुरूप ही कपड़े भी क्‍यों न पहने. अगर आदमी का चेहरा सुंदर हो, तो उसके भाव भी क्‍यों न सुंदर हों.

अक्‍सर ऐसा होता है कि सुंदर नारियाँ समझदार नहीं होतीं और अगर वे बहुत समझदार होती हैं, तो सुंदर नहीं होतीं. कला-कृतियों के साथ भी ऐसा ही होता है.

मगर सुंदर और समझदार नारियाँ भी होती हैं. वास्‍तव में प्रतिभाशाली कवियों की किताबों के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है.

एक मआलीवासी ने कहा था - 'हमारे गाँव की तरफ आनेवाला व्‍यक्ति जैसे ही दर्रे में दिखाई देता है, वैसे ही मैं यह जान जाता हूँ कि वह अच्‍छा या बुरा आदमी है.'

एक कूबाचीवासी ने कहा था - 'सोना या चाँदी खुद अपने में कोई महत्‍व नहीं रखते. जरूरत तो इस बात की है कि कारीगर के हाथ सोने के हों.'

            साधारण मिट्टी से ही तो
            बनें गागरें, अद्भुत, सुंदर,
            जैसे साधारण शब्‍दों में
            कविता चमके निखर, सँवर कर.
                                                            गागर पर आलेख

पंद्रह हजार से अधिक दिन मैं इस दुनिया में जी चुका हूँ. बहुत-से रास्‍तों पर मैं आ-जा चुका हूँ. हजारों लोगों से मेरी मुलाकात हो चुकी है. जैसे बरसात या बर्फ पिघलने के वक्‍त बहुत-सी पहाड़ी धाराएँ बह चलती हैं, वैसे ही मेरी अनुभूतियाँ असंख्‍य हैं. मगर उन्‍हें कैसे सूत्रबद्ध करूँ ताकि वे किताब का रूप ले सकें? उसे लिखना तो वैसी ही बात है जैसे कि घाटी में चौड़ी और गहरी धारा बनाना. मगर यह तो आधा ही काम होगा. जरूरत तो इस बात की है कि सभी पहाड़ी धाराएँ मिलकर इस बड़ी धारा में बहें. कैसे मैं यह करूँ? जीवन की जानकारी के अलावा और क्‍या जानना जरूरी है? साहित्‍य की सैद्धांतिक जानकारी? कविता लिखने के बजाय इस बारे में ज्‍यादा सोचना ठीक नहीं कि कविता लिखी कैसे जाए.

मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसी साहित्यिक शैलियाँ और धाराएँ नहीं हैं, जिनसे मुझे प्‍यार हो. मेरे प्‍यारे लेखक, चित्रकार और कलाकार हैं.

नोटबुक से. साहित्‍य-संस्‍थान में एक अवार से परीक्षा के समय यह पूछा गया कि यथार्थवाद और रोमानवाद में क्‍या अंतर है? अवार ने इस विषय की किताब तो शायद पढ़ी नहीं थी, मगर जवाब देना जरूरी था. उसने सोचा और प्रोफेसर को यह जवाब दिया -

'जब हम उकाब को उकाब कहते हैं, तो वह यथार्थवाद होता है, और जब मुर्गे को उकाब कहते हैं तो रोमानवाद.'

प्रोफेसर हँस पड़े और मेरे अवार बंधु को पास कर दिया.

जहाँ तक मेरा संबंध है, तो मैं तो शुरू से ही घोड़े को घोड़ा, गधे को गधा, मुर्गे को मुर्गा और मर्द को मर्द कहने की कोशिश करता हूँ.

नोटबुक से. सुविख्‍यात रवींद्रनाथ टैगोर के एक भाई थे, वे भी लेखक थे. वे भारतीय साहित्‍य में बंगाली शैली के अनुगामी थे. रवींद्रनाथ तो खुद एक शैली, पूरी एक साहित्यिक धारा थे और दोनों भाइयों के बीच यही अंतर था.

रवींद्रनाथ की आत्‍मा में अपना एक पक्षी था, जो दूसरे पक्षियों से बिल्‍कुल भिन्‍न था और उनके पहले जिसका कभी अस्तित्‍व नहीं रहा था. उन्‍होंने कला-क्षेत्र में उसे स्‍वतंत्रता से उड़ान भरने दी और सभी ने देखा कि यह रवींद्रनाथ टैगोर का पक्षी है.

