शैली
कैसा है गायक,
उसकी आवाज बताए
कैसा है सुनार, उसका हुनर जताए
कूबाची की कला-वस्तु पर आलेख
'तुम मुझ पर चिल्ला क्यों रहे हो?'
'मैं चिल्ला नहीं रहा
हूँ, मेरा बातचीत करने का ढंग ही ऐसा है.'
पति-पत्नी की
बातचीत से
'तुम्हारी कविताएँ
कविताओं जैसी नहीं लगतीं.'
'मेरा लिखने का ढंग ही
ऐसा है.'
कवि और उसके पाठक की बातचीत से
हम
लड़कों को चौपाल में, जहाँ गाँव के वयस्कों की
मजलिस जमती थी, जाने की इजाजत नहीं होती थी. बड़े-से पत्थर
पर बैठकर हम कभी-कभी उन्हें दूर से ही देखा करते थे.
एक
दिन हमने आनदी गाँव से आए एक मेहमान को लगातार एक घंटे तक बोलते और सभी लोगों को
उसे चुपचाप सुनते देखा. हमने आपस में यह तय किया कि आनदी का रहनेवाला जरूर कोई
बहुत महत्वपूर्ण समाचार लाया है. इसीलिए तो सभी इतनी देर तक और इतने ध्यान से
उसकी बातें सुन रहे हैं.
घर
पर मैंने पिता जी से पूछा, 'आनदी के मेहमान ने आज क्या
कुछ बताया आप लोगों को?'
'अरे, जो कुछ उसने आज बताया, हम
त्सादावासी बीस बार वह सभी कुछ पहले भी सुन चुके हैं. मगर वह सुनाता ऐसे ढंग से
है कि न चाहते हुए भी उसे सुनना ही पड़ता है. शाबाश है इस आनदीवासी को, अल्लाह उसकी उम्र दराज करे.'
ढंग
के बारे में कुछ और. हर दरिंदा अपने ढंग से चालाक होता है, शिकारी से बच निकलने का उसका अपना ढंग होता है. हर शिकारी का दरिंदे को
फाँसने, उसका शिकार करने का अपना ढंग होता है. ठीक इसी तरह
हर लेखक का अपना ढंग, लिखने का अपना तरीका, अपना मिजाज और अपनी शैली होती है.
युवा
कवि के रूप में जब मैं मास्को के साहित्य-संस्थान में पढ़ने गया, तो मैंने अपने को नए और अपरिचित वातावरण में पाया. सभी कुछ मुझे शिक्षा
देता था - खुद मास्को, सेमिनार, सेमिनारों
में आनेवाले प्रमुख कवि, प्रोफेसरगण, मेरे
सहपाठी और होस्टल के साथी. सभी ओर से मुझ पर शिक्षा की बौछार होती थी और इसलिए
कुछ समय को मैं जैसे कि भूल-भुलैया में फँस गया, भटक गया और
एक नए, एक अजीब ढंग से, जिसका अवार
साहित्य में अभी तक अस्तित्व नहीं था, लिखने लगा.
मैं
यह नहीं छिपाऊँगा कि उन दिनों मैं अपनी कविताओं को रूसी में अनूदित देखने को बहुत
लालायित था. मैं रूसी पाठक की ओर लपक रहा था और मुझे लगा कि मेरा नया ढंग रूसी
पाठक के अधिक निकट होगा, वह आसानी से उसकी समझ में आ
जाएगा. मैंने अपनी अवार मातृभाषा के संगीत, कविता की लय-ताल
की ओर बिल्कुल ध्यान देना छोड़ दिया. कविता के रूप, अलंकारहीन
भाव ने प्रमुख स्थान ले लिया. मैं यह सोचता था कि उचित ढंग का विकास कर रहा हूँ,
मगर वास्तव में - अब यह बात समझता हूँ - चालाक बन रहा था.
खुशकिस्मती
से मैं जल्दी ही यह समझ गया कि कविता और चालाकी ऐसी दो तलवारें हैं, जो एक म्यान में नहीं समा सकतीं. मगर मेरे बुद्धिमान पिता मुझे और भी
पहले समझ गए थे. मेरी नई कविताएँ पढ़कर उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि भेड़ की
मोटी दुम के लिए मैं खुद भेड़ को गँवाना चाहता हूँ, कि मैं
उस बंजर पथरीली जमीन को जोतना और बोना चाहता हूँ, जिसे लाख
सींचने पर भी उसमें कुछ पैदा नहीं होगा, कि मैं आकाश के बिना
बारिश चाहता हूँ.
पिता
जी फौरन यह सब कुछ समझ गए, मगर वे बहुत ही सावधान और
नीतिकुशल व्यक्ति थे. एक दिन बातचीत के दौरान बोले -
'रसूल, मुझे इस बात से चिंता हो रही है कि तुम्हारा
लिखने का ढंग बदलने लगा है.'
'पिता जी, मैं अब बालिग हूँ और लिखने के ढंग की तरफ
सिर्फ स्कूल में ही ध्यान दिया जाता है. बालिग से सिर्फ यही नहीं पूछा जाता कि
उसने कैसे लिखा है, बल्कि यह कि क्या लिखा है.'
'मिलीशियामैन या ग्राम-सोवियत के प्रमाण-पत्र देनेवाले सेक्रेटरी के बारे
में तो शायद ऐसा ही सही है. मगर कवि के लिए उसका ढंग, उसकी
शैली - लगभग आधा काम है. कविता में चाहे कितना भी मौलिक विचार क्यों न व्यक्त
किया जाए, उसे सुंदर अवश्य होना चाहिए. सुंदर ही नहीं,
अपने ढंग से सुंदर होना चाहिए. कवि के लिए अपनी शैली खोज पाना,
अपने को खोज लेना ही कवि बनना है.
