विषय
दरवाजे को तोड़ो
नहीं - वह किसी कठिनाई के बिना चाभी से खुल जाता है.
द्वार पर आलेख
यह मत कहो - 'मुझे विषय दो'.
यह कहो - 'मुझे आँखें दो'.
युवा
लेखक को सीख
'प्यारे साथियो, मेरी कलम लिखने को बेकरार है. मगर
यह समझ में नहीं आता कि किस विषय पर लिखूँ. मुझे सामयिक महत्व का कोई विषय बताइए
और मैं उस पर एक बहुत बढ़िया किताब लिख दूँगा.'
लेखक
संघ,
पत्रिकाओं या समचार-पत्रों के संपादक-मंडलों या लेखकों के नाम अपने
पत्रों में युवाजन इस तरह का अनुरोध करते हैं. मेरे पास भी ऐसे खत आते हैं. मेरे
पिता जी के पास भी ऐसे पत्र आया करते थे. कभी-कभी वे सिर हिलाते हुए कहते -
'जवान आदमी शादी करना चाहता है, मगर मुसीबत यह है कि
किससे शादी करे, उसे यह मालूम नहीं. उसकी नजर में एक भी
लड़की नहीं है, इसलिए कोई भी नहीं जानता कि सगाई करनेवालों
को कहाँ भेजा जाए.'
संस्मरण.
एक बार दागिस्तान के लेखक-संघ में अबूतालिब का खत आया. कवि ने लिखा था कि उन्हें
एक महीने के लिए दूरस्थ पहाड़ी गाँवों में सामग्री जुटाने के लिए भेज दिया जाए.
प्रबंध समिति की बैठक में अबूतालिब से पूछा गया कि वे किस बारे में, किस विषय पर लिखना चाहते हैं. बुजुर्ग शायद झल्ला उठे -
'क्या शिकारी पहले से ही यह जान सकता है कि कौन-सा शिकार उसके सामने आ
जाएगा - खरगोश, हंस, भेड़िया या लाल
लोमड़ी? क्या कोई योद्धा पहले से ही यह जान सकता है कि
लड़ाई के मैदान में वह बहादुरी का कौन-सा कारनामा कर दिखाएगा?'
मैं
भी उस बैठक में उपस्थित था. अबूतालिब के शब्दों ने मेरे दिल में घर कर लिया.
मुझे
ऐसे लोगों की वजह से हमेशा हैरानी होती है, जो लेखक से
कुरेद-कुरेदकर यह पूछते हैं कि अगले कुछ सालों में वह क्या लिखने का इरादा रखता
है. यह सही है कि किस तरह की चीज वह लिखना चाहता है, उसकी
कुछ मोटी-सी रूप-रेखा लेखक के दिमाग में होती है. शायद वह यह योजना बना सकता है कि
उपन्यास लिखेगा या तीन खंडोंवाला बड़ा उपन्यास लिखेगा, मगर
कविता कविता तो अप्रत्याशित ही आती है, उपहार की तरह. कवि
का धंधा योजनाओं के कठोर बंधनों को नहीं मानता. कोई अपने लिए इस तरह की योजना तो
नहीं बना सकता - आज सुबह के दस बजे मैं सड़क पर मिल जानेवाली लड़की से प्रेम करने
लगूँगा. या यह कि कल शाम के पाँच बजे किसी नीच आदमी से नफरत करने लगूँगा.
कविता
गुलाबों के बगीचे या व्यारियों में खिलनेवाले फूलों के समान नहीं है. वहाँ वे
हमेशा हमारे सामने होते हैं - हमें उन्हें खोजना नहीं पड़ता. कविता तो मैदानों, ऊँची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों की तरह होती है. वहाँ हर कदम पर नया,
अधिक सुंदर फूल पाने की आशा बनी रहती है.
भावनाओं
से संगीत का जन्म होता है, संगीत से भावनाओं का. किसे
पहला स्थान दिया जाए? आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिल सका
कि मुर्गी पहले पैदा हुई या अंडा? ठीक ऐसा ही यह सवाल है -
लेखक विषय को जन्म देता है या विषय लेखक को? विषय - यह तो
लेखक का संपूर्ण संसार है, संपूर्ण लेखक है. विषय के बिना
उसका अस्तित्व ही नहीं होता. हर लेखक का अपना ही विषय होता है.
विचार
और भावनाएँ पक्षी हैं, विषय आकाश हे; विचार और भावनाएँ हिरन हैं, विषय जंगल है; विचार और भावनाएँ बारहसिंगे हैं, विषय पर्वत है;
विचार और भावनाएँ रास्ते हैं, विषय वह नगर है,
जिधर से रास्ते ले जाते हैं और आपस में जा मिलते हैं.
मेरा
विषय है - मातृभूमि. मुझे उसे खोजने और चुनने की जरूरत नहीं. हम तो अपने लिए
मातृभूमि नहीं चुनते, मगर मातृभूमि ने हमें शुरू से
ही चुन लिया है. आकाश के बिना उकाब, चट्टानों के बिना पहाड़ी
बकरा, तेज और निर्मल जलवाली नदी के बिना ट्राउट और हवाई
अड्डे के बिना हवाई जहाज नहीं हो सकता. ऐसे ही मातृभूमि के बिना लेखक नहीं हो सकता.
मुर्गे-मुर्गियों
के बीच अहाते में धीरे-धीरे चलनेवाला उकाब-उकाब नहीं रहा. सामूहिक फार्म की
भेड़-बकरियों के बीच चरनेवाला पहाड़ी बकरा-पहाड़ी बकरा नहीं रहा. मछलीघर में
तैरनेवाली ट्राउट-ट्राउट नहीं रही. अजायबधर में रखा हुआ हवाई जहाज-हवाई जहाज नहीं
रहा.
ठीक
ऐसे ही बुलबुल के तराने के बिना बुलबुल नहीं हो सकती.
विषय
के बारे में कुछ और. बचपन से ही एक दृश्य मुझे बहुत प्रिय है. ऐसा होता कि जब कभी
मैं अपने पिता जी के पहाड़ी घर की छोटी-सी खिड़की खोलता, मुझे गाँव के दामन में मेजपोश की तरह बिछा हुआ एक हरा-भरा, चौड़ा पठार दिखाई देता. सभी ओर से चट्टानें उसके ऊपर झुकी होती थीं.
चट्टानों के बीच टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ थीं, जो बचपन में
मुझे साँपों की याद दिलाती थीं और गुफाओं के मुँह मेरे लिए हमेशा ही दरिंदों के
जबड़ों जैसे होते थे. पहाड़ों की पहली कतार के बाद दूसरी कतार नजर आती थी. पहाड़
गोल-गोल, काले-काले और ऊँट की पीठ की तरह झबरीले-से लगते.
अब
मैं यह समझता हूँ कि स्विटजरलैंड या नेपुल्स में अधिक सुंदर जगहें भी हैं, मगर मैं जहाँ कहीं भी गया, मेरी आँखों ने इस धरती के
कैसे भी सौंदर्य को क्यों नहीं देखा, मैं अपने उस सुदूर
बचपन के चित्र से, पहाड़ी घर की छोटी-सी खिड़की के चौखटे में
जड़े चित्र से उसकी तुलना करता हूँ और दुनिया के सभी सौंदर्य उसके सामने फीके पड़
जाते हैं. यदि किसी कारणवश मेरा अपना गाँव और उसके इर्द-गिर्द की जगहें न होतीं,
यदि वे सब मेरी स्मृति में सजीव न रहतें, तो
मेरे लिए सारी दुनिया छाती होती, मगर दिल के बिना, मुँह होती, मगर जबान के बिना, आँखें
होती, मगर पुतलियों के बिना घोंसला होती, मगर पक्षियों के बिना. इसका हरगिज यह मतलब नहीं है कि अपने विषय को मैं
अपने गाँव और अपने घर की सीमाओं में बंद कर रहा हूँ, कि अपने
मनपसंद विषय के गिर्द किले की ऊँची दीवारें खड़ी कर रहा हूँ.
ऐसी
जमीन भी होती है, जहाँ हल से गहरी जोताई की
जाती है, मगर जोती हुई मोटी तह के नीचे जमीन की नई नर्म तह
नजर आती है. ऐसी जमीन भी होती है कि जिस पर हल्की-सी जोताई करते ही नीचे कठोर पत्थर
नजर आने लगते हैं. ऐसी जमीन भी होती है, जिसकी हल्की-सी तह
उठाने के पहले ही पत्थर नजर आते हैं. मैं ऐसी जमीन पर हल चलाने और मेहनत करने का
इरादा नहीं रखता, क्योंकि जानता हूँ कि वहाँ अच्छी फसल
नहीं होगी.
मातृभूमि
के प्रति अपने प्यार को मैं उस घोड़े की तरह, जिसने अच्छी
तरह काम किया है और जिसे अब मैदान में घास चरनी चाहिए, पगहा
बाँधकर या पिछाड़ी डालकर नहीं रखना चाहता. मैं तो घोड़े की लगाम उतारकर उसकी पसीने
से तर गर्म गर्दन थपथपाता और यह कहता हूँ - जाओ, जाकर मौज से
चरो, शक्ति बटोरो. मातृभूमि के प्रति मेरी भावना में आजादी
से चरनेवाले घोड़े की तरह कुछ चैन और मस्ती है.
दुनिया
के कार्य-कलापों को मैं अपने पहाड़ी घर, अपने गाँव,
अपने दागिस्तान, मातृभूमि के प्रति अपनी
भावना के अंतर्गत नहीं खोजना चाहता. इसके उलट, दुनिया के सभी
कार्य-कलापों, इसके सभी कोनों में मैं मातृभूमि की भावना
अनुभव करता हूँ. इस अर्थ में सारी दुनिया मेरा विषय है.
मुझे
याद है कि दूर-दराज के और खूबसूरत सांतियागो में मुर्गों ने मुझे जगा दिया था.
जागने पर कुछ मिनट तक मुझे ऐसा लगा मानो मैं छोटे-से पहाड़ी गाँव में हूँ. इस तरह
सांतियागो के मुर्गे मेरी रचना का विषय बने.
जापान
में,
और भी अधिक सुंदर कामाकूर शहर में मुझे सौंदर्य प्रतियोगिता देखने
का अवसर मिला. वहाँ 'रूप की महारानी' चुनी
जानेवाली थी. जापानी सुंदररियाँ बाँधे हमारे सामने आई. मैंने बरबस ही उनके साथ
अवार पहाड़ों में रह जानेवाली अपनी उस 'एकमात्र' से तुलना की और उनमें मुझे वह नहीं मिला, जो मेरी
महारानी में है. इस तरह जापानी सुंदरियाँ और जापानी रूप की महारानी मेरा विषय बनीं.
नेपाल
में बौद्ध-मंदिरों, शाही महलों और बाईस चश्मों
को, जो सभी बीमारियाँ दूर करते हैं, सभी
जादू-टोनों, सभी बुराइयों को दूर भगाते हैं, जी भरकर देखने के बाद आखिर में काठमांडू पहाड़ों की खड़ी चढ़ाइयों पर चढ़ा.
इन पहाड़ों ने मुझे अपने दागिस्तान की याद दिला दी और शानदार तथा आलीशान महलों और
मंदिरों की तुलना में उन्हें देखकर दिल को कहीं ज्यादा खुशी हुई. वास्तुशिल्प
की विचित्र कृतियों के मुकाबले में मुझे मामूली पहाड़ कहीं ज्यादा कीमती लगे.
मेरे दिमाग में यह ख्याल आया कि चमत्कारी चश्मे नहीं, बल्कि
ये पहाड़ सभी बीमारियों, सभी बुराइयों को दूर भगा सकते हैं.
इस तरह नेपाल के बौद्ध-मंदिर और पर्वत मेरी रचना का विषय बन गए.
बड़े-बड़े
और कोलाहलपूर्ण भारतीय नगरों के बाद मुझे कलकत्ता के नजदीक एक छोटे-से गाँव में
ले जाया गया. बड़े-से खलिहान में अनाज माँड़ा जा रहा था, बैल गेहूँ के सुनहरे पूलों पर चक्कर काट रहे थे. दुनिया के एक भी
संग्रहालय, एक भी थियेटर से मुझे इतनी खुशी नहीं मिली,
जितनी अपने खुरों से गेहूँ के सुनहरे पूलों को धीमी चाल से
माँड़नेवाले इन बैलों को देखकर. मुझे लगा मानो मैं अपने बचपन और प्यारे गाँव मैं
लौट गया हूँ. इस तरह कलकत्ते का निकटवर्ती गाँव मेरा विषय बना.
मैं
देख चुका हूँ - हिंदेशिया के पहाड़ों में हमारे पहाड़ों की तरह ढोल बजते, न्यूयार्क की सड़कों पर चेर्केसी जातीय पोशाक पहने किसी काकेशियाई को
घूमते; इस्तांबूल और पेरिस में वे दुखी पहाड़ी लोग, जिन्होंने खुद अपने को देश-निकाला दे रखा है और जो दुनिया के सबसे बदकिस्मत
लोग है; लंदन की प्रदर्शनी में बालखारी के मशहूर कुम्हारों
के मिट्टी के बर्तनों की प्रदर्शनी; वेनिस में लाकों के त्सोकरा
गाँव के रज्जु-नर्तकों के करतबों से आश्चर्यचकित होनेवाले दर्शक; पीटसबर्ग की पुरानी किताबों की एक दुकान में शामिल के बारे में एक पुस्तक.
