विधा
मूर्ख चीख से हैरान
करता है,
बुद्धिमान जँचती हुई
कहावत से.
वसंत आया - गीत गाओ.
जाड़ा आया - किस्सा सुनाओ.
लीजिए, मैं उस पहाड़ के सामने खड़ा हूँ, जिसे लाँघना है.
बढ़िया घोड़ा मुझे हर दर्रे के पार ले जाएगा. पहाड़ - मेरा विषय है, घोड़ा - मेरी भाषा है. मगर अब मुझे वह पगडंडी चुननी है, जो मुझे खड़े पहाड़ के पार ले जाएगी.
मेरे
सभी पहाड़ी पूर्वजों को सीधी पगडंडी पसंद आती रही है. उस पर चढ़ना कठिन और खतरनाक
होता है,
मगर वह छोटी होती है... वह जान भी ले सकती है, जल्दी से मंजिल पर भी पहुँचा सकती है.
या
फिर मैं उस किले के सामने खड़ा हूँ, जिस पर कब्जा
करना है. मेरे पास बहुत ही बढ़िया हथियार है, जो लड़ाई में
मुझे कभी धोखा नहीं देगा. किला है मेरा विषय और भाषा है मेरा हथियार. मगर मुझे ऐसा
तरीका चुनना है, जिससे इस अभेद्य दुर्ग पर आसानी से अधिकार
किया जा सके. इस पर अचानक धावा बोला जाए या धीरे-धीरे घेरा डालना बेहतर होगा?
एक
खेत में बाजरा बोया हुआ है और नजदीक ही पहाड़ी नदी में पानी है. मगर इस पानी को
खेत तक कैसे लाया जाए?
चूल्हे
में लकड़ी है, पतीला और कुछ वह भी है, जो पतीले में डाला जाना है. मगर फिर भी यह सवाल तो है ही कि दोपहर के खाने
के लिए क्या पकाया जाए?
संपादक
महोदय ने अपने पत्र में मुझे इस बात की छूट दी थी कि मैं अपने लिए कोई भी
साहित्यिक विधा चुन सकता हूँ - कहानी या उपन्यास, कविता
या लेख. जितनी अधिक संभावनाएँ होती हैं, चुनाव उतना ही ज्यादा
कठिन होता है.
नोटबुक
से. हमारे साहित्य-संस्थान में ऐसे हुआ था. पहले वर्ष की पढ़ाई के समय बीस कवि
थे,
चार गद्यकार और एक नाटककार. दूसरे वर्ष में - पंद्रह कवि, आठ गद्यकार, एक नाटककार और एक आलोचक. तीसरे वर्ष में
- आठ कवि, दस गद्यकार, एक नाटककार और
छह आलोचक. पाँचवें वर्ष के अंत में - एक कवि, एक गद्यकार,
एक नाटककार और शेष सभी - आलोचक.
खैर, यह तो अतिशयोक्ति है, चुटकुला है. मगर यह तो सच है
कि बहुत-से कविता से अपना साहित्यिक जीवन आरंभ करते हैं, उसके
बाद कहानी-उपन्यास, फिर नाटक और उसके बाद लेख लिखने लगते
हैं. हाँ, आजकल तो फिल्म सिनेरियो लिखने का ज्यादा फैशन है.
कुछ
बादशाहों और शाहों ने अपनी मलिकाओं और बेगमों को इसलिए छोड़ दिया था कि उनके संतान
नहीं हुई थी. मगर कुछ बीवियाँ बदलने के बाद उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि इसके
लिए वे बिल्कुल दोषी नहीं थी; दूसरी तरफ कोई भी किसान
जिंदगी भर एक ही बीवी के साथ रहता है और उसी से एक दर्जन बच्चे पैदा कर लेता है.
मैं
तो यह मानता हूँ कि शराब पियो, मगर रोटी से मुँह न
मोड़ो. गीत गाओ, मगर किस्से भी सुनो. कविताएँ रचो, मगर सीधी-सादी कहानी को दूर न भगाओ.
गद्य.
एक वह भी जमाना था, जब मैं पालने में लेटा रहता
था और मेरी माँ लोरी गाया करती थी; उन्हें सिर्फ एक ही लोरी
आती थी. हमारे पिता जी बेशक जाने-माने कवि थे, अपने बेटों के
लिए उन्होंने एक भी गीत नहीं रचा. वे हमें बड़े शौक से तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ
और घटनाएँ सुनाते थे. यह उनका गद्य था.
पिता
जी को अपनी कविताओं की चर्चा करना पसंद नहीं था. मेरे ख्याल में वे काव्य-रचना
को गंभीर काम नहीं मानते थे. उनके संजीदा काम थे - जमीन जोतना, खलिहान को ठीक-ठाक करना, गाय और घोड़े की देखभाल
करना, छत पर से बर्फ साफ करना और बाद को गाँव, यहाँ तक कि हलके के मामलों में सरगर्म हिस्सा लेना.
कविता
रचने के बाद मेरे पिता इस बात की खास चिंता नहीं करते थे कि वह कहाँ छपती है.
केंद्रीय समाचार-पत्र हो या गाँव के पायनियरों का दीवारी समाचार-पत्र इस बात की
तरफ मेरा ध्यान गया था कि दीवारी समाचार-पत्र में स्थान दिए जाने पर उन्हें ज्यादा
खुशी होती थी.
वे
अक्सर उन शब्दों को याद किया करते थे, जो प्यार
के विख्यात गायक, कवि महमूद को उनके पिता अनासील मुहम्मद
ने कहे थे. प्यार और प्यार के गीतों से बेहाल, भूखे और
जर्द चेहरेवाले निखट्टू बेटे जैसे कवि महमूद ने जब घर आकर रोटी माँगी, तो उनके पिता ने बड़े इतमीनान से यह जवाब दिया -
'कविता खाओ और प्यार पियो. मैं तुम्हारे लिए हल जोतता-जोतता थक गया हूँ!'
इसमें
कोई शक नहीं कि गीत के बिना तो पक्षी भी नहीं रह सकता. मगर पक्षी का मुख्य काम तो
है - घोंसला बनाना, चुग्गा हासिल करना, अपने बच्चों का पेट भरना.
पिता
जी के लिए उनकी कविताएँ पक्षी के तराने के समान ही थीं - सुंदर, सुखद, किंतु अनिवार्य नहीं. वे उन्हें सुबह के वक्त
कहे जानेवाले 'शुभ प्रभात' और रात को
बिस्तर पर जाते वक्त कहे जानेवाले 'शुभ रात्रि' शब्दों, पर्व की बधाई या दुख के शोक-संदेश की तरह
ही मानते थे.