'तुम बहुत जल्दी कर रहे हो, मगर तेज और उछल-कूद
करनेवाला सोता कभी सागर तक नहीं पहुँच पाता. अधिक शांत और इतमीनान से बहनेवाली
दूसरी धारा उसे निगल जाती है.
'अधिक घोंसले बदलने और यह न जाननेवाला परिंदा कि कौन-सा घोंसला चुने,
आखिर घोंसले के बिना ही रह जाता है. क्या अपना घोंसला बना लेना
अधिक आसान नहीं, तब चुनने का सवाल ही नहीं रहेगा.'
अब, जबकि मैं चालीस के पार पहुँच चुका हूँ, अपनी चालीस
किताबों के पृष्ठ उलटता हूँ, तो यह पाता हूँ कि मेरे खेत
में, जहाँ मैंने गेहूँ बोया था, पराये
खेतों के ऐसे पौधे भी उग आए हैं, जिन्हें मैंने नहीं बोया
था, बेशक ये झाड़-झंखाड़ नहीं, बल्कि
अच्छे-जौ, जई और रई-के पौधे हैं, मगर
फिर भी मेरे गेहूँ के खेत में ये पराये हैं.
अपने
रेवड़ में मुझे दूसरों की भेड़ें नजर आ रही हैं. वे कभी भी ऊँचाई और पहाड़ी हवा की
आदी नहीं हो पाएँगी.
खुद
अपने में मैं कभी-कभी दूसरे लोगों को अनुभव करता हूँ. मगर इस किताब में मैं अपना
रूप ही रहना चाहता हूँ. अच्छा हूँ या बुरा - जैसा हूँ, उसी रूप में मुझे ग्रहण कीजिए.
पहाड़ों
में जब कोई पहाड़ी आदमी शादी में शामिल होने आता है, तो
अपने से पहले वहाँ जमा हुए लोगों से वह यह पूछता है -
'तुम खुद ही यहाँ काफी हो या मैं भी आ जाऊँ?'
शादी
में शामिल पहाड़ी यह जवाब देते हैं -
'अगर तुम वास्तव में ही तुम हो, तो अंदर आ जाओ.'
तो
यह है वह मेरी किताब, जिससे मुझे यह साबित करना है
कि मैं-मैं हूँ. मैं लेखक होना चाहता हूँ - लेखक की भूमिका नहीं निभाना चाहता.
देखिए तो, अभिनेता रंगमंच पर कैसे ब्रांडी पीता है. लीजिए,
वह नशे में धुत्त हो गया, जबान से ठीक-ठीक
शब्द नहीं निकलते, सिर छाती पर झुक गया. मगर जिस बोतल से वह
पी रहा है, उसमें ब्रांडी नहीं, चाय है.
चाय से नशा नहीं होता. मेरे ख्याल में मेरी इस बात से वे तो सहमत होंगे, जिन्होंने कभी ब्रांडी नहीं पी.
ऐसा
प्रतीत होता है कि अगर किसी नाटक में कवि की भूमिका होती है, तो नाटककार के लिए इस कवि की कविताएँ रचना ही सबसे ज्यादा मुश्किल काम
होता है. इसलिए नाटक में यदि कोई कवि होता है, तो वह अपनी
कविताएँ नहीं सुनाता. मगर कविता के बिना भला कवि क्या होगा? दुकान की शो विंडो की रौनक बढ़ानेवाले गत्ते के मॉडल से वह कैसे भिन्न
है? मुझे किसी के जैसा - उमर खयाम, पुश्किन
या बायरन के जैसा भी नहीं होना चाहिए.
कुछ
भैंसचोर किसी की भैंस चुराने पर उसके सींग उखाड़ देते हैं या दुम काट डालते हैं.
कार चुरानेवाले चोर उस पर दूसरा रंग कर देते हैं. मगर सारी चालाकी के बावजूद चोरी
तो चोरी रहती है.
पाठकों
की बातचीत में मुझे यह सुनकर सबसे ज्यादा खुशी होती कि रसूल ने रसूल के ही ढंग
में किताब लिखी है.
चहकनेवाले
परिंदों के मुकाबले में मुझे गानेवाले परिंदे ज्यादा पसंद हैं. कूड़े-करकट में से
कुछ चुगनेवाले पक्षी की तुलना में उड़ता हुआ पक्षी मुझे अधिक अच्छा लगता है. तंग
बंदरगाह में खड़े जहाज के मुकाबले में नीले सागर की लहरों पर तैरता हुआ जहाज मुझे
कहीं अधिक अच्छा लगता है.
हल्की-फुल्की
नावों को देखिए. वे सभी तरह की लहरों पर कैसे उछलती हैं. बड़े और भारी जहाजों को
देखिए! वे तो तूफान के वक्त भी हिचकोले नहीं खाते.
शराब
की एक बूँद पिए बिना ही मूर्ख शोर मचाते और लड़ाई-झगड़ा करते हैं. बुद्धिमान बड़ा
जाम पीने के बाद भी धीरे-धीरे, शांतिपूर्वक और संजीदगी
से बात करते हैं.
रसूल
की किताब,
तुम लोगों के सामने अपने को ऐसे पेश करो, जैसे
कि रसूल की किताब को शोभा देता है.
किसी
पहाड़ी के घर में अगर कोई अपरिचित मेहमान आ जाता है, तो
तीन दिन से पहले उससे उसका नाम और यह नहीं पूछा जाता कि वह कहाँ से आया है.
मेरी
पुस्तक को भी आप इसी तरह स्वीकारें. यह नहीं पूछें कि वह कौन है, कहाँ से आई है, किसने लिखी है. उसे खुद ही अपना
परिचय देने दें.
मैं
जैसा हूँ,
उससे अच्छा या बुरा नहीं होना चाहता. बीस साल की उम्र में अगर ताकत
नहीं है - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगी. तीस साल की
उम्र में अगर अक्ल नहीं है - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं
आएगी. चालीस साल की उम्र में अगर धन नहीं - तो इंतजार नहीं करो, वह नहीं आएगा. ऐसी है एक रूसी कहावत. हमारे पहाड़ों में कहा जाता है - अगर
चालीस साल में आदमी उकाब नहीं बना - तो वह कभी नहीं उड़ पाएगा. मेरी घोड़ागाड़ी को
मेरे ही रास्ते पर चलने दो.