यदि चित्रकार अपने पक्षी को मुक्‍त उड़ान भरने के लिए छोड़ देता है और वह दूसरे, अपने जैसे पक्षियों के झुंड में घुल-मिल जाता है, तो इसका यह मतलब होता है कि वह चित्रकार नहीं है. इसका यह अर्थ निकलता है कि वह अपना, असाधारण और अद्भुत पक्षी नहीं, बल्कि मामूली गौरेया उड़ाता है और अब कोई भी उसकी गौरैया को दूसरों की, बेशक सुंदर हों, फिर भी गौरैया ठहरीं, अलग से नहीं पहचान पाता.

खुद आग जलाने के लिए आदमी का अपना चूल्‍हा होना चाहिए. किसी दूसरे के घोड़े पर सवार होनेवाले को देर-सबेर उससे उतरना और उसे उसके मालि‍क को सौंप देना होगा. पराये विचारों पर जीन नहीं कसिए, अपने लिए अपने विचार खोजिए.

मैं साहित्‍य की पंदूर और लेखक की उसके तारों से तुलना करने का साहस करता हूँ. हर तार की अपनी आवाज, अपनी गूँज होती है, मगर मिलकर वे मधुर संगीत पैदा करते हैं.

अवार जाति के पंदूर के सिर्फ दो तार होते हैं. मेरे पिता जी के बारे में कहा जाता था कि अवार साहित्‍य के पंदूर पर उन्‍होंने एक तार और जोड़ दिया है.

मैं अपना भी एक तार जोड़ना चाहता हूँ, जिसकी झंकार दूसरों से अलग हो. प्राचीन अवार साज का मैं एक और तार बनना चाहता हूँ.

मैं उन शिकारियों जैसा नहीं होना चाहता, जो बाजार से हिरन खरीद लेते हैं और घर आकर यह कहते हैं कि खुद मारकर लाए हैं.

या ऐसा भी होता है कि यह अफवाह फैल जाती है कि मानो किसी दर्रे में एक शिकारी ने बहुत बड़े पहाड़ी बकरे को गोली का निशाना बनाया है. सभी शिकारी जल्‍दी से इसी खुशकिस्‍मत दर्रे की तरफ भाग खड़े होते हैं. इसी बीच पहला शिकारी किसी दूसरी जगह पर एक बहुत बड़े भालू को मार गिराता है. शिकारियों का दल उधर भागता है, जबकि बढ़िया शिकारी किसी तीसरी जगह पर बड़ा-सा चीता मार डालता है... तो सवाल पैदा होता है कि असली शिकारी कौन है? वह जो खुद शिकार करता है या वे जो उसके पीछे-पीछे भागते हैं? ऐसों को तो दूसरे के फंदे से शिकार निकालते हुए भी शर्म नहीं आती.

वे मुझे कुछ दूसरे लेखकों की याद दिलाते हैं. ऐसा करना तो उचित नहीं, जैसा कि मेरे एक परिचित ने किया. कोर्नेई इवानोविच चुकोव्‍स्‍की से जान-पहचान होने के बाद वह ऐसे जाहिर करता था मानो अबूतालिब को जानता ही न हो.

सागर तक पहुँच जानेवाली, अपने सामने असीम नीला विस्‍तार देखने और उस महान नीलिमा में घुल-मिल जानेवाली नदिया को ऊँचे पहाड़ों में उस चश्‍मे को नहीं भूल जाना चाहिए, जिससे धरती पर उसका पथ आरंभ हुआ. उस पथरीले, सँकरे, ऊबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्‍ते को भी नहीं भूल जाना चाहिए, जो उसे तय करना पड़ा.

हाँ, मैं पहाड़ी नदिया हूँ. मैं अपने स्‍त्रोत, अपने चश्‍मे, अपने पथरीले पेटे को प्‍यार करता हूँ. मैं प्‍यार करता हूँ उन धुँधले दर्रों को, जिनमें से मेरा पानी बहता है, उन चट्टानों को, जिन पर से वह रुपहले जल-प्रपातों में गिरता है, उन शांत समतल स्‍थानों को, जहाँ वह इर्द-गिर्द के पहाड़ों, आकाश और आकाश के सितारों को प्रतिबिंबित करता हुआ गहराई में जमा होता है और फिर से पहले धीरे-धीरे बहने लगता है और बाद में अपनी गति तेज कर देता है.