ऐसी
धारणा है कि कवि इस दुनिया से कुछ निराले होते हैं - हर कोई अपने ही ढंग से. मगर
पिता जी अपने स्वभाव और मानसिक संरचना की दृष्टि से साधारण पहाड़ी आदमी थे. सबसे
अधिक तो उन्हें मंडली में बैठकर, जब लोग एक-दूसरे को
टोकते नहीं, मजे से बातचीत करना, तरह-तरह
के किस्से-कहानियाँ और घटनाएँ सुनाना यानी गद्य ही अधिक पसंद था.
पिता
जी ने विख्यात कवि महमूद को अपनी कविताएँ दिखाई. कवि को पिता जी की कविताएँ देखकर
हैरानी हुई और बोले कि वे उनकी समझ में नहीं आतीं और कुल मिलाकर वे यह समझ ही नहीं
पाते कि गऊ, ट्रैक्टर, कुत्तों
और खूंजह गाँव की पगडंडी के बारे में कैसे कविताएँ रची जा सकती हैं.
'तो किस बारे में कविताएँ रची जाएँ?' पिता जी ने
नम्रता से पूछा.
'प्यार, केवल प्यार के बारे में! प्यार का महल
बनाना चाहिए.'
महमूद
की कविता
महल
बनाए इस धरती पर, मैंने प्यार अनूठे के
मगर
बाड़ के नीचे मैं खुद, मौसम भी बिगड़ा, बिगड़ा,
मधुर
भावनाओं का मैंने, एक बनाया शाही पुल
टूट
गया,
मैं उसे देखता अब पत्थर पर पड़ा-पड़ा.
पिता
जी ने प्यार का महल नहीं बनाया. उन्हें उसके निर्माण की चिंता भी नहीं थी. उनकी
चिंता,
उनका महल, उनकी कविता जिनसे ओत-प्रोत थी,
वे थे - उनका पहाड़ी घर, परिवार, बच्चे, उनका गाँव, घोड़ा,
देश, शांति और धरती, आकाश,
बारिश, सूरज और घास.
हाँ, एक बार उन्होंने प्यार की कविता, उस नारी के बारे
में कविता भी लिखी थी, जिसे वे प्यार करते थे. मगर इसलिए कि
कोई उस कविता को पढ़ न सके, उन्होंने उसे अरबी में रचा था.
यह कविता केवल उनके और उनकी प्रेयसी के लिए थी.
हाँ, पिता जी को धीरे-धीरे आगे बढ़नेवाला बुद्धिमत्तापूर्ण किस्सा बहुत अच्छा
लगता था. शाम के झुटपुटे में वे मुझे अपनी गोद में बैठा लेते, भेड़ की खाल के सुगंधित कोट के पल्ले से ढक देते और किस्से सुनाते जाते,
सुनाते जाते. वे उनकी चर्चा करते जो विदेशों में चले गए थे और जो
अपनी मातृभूमि में रह गए थे. वे रास्तों और नदियों का जिक्र करते, यह बताते कि फूल कैसे खिलते हैं और क्यों उन पर मधुमक्खियाँ बैठती हैं.
वे यह वर्णन करते कि कैसे सूर्योदय और सूर्यास्त होता है.
वे
मुझे यह बताते कि रई की एक बाल में कितने दाने होते हैं और सुंदर इंद्रधनुष का
कैसे जन्म होता है.
अगर
किसी दूसरे गाँव से हमारे गाँव की तरफ आता हुआ कोई राहगीर दूरी पर दिखाई देता, तो पिता जी सविस्तार यह बता सकते थे कि वह कौन है, किस
मतलब से आ रहा है, किसके यहाँ ठहरेगा...
ओह, पिता जी यह सब कुछ मुझे क्यों बताते थे? कहीं ज्यादा
अच्छा होता, अगर वे इन सब चीजों को लिख डालते. तो यह उनका
गद्य होता, कवि हमजात त्सादासा का गद्य.
उनके
लिए कहानी और जीवन एक ही चीज थे. विचार को वे कहानी और कहानी को विचार मानते थे.
कविता की तुलना वे मन की तरंग से करते थे.
पिता
जी अगर अपनी सभी कहानियाँ लिख डालते, तो बहुत अच्छा
होता. कारण कि जब मैं बड़ा हुआ, तो मेरे व्यक्तित्व में
मेरे हृदय ने ही प्रधानता प्राप्त की. जब कोई पक्षी करीब से उड़ता हुआ गुजरता,
तो मैं यह सोचे बिना ही कि वह किधर और क्यों उड़ा जा रहा है,
उसे उड़ते हुए ही पकड़ना चाहता. पिता जी ने चाहे कितनी ही कोशिश क्यों
न की, फिर भी अपने बचपन में माँ की एकमात्र लोरी मेरे लिए
उनके सभी किस्से-कहानियों से ज्यादा प्यारी बनी रही.
गीत
के साथ मेरा बचपन बीता, तरुणावस्था में भी गीत ही
मेरे साथ रहा, उसी के साथ मैं पूरी तरह वयस्क हुआ और मेरे
बाल पके.
मगर
अब मैं यह समझता हूँ कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न भटकता रहा, मैंने कैसे भी गीत क्यों न गाए, हर समय एक चट्टान
हमेशा यह इंतजार करती रही कि कब उकाब आकर उस पर बैठेगा, एक
वृक्ष था, जो लगातार यह राह देखता रहा कि कब पक्षी उस पर
घोंसला बनाएगा, एक घर लगातार इस प्रतीक्षा में रहा कि कब
उसके दरवाजे पर दस्तक होगी, गद्य लगातार यह इंतजार करता रहा
कि कब कवि उसके पास आएगा.
तो
मैं अब उस चट्टान पर उतरता हूँ, जो मेरी राह देखती है,
दरवाजे पर दस्तक देता हूँ कि उसे खोल दिया जाए, मुझे अंदर जाने दिया जाए. मैं समझ गया हूँ कि पृथ्वी पर मैंने जो कुछ
देखा है, मैं जो कुछ सोचता और अनुभव करता हूँ, उस सब को कविता में बयान नहीं कर सकता.
मैं
यह बात समझता हूँ कि गद्य कविता नहीं है, जिसे
खड़े-खड़े गाया जा सकता है. इसके लिए मेज के करीब बैठना होगा, आस्तीनें चढ़ानी होंगी, बड़े सवेरे जागने के लिए
अलार्म घड़ी को चाबी देनी होगी, तेज चाय तैयार करनी होगी
ताकि रात को नींद न आ जाए.