जब
बारिश होती है, तो हमारे गाँव के ऊपर खड़े पहाड़ से
बहुत-सी छोटी-छोटी धाराएँ नीचे बहकर आती हैं. नीचे वे सभी घुल-मिलकर वक्ती बरसाती
झील बन जाती हैं. फिर इस झील से सिर्फ एक ही बड़ी नदी बहती है.
हमारे
इर्द-गिर्द के पहाड़ों से बहुत-सी तंग पगडंडियाँ हमारे गाँव की ओर आती हैं. धाराओं
की तरह वे सभी हमारे गाँव में आकर मिल जाती हैं. लेकिन अगर गाँव से हलका, नगर या बड़ी दुनिया में जाना हो, तो उसके लिए केवल
एक ही चौड़ी सड़क है.
मैं
नहीं जानता कि सड़क या नदी-किससे अपनी तुलना करूँ. मगर मैं इतना जानता हूँ कि मेरे
बहुत-से हमवतनों के विचार, मेरे बहुत-से हमवतनों के शब्द
और भावनाएँ पहाड़ी धाराओं या टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों की तरह मुझमें आकर घुल-मिल गई
हैं. मेरी अपनी पगडंडी, मेरी राह मुझे गाँव से कविता-क्षेत्र
में ले गई है.
मैं
दुनिया के बहुत-से हिस्सों में हो आया हूँ. बहुत-से देशों की यात्रा कर चुका हूँ
और तरह-तरह के लोगों से मिला हूँ बड़ी-बड़ी शानदार दावतों और स्वागत-समारोहों में
जाने का मुझे मौका मिला है. ये स्वागत-समारोह राष्ट्रपतियों और बादशाहों के भी
थे,
प्रधानमंत्रियों और साधारण मंत्रियों तथा राजदूतों के भी. इन
समारोहों में जूते और चाँदें कैसे चमकती हैं, कैसे बढ़िया ढंग
से टाइयाँ बँधी होती हैं, कैसे बर्फ से सफेद कफ होते हैं,
कैसे शिष्टतापूर्वक सिर झुकाए जाते हैं और मुस्कानें बिखराई जाती
हैं, हर शब्द और हाव-भाव कितना सधा-बधा होता है! ऐसे
समारोहों में कलाकार प्रधानमंत्रियों जैसे लगते हैं और प्रधानमंत्री कलाकारों जैसे.
ऐसे
समारोहों में मैं कभी भी खुद को अपने रूप में अनुभव नहीं करता. मैं ऐसे हाव-भाव
प्रकट करता हूँ, जो करना नहीं चाहता, ऐसे शब्द कहता हूँ, जिन्हें कहने को मन नहीं होता.
इन समारोहों की चमक-दमक में से अचानक मुझे त्सादा के अपने चूल्हे और उसके गिर्द
बैठे हुए अपने परिजनों की या किसी होटल के कमरे में जमा खुशमिजाज दोस्तों की झलक
मिलती है. उस वक्त उन बहुत-से पकवानों की जगह लहसुनवाले खीनकाल खाने की तीव्र इच्छा
होती है! अहा, आस्तीनें चढ़ाकर अपने घर के चूल्हे के गिर्द
दोस्तों के बीच बैठकर लहसुनवाले खीनकाल इस तरह हड़पने में कितना मजा है कि बाँहें
घी से तर हो जाएँ!
कुछ
किताबें पढ़ते हुए मुझे ऐसे लगता है, मानो वे
कूटनीतिक समारोह में उपस्थित हों. उनमें हाव-भाव, गतिविधि और
भाषण की स्वतंत्रता नहीं होती.
मेरी
किताब,
तुम कूटनीतिक समारोह में मेहमान नहीं बनना. तुम केवल वही शब्द कहना,
जो तुम्हारे वास्तविक चरित्र के अनुरूप हैं, ऐसे शब्द नहीं, जो केवल शिष्टतावश कहने होते हैं.
मैंने
ऐसे लोग देखे हैं, जो जब तक अपने घर, अपने परिवार, अपने बीवी-बच्चों और दोस्तों में
होते हैं, लोग रहते हैं. मगर जैसे ही अपने दफ्तर की कुर्सी
पर जा बैठते हैं, रूखे, भावनाहीन और
क्रूर हो जाते हैं. उनका तो जैसे कायापलट हो जाता है. हर नए पद, हर नई कुर्सी के साथ उनका चरित्र, व्यवहार और चेहरा
बदलता जाता है.
मेरी
पुस्तक,
तुम स्थिर रहना, अपना चरित्र नहीं बदलना,
वैसे ही जैसे मैं अपना चरित्र नहीं बदलता हूँ. स्वागत-समारोहों को
नहीं, दोस्तों और अपने चूल्हे के धुएँ को प्यार करना,
कंसर्टों को नहीं खेतों को प्यार करना, धरती
की आवाज सुनना, सभाओं का शोर नहीं. ऐसा भी तो होता है कि
सभाओं में एक बात कही जाती है और सभाओं के बाद बिल्कुल दूसरी ही.
नोटबुक
से. कौन ऐसा दागिस्तानी होगा, जो सुलेमान स्ताल्स्की
की बड़ी फर की टोपी, भेड़ की सुगंधित खाल के भारी कोट और कॉफ
चमड़े के हल्के-फुल्के जूतों से परिचित न रहा हो! मेरे ख्याल में तो केवल
दागिस्तानी ही नहीं, दूसरे लोग भी ऐसी टोपी और ऐसे जूतों के
बिना सुलेमान की कल्पना नहीं कर सकते थे.