सभी
जगहों पर,
जहाँ कहीं भी मैं गया, दागिस्तान के साथ मेरा
एक तार-सा जुड़ा रहा है.
अगर
किसी योद्धा पर कई आदमी तलवारें लेकर एकसाथ टूट पड़ते हैं, तो समझ लो कि उसकी शामत आ गई. वह एकसाथ सामने और पीछे से अपना बचाव नहीं
कर सकता. पर यदि उसे कोई चट्टान मिल जाए जिसके साथ वह अपनी पीठ टिका सके, तो स्थिति इतनी बिगड़ नहीं पाती. पीठ को चट्टान के साथ टिकाकर चुस्त और
ताकतवर योद्धा एक साथ दो या तीन दुश्मनों से भी लड़ सकता है.
दागिस्तान
मेरे लिए ऐसी ही चट्टान है. वह मुझे कठिन-से-कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने
में मदद देता है.
यात्री
जिन देशों की यात्रा करते हैं, उनके गीत स्वदेश लेकर
आते हैं. मगर मेरी मुसीबत तो यह है कि कहीं भी क्यों न जाऊँ, हर जगह से दागिस्तान के बारे में ही गीत लेकर लौटता हूँ. हर कविता के साथ
मेरी उससे मानो नई जान-पहचान होती है, उसे नए ही सिरे से
समझता और प्यार करता हूँ. मेरे लिए मेरी मातृभूमि दागिस्तान अक्षय और असीम भंडार
है.
नोटबुक
से.
'उकाब, तुम्हारा सबसे प्यारा गीत किसके बारे में है?'
'खड़े पहाड़ों के बारे में.'
'सागर-पक्षी, तुम्हारा मनपसंद गीत किसके संबंध में
है?'
'नीले सागर के संबंध में.'
'कौवे, तुम्हारा सबसे प्यारा गीत किसके बारे में है?'
'लड़ाई के मैदान में पड़ी मजेदार लाशों के बारे में.'
साहित्य
के भी अपने पक्षी हैं - उकाब और सागर-पक्षी. एक पहाड़ों का कीर्ति-गान करता है, दूसरा - सागर का. हरेक की अपनी मातृभूमि है, अपना
विषय है. मगर कौवे भी हैं. वे तो अपने ही को सबसे अधिक प्यार करते हैं. कौवा जब
युद्ध-क्षेत्र में पड़ी लाश की आँख निकालता है, तो यह नहीं
सोचता कि वह आँख वीर की है या कायर की. मैं ऐसे साहित्यकारों को भी जानता हूँ,
जो आज वह करते हैं, जिससे आज लाभ है और कल वह
करेंगे, जिससे कल लाभ होगा.
विषय
के बारे में कुछ और. विषय - यह तो माल-मते से भरा संदूक है. शब्द - वह इस संदूक
की चाबी है. मगर संदूक में अपनी दौलत होनी चाहिए, पराई
नहीं.
कुछ
लेखक एक विषय से दूसरे विषय पर छलाँग लगाते रहते हैं, एक की गहराई में भी नहीं उतर पाते. वे जरा संदूक का ढक्कन उठाते हैं,
ऊपर पड़े कपड़ों को ही हिलाते-डुलाते हैं और झटपट आगे बढ़ जाते हैं.
संदूक का असली मालिक तो यह जानता है कि अगर सावधानी से एक के बाद एक चीज बाहर
निकाली जाए, तो सबसे नीचे हीरे-मोतियों से भरी मंजूषा हाथ
लगेगी.
एक
विषय से दूसरे विषय पर छलाँग लगानेवाले लेखक अनेक शादियाँ करने के लिए पहाड़ों में
विख्यात दालागालोव के समान हैं. उनसे जैसे-तैसे अट्ठाईस बार शादी की, मगर आखिर में बिल्कुल अकेला ही टापता रह गया.
फिर
भी अकेली कानूनी बीवी से विषय की तुलना करना ठीक नहीं होगा. एक माँ या एक बच्चे
से भी उसकी तुलना नहीं की जा सकती. कारण कि हम ऐसा नहीं कह सकते - यह मेरा विषय है, खबरदार, जो किसी ने इसे छुआ.
विषय
तो मेरा है, मगर सभी इस विषय को ले सकते हैं. मैंने एक
लेखक को किसी दूसरे लेखक को इसलिए भला-बुरा कहते सुना था कि उसने उसका विषय 'चुरा' लिया था. वह कह रहा था, 'इरचे गाजाख' (पिछली शताब्दी का कुमीक कवि और कुमीक
साहित्य का जन्मदाता) के बारे में लिखने का हक तुम्हें किसने दिया? तुम तो जानते ही हो कि यह मेरा विषय है, कि इरचे
गाजाख के बारे में मैं लिखता हूँ. यह तो दिन दहाड़े चोरी है!' यह लेखक ऐसे आपे से बाहर हुआ जा रहा था मानो उसी वक्त कोई उसकी प्रेमिका
ले उड़ा हो.
उसे
जवाब भी ऐसा करारा मिला, जो कोई पहाड़ी ही दे सकता था
-
'इमाम वही बन सकता है, जिसकी तलवार में दम हो,
जिसकी धार तेज हो. दुलहन उसकी नहीं होती, जिसने
सगाई करने के लिए बिचौलियों को उसके घर भेजा हो, बल्कि उसकी
होती है, जो उसे अपनी बीवी बना लेता है. सभी अन्य विषयों की
भाँति इरचे का विषय भी उसी का होगा, जो उसके बारे में बेहतर
लिखेगा.'
हाँ, विभिन्न लेखक स्वतंत्र रूप से एक ही विषय पर काम कर सकते हैं. साहित्य
में सामूहिक फार्म नहीं हो सकता. हर लेखक का अपना खेत, जमीन
का अपना टुकड़ा होता है, जो चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो.
मगर मैं किसी को इस आधार पर अपने खेत के पास आने से नहीं रोकता कि खुद अपने खंडों
के पास नहीं जाता. मेरी सीमा-रेखा पर आपको न तो कुत्ते नजर आएँगे और न बंदूक लिए
पहरेदार. मगर न सीमा-रेखा है कहाँ, उसे कैसे निश्चित किया
जाए, किस चीज के उसके गिर्द बाड़ बनाई जाए? मेरा विषय न तो निषिद्ध चरागाह है और न मसजिद की ऐसी जगह ही, जहाँ किसी पराये आदमी का पाँव नहीं पड़ना चाहिए.
दागिस्तान
के लेखकों का सम्मेलन हो रहा था. उसमें बहस चल रही थी. एक वक्ता ने कहा -
'दागिस्तानियों को दूसरे देशों और दूसरे लोगों के बारे में लिखने की क्या
पड़ी है? स्पेन के बारे में स्पेनी, जापान
के बारे में जापानी और उराल के उद्योगों की बारे में उराली लिखें. अगर किसी पक्षी
का घोंसला एक बाग में है, तो क्या वह अपना तराना गाने के
लिए किसी दूसरे बाग में उड़कर जाएगा? क्या पहाड़ों से
कंकड़ोंवाली मिट्टी घाटी में लानी चाहिए, जहाँ उसके बिना ही
अत्यधिक उपजाऊ मिट्टी है? दुंबे की चर्बीदार दुम को भूनने
से पहले क्या उस पर और घी चुपड़ने की भी जरूरत होती है?'
सम्मेलन
में एक अन्य जनतंत्र से आया हुआ मेहमान भी उपस्थित था. उसने वक्ता को यह जवाब
दिया -
'जैसे पक्षियों का घोंसला होता है, वैसे ही दरिदों की
माँद होती है. मगर सूरज सभी जानवरों को रोशनी देता है और बारिश सभी वृक्षों को
सींचती है. इंद्रधनुष सभी को अपनी एक जैसी छटा दिखाता है. बिजली ऊँचे पहाड़ों में
भी चमकती है और गहरे दर्रों में भी. बादल भी ऐसे ही सभी जगह गरजता है. विदेश से
लाए गए चावल से भी बढ़िया पुलाव तैयार किया जा सकता है. मैं आपके सम्मेलन में बहुत
दूर से आया हूँ. सो भी बधाई देने के लिए. मगर अब मुझे यह लगता है कि आपके पहाड़ों,
आपके सागर, आपके नेक पुरुषों और गरिमा-संपन्न
सुंदर नारियों से मुझे प्यार हो गया है. अगर मैं आपके बारे में लिखूँगा, तो मेरे लोग इसके लिए मेरा आभार मानेंगे. अगर आप मेरी जन्मभूमि के बारे
में लिखेंगे, तो इसमें भी कुछ बुराई नहीं होगी. प्यार की
तरह लेखक भी अपने विषय के चुनाव में स्वतंत्र होता है. क्या प्यार कभी अनुमति
लेकर किसी दिल में अपनी जगह बनाता है?'
सम्मेलन
में उपस्थित सभी लोगों ने खूब तालियाँ बजाई, मेहमान के
शब्द तीर की तरह पैने थे और ठीक निशाने पर बैठे थे. मगर तालियाँ बजाते और मेहमान
से लगभग पूरी तरह सहमत होते हुए भी कुछ विचार मेरे दिमाग में आते रहे.
दूसरे
देशों और दूसरे लोगों के बारे में लिखना तो अच्छी बात है, मगर अपने विषय में पूरी तरह पारंगत होने के बाद ही ऐसा करना चाहिए.
मेरा
छोटा-सा दागिस्तान और मेरी बहुत बड़ी दुनिया. ये दो नदियाँ हैं, जो घाटी में पहुँचकर एक हो जाती हैं. आँसू की दो बूँदें हैं, जो दो आँखों से छलककर, दो गालों पर बहती हैं,
मगर एक ही गम या एक ही खुशी से पैदा होती हैं.
दो
बूँदें कवि के गालों पर, गिरीं नमी की
एक
बूँद दाएँ पर आई, एक बूँद बाएँ पर छलकी,
एक
खुशी की एक गमी की,
एक
हृदय का क्रोध बन गई, एक प्यार बन मन का ढलकी.
नन्ही-नन्ही
ये दो बूँदें, शांत बड़ी
शक्तिहीन
हैं अलग-अलग पर, यदि दोनों मिल जाएँ,
वे
कविता का रूप ग्रहण कर तब अनुपम
बिजली-सी
कड़कें,
फिर बादल बनकर जल बरसाएँ.
मेरा
छोटा-सा दागिस्तान और मेरी बहुत बड़ी दुनिया. बस, यही
है मेरी जिंदगी, मेरा गीत, मेरी किताब,
मेरा विषय.
जो
उकाब ऊँची चट्टानों से घाटी के विस्तारों में उड़ान नहीं भरता - बुरा उकाब है.
जो
उकाब घाटी के विस्तारों से ऊँची चट्टानों की ओर नहीं लौटता - बुरा उकाब है.
मगर
उकाब के लिए ऐसा करना आसान है. वह पैदा ही उकाब हुआ है और चाहने पर भी सागर-पक्षी
या कौवा नहीं बन सकता. अगर लेखक इस श्रेष्ठ और साहसी पक्षी के गुण लेकर पैदा नहीं
हुआ,
तो उसके लिए उकाब बनना कठिन है.
हमारे
यहाँ जो आदमी कुमुज बजाना नहीं जानता, उसके बारे
में तसल्ली देते हुए कहा जाता है - कोई बात नहीं, दूसरी
दुनिया में सीख जाएगा.
कितने
अधिक हैं ऐसे लोग, जो प्यार या घृणा की भावनाओं
से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि केवल गंध से प्रेरित होकर लेखनी
उठाते हैं!
बात
यह है कि गाँव में आनेवाला मेहमान यह सोचते हुए कि कौन-सा घर अपने लिए चुने, आखिर चिमनी से निकलनेवाले धुएँ की गंध के आधार पर ही ऐसा करता है. एक घर
के धुएँ में मकई की रोटियों की गंध होती है और दूसरे के धुएँ में भुने मांस की.
दूल्हा
भी तो दो लड़कियों में से, जिनमें से एक बुद्धू और दूसरी
समझदार है, बुद्धू को केवल इसलिए चुन लेता है कि उसके पास
दौलत ज्यादा है.
ऐसे
भी तो लेखक हैं, जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वे किस विषय पर या किस देश के बारे में लिखते हैं. वे तो उन मुनाफाखोरों जैसे
हैं, जो यह सोचते हैं कि वे जितनी अधिक दूर जाएँगे, अपना माल उतना ही ज्यादा महँगा बेच पाएँगे.
वे
मुझे फारखालशा नाम की उस लड़की की याद दिलाते हैं, जो
यह मानती थी कि अपने गाँव में उसके लायक कोई लड़का नहीं है, इसलिए
दूसरे गाँव के नौजवानों पर आस लगाए बैठी रही और जैसा कि आसानी से यह अनुमान लगाया
जा सकता है, आखिर चिर-कुमारी ही रह गई.