हाँ, अगर बुनियाद सही ढंग से रखी गई है और मचान ढंग से बनाई गई है, तो मकान की तामीर भी आगे बढ़ेगी. मगर यह कहानी होगी, लघु-उपन्यास, कथा या किस्सा, दंत-कथा या विचार-संग्रह अथवा केवल लेख - यह मुझे मालूम नहीं.
कुछ
संपादक और आलोचक मुझसे यह कहेंगे कि मैंने न तो उपन्यास न किस्सा और न लघु-उपन्यास
ही लिखा है, कुल मिलाकर यह कि न जाने क्या लिख डाला
है. कुछ दूसरे संपादक और आलोचक कहेंगे कि यह पहली, दूसरी और
तीसरी चीज भी है, यह भी है, वह भी है.
मैं
कोई आपत्ति नहीं करूँगा. मेरी लेखनी से जो कुछ भी निकलेगा, उसे बाद में आप चाहे जो भी नाम दे दें. मैं किताबी कानूनों के मुताबिक
नहीं, बल्कि अपने दिल की इच्छानुसार लिखता हूँ. दिल के लिए
तो किसी तरह के कानून नहीं हैं. शायद यह कहना ज्यादा सही होगा कि उसके अपने कानून
हैं, जो सभी पर समान रूप से लागू नहीं होते.
मैं
मन-ही-मन सोचता हूँ कि अगर एक ही पतीले में मांस, चावल,
फल, मिर्च और एक साथ नमक तथा शहद डाल दूँगा,
तो कहीं खाने का मजा तो किरकिरा नहीं कर डालूँगा. या इसके विपरीत यह
बहुत ही मजेदार, अद्भुत भोजन बनेगा. अच्छा है कि वही इसके
बारे में राय दें, जो इसे खाएँगे.
मेरी
कहानी,
मेरे विचार, मेरी कथा! बचपन में कभी-कभी ऐसा
भी होता था कि जाड़े की रात में मैं सो नहीं पाता था. क्योंकि या तो भाइयों या
पिता जी के लौटने का बड़ी बेसब्री से इंतजार करता था. मैं दरवाजे के पास होनेवाली
चर्रमर्र या दूर की आहट पर कान लगाए रहता और तब मिनट घंटों में बदल जाते.
ऐसी
रातों में दादा मेरे पास बैठकर धीरे-धीरे कुछ सुनाने लगते. कभी कोई लोक-कथा, कभी गीत, कभी कोई अक्लमंदी की बात, कोई कहावत जो कभी तो हास्यपूर्ण होती, तो कभी भयानक.
मेरे लिए मिनट और घंटे गायब हो जाते और रह जाती केवल दादा जी की आवाज और कल्पना
की उड़ान से बननेवाले चित्र. भाई या पिता जी आते, दादा की
बातों में खलल डालते और तब मुझे इस बात का अफसोस होता कि वे अपने आगमन से दिलचस्प
किस्से का रंग-भंग कर देते हैं.
फिर
जब मैं खुद बड़ा हो गया, दुनिया भर में घूमने और उसी
तरह अपने घर लौटने की जल्दी करने लगा जैसे कभी मेरे भाई या पिता जी करते थे,
तो जितना घर के पास पहुँचता, मेरा दिल उतना ही
ज्यादा और बेचैनी से धड़कने लगता. मैं रास्ते में बाकी रह गए दर्रे गिनता. उसी
वक्त कोई हमराही दिलचस्प किस्सा, अपने जीवन की कोई घटना
या कथा सुनाने लगता, मैं ध्यान से सुनता रहता, मगर तभी रास्ता खत्म हो जाता और दिल को इस बात का कुछ अफसोस होता कि
किस्सा सुनानेवाला अपना किस्सा खत्म नहीं कर पाया.
पिता
जी पूछते -
'कहो, कैसे तुम लोगों ने पहाड़ को लाँघा, दर्रे में कैसा हाल रहा, वह बर्फ से ढका हुआ तो नहीं
था?'
मगर
मुझे तो न पहाड़ याद होता था, न दर्रा और न बर्फ. मेरा
हमराही जो कुछ सुनाता रहा था, मुझे तो सिर्फ वही याद होता था.
उसके किस्सों ने खड़े पहाड़ों को सपाट घाटी और ठंडी बर्फ को गर्म रुई में बदल
दिया था.
मेरी
कहानियो,
मेरे विचारो! क्या तुम सगे-संबंधियों का इंतजार करनेवालों की जाड़े
की लंबी रात या प्यारे चूल्हे तक पहुँचने के इच्छुक का जाड़े का लंबा रास्ता
छोटा कर सकते हो?
शोरबे
को मजेदार बनाने के लिए जिस तरह उसमें तरह-तरह के सुगंधित पत्ते या मसाले डाले
जाते हैं,
उसी तरह अपनी नीरस-फीकी कहानियों में मैं कहीं-कहीं एकाध कहावत या
मुहावरा डाल देता हूँ.
ताईलूख
गाँव की लड़कियाँ होंठों के कोनों के पास ठोड़ी पर दो चमकते हुए बिंदु लगाती हैं.
मेरे गद्य में कहावतें भी वैसे ही हों, जैसे
लड़कियों के चेहरों पर ये बिंदु.
अपनी
कहानियों के ताने-बाने में मैं अपने संस्मरणों और स्मृतियों को उसी तरह टिका रहा
हूँ जैसे सीधी दीवार में तराशे हुए पत्थर चुने जाते हैं. हर पत्थर दीवार में ठीक
से नहीं जँचता. उनमें से कुछ पत्थरों की चुनाई करने के बाद जब मैं अपनी कहानी को
आगे बढ़ा ले गया, तो मुझे कुछ ऐसी ही अनुभूति
हुई, जिससे संभवत: धार्मिक प्रवृत्तिवाले लोग परिचित हैं.
ऐसी अनुभूति तब होती है, जब उपासना का मूड खत्म होने पर भी
उपासना जारी रहती है. फिट न बैठनेवाले पत्थरों को दीवार में से निकालना पड़ा.