तो
सुलेमान स्ताल्स्की को पुरस्कृत किया गया और मक्सिम गोर्की ने उन्हें 20वीं शताब्दी का होमर कहा. सुलेमान को मास्को आमंत्रित किया गया. मास्को
में एक दागिस्तानी मंत्री उनसे मिले.
'अरे, प्यारे सुलेमान,' मंत्री
ने कवि से कहा, 'मास्को में तो गाँव का-सा रंग-ढंग अच्छा
नहीं लगता. आपको अपना यह भेस बदलना होगा.'
दागिस्तानी
सरकार के आदेशानुसार सुलेमान के लिए ऊनी सूट सिलवाया गया, उनके लिए नए जूते, कनटोपा और कराकूल की फर के
कालरवाला ओवरकोट भी खरीदा गया. सुलेमान ने हर चीज को बहुत ध्यान से देखा. ओवरकोट
को हाथ पर लटकाकर आँका, जूतों के तले आपस में बजाए और बाद
में सभी चीजों को जैसे-तैसे लपेटकर सूटकेस में रख दिया.
'शुक्रिया. अच्छी, नई चीजें हैं. मेरे बेटे मुसलिम
के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी. मैं तो सुलेमान ही रहना चाहता हूँ. न तो सूट और न बूट
के लिए अपना नाम बदलना चाहता हूँ. मेरे अपने जूते मुझसे नाराज हो जाएँगे.'
अपने
बाहरी रूप की इस मौलिकता के प्रति भी सुलेमान का यह लगाव मेरे पिता जी को बहुत
पसंद आया.
नोटबुक
से. सुलेमान के बेटों ने उन्हें कई बार लिखना-पढ़ना सिखाने की कोशिश की. सुलेमान
ने हर बार बड़ी लगन से यह काम शुरू किया, मगर बाद में
कागज रखकर यह कहा -
'नहीं, बच्चो. जैसे ही मैं पेंसिल हाथ में लेता हूँ,
कविता फौरन मुझसे दूर भाग जाती है. कारण कि मैं कविता के बारे में
नहीं, बल्कि यह सोचने लगता हूँ कि इस कंबख्त पेंसिल को कैसे
हाथ में थामना चाहिए.'
नोटबुक
से. आफंदी कापीयेव सुलेमान के दोस्त थे. उन्होंने रूसी भाषा में सुलेमान की
कविताओं का अनुवाद किया. तुच्छ और घटिया लोगों को इस दोस्ती से ईर्ष्या होती थी.
उन्होंने कापीयेव को विख्यात कवि की नजरों में गिराना चाहा और बदनाम भी किया.
उन्होंने सुलेमान से कहा -
'तुम तो रूसी पढ़ नहीं सकते, मगर हम जानते हैं कि
आफंदी कापीयेव अनुवाद करते हुए तुम्हारी कविताओं को बिगाड़ देता है. जहाँ चाहता
है, उन्हें बढ़ा देता है, जहाँ चाहता
है, घटा देता है और बहुत-सी पंक्तियों को अपने ही ढंग से बदल
डालता है.'
एक
दिन साधारण बातचीत के दौरान सुलेमान ने यह चर्चा चलाई -
'दोस्त,' वे बोले, 'मैंने सुना
है कि तुम मेरे बच्चों को पीटते हो?'
आफंदी
फौरन समझ गए कि किस बात की तरफ इशारा किया जा रहा है.
'तुम्हारी कविताएँ तुम्हारे बच्चे नहीं हैं, सुलेमान.
वे तो तुम खुद सुलेमान स्ताल्स्की हो.'
'तब मैं बूढ़ा तो बच्चों से भी ज्यादा इज्जत का हकदार हूँ.'
'मगर सुलेमान, तुम्हारे लिए क्या ज्यादा महत्वपूर्ण
है कविता की पंक्तियाँ या उनकी शैली और आत्मा? तुम्हारे
सामने शराब की बोतल रखी है. अगर यह शराब खराब हो जाए, तो
इसकी मात्रा तो कम नहीं हो जाएगी, मगर यह वह शराब नहीं रहेगी,
जिसे हम पीते हैं और मजा लेते हैं. सवाल शराब की मात्रा का नहीं,
उसकी खुशबू, जायके और नशा देने की शक्ति का है.'
'तुम ठीक कहते हो, यही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.'
वास्तव
में ऐसा ही हुआ कि आफंदी कापीयेव ने ही सुलेमान को रूसी पाठकों तक पहुँचाया.
नोटबुक
से.
'तुम्हारे पिता की कविताओं की मुझे किसी तरह भी चाबी नहीं मिलती,' आफंदी ने मुझसे शिकायत की. हमजात त्सादासा की कविताओं का भी उन्होंने
रूसी में अनुवाद किया था. 'तुम्हारे पिता का अपना ही ताला
है. ऐसा लगता है कि वे हँस रहे हैं, मगर वास्तव में उदास
होते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रशंसा कर रहे हैं, मगर
वास्तव में व्यंग्य, यहाँ तक कि मजाक करते होते हैं. ऐसा
लगता है कि कोस रहे हैं, मगर वास्तव में प्रशंसा करते होते
हैं. यह सब कुछ मैं समझता हूँ, मगर रूसी भाषा में व्यक्त
नहीं कर पाता. मैं उनकी कविता की शैली, उनका भाव तो व्यक्त
कर सकता हूँ, मगर मुझे तो खुद हमजात चाहिए, वैसे ही जीते-जागते जैसा कि हम उन्हें जानते हैं. रूसी भाषा के पाठकों को
उन्हें इसी रूप में जानना चाहिए. वे मानो सभी लोगों जैसे हैं, फिर भी बाकी सब से अलग हैं.'
कवि
की कविताएँ भी ऐसी ही होनी चाहिए.