जंगल
में जानेवाले दो पहाड़ियों का किस्सा. किसी गाँव के दो पहाड़ी आदमी जुए के लिए
लकड़ी काटने को जंगल में गए. जाहिर है कि उनके पुराने जुए काम के नहीं रहे होंगे.
एक
को तो फौरन ढंग का वृक्ष मिल गया और उसने दो बढ़िया सूखे तने काट लिए. मगर उसके
साथी को ऐसा ही लगता गया कि अगला वृक्ष बेहतर होगा, अगला
वृक्ष और भी ज्यादा अच्छा होगा. वह दिन भर ऐसे ही जंगल में भटकता रहा और जो कुछ
उसे चाहिए था, उसे चुनने के बारे में अपना इरादा न बना सका.
आखिर उसने वे दो तने काट लिए, जो शुरू में मिलनेवालों की
तुलना में कहीं बुरे थे. वह शाम होने पर तब घर लौटा, जब पहला
पहाड़ी नए जुए का उपयोग कर खेत जोतने के बाद घर लौट रहा था.
अबूतालिब
ने यह किस्सा मुझे इस सिलसिले में सुनाया था कि एक दागिस्तानी कवि बहुत लंबी
यात्रा के बाद दो घटिया-सी कविताएँ रचकर घर लौटा था.
'जो गीत अपने घर में नहीं सीखा गया, वह घर से दूर
नहीं सीखा जा सकता,' बुजुर्ग ने यह नतीजा निकाला और फिर इतना
और जोड़ दिया- 'कवि कभी-कभी उस पहाड़ी आदमी जैसे होते हैं,
जो दिन भर अपनी फर की टोपी खोजता रहा, जबकि वह
उसके मूर्खतापूर्ण सिर पर मौज मना रही थी.'
विषय
के बारे में कुछ और. एक ऐसा भी दिन था, जब मैं पहली
बार अपना घर छोड़कर सफर को निकला था. माँ ने जलता हुआ लैंप खिड़की में रख दिया था.
मैं थोड़ा चलता, मुड़कर देखता, फिर
चलता, मगर मेरे घर का लैंप कुहासे और अँधेरे को चीरकर मुझे
अपनी झलक दिखाता रहा.
छोटी-सी
खिड़की में रखा हुआ लैंप अनेक वर्षों के दौरान, जब मैं
दुनिया में घूमता रहा, मेरी आँखों के सामने टिमटिमाता रहा.
अब अपने घर लौटकर मैंने इस खिड़की में से झाँका, तो मुझे वह
सारी बड़ी दुनिया, जो मैं अब तक घूम चुका था, दिखाई दी.
लेखक
को विषय भला कौन दे सकता है? उसे सिर, आँखें, कान और दिल देना कहीं अधिक आसान है. जो लेखक
प्यार या घृणा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि गंध या अधिक सही
तौर पर, अपनी सूँघने की शक्ति के आधार पर विषय खोजते हैं,
वे युग-पुत्र नहीं बन सकते. वे अपने समय के नहीं, एक दिन के बेटे होते हैं. इसके अलावा बहरी दुलहन से भी उनकी तुलना की जा
सकती है.
बहरी
दुल्हन का किस्सा. कभी किसी गाँव में एक बहरी लड़की रहती थी. दूसरे गाँव के एक
नौजवान ने, जिसे उसके बहरेपन के बारे में कुछ भी
मालूम नहीं था, उसके घर सगाई करनेवाले भेज दिए. ढंग से सारा
प्रबंध हो गया और शादी शुरू हुई. बेशुमार मेहमान जमा हो गए. दुलहन यह नहीं चाहती
थी कि शादी में शामिल होनेवाले सभी लोगों को उसके बहरेपन के बारे में मालूम हो.
उसने अपनी सहेली से कहा कि वह सारा वक्त उसके करीब बैठी रहे. अगर लोग कोई खुशी
भरी बात सुनाएँ यानी ऐसी कि जिस पर हँसना चाहिए, तो सहेली
उसके बाएँ कंधे पर चुटकी काटे. अगर दुख और उदासी भरी कोई बात सुनाई जाए, तो सहेली दाएँ कंधे पर चुटकी काटे.
शादी
के वक्त दुलहन का खुद बोलना-बतियाना जरूरी नहीं होता, उसका चुप रहना ज्यादा अच्छा होता है. इसलिए कुछ वक्त तो सारा मामला ढंग
से चलता रहा. जब हँसना जरूरी होता, तो दुलहन हँसती और
इर्द-गिर्द जमा लोग जब दुखी होते, तो वह भी दुखी हो जाती.
मगर
बाद में उसकी सहेली वह भूल गई, जो तय किया गया था,
और जब बाएँ कंधे पर चुटकी काटनी होती, तो वह
दाएँ पर काटती यानी सब कुछ उलट करने लगी. दुल्हन दुख और गहरी सोच के क्षणों में
ठहाके लगाती और, जब सब हँसते, तो वह
आहें भरती, दुखी होती.
दूल्हा
दुलहन को गौर से देखने लगा, देखता रहा और इस नतीजे पर
पहुँचा कि वह बिल्कुल मूर्ख है. उसने उसी क्षण उस रास्ते से उसे वापस भेज दिया,
जिससे वह आई थी.
तो
असली लेखक को बहरी दुलहन की तरह दाईं और बाईं ओर से चुटकियों की जरूरत नहीं होनी
चाहिए. उसके अपने ही दिल की पीड़ा, सिर्फ अपनी
ही खुशी को उसे कलम उठाने के लिए मजबूर करना चाहिए, वह इसलिए
नहीं हँसता है कि दूसरे हँसते हैं और इस कारण उसे भी ऐसा ही करना चाहिए. वह इसलिए
दुखी नहीं होता कि दूसरे दुखी हैं और इस कारण उसे भी उनका साथ देना चाहिए. नहीं,
शादी को तो उसे अपना ही रंग देना चाहिए. कवि जब हँसे, तो इर्द-गिर्द सभी खुश हो उठें. कवि जब अपने दिल का दर्द उनके सामने रखे,
तो उन सब के दिल दर्द से टीस उठें.
अगर
कोई अभी भी मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं और यह मानता है कि दूसरों के बताये हुए
विषय पर लिखना ज्यादा आसान है, तो वे मेरे साथ घटी हुई
निम्न घटना से सबक लें.
संस्मरण.
तब मैं खूंजह की गढ़ीवाले प्रारंभिक स्कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ता था. नीली
आँखोंवाली नीना नाम की एक लड़की, जो रूसी अध्यापिका की
बेटी थी, मेरे साथ एक ही डेस्क पर बैठती थी. मुझे वह बहुत
अच्छी लगती थी, मगर उससे यह कहने की मुझे हिम्मत नहीं होती
थी. आखिर मैंने एक पुर्जे पर यह लिखकर उसे देने का फैसला किया. मगर यह भी कुछ आसान
काम नहीं था, क्योंकि उस वक्त तक मुझे रूसी में एक शब्द
भी नहीं लिखना आता था. चुनांचे मैंने अपने एक दोस्त से मदद करने की प्रार्थना की.
वह समझ में न आनेवाले कुछ रूसी शब्द बोलता गया और मैं रूसी अक्षरों में उन्हें
लिखता गया. मैं सोच रहा था कि प्यार के बहुत बढ़िया शब्द, जैसे
कि मैं नीना को लिखना चाहता था, लिख रहा हूँ. काँपते हाथों
से वह पुर्जा मैंने नीना को दिया, काँपते हाथों से उसने उसे
लिया और पढ़ने लगी. अचानक उसका मुँह लाल हो गया, वह क्लास
से बाहर भाग गई और फिर डेस्क पर उसने मेरे साथ नहीं बैठना चाहा. बाद में पता चला
कि मेरे सारे प्रेम-पत्र में बहुत ही अश्लील और गंदे-गंदे शब्द भरे हुए थे.
एक
और घटना याद आ रही है. मैं साहित्य-संस्थान का विद्यार्थी था और नीना लेनिन नामक
अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान की. दिसंबर के महीने में एक दिन उसने मुझे अपने यहाँ
आने की दावत दी. मुझे मालूम था कि उसने मुझे अपने जन्म-दिन पर बुलाया है. जाहिर
है कि मुझे तोहफों की फिक्र हुई, मगर मुझे लगा कि अगर मैं
नीना के बारे में कविता लिखूँ, उसे सबके सामने पढ़कर सुनाऊँ
और फिर उसे भेंट करूँ, तो यह सबसे अच्छा तोहफा रहेगा.
तो
इस तरह मैंने बधाई की कविता लिखी, अपने एक सहपाठी को,
जो मेरी ही तरह जवान कवि था, रूसी भाषा में
उसका उल्था करने के लिए राजी किया. मेरा साथी रात भर उस कविता का अनुवाद करता रहा.
जब उसने मुझे वह पढ़कर सुनाई, तो मैं अपनी कविता को पहचान ही
नहीं पाया. उसमें अत्यधिक भावुकतापूर्ण भावनाएँ थीं, प्यार
की तड़प और वेदना की बातें थीं. मगर मैं नीना को जो कुछ कहना चाहता था, उसमें से कुछ भी बाकी नहीं रह गया था.
मगर
अब मुझे धोखा देना मुश्किल था. मैं एक बार ऐसे जाल में फँस चुका था. इसलिए मैंने
अपने साथी से कहा -
'खैर, यह कविता तुम अपनी प्रेयसी को उसके जन्म-दिन
पर पढ़कर सुनाना, क्योंकि यह मेरी नहीं, तुम्हारी कविता है.'
विषय
के बारे में कुछ और. विषय सोई हुई मछली की भाँति पेट ऊपर को किए हुए सतह पर नहीं
तैरा करता. वह तो गहराई में, तेज और निर्मल पानी में
होता है. उसे वहाँ खोजिए, भँवर में से, जल-प्रपात के नीचे से निकालने की सामर्थ्य पैदा कीजिए. लंबे और कठोर श्रम
से कमाए गए तथा पटरी पर संयोग से मिल जानेवाले धन का क्या एक जैसा ही मूल्य हो
सकता है?
पहाड़ी
लोगों में कहा जाता है कि हम-बहुत से जानवर पकड़ सकते हैं, मगर वे सभी गीदड़ और खरगोश ही होंगे. एक जानवर पकड़ना ही बेहतर है,
बशर्ते कि वह लोमड़ी हो. मगर कोई भी यह नहीं कह सकता कि वह कहाँ
मिलेगी. यह जरूरी बात नहीं है कि सबसे अच्छा जानवर सबसे दूरवाले दर्रे में ही
रहता हो.
एक
शिकारी जिंदगी भर कोई रुपहली लोमड़ी पकड़ने का सपना देखता रहा. उम्र भर उसकी खोज
में उसने सारे पहाड़ छान मारे. बुढ़ापे में उसके लिए दूर-दूर जाना मुश्किल हो गया
और वह पासवाले दर्रे में घर के बिल्कुल करीब ही शिकार करने लगा. अचानक वहीं एक
दिन उसे रुपहली लोमड़ी मिल गई. शिकारी ने लोमड़ी से पूछा -
'तू अब तक कहाँ छिपी रही थी? मैं तो जिंदगी भर तेरी
तलाश करता रहा.'
'मैं तो सारी उम्र इसी दर्रे में रही हूँ,' लोमड़ी ने
जवाब दिया. 'क्या तुम यह नहीं जानते कि खोज में तो बेशक
सारी जिंदगी बिताई जा सकती है, तो भी पाने के लिए एक दिन या
एक घड़ी की जरूरत होती है?'
हाँ, हर लेखक के जीवन में एक दिन आता है, जब वह खुद अपने
को पहचान पाता है, जब उसे अपना मुख्य विषय मिल जाता है. इस
विषय के साथ उसे बाद में गद्दारी नहीं करनी चाहिए. अगर वह ऐसा करेगा, तो उसके साथ भी वैसी ही बीत सकती है, जैसी कि मेरे
एक परिचित के साथ बीती.
मेरे
एक परिचित के नाटक का किस्सा. एक दागिस्तानी लेखक ने सामूहिक फार्म के जीवन के
बारे में एक नाटक लिखा. विषय चाहे बहुत ही महत्वपूर्ण था, थियेटर ने नाटक स्वीकार नहीं किया और 'नाटक पसंद
नहीं आया' इस बहुत ही घटिया कारण के आधार पर उसे लौटा दिया.
शायद
किसी अन्य व्यक्ति के लिए तो यही कारण काफी होता, मगर
नाटककार को इससे संतोष नहीं हुआ. वह नाराज हो गया और उसने ठीक जगह पर शिकायती
चिट्टी लिख भेजी. उसी वक्त इस मामले पर गौर करने और जरूरी कदम उठाने के लिए एक
आयोग नियुक्त कर दिया गया. नाटक का अध्ययन करने पर उसका यह सार सामने आया -
गेहूँ की बहुत ही बढ़िया फसल की कटाई के लिए खुशी भरे गीत गाते हुए दो टोलियाँ आपस
में समाजवादी प्रतियोगिता करती हैं.