तो
इस तरह भावनाओं की ज्वारवाली कविताओं और गीतों से मैं शांत कहानी की ओर, गद्य की ओर बढ़ता हूँ. मगर यदि मैंने कुछ समय के लिए कविता से जुदा होने
का फैसला किया है, तो वह मुझसे अलग नहीं होना चाहती. जब मैं
सोता हूँ, तो प्यार करनेवाले बिल्ली के बच्चे की तरह वह
मेरे कंबल में आ दुबकती है. पहाड़ों के पीछे से सामने आनेवाले सुबह के सूरज की
किरण की भाँति वह मेरे खिड़की खोलते ही अंदर घुस आती है. वह शराब की अंतिम और सबसे
मीठी बूँदों के साथ गिलास के तल में मेरा इंतजार करती है. वह उस औरत की भाँति हर
जगह मेरा पीछा करती है, जिसे अचानक त्याग दिया गया है और जो
अपने भूतपूर्व प्रेमी को रास्ते में मिलने पर यह कहती है -
'क्या तुमने सचमुच मुझसे नाता तोड़ने का निर्णय कर लिया है? मगर जरा सोच लो, मेरे बिना रह लोगे? तुम पहाड़ी बकरे हो और ठंडे जंगलों में चरने के आदी हो. तुम साल्मन हो और
तेज ठंडी धारा के अभ्यस्त हो. क्या तुम यह सोचते हो कि शांत, गर्म झील में रहना तुम्हें अच्छा लगेगा? पर खैर,
अगर तुमने मुझसे अलग होने का ही फैसला कर लिया है, तो आओ आखिरी को कुछ देर साथ बैठ लें.'
कविता, क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं कभी तुमसे अलग नहीं हो सकता? क्या मैं अपने अंतर में जन्म लेनेवाली सभी खुशियों, सभी आँसुओं से अलग हो सकता हूँ.
तुम
उस लड़की जैसी हो, जिसका तब जन्म हुआ, जब सभी लड़के की राह देख रहे थे. तुम उस लड़की के समान हो, जो पैदा होकर खुद ही अपने बारे में यह कहे - 'मैं
जानती हूँ कि आप लोग मेरा इंतजार नहीं कर रहे थे और फिलहाल आप में से कोई भी मुझे
प्यार नहीं करता. पर कोई बात नहीं, मुझे जरा बड़ी होने और खिलने
दो, चोटियाँ गूँथने और गीत गाने दो. तब देखेंगे कि क्या इस
दुनिया में कोई ऐसा आदमी है, जो मुझे प्यार न करने की हिम्मत
करेगा.'
कविता
काम
खत्म हो जाने पर, हम करते हैं मन-रंजन,
चलते-चलते
थकते हैं,
तो दम लेते हैं कुछ क्षण.
मेरे
लिए कठिन तुम मंजिल, तुम ही मधुर पड़ाव,
तुम
ही हो श्रम-साध्य काम, तो तुम ही मन बहलाव.
लोरी
बनकर तुमने मेरा, बचपन सरस बनाया,
तुम्हें
वीरता या वसंत के, सपनों में फिर पाया.
खिला
प्यार का कुसुम हृदय में, तुम ही उसमें बोलीं
पर
मेरे ही साथ प्यार ने, मन में पलकें खोलीं.
लड़का
था तो तुम में जैसे, माँ की छाया झलकी,
फिर
तू बनी प्रेमिका मेरी, मदिरा बनकर छलकी.
मेरे
विवश बुढ़ापे में, सुध लेगी बेटी बनकर,
तू
स्मृति बन रह जाएगी, जब हो जाऊँगा खंडहर.
कभी-कभी
लगता है मुझको, तुम पर्वत, दुर्गम,
दुष्कर
कभी-कभी
लगता है जैसे, तुम हो सधी हुई नभचर.
तुम
उड़ान में, पंख समान,
युद्ध
भूमि में,
शस्त्र महान.
मेरे
लिए सभी कुछ कविता, केवल चैन नहीं पाता
अच्छा
है या बुरा, न जानूँ, बस,
सेवा करता जाता.
श्रम
का अंत कहाँ पर होता, शुरू कहाँ पर मन बहलाव?
कूच
कहाँ तक जारी रहता, कहाँ राह का मधुर पड़ाव?
तू
ही मेरा कठिन सफर है, तू ही है पथ का विश्राम,
तू
ही मन बहलाव राह का, तू ही मेरा मुश्किल काम.
पिता
जी कहा करते थे कि सिरखाऊ बक्की को चुप कराने के लिए किसी सम्मानित बुजुर्ग या
मेहमान को बोलना शुरू कर देना चाहिए. अगर बक्की इसके बाद भी अपनी बेतुकी बकवास
बंद न करे, तो गीत गाना शुरू कर दो. अगर गीत का भी उस
पर कोई असर न हो, तो बेझिझक उसे कालर से पकड़कर घर से बाहर
निकाल दो. अपनी बकबक से गीत में बाधा डालनेवाले हर आदमी की भी इसी तरह अच्छी मरम्मत
की जा सकती है.
कविता, तुम तो खुद ही दूसरों से कहीं ज्यादा अचछी तरह यह जानती हो कि तुम्हारी
चर्चा करने से तुम न तो बेहतर और न ही ऊँची हो जाओगी. क्या बातों से गीत की महत्ता
बढ़ाई जा सकती है? क्या केतली के पानी से पहाड़ी धारा का
प्रवाह तेज किया जा सकता है? क्या फूँकों से तेज हवा को और
तेज किया जा सकता है? क्या मुट्ठी भर बर्फ से गगनचुंबी
पहाड़ी चोटियों की भव्यता बढ़ाई जा सकती है? क्या पोशाक की
काट या मूँछों के फैशन से बेटे के प्रति माँ का प्यार बढ़ाया जा सकता है?
कविता, तुम्हारे बिना मैं यतीम हो जाता.
कविता
तेरे
बिना हमारी दुनिया, होती जैसे गुफा अँधेरी
सूरज
क्या होता है वह तो बिल्कुल इतना समझ न पाती,
या
वह ऐसा अंबर होती, जिसमें तारा एक न चमके
या
फिर ऐसा प्यार कि जिसमें आलिंगन का स्नेह, न बाती.
दुनिया
होती सागर जैसी, मगर नीलिमा से अनजानी
हिम
आच्छादित, धवल छटा से, मनमोहक,
चिर, सुंदर,
या
फिर ऐसा उपवन होती, जिनमें कलियाँ, सुमन न खिलते
जहाँ
न गातीं मधुर बुलबुलें, जहाँ न टिड्डों का मृदु स्वर.
पातहीन
सब तरुवर होते, भद्दे, भोंड़े,
काले, काले
गर्मी
नहीं,
न जाड़ा होता, न वसंत, केवल
पतझर,
लोग
असभ्य सभी हो जाते, दीन-हीन-से, भाव-शून्य से
रहा
गीत... तो गीत न लेता जन्म कभी इस धरती पर.