संस्मरण
से. अब मेरे गाँववाले मुझे कवि रसूल हमजातोव के रूप में जानते हैं. मगर कभी ऐसा भी
वक्त था,
जब सभी मुझे भुलक्कड़ और गड़बड-झाला व्यक्ति मानते थे. मैं किसी
काम में उलझा होता और उसी वक्त किसी दूसरी चीज के बारे में भी सोचता रहता. नतीजा
यह होता कि कमीज उल्टी पहन लेता, ओवरकोट के बटन गलत ढंग से
लगा लेता और ऐसे ही बाहर चला जाता. बूटों के फीते न बाँधता और अगर बाँधता, तो ऐसे कि वे फौरन खुल जाते. उस वक्त मेरे बारे में कहा जाता था -
'यह कैसे हुआ कि ऐसे सलीकेदार, ऐसे ढंगवाले और शांत
पिता के घर में ऐसे ऊधमी और बेढंगे बेटे ने जन्म लिया है? इन
दोनों में से कौन बूढ़ा और कौन जवान है - वह जो फीते बाँधना भूल जाता है या वह जो
कभी कुछ नहीं भूलता?'
'हाँ,' मैं ऐसी फुजूल बात के जवाब में कहता, 'मैंने पिता जी का बुढ़ापा ले लिया है और उन्हें अपनी जवानी दे दी है.'
हाँ, मेरे पिता जी आखिरी दम तक जवान आदमी की तरह सलीकेदार और चुस्त बने रहे.
बाहरी और भीतरी तौर पर वे सदा सधे-बधे, अनुशासित और नपे-तुले
रहे. गाँव के सभी लोग यह जानते थे कि मेरे पिता भेड़ का कोट पहनकर किस वक्त अपने
घर की छत पर आते हैं. पिता जी के छत पर आने के समय के अनुसार वे अपनी घड़ियाँ ठीक
कर सकते थे. हमारे गाँव के एक नौजवान ने सेना से अपने माँ-बाप के नाम खत में यह
लिखा - 'हम तड़के ही उठते हैं. हमें ठीक उसी वक्त जगाया
जाता है, जब हमजात अपनी छत पर आते हैं.'
अगर
कोई सुबह के वक्त हमजात से मिलना चाहता, तो उसे यह
मालूम होता था कि कितने बजकर कितने मिनट पर खूंजह की ओर जानेवाले रास्ते पर
पहुँचना चाहिए. हमजात हमेशा एक ही वक्त पर घर से काम के लिए रवाना होते थे.
लोग
उनके बारे में सभी कुछ जानते थे. उन्हें मालूम था कि किस जगह तक वे घोड़े की लगाम
थामकर चलते हैं और कहाँ घोड़े पर सवार होते हैं. उनकी मामूली काली कमीज, बिरजिस और घुटनों तक के उनके उन जूतों से भी वे परिचित थे, जिन्हें उन्होंने खुद बनाया था और हर सुबह अपने हाथ से साफ करते थे.
उनकी पेटी; एक बार भी उस्तरे से न साफ किए गए और ढंग से
हजामत बने सिर, उनकी फर टोपी से भी वाकिफ थे, जिसे वे सही अंदाज से सिर पर रखते थे. टोपी की कराकुल फर न तो बहुत
घुँघराली थी और न ही बहुत झबरीली.
पिताजी
का अपना एक स्वरूप था और जो कुछ वे पहनते तथा करते, इस
स्वरूप के बहुत अनुरूप था. हमजात की पोशाक और गतिविधि में किसी दूसरी चीज की कल्पना
करना ही असंभव था.
खुद
उन्हें भी किसी तरह के परिवर्तन पसंद नहीं थे. जब उनका कोई कपड़ा फट जाता और नया
खरीदना होता, तो वे बिल्कुल वैसा ही खोजते. नई पोशाक
बेशक बिल्कुल उसी माप और उसी डिजाइन की होती, फिर भी पिता
जी पहले कुछ दिनों में अपने को अजीब-अजीब और अटपटा-सा महसूस करते रहते.
एक
बार उनकी पेटी घिसकर टूट गई. नई पेटी खरीद लेना मामूली बात थी. मगर हमजात ने उसी
पेटी को,
जिसके वे अभ्यस्त थे, बड़े यत्न से सी लिया
और कुछ समय तक उसे ही इस्तेमाल करते रहे. वे कंजूस नहीं थे, पैसों की भी उन्हें कुछ कमी नहीं थी, मगर जिस चीज
के वे आदी हो गए थे, उससे अलग होते हुए उन्हें दुख होता था.
आखिर वह पेटी फिर से टूट गई और पिता जी को नई पेटी खरीदनी ही पड़ी. तब भी उन्होंने
नई पेटी के साथ पुराना बकलस सी लिया.
अपनी
फर टोपी को वे जिंदा मेमने की तरह सहलाते. अगर उन्हें अपनी वह पेटी ही, जिसके वे अभ्यस्त थे, इतनी प्यारी थी, तो सोचिए कि फर टोपी कितनी प्यारी होगी.
1941 की गर्मी में जब देशभक्तिपूर्ण युद्ध शुरू हुआ, तो
दागिस्तान की सरकार ने पिता जी से यह अनुरोध किया कि वे पहाड़ों के बजाय मखचकला
में आ बसें. ऊँचे, ठंडे पहाड़ों के बाद शहर में उन्हें घुटन
और गर्मी महसूस हुई. ऊँचे, पहाड़ी इलाकों के लिए उपयुक्त
पोशाक उन्हें गर्म शहरी हवा में भारी महसूस होने लगी. फर की टोपी तो खास तौर पर
जलवायु के अनुकूल न प्रतीत हुई. पिता जी ने कई टोप और हल्की टोपियाँ पहनकर देखीं,
मगर वे हमजात के व्यक्तित्व को एकदम इतना बदल देती थीं कि हम बच्चों
के बहुत मनाने के बावजूद वे उन्हें उतारकर एक तरफ फेंक देते थे.