इस
तरह के कथानकवाला नाटक आयोग को अवश्य पसंद आता और नाटक के रास्ते में कोई बाधा
नहीं आ सकती थी, मगर तभी कुछ दूसरे हालात ने खलल डाल दिया.
इसी वक्त यह तय किया गया कि कुमीक स्तेपियों में, जहाँ
हँसती-गाती टोलियाँ आपस में मुकाबला करती हुई फसल बटोर रही थीं, गेहूँ की जगह कपास बोई जाए. अब 'कपास' की परिस्थितियों में गेहूँ के बारे में नाटक पेश नहीं किया जा सकता था.
नाटककार ने सोच-विचार में ज्यादा वक्त बरबाद नहीं किया और अपने नाटक में जरूरी तब्दीलियाँ
करने लगा. नई बोई गई कपास में अभी फूल भी नहीं आए थे कि नाटक को नई, बढ़िया शक्ल दे दी गई. नाटक को फिर से थियेटर में पढ़ा जाने लगा. अभी उस
पर विचार-विनिमय चल ही रहा था कि एक नया फैसला सामने आ गया. उसमें कहा गया था कि
कुमीक स्तेपियों में कपास उगाना तो गेहूँ से भी कम फायदेमंद है और इसलिए वहाँ मकई
उगाई जानी चाहिए.
मेहनती
नाटककार अपने नाटक को फिर से नया रूप देने लगा. मालूम नहीं कि यह मामला आगे क्या
करवट लेता, मगर इसी वक्त थियेटर जल गया. मेरे परिचित
को बड़ी मायूसी हुई, वह नदी के खड़े तट पर गया और हताशा में
अपने नाटक को नदी की तेज धारा में बहा दिया. अब उसे नाटक के बारे में कोई अफसोस
नहीं होता.
शायद
एक अन्य नाटक का किस्सा सुना देना भी ठीक रहेगा. उसे एक रूसी लेखक ने लिखा और
उसका नाम था - 'जोशीले लोग'. यह
गेहूँ कपास का नहीं, 'माहीगीरी' का
नाटक था. वास्तव में यह नाटक 'माहीगीरी' के बारे में भी नहीं, बल्कि निम्न विषय से संबंध
रखता था.
एक
ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है कि पहाड़ी लोगों को उनके सदियों पुराने देहातों से
निकालकर मैदानों में सागर के किनारे बसाया जाए. इसे 'मैदानों में बसाना' कहा जाता है. हम यहाँ इस मसले की
तफसील में नहीं जाएँगे. सिर्फ इतना ही कहेंगे कि सदियों से भेड़ें पालनेवाले
पहाड़ी लोग मैदानों में कभी-कभी मछुए बन जाते हैं. बुरा मछुआ बढ़िया चरवाहे से कैसे
बेहतर है, यह भी आसानी से समझना मुश्किल है. मगर 'जोशीले लोग' नाटक में यही बताया गया था कि दूर-दराज
के एक गाँव के पहाड़ी लोग कैसे कास्पियन सागर के मछुए बन गए.
नाटक
के सभी पात्र अवार थे और इसलिए नाटककार ने अवार थियेटर को अपना नाटक भेजा. मगर
अवार थियेटर ने नाटक अस्वीकार करके लौटा दिया.
नाटककार
अब क्या करे? उसकी जगह कोई दूसरा होता, तो शायद परेशान हो उठता और हिम्मत हार बैठता. मगर हम जानते हैं कि शतरंज
में काले मोहरे कभी-कभी ऐसी कठिन परिस्थिति में पड़ जाते हैं, ऐसी जगह धकेल दिए जाते हैं कि उन्हें जीने-मरने का कोई रास्ता नजर नहीं
आता. अचानक इसी वक्त वे अपना घोड़ा आगे बढ़ा देते हैं. यह बहुत अप्रत्याशित और
बहुत सीधी-सी चाल होती है. बस, सारा पासा ही पलट जाता है. अब
सफेद मोहरों को अपनी रक्षा करनी होती है, वक्त रहते अपनी
जान बचाकर भागना होता है.
'जोशीले लोग' नाटक के रचयिता ने भी ऐसी सीधी-सी चाल
चली. अचानक उसने सभी अवार नामों को कुमीक नामों में बदल दिया और नाटक कुमीक थियेटर
को भेज दिया. मगर शतरंजी घोड़ा चलने पर भी बात बनी नहीं. कुमीक थियेटर ने भी मछुए
बन जानेवाले चरवाहों के बारे में नाटक प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया.
हमारे
दागिस्तान में अनेक जातियाँ हैं. नाटक के पात्र दार्गिन भी बने और लेजगीन भी, मगर अच्छे मछुए तो फिर भी नहीं बन पाए. भूखे कुत्ते की तरह, जिसे घर में खिलाने को कुछ नहीं था, नाटककार ने अपने
नाटक को बाहर सड़क पर छोड़ दिया. कुत्ते ने बहुत-से दरवाजों के चक्कर लगाए,
मगर उसे कहीं एक भी हड्डी नहीं मिली.
कुछ
साल बाद नाटककार उच्च साहित्यिक पाठ्यक्रमों में शिक्षा पाने के लिए मास्को चला
गया. तब मखचकला में यह खबर पहुँची कि उसके मछुए जिप्सी बन गए हैं. जिप्सियों के 'रोमन' थिेयटर ने नाटक में दिलचस्पी जाहिर की. आखिर
लंगड़ी दुलहन को दूल्हा मिल गया. खैर, यह शादी बहुत दिनों
तक कायम नहीं रह सकी...
तो
लीजिए,
मैंने अपने परिचित लेखकों के दो नाटकों की एक साथ आलोचना कर डाली.
अगर इस वक्त मैं लेखकों की सभा में मंच पर खड़ा होता, तो
कभी की मुझे ये आवाजें सुनाई दी होतीं - 'अपनी चर्चा करो!
अपनी आलोचना करो!'
अपने
बारे में क्या कहूँ? मैं तो शायद बहुत खुशकिस्मत
होता, अगर लेखकों के ऐसे ही गुनाहों के लिए, जिनकी मैंने अभी चर्चा की है, मुझ पर आरोप लगाए जाते.
मगर मैं तो अपने ऊपर ऐसे गुनाह का बोझ लादे हुए हूँ, जिनके
सामने 'कपास' और 'मछुओं' संबंधी सारे गुनाह मजाक से लगते हैं, हेच और बेमानी हैं. जवानी के दिनों में मैंने एक ऐसी हरकत की, जिसे याद करके दिल को बहुत तकलीफ होती है.
बाद
को मेरे दोस्तों ने बहुत अर्से तक और जी भरकर मुझे भला-बुरा कहा. मेरे लिए यह सजा
थी. मगर सबसे बड़ी सजा तो मैं खुद अपने भीतर महसूस करता हूँ और कोई भी मुझे इससे
अधिक दंड नहीं दे सकता था.
पिता
जी कहा करते थे कि अगर कोई नीचतापूर्ण और लज्जाजनक हरकत करोगे, तो बाद में चाहे कितनी भी नाक क्यों न रगड़ो, वह
हरकत तो वापस नहीं लौटा सकोगे.
पिता
जी कहा करते थे कि लज्जाजनक हरकत करने और कुछ साल बाद उसके लिए पछतानेवाला आदमी
उस ऋणी के समान होता है, जो पुराने और गैर-कानूनी
घोषित किए जानेवाले रुपयों से अपना कर्ज चुकाना चाहता है.
पिता
जी यह भी कहा करते थे कि अगर तुम बुराई को मानमानी करने दोगे और उसे घर से बाहर
आजाद छोड़ दोगे, तो उस जगह को पीटने से क्या लाभ होगा,
जहाँ वह बैठी थी?
बैलों
के चुराए जाने के बाद दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लगाने में क्या तुक है?
यह
सब कुछ सही है. मैं यह भी जानता हूँ कि मार-पीट के बाद घूँसे चलाना बेकार है. मगर
मेरे पाठक कभी-कभी मुझे फिर से खत लिख देते हैं, बीती
बात याद दिला देते हैं, मेरे घाव को हरा कर डालते हैं. वे
मानो मेरी खिड़की पर पत्थर फेंकते हैं, मानो पुकारकर कहते
हैं -
'रसूल हमजातोव, खिड़की में से झाँको, अपनी सूरत दिखाओ. हमें, अपने पाठकों को यह बताओ कि
यह सब कैसे हुआ?'
'क्या और किस बारे में बताऊँ?'
इस
बारे में कि उन्नीस सौ इकावन में तुमने शामिल को कलंकित करनेवाली कविता लिखी थी
और उन्नीस सौ इकसठ में लिखी गई कविता में उसका गुणगान किया. दोनों कविताओं पर
रसूल हमजातोव का नाम है. अब हम यह जानना चाहते हैं कि यह एक ही रसूल है या भिन्न
रसूल हैं और किस रसूल पर हम विश्वास करें.
बहुत
ही टेढ़ा सवाल है यह. शरीर में लगनेवाला तीर तो निकाला जा सकता है, मगर क्या दिल में लगनेवाला तीर निकालना मुमकिन है?
मेरे
प्यारे पाठक, मुझे मालूम नहीं कि तुम्हारी उम्र कितनी
है. मुमकिन है कि तुम अभी बिल्कुल जवान हो. तुम्हारे जीवन में क्या ऐसी
सीमा-रेखाएँ, ऐसी हदें आई हैं, जो तुम्हें
लाँघनी पड़ी हों? मुझे एक ऐसी सीमा लाँघनी पड़ी है - अपनी
भावनाओं को गंभीरतापूर्वक समझे बिना मैंने प्यार किया है. बाद में मुझे इसके लिए
पछताना पड़ा.
ऐसा
भी होता है कि पड़ोसियों के घरों की खिड़कियों के बीच बहुत ही तंग-सी गली होती है.
हर खिड़की में पड़ोसी एक-दूसरे के सामने खड़े हैं. वे एक-दूसरे को भला-बुरा कहते
हैं,
बड़ा छोटे पर और छोटा बड़े पर बुरी हरकतों के आरोप लगाता है. मैं
एक-दूसरे को कोसनेवाले इन पड़ोसियों के समान हूँ, मगर दोनों
खिड़कियों में मैं ही खड़ा हूँ. सिर्फ इतना ही फर्क है कि एक खिड़की में मैं जवान
हूँ और दूसरी में, जैसा इस वक्त हूँ.
जैसे
कोई बहुत ही सुंदर लड़की बुद्धू नौजवान को चकाचौंध कर देती है, उसी तरह समय की चमक ने मुझे चौंधिया दिया था. मैं हर चीज को वैसे ही
दोषहीन देखता था, जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी को.
अगर
संजीदगी से बात की जाए, तो यही कहना होगा कि मैं समय
की छाया था. यह तो सभी जानते हैं कि डंडा, वैसी ही उसकी छाया.
अधिकृत रूप से यह निर्णय किया गया था कि शामिल अंग्रेजों और तुर्कों का भाड़े का
टट्टू था और उसका मुख्य उद्देश्य भिन्न जातियों में फूट डालना था. जहाँ यह
निर्णय किया गया था, मैंने उस घर, उस
घर के मालिक पर एतबार किया. तभी मैंने हम लोगों के शामिल का भंडाफोड़ करनेवाली
कविता लिखी थी.
अब
कभी-कभी तसल्ली देने के लिए मुझसे यह कहा जाता है-
'हमने सुना है कि तुमने वह कविता खास फरमाइश पर लिखी थी, तुम्हें उसे लिखने के लिए मजबूर किया गया था.'
यह
झूठ है! किसी ने भी मेरे साथ जोर-जरर्दस्ती नहीं की, मुझे मजबूर नहीं किया. मैंने खुद अपनी इच्छा से शामिल के बारे में कविता
लिखी थी और खुद ही उसे संपादक के पास लेकर गया था. बात सिर्फ इतनी है कि उस वक्त
मैं उन पहाड़ी लोगों जैसा था, जो अरबी का एक अक्षर भी न
जानते हुए कुरान के पन्ने उलटते-पलटते हैं यानी कुछ भी नहीं समझ पाते, फिर भी एक खास प्यारी-सी खुशी महसूस करते हैं.
मैं
समय की छाया था. तब मैं यह नहीं जानता था कि कवि कभी छाया नहीं हो सकता, कि वह हमेशा आग, प्रकाश-स्रोत होता है और इस बात से
कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह हल्की-सी रोशनी है या बड़ा सूरज. रोशनी की कभी छाया
नहीं होती, रोशनी से तो सिर्फ रोशनी ही होती है.
शायद
मैं यह बात कुछ देर से समझा हूँ पर क्या हुआ, सेब भी भिन्न-भिन्न
किस्मों के होते हैं. कुछ जल्दी पक जाते हैं और दूसरे सिर्फ पतझर में जाकर ही
रसीले होते हैं. लगता है कि मैं पतझरवाली ही किस्म हूँ.
तो
ऐसे हुआ था यह सब किस्सा. जहाँ तक मेरे घाव का संबंध है, तो वह मेरे साथ है.