मगर मैं यह नहीं कहता हूँ कि मेरे लिए सिर्फ दर्रे की काफी होंगे. मैं बहता जा रहा हूँ - इसका मतलब है कि मेरे सामने लक्ष्‍य है. मुझे केवल पूर्वानुभूति ही नहीं होती - मैं सागर के असीम विस्‍तार को देख रहा हूँ, उसे जानता हूँ.

मैं अकेला ही तो ऐसा नहीं हूँ. यह कहना ज्‍यादा सही होगा कि चूँकि सारे दागिस्‍तान का दृष्टि-क्षेत्र विस्‍तृत हो गया है, इसीलिए मेरा भी. इन सालों और दशाब्दियों के दौरान हमारे कब्रिस्‍तानों की ही नही, जीवन और दुनिया के बारे में हमारे दृष्टिकोणों की सीमाएँ भी विस्‍तृत हुई हैं.

मैं अवार कवि हूँ. मगर अपने दिल में मैं केवल अवारिस्‍तान, केवल दागिस्‍तान, केवल सारे देश के लिए ही नहीं, बल्कि सारी पृथ्‍वी के लिए नागरिक के उत्‍तरदायित्‍व को अनुभव करता हूँ. यह बीसवीं सदी है. इसमें सिर्फ ऐसे ही जिया जा सकता है.

मुझे बताया गया. मेरे जन्‍म के फौरन बाद मेरे पिता जी को नौकरी के सिलसिले में अस्‍थायी रूप से हारादारीह गाँव में जाना पड़ा. पिता जी के घोड़े के साथ दो सफरी थैले, दो खुरजियाँ लटकी हुई थीं. एक में तो हमारा घरेलू सामान था - कपड़े-लत्‍ते, बचा-खुचा आटा, दलिया, चर्बी और किताबें, दूसरे थैले में से मेरा सिर बाहर झाँक रहा था.

इस सफर के बाद मेरी माँ सख्‍त बीमार हो गई. हम जिस गाँव में पहुँचे, वहाँ एक ऐसी गरीब और एकाकी औरत मिल गई, जिसका बच्‍चा उन्‍ही दिनों चल बसा था. वही मुझे अपना दूध पिलाने लगी. वह मेरी धाय, मेरी दूसरी माँ बन गई.

तो इस तरह दुनिया में दो नारियाँ हैं, जिनका मैं ऋणी हूँ. मेरी उम्र चाहे कितनी ही लंबी क्‍यों न हो और इन नारियों के लिए चाहे मैं कुछ भी क्‍यों न करूँ, उनके नाम पर कोई भी कारनामा न कर दिखाऊँ, उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाऊँगा. बेटा अपना ऋण कभी नहीं चुका पाता.

इन दो नारियों में से एक तो मेरी माँ है, जिसने मुझे जन्‍म दिया, सबसे पहले मुझे पालने में झुलाया, पहली लोरी गाई और दूसरी... वह भी मेरी माँ है, जिसने मुझे अपनी छाती का दूध पिलाकर मौत के मुँह से बचाया, जिसकी बदौलत मुझमें जिंदगी की गर्मी आई और मैं मौत की तंग पगडंडी से जिंदगी के बड़े रास्‍ते पर आ गया.

मेरी जनता, मेरे छोटे-से देश, मेरी हर किताब की भी दो माताएँ हैं.

मेरी पहली माँ है - मेरी मातृभूमि दागिस्‍तान. मेरा यहाँ जन्‍म हुआ, यहाँ मैंने पहले पहल अपनी मातृभाषा सुनी, उसे सीखा और वह मेरे जीवन का अभिन्‍न अंग बन गई. यहीं मैंने पहले पहल अपनी जनता के गीत सुने और खुद पहला गीत गाया. यहीं मैंने पहले पहल पानी और रोटी को चखा. नुकीली-तीखी चट्टानों पर चढ़ते हुए बचपन में कितनी ही बार मुझे चोटें लगीं, मगर मेरी मातृभूमि के पानी और जड़ी-बूटियों ने मेरे सभी घावों को अच्‍छा कर दिया. पहाड़ी लोगों का कहना है कि ऐसी कोई भी तो बीमारी नहीं है, जिसके इलाज के लिए हमारे यहाँ पहाड़ी जड़ी-बूटियाँ न हों.

मेरी दूसरी माँ है - महान रूस, मास्‍को. उसने मुझे शिक्षा-दीक्षा दी, मुझे पंख दिए, मुझे बड़े रास्‍ते पर पहुँचाया, असीम क्षितिज दिखाए, सारी दुनिया को मेरे सामने उभारा.