अवार
लोगों में यह कहा जाता है कि 'संसार की रचना के एक सौ
बरस पहले ही कवि का जन्म हुआ था.' इस तरह वे शायद यह कहना
चाहते हैं कि यदि कवि संसार की रचना में हिस्सा न लेता, तो
दुनिया इतनी सुंदर न बनती.
हम
तीन भाई थे और हमारी एक बहन थी. बहन सबसे बड़ी थी. सभी पहाड़ी औरतों की तरह उसके
भाग्य में भी बहुत काम लिखा था, दुख-दर्द और आँसू लिखे
थे. पिता जी बार-बार हमसे यह कहा करते थे -
यह
सच है,
मुझे बहन सबसे ज्यादा प्यारी है. मगर मेरी एक अन्य बहन भी है और
मैं नहीं जानता कि उन दोनों में से कौन-सी मुझे अधिक प्रिय है. मेरी दूसरी बहन है
- कविता. उसके बिना मैं जिंदा नहीं रह सकता.
कभी-कभी
मैं अपने से यह प्रश्न करता हूँ कि क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है. इसमें
कोई शक नहीं कि कविता के अलावा पहाड़ हैं, बर्फ और नद-नाले
हैं, बारिश और सितारे हैं, सूरज और
अनाज के खेत हैं... मगर क्या पहाड़, बारिश, फूल और सूरज का कविता के बिना और कविता का इनके बिना काम चल सकता है?
कविता के बिना पहाड़ विराट पत्थर बन जाएँगे, बारिश
परेशान करनेवाले पानी और डबरों में बदल जाएगी और सूर्य गर्मी देनेवाला अंतरिक्षीय
पिंड बनकर रह जाएगा.
फिर
से मैं यह सवाल करता हूँ - क्या चीज कविता का स्थान ले सकती है? हाँ, दूर-दराज के देश हैं, पक्षियों
के तराने हैं, आकाश है और दिल की धड़कन है. मगर कविता के
बिना कुछ भी तो ऐसा नहीं रह जाता. दूर-दराज के लुभावने देशों की जगह केवल भौगोलिक
अर्थ ही रह जाएगा, महासागर की जगह पानी का अटपटा अपार भंडार
ही रह जाएगा, पक्षियों के तराने नर-मादा की जरूरी पुकार ही
बन जाएँगे, नीले आकाश की जगह कई गैसों का मिश्रण और दिल की
धड़कन की जगह सिर्फ खून का दौरा ही बनकर रह जाएगा.
निश्चय
ही कोमलता, नेकी, दया, प्यार, सुंदरता, साहस,
घृणा और गर्व भी हैं... मगर ये सभी भावनाएँ कविता से ही जन्मी हैं,
उसी तरह जैसे कविता ने इनसे जन्म पाया है. वे कविता के बिना जीवित
नहीं रह सकतीं और कविता उनके बिना!
मेरी
कविता मेरा सृजन करती है और मैं अपनी कविता का. एक-दूसरे के बिना हम निर्जीव हैं -
इतना ही नहीं, हमारा अस्तित्व ही नहीं रहता. मेरे जिस्म
में हड्डियाँ हैं. कोई अजनबी आँख यह नहीं बता सकती कि मेरी कौन-सी हड्डियाँ मजबूत
और सही-सलामत हैं तथा कौन-सी टूटी थीं और बाद को जुड़ गई. मगर एक्स-रे से सब कुछ
नजर आ जाएगा और मेरे अंदर जो कुछ गुप्त तथा रहस्यपूर्ण है, उसे सभी देख सकेंगे.
मेरी
पसलियों,
रीढ़ की हड्डी और फेफड़ों की तुलना में मेरी आत्मा कहीं गहरी और
अधिक विश्वसनीय ढंग से छिपी हुई है. किंतु कविता की किरणें मुझे रोशन कर देती हैं
और मेरी आत्मा की हर गतिविधि लोगों के सामने आ जाती है. कविता की जादुई किरणों से
प्रकाशित मेरी आत्मा बिल्कुल निरावरण और पारदर्शी होकर मानो हथेली पर रख दी जाती
है और लोग मुझे आर-पार देख सकते हैं.
आधुनिक
गणन-यंत्रों में हजारों तार और चक्र लगे होते हैं. बड़ी-बड़ी संख्या के जटिल
प्रश्न उन्हें हल करने को दिए जाते हैं. बिजली की तरंग असंख्य चक्रों और तारों
के बीच से दौड़ती है. इस जटिल यंत्र में जो प्रक्रियाएँ होती हैं, कोई आँख या कोई मस्तिष्क उन्हें नहीं जान सकता. मगर बाद में आखिरी जवाब,
परिणाम के रूप में कोई एक संख्या हमारे सामने आ जाती है.
मेरे
शरीर के असंख्य तारों के बीच से कैसे प्रभावों, प्यार
और घृणा की कैसी तरंगें दौड़ती हैं, यह कोई नहीं जान सकता.
मेरे रोम-रोम पर अपनी छाप छोड़नेवाली अनुभूतियों से बाद में कविता जन्म लेती है.
मेरी आत्मा अंतिम और उच्चतम रूप में इसी का सृजन कर सकती है, इसे ही जन्म दे सकती है.
बहुत
घूमा-फिरा हूँ मैं इस दुनिया में. कभी पैदल तो, कभी घोड़े
पर, कभी हवाई जहाज में कुर्सी पर ऐसे टेक लगाकर मानो ऊँघ रहा
हूँ, कभी रेलगाड़ी की ऊपरवाली बर्थ पर लेटकर और कभी तेज कार
में.
पगडंडी
या घोड़े पर मुझे देखकर लोग यह कह सकते थे कि वह रसूल हमजातोव है. वह अकेला ही जा
रहा है और शायद उसे अकेलेपन के कारण ऊब महसूस हो रही होगी. मगर मैं कभी भी एकाकी
नहीं होता. मेरी बहन - कविता हमेशा मेरे साथ रहती है. एक मिनट को भी हम दोनों जुदा
नहीं होते. कभी-कभी तो नींद में भी मैं काव्य-रचना करता हूँ, या पहले की लिखी हुई अपनी कविताएँ याद करता हूँ, या
दूसरे कवियों की कविताएँ पढ़ता हूँ.