तो
हमजात उस फर की टोपी को हाथ में लिए हुए ही मखचकला में घूमते रहते. कभी वे उसे
उतार लेते, कभी पहन लेते, मगर
एक मिनट को भी उसे अपने से अलग न करते.
लोग
जंग जैसी मुसीबत के भी आदी हो जाते हैं और जिंदगी अपनी, बेशक एक नई, युद्धकालीन लय की अभ्यस्त हो जाती है.
पिता जी फिर से जब-तब पहाड़ों पर जाने लगे. कैसे चैन की साँस लेते थे वे वहाँ,
कितनी खुशी से वे अपनी फर की टोपी पहनते थे, जिसे
उन्होंने कभी अपने से अलग नहीं किया था. उन दिनों वे उस आदमी की तरह होते,
जिसके पास या तो बहुत समय तक पीने को सिगरेट न रही हो या जिसे इसकी
कड़ी मनाही कर दी गई हो और फिर अचानक उसे इतमीनान से तेज देसी तंबाकू की सिगरेट
लपेटने, चैन और बड़े मजे से सिगरेट पीने और लंबे कश खींचने
की संभावना मिल गई हो.
मेरे
पिता जी ने कभी तंबाकूनोशी नहीं की थी, मगर वे
दूसरी छोटी-मोटी चीजों से, सृजन और अपनी धरती के प्रति प्यार
का तो खैर जिक्र ही क्या किया जाए, और भी अधिक खुशी हासिल
करते थे.
पिता
जी की नोटबुक से. 'रजब बेशक मेरा दोस्त है,
मगर उसने मेरे साथ दुश्मन से भी बुरा बर्ताव किया. उसने मेरे खिलाफ
उस्तरे को अपना सहयोगी बनाया,' मेरे पिता जी ने अपनी नोटबुक
में एक बार यह लिखा था. किस्सा यों हुआ था. 1934 में पिता
जी प्रथम लेखक-सम्मेलन में भाग लेने के लिए मास्को गए. अवार लेखक रजब
दीनमागामायेव तब जिंदा थे. वे मेरे पिता जी को नाई की दुकान पर खींच ले गए ताकि
उनके सिर और दाढ़ी के बाल कुछ छँटवा दिए जाएँ. रजब ने जान-बूझकर ऐसा करवाया या नाई
यह नहीं समझा कि उससे क्या करने को कहा गया है, मगर उसने
पिता जी की एक बार भी साफ न की गई दाढ़ी को बिल्कुल मूँड़ डाला. पिता जी का बाद
में ही इसकी तरफ ध्यान गया. दर्पण में एकदम पराया, अजनबी
चेहरा देखकर वे चिल्ला उठे, उन्होंने हाथों से मुँह ढाँप
लिया और नाई की दुकान से बाहर भाग गए. इसके बाद वे सम्मेलन की बैठकों में नहीं गए,
लोगों को अपनी सूरत दिखाने की उन्हें हिम्मत नहीं हुई.
'मैं तो जीवन में अपना चेहरा नहीं बदल पाया,' पिता जी
ने बाद में कहा, 'कविता में अपना चेहरा कैसे बदल सकता हूँ?'
पिता
जी को जीवन में और उसी तरह कविता में भी बनावट पसंद नहीं थी. हाँ, एक बार वे पराई और बनावटी मुद्रा के लगभग आदी हो गए थे.
संस्मरण
से. एक बार कुछ गाँववासी मखचकला में पिता जी के पास मेहमान आए. उन्होंने देखा कि
उनसे बातचीत करते हुए पिता जी किसी अस्वाभाविक, अनभ्यस्त
मुद्रा में बैठते हैं यानी अपनी ठोड़ी को तीन उँगलियों पर टिकाए रहते हैं. एक
पहाड़ी ने कहा -
'पहले तो हमने कभी तुम्हें तीन उँगलियों पर ठोड़ी टिकाकर बैठे नहीं देखा
था. कब से तुम ऐसा करने लगे हो? और किसलिए? ऐसा करना तुम्हें जरा भी नहीं जँचता. यह तुम्हारी आदत नहीं है, हमजात.'
'हाँ, मुझे इसे छोड़ना ही चाहिए,' हमजात ने जवाब दिया. 'यह चित्रकार मुहिद्दीन जमाल का
कुसूर है. उसने तीन महीने तक मेरा चित्र बनाने के लिए मुझे अपने सामने बैठाए रखा.
तीन महीने तक मैं तीन उँगलियों पर ठोड़ी टिकाए उसके सामने बुत बना बैठा रहा.
चित्रकार ने ऐसा ही चाहा और मुझे उसका हुक्म मानना पड़ा.'
'बहुत परेशानी हुई होगी तुम्हें?'
'बैठने से तो नहीं, मगर यह मुद्रा बनाए रखने से.
कभी-कभी मुझे ऐसा लगता था कि ठोड़ी को सहारा देनेवाली तीन उँगलियाँ मेरी अपनी नहीं
हैं. फिर कभी मुझे ऐसा महसूस होता कि मेरी तीन उँगलियाँ किसी दूसरे की ठोड़ी को
सहारा दे रही हैं. तीन महीनों तक मैं लगातार हर दिन ऐसे ही बैठा रहा और आखिर इसका
आदी हो गया. चित्रकार के सामने बैठने का सिलसिला खत्म हो चुका, तस्वीर बन चुकी और दीवार पर लटकी हुई है, मगर मैं,
जैसा कि तुम देख रहे हो, अभी तक अपनी ठोड़ी को
तीन उँगलियों पर टिकाए रहता हूँ. जानते हो न कि दिल का रोगी दिल में दर्द न होने
पर भी छाती के बाईं ओर अपना हाथ रखे रहता है. खैर, कोई बात
नहीं, मैं इस आदत से छुटकारा पा लूँगा.'
पिता
जी की नोटबुक में इस बात का भी जिक्र मिलता है कि कैसे उन्होंने नए दाँत लगवाए.