बेटे के रूप में मैं दोनों माताओं का ऋणी हूँ. मेरे पहाड़ी घर की दीवार पर दो कालीन-चित्र लटके हुए हैं. एक चित्र है महमूद का और दूसरा - पुश्किन का. ब्‍लोक के रचना-खंडों में, जिनसे पीटर्सबर्ग की दूधिया रातों की ठंडी साँसों की अनुभूति होती है, ऊँची अवार चरागाहों के अंगारों से दहकते हुए अनेक रंगों के फूल रखे हैं.

दो माताएँ - ये तो जैसे दो पंख हैं, दो हाथ, दो आँखें, दो गीत हैं. दो माताओं के हाथों ने मेरा सिर सहलाया है और जरूरत होने पर मेरे कान भी खींचे हैं. दोनों माताओं ने मेरे पंदूर पर एक-एक तार लगाया है. उन्‍होंने मुझे जमीन से, मेरे गाँव से ऊपर उठाया और उनके कंधों पर से मैंने दुनिया में बहुत कुछ देखा, जिसे अगर वे मुझे ऊपर न उठातीं, तो मैं कभी न देख पाता. जिस तरह उड़ता हुआ उकाब यह नहीं जानता कि कौन-सा पंख उसके लिए अधिक जरूरी और मूल्‍यवान है, उसी तरह मुझे भी यह मालूम नहीं है कि कौन-सी माँ मेरे लिए अधिक मूल्‍यवान है.

पहले पहाड़ी लोग जड़ी-बूटियों और पानी से अपनी सभी बीमारियों का इलाज करते थे. नीम हकीमों पर भी विश्‍वास था उन्‍हें. हाँ, ऐसे नीम हकीम भी थे, जिनकी लोग-बाग अभी तक चर्चा करते हैं. ये नीम हकीम सिर दर्द का इलाज करने के लिए काली भेड़ काटने को मजबूर करते थे.

हर अवार यह जानता है कि भूरी या सफेद भेड़ की तुलना में काली भेड़ का मांस अधिक रसीला और जायकेदार होता है. नीम हकीम उसी वक्‍त उतारी गई भेड़ की खाल को बीमार के सिर के गिर्द लपेट देता और उसे ऐसे ही बैठने को मजबूर करता. मांस वह अपने साथ ले जाता.

ऐसे नीम हकीमों का तो हम अब जिक्र नहीं करेंगे. मगर अच्‍छे लोक-वैद्य और अच्‍छी देसी दवाइयाँ भी थीं.

एक बार मेरे पिता जी मास्‍को के क्रेम्लिन अस्‍पताल में थे. वहाँ उन्‍हें दागिस्‍तान की जड़ी-बूटियों और पानी का ध्‍यान हो आया और उन्‍होंने अपने बेटों से बूत्‍सरा पर्वत के छोटे-से सोते का पानी लाने का अनुरोध किया.

बेटों के लिए पिता के शब्‍द कानून होते हैं. वे दागिस्‍तान पहुँचे, बूत्‍सरा पर्वत पर चढ़े, वहाँ सोता ढूँढ़ा और क्रेम्लिन अस्‍पताल में बीमार पड़े हुए अवार कवि के लिए वहाँ से पानी लाए.

पिता जी ने पानी पिया और मानो उन्‍हें कुछ चैन मिला. वे तो स्‍वस्‍थ भी हो गए. मगर उन्‍हें यह मालूम नहीं था कि उसी दिन उन्‍हें विदेश से लाई गई किसी दवाई की सुइयाँ भी लगाई जाने लगी थीं.

संभव है कि वे केवल विश्‍व चिकित्‍सा विज्ञान द्वारा तैयार की गई दवाइयों से ही स्‍वस्‍थ न होते. संभव है कि केवल अवार जल, हमारी जातीय लोक-औषधि से ही उन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य-लाभ न होता. किंतु दोनों दवाइयों से वे सेहतमंद हो गए.

साहित्‍य में भी ऐसा ही होना चाहिए. उसके स्रोत हैं - मातृभूमि, अपनी जनता, मातृ-भाषा. मगर हर सच्‍चे लेखक की चेतना अपनी जाति की सीमाओं से कहीं अधिक विस्‍तृत होती है. सारी मानव-जाति, समूची दुनिया की समस्‍याएँ उसे बेचैन करती हैं, उसके दिल-दिमाग में जगह पाती हैं.