पहले
मैं यह सोचता था कि धरती पर बहुत कम कवि हैं. शायद कवियों को दूसरे लोगों के बीच
बहुत ऊब अनुभव होती होगी. जीवन में हर किसी की अपनी दिलचस्पी होती है यानी जिसके
बारे में साथियों या पड़ोसियों से बातचीत की जा सकती है - काम के बारे में, बीवी, वेतन, छुट्टी के दिन,
घर-गिरस्ती, माहीगीरी, सिनेमा
या बीमारी के बारे में... मैं सोचता था कि इन सभी बातों के संबंध में कवि भी लोगों
से बातचीत कर सकता है, मगर जिस काव्यमय रूप में वह दुनिया
को ग्रहण करता है, उसके बारे में वह किससे चर्चा करेगा?
मगर
बाद में यह बात मेरी समझ में आई कि अकवि इस दुनिया में कोई नहीं है. हर व्यक्ति
की आत्मा में कुछ कवि बसा हुआ है. कम-से-कम कविता हरि किसी के यहाँ उसी तरह
मेहमान बनकर आती है, जैसे दोस्त अपने दोस्त के
पास आता है.
हमारे
लोगों में गीत के प्रति प्यार उतना ही स्वाभाविक और समझ में आनेवाला है, जितना बच्चों के प्रति प्यार. हाँ, हम सभी कवि हैं.
हमारे बीच केवल इतना ही अंतर है कि कुछ इसलिए कविता रचते हैं कि ऐसा कर सकते हैं.
दूसरे इसलिए काव्य-रचना करते हैं, कि उन्हें ऐसा लगता है
कि वे ऐसा करने में समर्थ हैं. मगर तीसरे बिल्कुल कविता नहीं रचते. शायद ये,
तीसरे ही असली कवि हैं?
वह
जमाना भी था, जब मैं कविता नहीं रचना था. तो क्या मैं
तब कवि नहीं था? क्या तब मेरा हृदय कम धड़कता था और खून में
कम गर्मी होती थी? क्या दुख-दर्द से मेरा हृदय कम टीसता था
और खुशी से कम नाचता था? क्या तब सभी कुछ जानने की पिपासा
मुझमें कम थी? क्या तब मेरी आँखों को यह दुनिया इतनी ही
सुंदर नहीं लगती थी जितनी अब? क्या काली घटाओं के बीच
बड़ा-सा नीला सितारा देखकर मैं इसी तरह भाव-विभोर नहीं हो उठता था? क्या निर्झर की झर-झर में मुझे मधुर संगीत की अनुभूति नहीं होती थी?
क्या सारसों की आवाजें और घोड़ों की हिनहिनाहट सुनकर मैं विह्वल
नहीं हो उठता था? क्या कोई पुराना गीत या बुजुर्गों के
बढ़िया कारनामे सुनकर मेरी आँखें डबडबा नहीं आती थीं?
मुझे
याद आता है कि जब मैं छोटा था, तो एक पड़ोसी के घोड़े
चराने का काम करने लगा था. तीन दिन के काम के बदले में पड़ोसी को मुझे एक किस्सा
सुनाना पड़ता था.
मुझे
याद आता है कि तभी मैं चरवाहों के पास पहाड़ों में जाया करता था. आधा दिन उधर जाने
और आधा दिन लौटने में लगता. और मैं वहाँ जाता था एक कविता सुनने.
ऊनसूकूल
की नाशपातियाँ, गिमरा के अंगूर, बूत्सरा
का शहद, अवार गीत.
मुझे
याद आता है कि जब मैं दूसरे दर्जे में पढ़ता था, तो
एक दिन मैं अपने त्सादा गाँव से खड़ी पहाड़ी पगडंडियों पर चढ़ता हुआ बूत्सरा
गाँव गया, जो बीस किलोमीटर दूर है. वहाँ मेरे पिता जी के एक
बुजुर्ग दोस्त रहते थे, जिन्हें बहुत-से पुराने गीत,
कविताएँ और दंत-कथाएँ याद थीं. बुजुर्ग चार दिन तक सुबह से शाम तक
मुझे यह सब कुछ सुनाते रहे और मुझसे जैसे बन पड़ा, मैं उनके
गीत लिखता रहा. मैं कविताओं और गीतों से भरा हुआ थैला लिए खुश-खुश लौट रहा था.
बूत्सरा
गाँव के ऊपर एक पहाड़ सिर उठाए खड़ा है. जब मैं इस पहाड़ पर चढ़ गया, तो न जाने कहाँ से बड़े-बड़े और भयानक एलसेशन कुत्ते मेरी तरफ लपके. वे
कम-से-कम एक दर्जन रहे होंगे. हरी घास पर वे ऐसे ही तेजी से झपटते आ रहे थे,
जैसे टारपीडो किसी जहाज के काले पहलू की ओर निशाना साधे हुए झपटती
चली आती हैं. उनके बड़े-बड़े पीले और गीले दाँतोंवाले जबड़े मुझे दिखाई दे रहे थे.
बस एक मिनट और बीत जाता, तो वे मुझे चीर डालते. मगर इसी वक्त
मुझे चरवाहे की आवाज सुनाई दी -
'लेट जाओ! हिलो-डुलो नहीं.'
मैं
लेट गया,
धरती से चिपक गया और निर्जीव-सा हो गया. हिलते-डुलते हुए मुझे डर
लगता था और शायद मैंने तो साँस भी रोक ली थी. सिर्फ मेरा दिल ही ऐसे जोर से
धक्-धक् कर रहा था कि मुझे यों लगा मानो उसकी धड़कन दूर तक सुनाई दे रही है. कुत्ते
कुछ भी न समझ पाते हुए मेरे पास रुक गए, मुझे और कविताओं से
भरे मेरे थैले को सूँघते रहे. कुत्ते यह सोचकर कि उनसे कोई भूल हो गई है, उलझन में एक-दूसरे की तरफ देखते और अपनी कल्पना के मुझ शिकार को पकड़ने
के लिए आगे भाग गए. जल्दी ही वे मोड़ के पीछे गायब हो गए.
चरवाहे
के आने तक मैं लेटा रहा.
'किसके बेटे हो?'
'मैं रसूल हूँ, त्सादा के हमजात का बेटा.' मैंने इस आशा से जान-बूझकर पिता जी का नाम लिया था कि उसे सुनकर चरवाहा
मेरी ज्यादा चिंता करेगा और मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं होने देगा.
'यहाँ पहाड़ पर क्या कर रहे हो?'
'मैं कविताओं के लिए बूत्सरा गया था. यह रहीं थैले में.'
चरवाहे
ने कविताएँ निकालकर उन्हें गौर से देखा.