दाँतों
के डाक्टर ने उनसे पूछा कि वे कौन-से-सोने, चाँदी या
इस्पात के दाँत लगवाना पसंद करेंगे. हमजात को कोई जवाब नहीं सूझा और उन्होंने
वहाँ उपस्थित दोस्तों की तरफ सलाह और मदद के लिए देखा.
'सोने के लगवा लो,' एक दोस्त ने कहा, 'सोना बहुत अच्छी धातु है.'
'इस्पात के लगाव लो,' दूसरे दोस्त ने सलाह दी,
'इस्पात ज्यादा मजबूत होता है और ऐसे दाँत कभी नहीं टूटेंगे.'
'मगर इसका नतीजा क्या होगा,' हमजात ने आपत्ति की,
'अगर मैं सोने या इस्पात के दाँत लगवाकर गाँव लौटूँगा, तो लोग मुझे ऐसे देखेंगे मानो मेरे मुँह में बत्तियाँ जल रही हों. लोग
मुझे नहीं, मेरे दाँतों पर ही नजर टिकाए रहेंगे. दाँत मेरे
चेहरे पर हावी हो जाएँगे. क्या हड्डी के, ऐसे ही दाँत लगाना
संभव नहीं ताकि किसी को यह पता न चले कि मैंने नए दाँत लगवाए हैं. मैं ऐसे दाँत
लगवाने को तैयार हूँ, जिनसे यह न पता चले कि वे नए हैं.'
दाँतों
के डाक्टर ने ऐसा ही किया और दाँत लगा दिए, जो उनके
पहले, कुदरती दाँतों जैसे थे.
इसके
बाद जब कभी उन्हें किसी कवि की कविता में पराई या कहीं से ली गई पंक्तियों की झलक
मिलती,
तो वे कहते -
'इसकी कविता में मुझे नकली दाँत चमकते दिखाई दे रहे हैं.'
सोने
के दाँतों से भी सेब खाया जा सकता है, मगर मेरा ख्याल
है कि वह इतना रसीला और जायकेदार नहीं लगेगा जितना अपने दाँतों से खाने पर.
संस्मरण.
1947 में मखचकला के थिएटर में एक बड़ा समारोह हुआ : कवि हमजात त्सादासा की
सत्तरवीं जयंती मनाई जा रही थी. बहुत-से भाषण हुए, बहुत-सी
बधाइयाँ दी गई, बहुत-सी कविताएँ पढ़ी गई और ढेरों उपहार भेंट
किए गए. जिसकी जयंती मनाई जा रही थी, आखिर उसे यानी मेरे
पिता जी से कुछ बोलने को कहा गया. हमजात मंच पर आए, इतमीनान
से उन्होंने अपनी एक जेब से इस दिन के लिए विशेष रूप से लिखी गई कविताएँ निकालीं
और ऐनक निकालने के लिए वैसे ही इतमीनान से दूसरी जेब में हाथ डाला... मगर इसी वक्त
पिता जी बेचैन हो उठे. उन्होंने एक जेब टटोली, फिर दूसरी.
सभी समझ गए कि जयंती के नायक हमजात अपना चश्मा साथ लाना भूल गए हैं.
उसी
वक्त किसी को चश्मा लाने के लिए भेज दिया गया. मगर हमजात मंच पर खड़े थे और कुछ
भी तो नहीं कर सकते थे. तब हमजात के दोस्त अबूतालिब ने उन्हें अपना चश्मा दिया, जो मानो फिट बैठ गया. पिता जी उसे चढ़ाकर कविता पढ़ने लगे. वे अपनी कविता
पढ़ रहे थे, मगर उनकी आवाज, उनकी पूरी
मुद्रा में कुछ अविश्वास, कुछ घबराहट थी, और सभी को ऐसा प्रतीत होता था मानो वे अपनी नहीं, किसी
दूसरे व्यक्ति की, ऐसे संयोगवश हाथ में आ जानेवाली वह कविता
पढ़ रहे थे, जिन्हें वे खुद भी पहली बार देख रहे हों.
पिता
जी जब दूसरी कविता पढ़ने लगे, तो जिस नौजवान को चश्मा
लाने के लिए भेजा गया था, वह भागता हुआ हॉल में आ पहुँचा.
हमजात ने अबूतालिब का चश्मा उतारकर अपना चश्मा चढ़ाया, तो
फौरन उनकी आकृति बदल गई, उसी वक्त उनकी आवाज में जोर आ गया.
हॉल में बैठे लोगों ने खूब जोर से तालियाँ बजाई मानो अभी असली हमजात त्सादासा मंच
पर आए हों और इसके पहले उन्हीं की शक्ल-सूरतवाला कोई दूसरा आदमी उनके सामने खड़ा
रहा हो.
'चश्मे ने तो मेरी जयंती का मजा ही किरकिरा कर दिया होता,' हमजात ने मुस्कराते हुए कहा.
'क्या मेरा चश्मा कुछ बुरा है?' अबूतालिब ने ऊँची
आवाज में पूछा.
'बहुत ही अच्छा है, मगर फिर भी वह तुम्हारा चश्मा
है. हर आदमी की अपनी आँखें हैं और चश्मा भी अपना ही होना चाहिए.'
पिता
जी को न तो बहुत तेज रोशनी पसंद थी और न ही घना अँधेरा. उन्हें बहुत गाढ़ा और
बहुत ही पतला, बहुत ही ठंडा और बहुत ही गर्म, बहुत ही महँगा और बहुत ही सस्ता, बहुत ही पिछड़ा
हुआ और बहुत ही अग्रणी, ऐसा कुछ भी पसंद नहीं था.
उन्हें
भेड़िए की क्रूरता और खरगोश की दुर्बलता अच्छी नहीं लगती थी. सत्ता की निरंकुशता
और अधीनों की दासता पसंद नहीं थी. वे कहा करते थे -
'ऐसे सूखो नहीं कि अकड़कर टूट जाओ, मगर इतने गीले भी
नहीं होवो कि चीथड़े की तरह तुम्हें निचोड़ लिया जाए.'