            चलता राही जब मंजिल को
            संग भला वह लेता क्‍या?
            रोटी लेता, मदिरा लेता...
            इनकी मगर जरूरत क्‍या?
            हम आदर-सत्‍कार करेंगे
            सिर आँखों पर, आनेवाले!
            रोटी तुम्‍हें पहाड़िन देगी
            और पहाड़ी मदिरा ढाले.
            चलता राही जब मंजिल को
            संग भला वह लेता क्‍या?
            खंजर तेज साथ में लेता...
            उसकी मगर जरूरत क्‍या?
            यहाँ पहाड़ों में स्‍वागत है
            किंतु अगर कोई दुश्‍मन,
            कहीं घात में होगा, उसका
            हम छलनी कर देंगे, तन.
            चलता राही जब मंजिल को
            संग भला वह लेता क्‍या?
            गीत साथ में अपने लेता...
            उसकी मगर जरूरत क्‍या?
            गीत यहाँ अद्भुत से अद्भुत
            उनका कोई नहीं शुमार,
            फिर भी चाहो तो संग ले लो
            उसमें नहीं जरा भी भार.

यदि डाक्‍टर से लेखक की तुलना की जाए, तो उसे सदियों की जानी-परखी लोक-औषधियों और विश्‍व विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों का उपयोग करने में समर्थ होना चाहिए.

यदि पद-यात्री से लेखक की तुलना की जाए, तो किसी दूसरी जाति का मेहमान बनते हुए उसे अपनी धरती के गीतों को हृदय में सहेजकर ले जाना चाहिए, किंतु उन गीतों के लिए भी अपने हृदय में स्‍थान निकाल लेना चाहिए, जो उसे वहाँ सुनाए जाएँगे.

उसके अपने लोग उसे विदा करते हैं, दूसरे उसका स्‍वागत करते हैं और गीत सभी जातियों के पास होते हैं.

हमारे गाँवों में जब पहले व्‍याख्‍यानदाता और भाषणकर्ता आने लगे, तो केलेब गाँव की नारियाँ व्‍याख्‍यानदाता की ओर पीठ करके बैठती थीं ताकि वह उनके चेहरे न देख सके. मगर व्‍याख्‍यान के बाद जब गायक सामने आता और गाने लगता, तो नारियाँ गाने का आदर करते हुए पूर्वाग्रहों को ताक पर रखकर गायक की तरफ मुँह कर लेतीं. इतना ही नहीं, वे तो मुँह से पर्दा भी हटा लेतीं.

कोई ऐसा दिन, कोई ऐसा मिनट भी नहीं होता, जब मेरी आत्‍मा में उस गीत का स्‍पंदन न हो, उस गीत की गूँज सुनाई न दे, जो मेरी माँ ने मेरे पालने पर झुककर गाया था. यही गीत, मेरे सभी गीतों का पालना है. यह वह तकिया है, जिस पर मैं अपना थका हुआ सिर टिकाता हूँ. वह घोड़ा है, जो मुझे सभी जगह लिए घूमता है. यह वह चश्‍मा है, जो मेरी प्‍यास बुझाता है, वह चूल्‍हा है, जो मुझे गर्माता है और इसी की गर्मी मैं जीवन में अपने साथ लिए घूमता हूँ.

पर साथ ही मैं शूकूम जैसा नहीं बनना चाहता, जो बड़ा और तगड़ा बालक हो जाने पर भी माँ का दूध पिए बिना नहीं रह सकता था और इसलिए उसकी छाती की ओर लपकता था. ऐसों के बारे में कहा जाता है - 'जिस्‍म साँड का, दिमाग बछड़े का.'

आजकल हम तरह-तरह की प्रश्‍नावलियों के उत्‍तर लिखने के आदी हो चुके हैं. अपने जीवन में न जाने कितने ऐसे प्रश्‍न-पत्र भर चुका हूँ मैं! एक भी प्रश्‍न-पत्र में मैंने मातृभूमि के प्रति प्‍यार का प्रश्‍न नहीं देखा. मगर इसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि ऐसा प्‍यार दुनिया के लोगों में है ही नहीं.

दूसरी तरफ, प्रश्‍न-पत्र में केवल 'सोवियत संघ का नागरिक' लिख देना ही काफी नहीं है, व्‍यक्ति को वास्‍तव में वैसा होना भी चाहिए. 'सोवियत संघ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का सदस्‍य' लिख देना ही पर्याप्‍त नहीं है, अर्थ में वैसा बनना भी चाहिए. 'मातृभाषा-अवार' लिख देना ही काफी नहीं, वास्‍तव में ही यह मातृभाषा होनी चाहिए, इसके प्रति वफादार रहने का साहस होना चाहिए.