कभी
न भरनेवाला मेरा, घाव हरा हो आया फिर से
फिर
से दिल को चीर रहा वह, अंगारे-सा दहकाता,
दादा
मुझे सुनाते रहते थे बचपन में जिसके किस्से
लोगों
की बातों में उसका जिक्र बहुत अक्सर आता.
वह
किस्से-सा लोक-कथा-सा, लेकिन फिर भी ठोस हकीकत
बड़े
शौक से सुनता था मैं, बचपन में उसकी बातें,
और
हमारे घर के ऊपर, संध्या के अरुणिम अंबर में
उसके
वीर सैनिकों जैसी, तिरतीं बादल की पाँतें.
गीत
पहाड़ों का था वह तो, उसी गीत को मेरी अम्माँ
कभी-कभी
गाया करती थीं, मैं तो नहीं, भुला
पाता,
कैसे
उनकी निर्मल आँखों में, आँसू का कण उजला
साँझ
समय की चरागाह में, शबनम कण-सा बन जाता.
वह
बुजुर्ग सेनानी पहने, चोगा हम पर्वतवालों का
निकट
खड़ा खिड़की के मानो, झाँका करता था घर में,
उसके
सब हथियार बँधे रहते थे दाएँ पहलू में
और
खूब लड़ता था वह तो, खड़ग लिए बाएँ कर में.
मुझे
याद है,
उस बुजुर्ग ने, जिसका है छविचित्र सामने
बड़े
भाइयों को मेरे दो, युद्ध-क्षेत्र में विदा किया,
ऐसा
टैंक बना देने को, उसका नाम लिखा हो जिस पर
माला
भी दी,
और बहन ने, कंगन-जोड़ा भेंट दिया.
और
पिता ने मेरे अपने स्वर्गवास से कुछ ही पहले
उसी
वीर पर कविता रच दी, लेकिन यह क्या गजब हुआ!
वह
था ऐसा वक्त कि जब शामिल को समझ न पाए थे हम
लांछन
उस पर तब लगते थे, कहते थे सब भला-बुरा.
अगर
पिता के दिल को ऐसा, धक्का नहीं अचानक लगता
शायद
जीते और बहुत दिन... तभी भूल मैंने भी की
कर
बैठा विश्वास सहज ही, लोगों की झूठी बातों पर
उसी
लहर में बहकर मैंने, झटपट कविता भी लिख दी.
उस
बुजुर्ग का खड़ग कि जिसने, बरसों तक साहस, हिम्मत से
खूब
दुश्मनों से टक्कर ली, उनका खून बहाया था,
हो
गुमराह,
भटक चक्कर में, अपनी कच्ची-सी कविता में
एक
देश-द्रोही का तेगा, मैंने उसे बताया था.
उसके
भारी कदमों की अब, रातों को आहट मिलती है
जैसे
ही बुझती है बत्ती, वह खिड़की में आ जाता,
कभी
आहूलगो गाँव बचाता रण-आँगन में लड़ता-भिड़ता
या
गूनीब के उस बुजुर्ग-सा वह मेरे सम्मुख आता.
कहता
है - मैंने युद्धों में, अंगारों, ज्वालाओं में भी
अपना
कितना खून बहाया, और बहुत पीड़ी जानी,
उन्नीस
घाव सहे थे तन पर, बहुत कसकते, बहुत टीसते
और
बीसवाँ घाव तुम्हारा, तुझ लड़के की नादानी.
घाव
खंजरों के थे तन पर, घाव गोलियों के भी थे
तुमने
घाव किया जो लेकिन, उसका दर्द कहीं बढ़कर,
क्योंकि
किसी पर्वतवासी का, मुझ पर वार हुआ यह पहला
मेरे
दिल,
सीने में सीधे, उतर गया तेरा खंजर.
यह
मुमकिन है अब जिहाद भी, नहीं वक्त की माँग रहा है
लेकिन
कभी इसी ने तेरे, घर, पर्वत
की रक्षा की,
लगता
है,
मेरा तेगा भी, आज समय से पिछड़ गया है
आजादी
हित कभी शत्रु की, इसने कड़ी परीक्षा ली.
भूल
सभी आराम-चैन को, एक पहाड़ी की दृढ़ता से
लड़ता
रहा,
न सुध थी मुझ को, गीतों, मौज-बहारों की,
कभी-कभी
कोड़ों से मैंने, करवाई थी कड़ी मरम्मत
कथाकार, गायक, कवियों की, सुंदर
रचनाकारों की.
यह
संभव है भूल बड़ी की, मैंने उनको व्यर्थ सताकर
यह
संभव है मुझे चाहिए, था गुस्से पर काबू पाना,
देख
तुम्हारे जैसे थोथे तुकबंदों को, पर, यह लगता
भूल
न की थी तब भी मैंने, तब भी सच को पहचाना.
इसी
तरह सूरज चढ़ने तक, मुझे कोसता, पास, खड़ा वह
मैं
पहचान उसे लेता हूँ, चाहे हो तम की चादर,
रंगी
हिना से फूली-फूली, लहराती उसकी वह दाढ़ी
नजर
मुझे आ जाती टोपी, कसी हुई पगड़ी उस पर.
क्या
जवाब दे सकता हूँ मैं? उसके सम्मुख, तेरे सम्मुख
ओ
मेरी जनता मैं सचमुच, अपराधी हूँ बहुत बड़ा,
था
इमाम,
उसका था नायब, छोड़ गया था साथ मगर जो
वह
योद्धा हाजी-मुराद था, वह सेनानी बड़ा कड़ा.
पश्चाताप
हुआ तब उसको, निर्णय किया लौट चलने का
मगर
राह में दलदल आया, वह ही उसको निगल गया,
क्या
इमाम के पास चलूँ मैं? कैसा है बेतुका खयाल यह
नहीं
रास्ता वह मेरा है, और जमाना आज नया.
वे
सोचे-समझे ही मैंने, तब जो कविता लिख डाली थी
शर्म, उनींदे से भी उसका मुश्किल मोल चुका पाना,
अपनी
गलती की इमाम से, माफी पाने को इच्छुक हूँ
पर
दलदल में उसी तरह से, नहीं चाहता धँस जाना.
और
मुझे लगता है ऐसा, मैंने जिसको ठेस लगाई
किया
बड़ा अपमान, न उससे क्षमा-दान मिल सकता है,
उसे
कलंकित करनेवाली, रची छिछोरी जो कविता थी
तलवारों
से लिखनेवाला, उसे माफ कब करता है!
बेशक
ऐसा ही होने दो... पर तू मेरी प्यारी जनता
मेरा
यह अपराध भुला दे, तू तो मुझे क्षमा दे कर,
मेरी
प्यारी धरती तू तो, देख न अपने कवि को ऐसे
जैसे
कोई माँ,
बेटे को, देखे गुस्से से भर-भर.
मुझे
मालूम नहीं कि दागिस्तानियों ने मुझे मेरी पुरानी कविता के लिए माफ किया या नहीं, नहीं मालूम कि शामिल की छाया ने उसके लिए मुझे माफ किया या नहीं, मगर खुद मैं अपने को कभी भी माफ नहीं करूँगा.
मेरे
पिता जी ने मुझसे कहा था -
'शामिल को नहीं छेड़ना. अगर ऐसा करोगे, तो जिंदगी भर
चैन नहीं पाओगे.'
पिता
जी की बात सच निकली.
मैं
बेटा पर्वतवासी का, बचपन से ही सही कड़ाई,
डाँट-डपट
से मैं परिचित हूँ, हुई कभी तो खूब पिटाई.
मेरी
भूलों,
अपराधों पर, पिता न तरस कभी खाते थे,
खूब
जोर से कान ऐंठ कर, अक्ल ठिकाने पर लाते थे.
अब
मैं वयस्क, समय अब मुझ पर,
हर
दिन अपनी चोटें करता,
खूब
जोर से कान खींचकर लाल-लाल वह उनको करता
वैसे
ही जैसे हो जाता, जब कोई बेसुर दोतारा,
वादक
उसका तार खींचकर, उसे नया सुर देता प्यारा.
समय!
दिनों से साल और सालों से सदियाँ बनती हैं. मगर युग क्या है? वह सदियों से बनता है या सालों से? या फिर एक दिन भी
युग बन सकता है? वृक्ष पाँच महीने तक हरा रहता है, मगर उसके सभी पत्तों को पीला करने के लिए एक दिन या एक रात ही काफी होती
है. इसके उलट भी होता है. पाँच महीनों तक वृक्ष निपत्ता और कोयले की तरह काला
रहता है. उसे हरा-भरा करने के लिए एक उजली, सुहावनी सुबह ही
काफी होती है. खुशी भरी एक सुबह ही उस पर फूल लाने के लिए काफी रहती है.
ऐसे
वृक्ष भी हैं, जो हर महीने बाद अपना रंग बदलते है,
और ऐसे भी हैं जो कभी रंग नहीं बदलते.
मौसमी
पक्षी भी हैं, जो मौसम के मुताबिक सारी दुनिया में
जहाँ-तहाँ उड़ते रहते हैं, और उकाब भी हैं, जो कभी अपने पहाड़ छोड़कर नहीं जाते.
पक्षी
हवा के रुख के खिलाफ उड़ना पसंद करते हैं. अच्छी मछली हमेशा धारा के विरुद्ध
तैरती है. सच्चा कवि अपने हृदय का आदेश मानते हुए 'विश्व
मत' का विरोध करने से कभी नहीं झिझकता.
नोटबुक
से. मेरा एक दोस्त है, एक अवार कवि. पिछले साल उसकी
कविताओं का नया संग्रह निकला है. पुस्तक की सारी कविताओं को उसने ऐसे हिस्सों
में बाँट दिया है, जैसे कि शहरी फ्लैट के कमरों को अलग-अलग
उद्देश्य के लिए बाँटा जाता है. राजनीतिक या सामाजिक कविताओंवाला भाग तो जैसे अध्ययन-कक्ष
है, आंतरिक भावनाओं या प्रणय की कविताओं का हिस्सा मानो
शयन-कक्ष है और सामान्य ढंग की कविताएँ मानो दीवानखाने के अंतर्गत आती हैं. मगर
समझ में नहीं आता कि कृषि, अनाज और चरवाहों संबंधी कविताओं
को कहाँ जगह दी जाए - क्या रसोई-घर में?
क्या
दागिस्तानी गायकों की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए पहाड़ों से आनेवाले
गायक ने ठीक ही नहीं किया था? अपनी कविताओं को अलग-अलग
हिस्सों में बाँटनेवाले हमारे इस कवि ने गायक से अनुरोध किया कि वह हर हिस्से से
एक कविता गाये. गायक ने अपने कुमुज को सुर किया, कुछ मिनट तक
चुप रहा मानो अपने विचारों को एकत्रित करता रहा और फिर गाने लगा. बहुत देर तक गाता
रहा वह. सभी श्रोता घबरा उठे : अगर एक भाग से कविता गाते हुए ही उसने इतना वक्त
लगा दिया, तो चारों भागों से कविताएँ गाते हुए कितना वक्त
लेगा, कब गाना खत्म होना? मगर गायक
तभी चुप हुआ और तारों पर हथेली रखकर उसने उनकी झंकार को शांत किया. इसके बाद उसने
और नहीं गाया. हुआ यह कि उसने कवि के मुख्य विचारों और भावनाओं को एक ही गाने में
समेट दिया. कवि ने गायक से पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया.
'दोस्त,' गायक ने जवाब दिया, 'यह
मेरा कुमुज है और इसमें तीन तार हैं. मैं पहले एक, फिर दूसरा
और फिर तीसरा तार तो नहीं बजा सकता.'
विषय
के बारे में कुछ और. शायद सभी को यह किस्सा मालूम नहीं है कि एक पहाड़ी आदमी नए, ऊँचे बूट पहनता था और उसे इस बात की बड़ी फिक्र रहती थी कि वे कहीं गंदे न
हो जाएँ. इसलिए वह पंजों के बल चलता. एक दिन वह ऐसी जगह जा फँसा, जहाँ घुटनों तक कीचड़ था. चुनांचे बेचारे को सिर के बल खड़ा होना पड़ा.
ऐसा
होता है कि कवि कभी-कभी सृजन नहीं करते, बल्कि अपने
को मानो रविवारीय घुड़दौड़ों में हिस्सा लेते हुए महसूस करते हैं. इसलिए कि इनाम
का रूमाल पाँच मिनट के लिए घोड़े की गर्दन की शोभा बढ़ा सके, वे उसकी पीठ को चाबुक मार-मारकर लहूलुहान करने को भी तैयार रहते हैं.
रूमाल तो उसी दिन उतारना होगा, मगर घाव बहुत अर्से तक नहीं
भर पाएँगे. ऐसे कवि तालातल के अलीबुलात की तरह हमेशा इस बात के लिए तैयार-बर-तैयार
रहते हैं कि... मगर आप तो नहीं जानते कि अलीबुलात का किस्सा क्या है?
एक
बार खूंजह के नायब ने नुकेर (अंग-रक्षक) अलीबुलात से कहा -
'तैयार हो जाओ, कल सुबह तुम्हें तालातल गाँव जाना
होगा.'
'मैं तैयार हूँ' हुक्म बजानेवाले नुकेर ने जवाब दिया.