'तो तुम भी कवि बनना चाहते हो? तो फिर तुम कुत्तों
से क्यों डर गए? तुम्हारे पथ पर क्या इसी तरह के कुत्ते
तुम पर झपटेंगे? मेरे एलसेशन कुत्तों की तरह वे कविताएँ
सूँघकर आगे नहीं भाग जाएँगे. तुम्हें डरना नही चाहिए, किसी
भी चीज से डरना नहीं चाहिए. जानते हो यह कौन-सा पहाड़ है? इसी
पहाड़ से हाजी-मुराद संतरियों की आँखों में धूल-झोंककर नीचे कूद गया था. संतरी
मुँह बाए देखते रह गए थे और हाजी-मुराद बच निकला था. अपने वतन में तो पहाड़ भी मदद
करते हैं.'
पहले
मैं ऐसा समझता था कि काव्यमयी हलचल, जो मुझ पर
हावी हो गई है, वह बेचैनी, जो निरंतर
मेरी आत्मा में बसी रहती है, प्यार, जो
मेरे हृदय में जमकर बैठ गया है, यह सब और खून का उबाल तक भी
वक्ती चीज है और जल्दी ही यह खत्म हो जाएगा. मगर मेरा सिर सफेद हो चला है,
बच्चे बड़े-बड़े हो गए हैं और मेरी किताबें पुरानी होती जा रही हैं,
मगर एक भी भावना ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है. मेरी कविता मेरी बहुत
ही वफादार संगिनी रही है.
अब
मैं उसे संबोधित करता हूँ.
कविता, दुनिया और जिंदगी के लंबे सफर पर तुमने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा और अब,
जबकि मैं गद्य के बड़े समतल विस्तारों में बढ़ने जा रहा हूँ,
तुम अब भी मेरा साथ नहीं छोड़ोगी. मैं जानता हूँ कि कहानी को छंदों
में बाँधना बेमानी है. इस तरह बहुत ही अच्छी कहानी को बहुत ही बुरी कविता बनाया
जा सकता है. मगर कहानी में कविता तो खाने में नमक का काम दे सकती है. मेरे तो
समूचे जीवन के लिए ही कविता नमक के समान रही है. उसके बिना मेरा जीवन फीका और
बेजायका होता. हम पहाड़ी लोग मेज पर खाना लगाते समय नमकदानी रखना कभी नहीं भूलते.
गद्य
दूर तक उड़ सकता है, मगर कविता की उड़ान ऊँची होती
है. गद्य उस बड़े हवाई जहाज के समान है, जो बड़े इत्मीनान
से सारी दुनिया के गिर्द चक्कर लगा सकता है. कविता लड़ाकू हवाई जहाज है, जो बिजली की तरह अपनी जगह से लपकता है, आन-की-आन में
आसमान की गहराइयों में जा पहुँचता है और गद्य के बड़े हवाई जहाज को वह चाहे कितना
ही ऊँचा क्यों न उड़ रहा हो, जा पकड़ता है.
अपनी
पुस्तक में मैं विभिन्न विधाओं को मिलाना और उसे अवारिस्तान की सीमाओं से दूर
भेजना चाहता हूँ. भला क्यों न करूँ ऐसा? हमारी
कविताएँ तो एक अर्से से दागिस्तान की हदों से बहुत दूर पाठकों के दिलों पर अपनी
राहें पगडंडियाँ बना रही हैं. कुछ कहानियों को भी विदेश जाने के अनुमति-पत्र मिल
गए हैं. हाँ, हमारे नाटक अभी घर में ही बैठे हैं. शायद उनके
कागजात की जाँच हो रही है या उन्हें अभी अच्छा व्यवहार और तौर-तरीके सिखाने की
जरूरत है.
अगर
मेरे दिमाग में नाटक लिखने का विचार आ जाता, तो सारा
दागिस्तान, गाँव, शहर, सभी देश और सारी दुनिया उसके घटना-स्थल होते. पहाड़, आकाश तेज नदियाँ, सागर और धरती मंच-सज्जा होते.
बीती सदियाँ, वर्तमान और पूरा भविष्य उसका घटना-काल होता.
सहस्राब्दी को मैं क्षणों में व्यक्त करता. उसके पात्र होते - मैं खुद, मेरे पिता जी, मेरे बच्चे, मेरे
दोस्त और कभी के मर-खप गए तथा ऐसे लोग भी, जिनका अभी जन्म
ही नहीं हुआ.
यह
नाटक मेरी मुख्य रचना, मेरा 'युद्ध
और शांति', मेरा 'दोन क्विक्सॉत',
मेरा 'दैविक कामेडी' होता.
मगर मैं न केवल नाटक लिखने, बल्कि अपनी भावी पुस्तक की
दीवार में एक 'नाटकीय' पत्थर रखने का
भी जोखिम मोल नहीं लूँगा. नाटक को मैं किसी दूसरे वक्त, बल्कि
दूसरे लेखकों के लिए रहने देता हूँ. बारी-बारी से गद्य और पद्य ही लिखूँगा. कविता
- तेज घुड़सवारी है और गद्य पैदल यात्रा. पैदल ज्यादा दूर तक जाया जा सकता है.
घोड़े पर जल्दी से जाना संभव है. कभी मैं पैदल चलूँगा, तो
कभी घुड़सवारी करूँगा. जो कुछ कहानी के रूप में सुना सकता हूँ, सुनाऊँगा, जो कुछ गद्य के रूप में सुना नहीं सकूँगा,
उसे गाऊँगा. मुझमें जवानी की चंचलता है और बुढ़ापे की समझ-बूझ.
जवानी गाए और बुद्धिमत्ता गद्य में अपनी बात सुनाए.
मेरे
भीतर भिन्न लोग रहते हैं - कभी तो मैं कलफ लगे नेप्किन का उपयोग करते हुए और बाएँ
हाथ में काँटा लेकर शिष्टाचारपूर्वक खाना खाता हूँ और कभी भेड़ के मांस का
बड़ा-सा टुकड़ा दोनों हाथों में लेकर अपने गाँववालों के साथ घास पर बैठकर खाता हूँ
तथा बूजा पीता हूँ.
शहर
से जब मैं पहाड़ों को जाता हूँ, तो शहरी ढंग से बढ़िया
शराबें और फल अपने साथ लेता हूँ. भोले-भाले और मेहमाननवाज चरवाहों के यहाँ से जब
शहर लौटता हूँ, तो काठी के आर-पार लटकता हुआ भेड़ का धड़ साथ
लाता हूँ.
सागर
भी तो कभी सहलाता है, तो कभी झुँझलाता है, कभी सनकी होता है और कभी गुस्से से फुंकारता है. ठीक इसी तरह बहुत से
चरित्र मेरे अदर साँस लेते हैं.