जगह-जगह के मेहमानो, मेरे यहाँ आइए, मेरे पास तरह-तरह के गीत लाइए! भाइयों-बहनों की तरह आइए, मैं सभी का स्‍वागत करूँगा, सभी को अपने दिल में जगह दे सकूँगा!

अगर कोई पहाड़ी आदमी किसी दूसरी जाति की नारी को जीन पर अपने पीछे बैठाए हुए खूंजह में लौटता था, तो ऐसे आदमी को तिरस्‍कार की नजर से देखा जाता था, गाँव के बड़े-बूढ़े उसकी इस हरकत की लानत-मलामत करते थे. मगर अब तो बूढ़े-जवान, सभी इस चीज के आदी हो चुके हैं. किसी भी दूसरी जाति की नारी से किसी अवार की शादी को कलंक नहीं माना जाता. अब केवल एक ही विवाह की भर्त्‍सना की जा‍ती है - प्रेमहीन विवाह की.

क्‍या यह सच नहीं है कि फूल जितने भी विविधतापूर्ण होंगे, उनका उतना ही ज्‍यादा खूबसूरत गुलदस्‍ता बनेगा. आकाश में जितने ज्‍यादा तारे होंगे, वह उतना ही ज्‍यादा जगमगाएगा. इंद्रधुनष इसीलिए तो सुंदर लगता है कि पृथ्‍वी के सभी रंगों को अपने में समेट लेता है.

अफ्रीका में मैंने एक अद्भुत, एक असाधारण फूल देखा. इस फूल की हर पंखुड़ी का अपना अलग रंग होता है. हर पंखुड़ी की अपनी सुगंध, अपना नाम है. संक्षेप में, डंडी पर एक बढ़िया, तैयार गुलदस्‍ता पनपता है, मगर फिर भी वह एक ही फूल होता है.

मैं यह चाहता हूँ कि मेरी अवार पुस्‍तक उस अद्भुत अफ्रीकी फूल जैसी हो, ताकि हर कोई उसमें अपना कुछ प्रिय, कुछ निकटवर्ती देख पा सके.

लीजिए, मैं वे सभी चीजें जिनसे ऐसी पुस्‍तक बननी चाहिए, अपने सामने रख लेता हूँ. कूबाची के अच्‍छे कारीगर की तरह हर चीज मेरे नजदीक रखी है. उसके पास होते हैं - चाँदी, सोना, काटनेवाले औजार, हथौड़ियाँ, छेनियाँ, ठप्‍पे और खाके. मेरे पास हैं - मातृभाषा, जीवन का अनुभव, लोगों के चित्र और चरित्र, गीतों की धुनें, इतिहास की समझ, न्‍याय भावना, प्‍यार, मातृभूमि का प्राकृतिक सौंदर्य, अपने पिता की स्‍मृति, अपनी जनता का अतीत और भविष्‍य... मेरे हाथों में स्‍वर्ण-पिंड हैं. मगर मेरे हाथ भी सोने के हैं या नहीं? मुझमें काफी प्रतिभा, काफी कारीगरी भी होगी.

मैं क्‍या करूँ कि मेरा गीत जीते-जागते, पंख फड़फड़ाते पक्षी की तरह आपकी हथेली में रखा जा सके, कि वह प्‍यार की भाँति ही आमंत्रण और पूर्वसूचना के बिना आपके दिलों में उतर जाए?

मेरी मेज पर जो कुछ मेरे सामने रखा है, मैं फिर से उस पर नजर डालता हूँ...

कहते हैं कि उस जवान की बीवी उसे छोड़ जाए, जिसके पास घोड़ा नहीं.

ऐसा भी कहते हैं कि उस जवान की बीवी भी उसे छोड़ जाए, जिसके पास घोड़े का जीन या चाबुक नहीं है.

कहते हैं कि उकाब को घास और गधे को मांस नहीं खिलाइए.

कहते हैं कि अगर दीवारें मजबूत नहीं हैं, तो सुंदर मकान भी गिर सकता है.

कहते हैं कि मुर्गी को मादा उकाब होने का सपना आया, चट्टान से उड़ी और पंख तोड़ लिए.

छोटे-से सोते ने यह सपना देखा कि वह बड़ा दरिया है, बालू में वह चला और वहीं सूख गया.


(जारी)

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