पहाड़ों
की चोटियाँ अभी अच्छी तरह रोशन भी नहीं हुई थीं कि अलीबुलात ने अपने घोड़े पर जीन
कसा और रवाना हो गया. दोपहर के खाने के वक्त तक वह खूंजह लौट आया. जब वह खूंजह के
करीब पहुँच रहा था, तो कुछ परिचित पहाड़ी लोग
उससे मिले. उन्होंने पूछा -
'अल्लाह तुम्हारी हिफाजत करे, बहुत दूर से लौट रहे
हो क्या, अलीबुलात?'
'हाँ, तालातल से वापस आ रहा हूँ.'
'किस काम से गए थे तालातल?'
'यह मुझे मालूम नहीं. काम के बारे में नायब ही जानते हैं. उन्होंने कल
मुझसे कहा था कि जाना होगा और बस, मैं चला गया.'
हमारे
साहित्य-जगत में ऐसे अलीबुलात भी विद्यमान हैं.
विषय
के बारे में कविता
जब
किशोर था,
उन्हीं दिनों जब किसी ब्याह-शादी में जाता,
धूमधाम
में,
मौज-मजे में, मैं भी बड़े रंग में आता.
जाम
खनकते,
जाम छलकते, और छड़ी वे मुझे थमाते,
चुनो
नाच की साथी कोई, वे तब मुझको यह बतलाते.
लोगों
की उस भीड़, शोर में, मैं घबराता,
मैं शर्माता,
किसे
चुनूँ नाच की साथी, इतना पर मैं समझ न पाता.
'इसको चुन लो, उसको चुन लो,' बड़े
मुझे तब यह बतलाते,
अपनी
समझ-बूझ दिखलाते, मुझे इशारों से समझाते.
अब
मैं वयस्क हुआ हूँ मुझको, साज दे दिया, लो तुम गाओ,
अपनी
इस सुंदर धरती का, गीत सकल जग में पहुँचाओ.
पर
फिर से सब शिक्षा देते, फिर से मुझको राह दिखाते,
तुम
यह गाओ,
यह मत गाओ, बच्चा समझ मुझे सिखलाते.
विषय
के बारे में कुछ और. मैंने बहुत-से ऐसे युवाजन देखे हैं, जो शादी करने से पहले अपने दिल से नहीं, बल्कि रिश्तेदारों,
चाचा-चाचियों से सलाह-मशविरा करते हैं. अपने सृजन-कार्य में लेखक की
तो प्यार के बिना शादी हो ही नहीं सकती. चाची या मौसी की सलाह से हुई शादी के
फलस्वरूप कम-से-कम जिंदा बच्चे तो होते ही हैं. बेशक ऐसा सुनने में आया है कि
पति-पत्नी में जितना ज्यादा प्यार होता है, बच्चे उतने
ही ज्यादा सुंदर होते हैं मगर लेखक की प्रेमहीन शादी से तो मृत पुस्तकों का ही
जन्म होता है. लेखक को अपने विषय से नाता जोड़ने के पहले यह सुन लेना चाहिए कि
उसका दिल क्या कहता है.
चाचा-चाचियों
की सलाह पर लिखी जानेवाली कविताओं का वैसा ही हाल होगा, जैसा कि मेरे एक दोस्त की किताब का हुआ था.
मेरे
दोस्त की किताब के बारे में. साल तो मुझे अच्छी तरह याद नहीं, मगर तब अचानक यह कहा जाने लगा कि हमारे देश को गोगोलों और श्चेद्रीनों की
जरूरत है. सोवियत व्यंग्य-साहित्य की अचानक जरूरत महसूस हुई.
मेरा
दोस्त थोड़ा कवि, थोड़ा गद्यकार और थोड़ा
संपादक है. मतलब यह कि साहित्यकार है. उसने उपर्युक्त आह्वान पर फौरन कान दिया
और व्यंग्यात्मक कविताओं की एक किताब लिख डाली. उसने चुगलखोरों, चापलूसों, कामचोरों और अनेक पत्नियोंवालों और ऐसे ही
अन्य बुरे तत्वों को अपने व्यंग्य-बाणों का निशाना बनाया, जो कुल मिलाकर अच्छे सोवियत जीवन पर काली छाया डालते हैं.
किताब
दुकानों पर आई ही थी कि एक आलोचक ने अपने लेख में कसकर लेखक की खबर ली. उसने लिखा
- 'हमें गोगोलों और श्चेद्रीनों की जरूरत है, लेखक ने
इस नारे को शाब्दिक और बहुत ही सीधे-सरल ढंग से समझा है. अब हमें पता चला है कि
कैसा घटिया और दुष्ट आदमी हमारे नजदीक रहता रहा है. अब हमें पता चला है कि उसका
कितना छोटा और काला दिल है. जिन लोगों का उसने अपनी किताब में जिक्र किया है,
वे उसे मिले कहाँ? हमारे सोवियत देश में क्या
सचमुच ऐसे लोग हैं, नहीं, सोवियत देश
में ऐसे लोग नहीं हो सकते. वे काली आत्मावाले इस व्यक्ति की काली कल्पना की उपज
हैं और उसकी कीचड़ उछालनेवाली किताब से हमारे दुश्मनों को ही लाभ होगा.'
बड़ा
अधिकारी मुखतारबेगोव मेज पर मुकका मारते हुए चिल्ला उठा -
'कहाँ देखा तुमने ऐसा काहिल, ऐसा निकम्मा और इसके
अलावा पियक्कड़ टोली-मुखिया?'
'अपने गाँव में,' लेखक ने नम्रता से जवाब दिया.
'यह तो झूठा आरोप है. मुझे मालूम है कि तुम्हारे गाँव का सामूहिक फार्म
अग्रणी है. अग्रणी सामूहिक फार्म में ऐसा टोली-मुखिया नहीं हो सकता.'
थोड़े
में यह कि व्यंग्यकार खुद ही अपने व्यंग्य का शिकार बन गया. एक पोलिश पत्रिका
में छपे कार्टूनवाली ही बात हुई. कार्टून में दो छज्जे दिखाए गए थे, एक पहली और दूसरा चौथी मंजिल पर. दोनों छज्जों में एक-एक आदमी खड़ा था.
नीचेवाला आदमी ऊपरवाले पर ईंटें फेंकता, मगर वे चौथीं मंजिल
तक न पहुँचतीं और फेंकनेवाले के सिर पर ही वापस आ लगतीं. ऊपरवाला आदमी इतमीनान से
नीचे ईंटे फेंकता जाता था और वे भी निचले छज्जे पर खड़े आदमी के सिर पर लगती थीं.
कार्टून के नीचे यह शीर्षक लिखा था - 'नीचे और ऊपर से आलोचना.'
किस्मत
के मारे इस व्यंग्यकार को किसी ने यह सलाह दी कि अपने को अपराधी मान लेना ही
उसके लिए सबसे अच्छा रहेगा. सो भी एक बार ही नहीं, कई
बार तथा जहाँ भी मुमकिन हो सके - अखबार में, पत्रिका और हर
बैठक में. बदकिस्मत किताब के लेखक ने पछताना, रोना-पीटना
शुरू किया. मगर यह काफी नहीं माना गया. बड़े अधिकारी मुखतारबेगोव ने कहा -
'कीचड़ उछालनेवाली तुम्हारी कविताओं के बाद हमें तुम पर एतबार नहीं रहा.
तुम्हें अमली तौर अपनी कलम से यह साबित करना होगा कि तुमने अपने को सुधार लिया है.'
मेरे
दोस्त के लिए सब समान था - आलोचना करने को कहो, तो
भी तैयार, अपनी भूल सूधारने को कहो, तो
भी तैयार. वह काम में जुट गया और उसने 'मेहनती मरजानत'
नाम की एक लंबी कविता रच डाली. कविता की नायिका अग्रणी और जोशीली
लड़की, आन की आन में सारे सामूहिक फार्म को अग्रणी बना देती
है, सभी योजनाओं की अतिपूर्ति करती है और यहाँ तक कि शौकिया
कला-कार्यक्रम में खुद रचा हुआ गाना गाकर पहला स्थान भी प्राप्त कर लेती है. इस
कविता को फौरन पत्रिका में छापा गया और पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया गया.
मगर वक्त ने कुछ करवट ली. उन्हीं अखबारों ने, जिन्होंने
उसे झूठी बदनामी करने और कीचड़ उछालनेवाला कहा था, अचानक यह
फतवा दे दिया कि वह अव्वल दर्जे का चापलूस है. बड़े अधिकारी मुखतारबेबोव ने फिर
मेज पीटते हुए कहा -
'यह तुमने कहाँ देखा है कि सामूहिक फार्म में कोई भी कमी-त्रुटि न हो?
ऐसा आदर्श सामूहिक फार्म तुम्हें कहाँ मिल गया?'
अपराधी
ने इस बार मौन साधे रखा. कुछ ऐसी मजबूत गाँठें भी होती हैं, जो हाथों से नहीं खुलतीं, मगर उन्हें दाँतों से भी
नहीं खोला जा सकता, क्योंकि वे गंदगी से लथ-पथ होती हैं.
मेरा दोस्त समझ गया था कि उसके सामने ऐसी ही गाँठ है और इसलिए वह सिर्फ सिर झुकाए
बैठा रहा.
दस
साल तक उसकी यह खामोशी बनी रही. इन सालों के दौरान वह लेखक-संघ में भी कभी नहीं
आया. सिर्फ एक बार ही, जब उसे फ्लैट दिया गया,
वह वहाँ आया. आप सहमत होंगे कि उस वक्त तो आए बिना काम नहीं चल
सकता था.
बड़े
अधिकारी मुखतारबेगोव को कुछ ही समय बाद धोखाधड़ी के लिए ऊँचे पद से हटा दिया गया.
किसी को भी उसके लिए अफसोस नहीं हुआ.
प्रसंगवश
यह भी बता दूँ कि उसे सागर-स्नान बहुत पसंद था. सुबह और शाम को वह बड़ी काली 'जीम' कार में खास तट पर जाता और वहाँ अकेला ही
कैस्पियन सागर के ठंडे और नमकीन पानी में डुबकियाँ लगाता. घर उसका सागर-तट पर ही
था. मगर अब किसी ने भी मुखतारबेगोव को नहाते नहीं देखा. आम तट पर, जहाँ सभी लोग नहाते थे, उसने नहाना पसंद नहीं किया.
शायद वह अपने को बदल नहीं सका, अपनी अकड़ नहीं छोड़ सका.
विषय
के बारे में कुछ और. जब हम सड़क पर आते हैं, तो हमें
अपने सभी ओर-जमीन पर, झाड़ियों में, वृक्षों
पर बहुत-से पक्षी उड़ते दिखाई देते हैं. वे आकाश में भी उड़ते हैं, कुछ ऊँचे, कुछ नीचे. इनमें अबाबीलें होती हैं,
डोमकौवे, कौवे, गौरेयाँ
और ऐसे ही दूसरे पक्षी होते हैं. ऐसे पक्षियों के बीच आकाश में सिर्फ एक ही उकाब
होता है. वह सबसे ऊँचा, नजर से बहुत दूर होता है, मगर फिर भी अगर वह आकाश में है, तो घर से बाहर
आनेवाले आदमी को उकाब ही सबसे पहले दिखाई देगा. वह दूसरे पक्षियों से इसीलिए अलग
और सबसे पहले नजर आता है कि सबसे दूर और सबसे ऊँचा होता है. इसके बाद ही घर के
दरवाजे से पाँच कदम दूर बैठी गौरैया की तरफ ध्यान जाता है.
मगर
उकाब को देख लेने से कोई उकाब नहीं बन जाता. किसी वीर के बारे में लिखनेवाला लेखक
खुद वीर नहीं हो जाता. वीरतापूर्ण कविताओं के लिए विख्यात बहुत-से कायरों को मैं
जानता हूँ. अगर पहाड़ी सूरमा मखच दाखादायेव अपनी कब्र से बाहर आ सकता, तो अपने बारे में शोध-प्रबंध लिखनेवाले 'विद्वान'
से वह क्या कहता?
'तुम मेरे वीरतापूर्ण जीवन के बारे में बता ही क्या सकते हो, जब अपने लिखे हुए एक भी वाक्य को संपादक से नहीं बचा सकते? मेरे बारे में तुम्हारे विचारों को हर संपादक जैसे चाहता है, बदल देता है और तुम जरा भी आपत्ति करने का साहस नहीं कर पाते. नहीं,
तुम मखच दाखादायेव जैसे आदमी के बारे में शोध-प्रबंध लिखने के लायक
नहीं हो,' पहाड़ी सूरमा ने, अगर वे
कब्र से बाहर आ सकते, तो यही कहा होता.
कुछ
लोगों को ऐसा लगता है कि कोई महान विषय चुन लेने से वे खुद भी महान बन जाएँगे. मगर
सबसे साधारण ही सबसे महान होता है. बारिश की बूँद में ही जल-प्रलय छिपा रहता है.