खड्ड
के सिरे पर मैंने एक तरुण और तरुणी को आलिंगन में बँधे बैठे देखा. उन्होंने
एक-दूसरे को ऐसे बाँहों में कस रखा था, इस तरह वे
एक-दूसरे में मिलकर एक हो गए थे कि उन्हें अलग से देख पाना संभव नहीं था.
ठीक
इसी तरह मेरे अंदर सुख-दुख, आँसू और खुशी, सबलता और दुर्बलता अभिन्न रूप से एक साथ रहती हैं.
नहीं
खड़ा था घोड़ा पिछली टाँगों पर
और
दहाना बेचैनी से वह तो नहीं चबाता था,
भारी
बोझिल मन से अपना शीश झुका
उजले-उजले
दाँत दिखाकर, हँसता था, मुस्काता
था.
लगभग
छूते थे अयाल उसके धरती
वह
कुम्मैती घोड़ा मानो ज्वाला-सा जलता लगता
पहले
तो यह मैंने सोचा, गजब अरे!
मानव
की ही भाँति न जाने कैसे यह घोड़ा हँसता!
हैरत
किसे न होगी ऐसी झाँकी से
किया
फैसला,
देखूँगा मैं उसे, पास उसके जाकर,
क्या
देखा?
वह नहीं हँस रहा, रोता है
मानव
की ही भाँति दुखी मन, शीश झुका, सिर लटकाकर
लंबे-लंबे
पत्तों-सी लंबी आँखें
धुँधली-धुँधली
उनमें आँसू की दो बूँदें चमक रहीं,
जब
हँसता हूँ, मुझे ध्यान से तब देखो
छिपी
न हों मेरी पलकों में आँसू की दो बूँद कहीं.
नोटबुक
से. सिवुख गाँव के एक पहाड़ी ने पहाड़ के दामन में सफेद बादल देखे तो यह समझा कि
फूले-फूले सफेद ऊन का ढेर है और उसने नीचे छलाँग लगा दी. फूले-फूले बादल ऊन या रुई
के ढेर से चाहे कितने ही मिलते-जुलते क्यों न हों, फिर
भी वे रुई कभी नहीं बन सकेंगे.
केवल
रूप को ध्यान में रखकर लिखी गई पुस्तक रूप की दृष्टि से चाहे कितनी भी सुंदर क्यों
न हो,
फिर भी वह मानवीय आत्मा को कभी नहीं छू पाएगी.
केवल
रूप की तरफ ध्यान देना उचित नहीं. सागर तट पर सारा जीवन बिता देनेवाले एक मछुए ने
जंगल में चींटियों का ढेर देखा, तो उसे केवियर का ढेर
समझ लिया. सागर पर कभी न जानेवाले एक पहाड़ी ने जब केवियर का ढेर देखा, तो उसे चींटियों की बांबी मान बैठा.
नोटबुक
से कुछ और
वक्ष
एक ही,
शोभा देता जिस पर तमगा, गोली का भी पड़े निशान,
चेहरा
एक,
कि आँसू जिस पर झर आते हैं, खिल उठती है मृदु
मुस्कान.
होंठ
वही हैं,
कभी जहर को वे छूते हैं, कभी शहद का करते पान,
गगन
एक है,
उसमें ही तो उड़ें कबूतर औ' उकाब भी भरें
उड़ान.
बादल
काला,
पर उसमें जल ज्वाला दोनों, संग-संग रहते
गतिमान,
कील
एक ही,
साथ-साथ ही उस पर लटकें, साज और खंजर भी म्यान.
नोटबुक
से कुछ और. पहली बार प्यार करनेवाली जवान पहाड़ी लड़की ने सुबह खिड़की में से
बाहर झाँका, तो खुशी से चिल्ला उठी -
'इन वृक्षों पर कितने सुंदर फूल आ गए हैं!'
'वृक्षों पर तुम्हें फूल कहाँ नजर आ रहे हैं?' उसकी
बूढ़ी माँ ने आपत्ति की. 'यह तो बर्फ है, पतझर का अंत और जाड़े का आरंभ हो रहा है.'
सुबह
एक ही थी,
मगर एक नारी के लिए वसंत की और दूसरी के लिए जाड़े की. मेरे भीतर दो
भिन्न व्यक्ति रहते हैं जिनका मैं एक रूप हूँ. उनमें से एक जवान है और दूसरा
बूढ़ा; एक वसंत है और दूसरा जाड़ा. अगर मेरी किताब में आपको गद्य
और पद्य दोनों मिलें, तो हैरान न होइएगा.
'तो क्या तुम एक हाथ में दो तरबूज उठाने की कोशिश नहीं कर रहे हो?'
मुझसे पूछा जा सकता है.
'नहीं, मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ,' यही मेरा जवाब है.
जब
मैं विभिन्न विधाओं को एक साथ मिलाता हूँ, तो इसका यह
मतलब नहीं है कि मैं तरह-तरह के फलों को काटकर, एक साथ
मिलाकर उनका सलाद बनाना चाहता हूँ. मगर मैं तो उन्हें एक समझदार माली की तरह
मिलाकर, उनका संकरण करके एक नई किस्म तैयार करना चाहता हूँ.
मालूम
नहीं कि इसका कैसा फल सामने आएगा. मगर हर काम में ऐसा ही होता है. आग जलाते वक्त
हम उसके सारे परिणामों की कल्पना नहीं कर सकते. मगर इसका यह मतलब नहीं है कि हर
बार आग जलाते वक्त डरा जाए. तो लीजिए, मैं
दियासलाई जलाता हूँ, उसे सूखी टहनी के पास ले जाता हूँ और
हाथ की ओट करके उसे हवा से बचाता हूँ. आग जलने लगती है. मुझे इस बात का डर नहीं है
कि फिलहाल जो आग इतनी दुर्बल और सहमी-सहमी सी है, वह अचानक
काबू में न आनेवाले दरिंदे का रूप ले लेगी. मैं इसके बारे में नहीं सोचता हूँ बस,
आग जला रहा हूँ.
शामिल
ने अपनी तलवार पर एक अपनी ही कहावत खुदवा रखी थी - 'युद्ध-क्षेत्र
की ओर अपना घोड़ा बढ़ाते हुए जो आदमी परिणामों की चिंता करता है, वह वीर नहीं.'
कहते
हैं कि चतुर हाथों में साँप का जहर भी फायदेमंद हो सकता है और मूर्ख के हाथों में
शहद भी नुकसान पहुँचा सकता है.
कहते
हैं कि अगर तुम कहानी सुना नहीं सकते, तो गाओ;
अगर गा नहीं सकते, तो कुछ सुनाओ.
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