महान और तुच्छ व्यक्ति में यह अंतर होता है कि तुच्छ व्यक्ति केवल बड़ी चीजों
और घटनाओं को ही देख सकता है और अपने आसपास की चीजों पर उसकी नजर नहीं जाती. किंतु
महान व्यक्ति छोटी-बड़ी सभी चीजों पर उसकी नजर नहीं जाती. किंतु महान व्यक्ति
छोटी-बड़ी सभी चीजों को देखता है और तुच्छता में भव्यता खोज निकालता है औद
दूसरों को दिखा सकता है.
संस्मरण.
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रतिभाशाली लेखक मुँह लटकाए दिखाई देते हैं और
प्रतिभाहीन सीना ताने घूमते हैं. ऐसा तब होता है, जब
लेखक के नेक इरादों को ही महत्व दिया जाता है, मगर उसकी
किताब कैसी बन पड़ी है, उसके लेखक में कितनी प्रतिभा है,
लेखनकला में वह कितना पारंगत है, इसका गंभीरता
से मूल्यांकन नहीं किया जाता. ऐसी स्थितियों में गुरू ज्यादा और चेले कम,
माल से ज्यादा गाहक, लेखकों से ज्यादा बक्कू
हो जाते हैं.
ऐसे
ही वक्त में मेरे पिता जी ने शामिल के बारे में एक बड़ी कविता लिखने की तीव्र इच्छा
अनुभव की. कविता छपने ही वाली थी कि शामिल को इस वक्त से और हमेशा के लिए
अंग्रेजों-तुर्कों का भाड़े का टट्टू मानने का हुक्मनामा आ गया. यह पता चला कि
शामिल दागिस्तान के लोगों की आजादी के लिए नहीं, बल्कि
उन्हें धोखा देने के लिए पचीस साल तक लड़ता रहा था.
अपनी
वीरतापूर्ण कविता का मेरे पिता जी क्या करते! उन्हें संकेत किया गया कि हमारे
अच्छे जमाने में प्राचीन इतिहास के पृष्ठ उलटने में क्या रखा है और अगर वे अधिक
सामयिक और पाठकों के अधिक निकट किसी विषय पर नई कविता लिखें, तो ज्यादा अच्छा रहेगा.
उन
दिनों हमारे परिवार के मित्र, खुशमिजाज अबूतालिब अक्सर
पिता जी के पास आते थे. जुरना या बाँसुरी हमेशा उनके साथ होती थी.
'हमजात,' अबूतालिब आराम से बैठकर जुरने को सुर में
करते हुए बोले, 'बहुत दुखी नहीं होओ. जब मैं लड़का था और
कविता नहीं रचता था, तो हमेशा जुरना बजाता था. कई सालों तक
इसने मुझे और मेरे परिवार को रोटी दी. इस पर हर धुन बजती थी. आओ, उन जवानी के दिनों की याद ताजा करें, कुछ समय के लिए
कविताओं को भूल जाएँ और संगीत का मजा लें. मैं जुरना बजाऊँगा और हमजात तुम ढोल
बजाओ, ऐसे हमें राहत मिलेगी.'
'यह तुम क्या कह रहे हो, अबूतालिब! अगर हम ढोल और
जुरना बजानेवाले हो जाते, तो भी इतना बुरा न होता.
जुरना-वादक तो अपना जुरना बजाता है और उसकी धुन पर नर्तक नाचता है या नट रज्जु पर
चलता है. जुरना-वादक नीचे खड़ा होता है और नट रज्जु पर नाचता है. बताओ अबूतालिब,
उन दोनों में से किसकी अधिक बुरी हालत होती है? हम दोनों रज्जु पर चलनेवालों के समान हैं. वे हमें रज्जु पर करतब
करनेवाले और नर्तक बनाना चाहते हैं.'
खुशमिजाज
अबूतालिब उदास हो गए और उनके साथ ही उनका जुरना भी उदास हो गया. देर तक वे चुपचाप
अपना बाजा बजाते रहे, फिर उन्होंने सिर ऊपर उठाया
और बोले -
'बड़ा मुश्किल धंधा है कविता रचने का.'
दामन
से हम नजर डालते
जब-जब
ऊँची चोटी पर
ऐसे
लगता छू लेंगे हम
हाथ
बढ़ा,
आगे बढ़ कर,
मगर
घनी,
गहरी बर्फों में
पाषाणी
पगडंडी पर,
हम
बढ़ते,
चलते जाते हैं
अंत
न आता कहीं नजर.
इसी
तरह से काम हमारा
सीधा-सीधा-सा
लगता,
पर
शब्दों के हेर-फेर में
बहुत
बड़ा झंझट पड़ता.
कभी-कभी
तो पंक्ति न बनती
शब्द
अकड़ जाते तन कर,
तब
लगता कविता रचने से
सुगम
पहुँचना चोटी पर.
उकाब
की बराबरी करने के इच्छुक पक्षी का किस्सा. भेड़ों का रेवड़ पहाड़ों से घाटी में
उतर रहा था. अचानक उकाब ने आसमान से नीचे झपट्टा मारा, एक मेमने को पंजों में दबाया और उठा ले गया. एक छोटे-से परिंदे ने यह सब
देखा. उसने सोचा, 'भला मैं भी ऐसे ही क्यों न करूँ, जैसे उकाब ने किया? मेमने की क्या बात है, मैं तो पूरी भेड़ ही उठा ले जाऊँगा.' पक्षी बहुत
ऊँचा उड़ा, उसने पंख समेटे और नीचे की तरफ झपटा. मगर यह किस्सा
ऐसे खत्म हुआ कि वह भेड़ के सींग से टकराया और अपनी जान से हाथ धो बैठा.
'एक बार मक्खी ने भी पत्थर फेंकना चाहा था,' मरे
हुए परिंदे को हथेली पर रखे हुए चरवाहे ने कहा.
इस
तरह उकाब की बराबरी करने के इच्छुक पक्षी की मक्खी से ही तुलना की गई.
विषय
के बारे में कुछ और. विषय प्यार भी है, कसम भी है,
याचना भी है, प्रार्थना भी है. पूरब में कहा
जाता है कि दोहराने से प्रार्थना बिगड़ती नहीं, बेहतर ही हो
जाती है.
विषय
के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. अगर एक ही विषय को लगातार दोहराया जाए, तो वह घिसा-पिटा हो जाएगा, उसका कोई मूल्य नहीं
रहेगा. हीरा जितना अधिक बड़ा होगा, उतनी ही ज्यादा उसकी
कीमत होगी. हीरे की धूल की किसे जरूरत है?
एक
बार मैंने रूसी अध्यापिका वेरा वसील्येव्ना के बारे में एक कविता रची. मैंने
देखा कि पाठकों, यहाँ तक कि आलोचकों को भी वह कविता पसंद
आई. मुझे खुशी हुई और लगा उसी विषय को रगड़ने.
मेरी
कविताएँ उस शराब जैसी नहीं रहीं, जो शुरू में पीपे में थी,
बल्कि उस शराब जैसी हो गई जो पीपे को धो देने के बाद हासिल होती है.
पुरानी
शराब का लेबल लगाकर कच्ची शराब भी बेची जा सकती है. अब मैं आपको यह सुनाता हूँ कि
मास्कोवासियों को अपनी घर की बनी शराब पिलाते हुए हम क्या करते थे.
मैं
और काकेशिया के मेरे दूसरे दोस्त अपने घरों से मास्को लौटते हुए हमेशा अपने साथ
शराब लाते थे. दोस्त इकट्ठे होते, हम पीपा
खोलते और जाम उड़ाए जाने लगते. पीपे में पुरानी, खूब अच्छी
तरह से तैयार और बढ़िया शराब होती. हमारे दोस्त शराब पीकर उसकी तारीफ करते और अपने
दूसरे दोस्तों से उसकी चर्चा चलाते. बढ़िया शराब चाहनेवाले बहुत ज्यादा होते.
जाहिर है कि पीपा तो आखिर खाली हो ही जाता. कभी-कभी हम यह गुनाह करते कि आम बाजारी
शराब खरीदकर उसे अपने पीपे में डाल देते और यह कहते कि असली, घर की बनी हुई, बढ़िया शराब है. ऐसे पारखियों से जो
हमारा भंडाफोड़ कर देते, कभी वास्ता नहीं पड़ा था. सिर्फ एक
मेहमान ने ही शराब चखने के बाद मेरी तरफ देखा और मानो भर्त्सना करते हुए सिर
हिलाया. बाकी तो जितनी ज्यादा पीते, उन्हें उतना ही ज्यादा
नशा होता और वे उतने ही ज्यादा तारीफों के पुल बाँधते.
मेरी
उन कविताओं के बारे में भी, जिन्हें मैं अक्सर दोहराने
लगा था, यही कहा जा सकता है. सिर्फ कुछ बहुत ही समझदार और
कठोर पाठक सिर हिलाकर कहते थे -
'अरे भाई, दालागालोव भी इसी काम से आया था.'
या
फिर वे यह कहते, 'एक गाँव के लिए एक ही मूर्ख काफी है.'
तब
यह बात मेरी समझ में आई कि मैं भी वही कुछ कर रहा हूँ, जो बढ़िया कारीगरों ने अपनी छड़ियों के साथ किया था.
अब
मैं आपको ढंग से यह सारा किस्सा सुनाता हूँ.
जब
मैं लड़का ही था तो कुरबान अली नाम का एक डाकिया ढेर सारे खत और अखबार लेकर हर दिन
हमारे गाँव में आता. वह आबूता गाँव का रहनेवाला बड़ा ही हँसोड़ और मस्त-मौला था.
डाक बाँटते वक्त कुरबान अली गप-शप करने और पाइप के कश लगाने के लिए जरूर ही मेरे
पिता जी के पास आता. कह नहीं सकता कि ऐसी बातचीत के लिए उसने मेरे पिता जी ही को
क्यों चुना था. बात यह है कि उसकी बातचीत का विषय हमेशा एक ही होता था - शादी के
बारे में. शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि नई शादी के बारे में. कारण कि वह उन
लोगों में से था, जो एक हफ्ते बाद शादी करते
हैं और एक महीने बाद तलाक दे देते हैं.
यह
उस वक्त की बात है, जब उसने तलाक दिया ही था और
अपने लिए जवान विधवा की तलाश कर रहा था. उसने तो जैसे उसे खोज भी लिया था, क्योंकि हर दिन वह इसी बात की चर्चा करता था कि वह कितनी सुंदर है,
जवान और मिलनसार है.
मगर
अचानक जवान विधवा के बारे में बातचीत बंद हो गई. कुरबान अली पहले की तरह ही हर दिन
आता,
किंतु बातचीत मौसम या सामूहिक फार्म के काम-काजों और ऐसे ही सभी तरह
के विषयों के बारे में करता, कुछ ही समय बाद होनेवाली अपनी
शादी के बारे में नहीं.
'तुम किसी के साथ शादी करने की सोच रहे थे, क्या कर
ली?' पिता जी ने एक दिन पूछा.
'अरे नहीं हमजात, यह तो मैं सोच रहा था, मगर लगता है कि उसका तो बिल्कुल ऐसा ख्याल नहीं था. अब जवान विधवा
ढूँढ़ने के लिए मुझे सारे दागिस्तान का चक्कर लगाना पड़ेगा.'
कुरबान
अली ने बहुत अर्से तक सूरत नहीं दिखाई. इसका मतलब तो यही था कि सचमुच गाँवों के
चक्कर लगाता हुआ अपने लिए बीवी खोज रहा था. इस दौरान उसका बेटा डाक बाँटने आता
रहा. बदकिस्मत डाकिया जब फिर से हमारे घर आया, तो हमने
बड़ी बेसब्री से उससे पूछा -
'कहो क्या हालचाल है? तुम्हारा रास्ता तो सीधा और
छोटा ही रहा न?'
'शायद सीधा ही रहता, मगर दालागालोव ने उसे टेढ़ा कर
दिया.'
'वह कैसे?'
'बहुत सीधे-सादे ढंग से. अपने उद्देश्य से मैं जहाँ कहीं भी गया, मुझे यही बताया गया, देर से आए हो. दालागालोव भी इसी
काम से आया था.'
दरबीश
दालागालोव औरतों के मैदान का मशहूर सूरमा था. 1938 में उसने
अठारह बार शादी की थी.
डाकिये
कुरबान अली की बदौलत सारे दागिस्तान में आसानी से यह कहावत फैल गई - 'दालागालोव भी इसी काम से आया था.'
दूसरा
किस्सा है एक मूर्ख के बारे में. यह तो सभी जानते हैं कि हर गाँव में सिर्फ एक ही
अहमक रहता है. यही अच्छी बात है. जब बहुत-से अहमक या मूर्ख होते हैं - तो बुरा
होता है. जब एक भी नहीं होता, तो भी जैसे कुछ कमी-सी
महसूस होती है. अहमकों की एक-दूसरे से अच्छी तरह जान-पहचान होती है और वे तो
एक-दूसरे के यहाँ मेहमान भी आते-जाते हैं. इसी रिवाज के मुताबिक एक बार गूरताकुली
गाँव का अहमक खूंजह गाँव के अहमक के यहाँ मेहमान आया.
'सलाम अलैकुम, अहमक!'
आगे
सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसे कि दो दोस्तों के बीच
होता है. वे चूल्हे के पास बैठ गए, खूब खाया-पिया. तीसरे
दिन गूरताकुली का अहमक अपने घर जाने को तैयार हुआ. मेजबान अहमक ने जैसे होना चाहिए,
वैसे ही बड़ी इज्जत से मेहमान को विदा किया, तोहफे
दिए और गाँव के छोर तक छोड़ने गया. दोनों अहमकों ने एक-दूसरे से विदा ली.
मेहमाननवाजी
की सभी रस्में पूरी हो चुकी थीं. कुछ ही देर पहले का मेहमान जैसे ही गाँव की हद
से बाहर जाता है, उसके साथ मनमाना बर्ताव किया
जा सकता है, क्योंकि अब वह मेहमान नहीं रहा. उसी वक्त
खूंजह का अहमक भागकर गूरताकुलीवाले अहमक के पास पहुँचा और अचानक उस पर पिल पड़ा.
'किसलिए तुम मुझे पीट रहे हो?'
'मेरे यहाँ फिर कभी मेहमान नहीं आना. क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि एक
गाँव के लिए सिर्फ एक ही अहमक काफी है?'
कभी-कभी
मैं इस किस्से पर गौर करता हूँ और मेरे दिमाग में यह ख्याल आता है कि एक गाँव के
लिए एक ही अक्लमंद भी काफी है.
नोटबुक
से. किसी अमीर खान ने किसी गरीब से पूछा -
'बत्तख का कौन-सा हिस्सा सबसे ज्यादा मजेदार होता है? अगर ठीक जवाब दोगे, तो इनाम मिलेगा.'
'पिछला,' गरीब ने फौरन जवाब दिया.
जब
बत्तख बनकर तैयार हो गई, तो खान ने इसी हिस्से को चखा
और उसे बेहद पसंद आया. उसने दूसरे गरीब से पूछा -
'भैंस का कौन-सा हिस्सा सबसे ज्यादा मजेदार होता है?'
दूसरा
गरीब आदमी भी इनाम पाना चाहता था, इसलिए उसने पहले की तरह
ही जवाब दिया -
'पिछला.'
खान
ने उसे चखा और इस दूसरे गरीब को कोड़े लगवाए.
बड़े
अफसोस की बात है कि उन लेखकों के लिए कोड़े नहीं हैं, जो सोचे-समझे बिना अलग-अलग मौकों पर एक ही बात दोहराते रहते हैं.
अब
ऊनसूकूल की छड़ी के आलेख की कहानी सुनिए. मास्को के साहित्यकार ब्लादलेन बाखनोव
लंगड़ाते हैं और छड़ी के सहारे चलते हैं. छुट्टियों में दागिस्तान जाते हुए मैंने
उनसे वादा किया कि ऊनसूकूल के प्रसिद्ध कारीगरों की नक्काशीवाली सुंदर छड़ी उन्हें
लाकर दूँगा. घर पहुँचते ही मैंने अपने एक परिचित नक्काश को इस अनुरोध का पत्र लिख
भेजा. नक्काश बुजुर्ग कारीगर और मेरे पिता के दोस्त थे और इसलिए यह आशा की जा
सकती थी कि छड़ी जैसी बढ़िया होनी चाहिए, वैसी ही
होगी. सिर्फ एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी कि इस छड़ी पर लिखवाया क्या जाए.
इसी
समय एक केंद्रीय समाचार-पत्र में साहित्यिक विषय पर एक बड़ा लेख निकला. उसका
शीर्षक था - 'आलोचना की जगह डंडा.'
'बहुत खूब', मैंने सोचा, 'ऐसा
आलेख मास्को के साहित्यिक को भेंट की जानेवाली छड़ी के लिए बिल्कुल ठीक रहेगा.'
दो
हफ्ते बाद छड़ी तैयार हो गई. ऊनसूकूल की छड़ियों में यह सबसे बढ़-चढ़कर थी. उचित स्थान
पर ये शब्द शोभा दे रहे थे - 'ब्ला बाखनोव को. आलोचना
की जगह डंडा. रसूल हमजातोव की ओर से.'
वैसे
तो मखचकला, किस्लोवोद्स्क, प्यातिगोर्स्क
की स्मरण-चिह्नों की दुकानों तथा पहाड़ी गाँवों की मंडियों में ऊनसूकूल की छड़ियाँ
बिकती हैं.
कुछ
अर्से बाद इन सभी जगहों पर 'ब्ला बाखनोव को. आलोचना
की जगह डंडा. रसूल हमजातोव की ओर से' आलेखवाली छड़ियाँ बिकने
लगीं. इन स्वास्थ्यप्रद स्थानों पर आनेवाले लोग संभवतः ऐसा आलेखवाला उपहार
खरीदते समय हैरान हुए होंगे. मगर सबसे अधिक हैरानी तो मुझे हुई.
हुआ
यह कि बुजुर्ग कारीगर, जिन्होंने पहली छड़ी बनाई,
रूसी भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे. मैंने कागज पर जो कुछ लिख
भेजा था, उन्होंने उसे ज्यों-का-त्यों छड़ी पर उतार दिया.
उन्होंने सोचा कि अगर कवि ने छड़ी पर ये शब्द लिखवाने चाहे हैं, तो इनमें जरूर कोई बड़ी समझदारी की बात छिपी होगी. तो भला यही शब्द दूसरी
छड़ियों की शोभा क्यों न बढ़ाएँ?
बुजुर्ग
कारीगर को दोष नहीं दिया जा सकता. उन्होंने भोलेपन से कवि पर विश्वास कर लिया और
अपने सहज विश्वास में उदारता और निश्छलता का परिचय दिया. मगर हम अनुभवी साहित्यकार
भी तो क्या कभी-कभी इस बुजुर्ग के समान ही नहीं होते?
विषय
के बारे में अंतिम शब्द. एक विषय है, जो
प्रार्थना के समान है. उसे जितना अधिक दोहराया जाता है, वह
उतना ही अधिक मूल्यवान, उच्च और श्रेष्ठ हो जाता है. यह
विषय और प्रार्थना है मेरी मातृभूमि.
बच्चे
को जब किसी शरारत के लिए सजा दी जाती है, तो पहाड़ी
इलाकों के रिवाज के अनुसार चेहरे के सिवा उसे इसकी किसी भी जगह पर मारा-पीटा जा
सकता है. इनसान के चेहरे को नहीं छुआ जा सकता और यह चीज हर पहाड़ी आदमी के लिए
कानून है.
दागिस्तान
तुम मेरा चेहरा हो. मैं तुम्हें छूने की मनाही करता हूँ. लड़ाई-झगड़े में पहाड़ी
लोग बड़े सब्र से काम लेते हैं. वे एक-दूसरे को बहुत-से बुरे-बुरे शब्द कहते हैं
और हर कोई उन्हें बर्दाश्त करता है तथा उनके जवाब में अपने गंदे शब्द कहता है.
मगर ऐसा तभी तक होता है, जब तक कि इन गंदे शब्दों का
सिर्फ आपस में झगड़नेवालों तक ही संबंध रहता है. पर यदि संयोग या असावधानी से कोई
माँ या बहन को कुछ भला-बुरा कह बैठता है, तो समझो कि मुसीबत
आ गई - तब खंजर चल जाएँगे.
दागिस्तान
- तुम मेरे लिए माँ हो. वे सभी, जिन्हें मुझसे उलझना
पड़ेगा, इस बात की गाँठ बाँध लें. मुझे तो बेशक कैसे ही
भले-बुरे शब्द कह लो - मैं सब बर्दाश्त कर लूँगा. मगर मेरे दागिस्तान को नहीं
छूना.
दागिस्तान
- वह मेरा प्यार है, मेरी प्रतिज्ञा, मेरी याचना, मेरी प्रार्थना है. तुम ही मेरी सारी
किताबों, मेरे सारे जीवन का मुख्य विषय हो.
कभी-कभी
मुझसे यह कहा जाता है कि मैं केवल तुम्हारे अतीत की चर्चा करूँ, पुराने रस्म-रिवाजों, दंत-कथाओं और गीतों, शादियों और तलवारों, लड़ाइयों और दोस्तियों, मुरीदों के इस्पाती कलेजों और वफादार कुमारियों, गरिमा
और साहस, नौजवानों के खून और माताओं के आँसुओं का ही वर्णन
करूँ.
कभी-कभी
मुझसे सिर्फ तुम्हारे वर्तमान का ही बखान करने को कहा जाता है. मुझसे अनुरोध किया
जाता है कि मैं राजकीय फार्मों और सामूहिक फार्मों, टोली
और उपटोली मुखियाओं, पुस्तकालयों और थियेटरों, तुम्हारी श्रम-संबंधी उपलब्धियों का उल्लेख करूँ.
मैं
अपने को इस या उस अतीत या वर्तमान तक ही सीमित नहीं कर सकता. मेरे लिए तो एक
दागिस्तान है, जो एक हजार साल की जिंदगी देख चुका है.
मेरे लिए उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य घुल-मिलकर एक हो गए
हैं. मैं उसे अलग-अलग कालों में विभाजित नहीं कर सकता.
दूसरे
राज्यों और देशों का इतिहास तो सिर्फ खून से ही नहीं, कलम और स्याही से कागज पर भी कभी का लिखा जा चुका है. उसे तो सैनिक और
सेनापति ही नहीं, लेखक और इतिहासकार भी लिख चुके हैं. दागिस्तान
का इतिहास तो तलवारों ने लिखा है. सिर्फ बीसवीं सदी ने ही दागिस्तान को कलम दी है.
दागिस्तान, मैं तुम्हारी प्राचीन लड़ाइयों के चिह्नों को देख आया हूँ, उन अनेक रण-क्षेत्रों में हो आया हूँ, जिनमें तुम्हारे
सपूतों की हड्डियाँ बोई गई हैं. सामूहिक फार्मों के गेहूँ या मक्का के खेत इस बात
के लिए मुझसे नाराज न हों कारण कि जब मैं अपनी कविताओं में आधुनिक दागिस्तान की
चर्चा करता हूँ, तो अतीत इसके लिए मेरी भर्त्सना नहीं करता.
दूर-दराज
के देशों की यात्राओं के बाद जब मैं अपने घर लौटता हूँ, तो पहाड़ी लोग मुझे घेर लेते हैं और जो कुछ मैंने देखा होता है, उसे बयान करने को कहते हैं. वे मेरे गिर्द घेरा डालकर बैठ जाते हैं और
सुनते हैं. अधिक-से-अधिक मैं तीन घंटे ही बोल पाता हूँ और मैं उन्हें फ्रांस,
भारत, जापान या तुर्की के बारे में बताता रहता
हूँ. मगर तीन घंटों के बाद अपने आप और अनजाने ही दागिस्तान के बारे में बातचीत
शुरू हो जाती है. मैं अपने पहाड़ी लोगों से दागिस्तान की चर्चा करने लगता हूँ और
वे मुझे ऐसे सुनते रहते हैं मानो पहली बार सुन रहे हों, यद्यपि
वे खुद ही तो दागिस्तान हैं.
महमूद
बड़े कवि थे. उनका मुख्य विषय था - मरियम के प्रति उनका प्यार. उनके एक घनिष्ठतम
मित्र ने महमूद से लोरी रचने को कहा, क्योंकि
उसके यहाँ बेटा हुआ था. महमूद ने अपनी कलम आजमाई, मगर उन्हें
कामयाबी नहीं मिली. महमूद की लिखी लोरी सुनकर बच्चा पालने में रोता रहता, जबकि उससे उसे नींद आनी चाहिए थी. दूसरे मित्र ने महमूद से अनुरोध किया कि
वह उसकी पत्नी के बारे में, जिसका देहांत हो गया था.
शोक-गीत रच दे. महमूद ने ऐसा किया, मगर उन्हें सफलता नहीं
मिली. महमूद का शोक-गीत सुनकर किसी की भी आँखों में आँसू नहीं आए. इसके उलट,
कुछ तो मुस्करा भी दिए.
किंतु
मरियम के प्रति महमूद के असफल प्यार से संबंधित उनके गीत सुनकर लोग अब तक रोते
हैं.
महमूद
की काव्य-साधना का मुख्य विषय था - मरियम. मेरा मुख्य विषय है - दागिस्तान.
मेरा प्यार महान हो या तुच्छ, मेरी सच्चाई छिछली हो
या गहरी, मेरी भावनाएँ पुरातन हों या नूतन, मगर मैं तुम्हारे बारे में ही लिखता हूँ, दागिस्तान.
जब मैं कलम उठाता हूँ, तो वह बरबस मेरे हाथ में काँपने लगती
है.
पिता
जी कहा करते थे कि अगर तरबूजों का खेत बिल्कुल सड़क किनारे है, तो पास से गुजरनेवाला हर राहगीर कच्चा तरबूज तोड़ लेगा.
कहते
हैं कि जिस पत्थर को उठा नहीं सकते, उसे हाथ
नहीं लगाओ. इतनी दूर तक नहीं तैरो, जहाँ से लौट नहीं सकते.
कहते
हैं कि अगर नाले में टखनों तक पानी है, तो पतलून को
घुटनों से ऊपर नही उठाओ.
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