मगर
पिता जी उन लोगों में से नहीं थे, जो बारिश की एक बूँद से
भीग जाते हैं और हवा का हल्का-सा झोंका लगने पर सूख पाते हैं. वे साधारण व्यक्ति
थे और उनमें हमारे लोगों की सभी आदतें और सभी गुण विद्यमान थे और वे बड़े सुंदर
ढंग से उनमें साथ-साथ बने रहे.
संस्मरण.
एक बार पिता जी के साथ हमें एक बीमार रिश्तेदार की तीमारदारी के लिए मखचकला से
गाँव जाना था. उस समय अब्दुर्रहमान दानीयालेव दागिस्तानी सरकार के प्रधान थे. यह
मालूम होने पर कि हम पहाड़ जा रहे हैं, उन्होंने
हमारे लिए काली सरकारी कार भेज दी. शायद वह 'जीम' थी.
जब
तक हमारी कार शहरी सड़कों को मापती रही, पिता जी
बड़े रंग में रहे. मगर जैसे ही शहर के बाहर की सड़क पर हमारी कार गधों, टट्टुओं और घोड़ों पर सवार या पैदल पहाड़ी लोगों को पीछे छोड़ने लगी,
पिता जी नर्म और आरामदेह सीट पर बेचैनी से इधर-उधर हिलने-डुलने लगे.
उस वक्त अपनी जवानी के रंग में मैं तो जहाँ खिड़की से अपना सिर बाहर निकालने की
कोशिश करता था ताकि सभी यह देख सकें कि हम कार में जा रहे हैं, वहाँ पिता जी अधिक से अधिक पीछे हटते गए, छिप-से गए.
बारिश
हो रही थी. होत्सातल गाँव की नदी के करीब पहुँचने पर हमने देखा कि एक बैलगाड़ी
नदी के ऐन बीच में फँए गई है और उस पर एक बूढ़ा सवार है. पिता जी ने फौरन कार
रुकवाई,
नदी में घुस गए और बूढ़े की मदद करने लगे. बूढ़े के साथ मिलकर उन्होंने
बैलों को हाँका और पहियों को आगे धकेला. बैलगाड़ी जल्दी ही समतल रास्ते आ गई.
हमारी कार आगे बढ़ी. कुछ किलोमीटरों के फासले पर एक और नदिया रास्ते में आई. पिता
जी ने फिर से कार रोकने को कहा और बैलगाड़ीवाले बूढ़े का इंतजार करने लगे.
'बूढ़े की गाड़ी जरूर यहाँ अटक जाएगी. मुझे मालूम है कि बैलों को कैसे इस
नदी के पार ले जाया जा सकता है. मैं बूढ़े का इंतजार और उसकी मदद करूँगा.'
वास्तव
में ऐसा ही हुआ. हमने इंतजार किया और चूँ-चर्र करती हुई बैलगाड़ी जब दूसरी नदी के
पास पहुँची, तो पिता जी बड़ी होशियारी से बैलों को नदी
के पार ले गए.
'बूयनाक्स्क से जब मैं तरह-तरह का सामान लेकर पहाड़ों को जाता था,
तो कई बार इसी तरह की मुसीबत में फँस जाया करता था,' कार के पास आकर और अपने कपड़ों के छोर से हाथ पोंछते हुए पिताजी ने हमसे
कहा. दूर जाती हुई बैलगाड़ी को देखकर वे ऐसे दुखी मन से मुस्करा दिए मानो उसके
साथ ही उनका सारा अतीत, उनका सारा जीवन जा रहा हो.
खूंजह
के पठार पर चढ़ते हुए एक ट्रक हमारी कार से जरा छू गई. एक पहिया टूट गया. पिता जी
को तो जैसे इस बात से खुशी हुई और वे पैदल ही गाँव की तरफ चल दिए. हमने उन्हें
बहुत मनाया कि दूसरा पहिया लग जाने तक रुक जाएँ, मगर
वे राजी न हुए.
'मुझे तो शादी में शामिल होने के लिए भी ऐसी कार में जाते हुए शर्म आती और
बीमार दोस्त की तीमारदारी के लिए तो ऐसे ठाठ से जाने की कोई जरूरत ही नहीं. मैं
बहुत खुश हूँ कि कार खराब हो गई, मैं पैदल ही जाता हूँ.'
पिताजी
बचपन से ही अपनी जानी-पहचानी उस पगडंडी पर चल दिए, जिस
पर हमारे गाँव में जाने के लिए पहाड़ी लोगों की कई पीढ़ियाँ चल चुकी थीं. कार ठीक
हुई तो हम बड़े रास्ते से गाँव की ओर चल दिए और पिता जी के साथ-साथ ही गाँव
पहुँचे.
बाद
में अब्दुर्रहमान दानीयालोव ने चिंता प्रकट करते हुए रास्ते की दुर्घटना के बारे
में पूछा.
पिता
जी ने मजाक में जवाब दिया -
'कार जरूरत से ज्यादा ही बढ़िया है. अगर जरा घटिया होती, तो शायद उसका कुछ भी न बिगड़ता.'
संस्मरण.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में मेरे पिता जी बहुत बीमार रहे. पहाड़ों की यात्रा के
समय,
जहाँ वे निर्वाचकों से भेंट करने गए थे, बीमारी
ने उन्हें अचानक धर दबाया था. सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के चुनाव नजदीक आ
रहे थे और हमजात त्सादासा का नाम उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था.
हलके
के केंद्र तक वे कार में गए, मगर उन दिनों पहाड़ी
गाँवों में केवल घोड़ों पर ही जाना संभव था. आम तौर पर वे घोड़े को धीरे-धीरे ले
जाते थे और अक्सर तो उसकी लगाम थामकर चलते रहते थे. हमजात को पैदल चलना सबसे ज्यादा
पसंद था.
स्थानीय
अधिकारियों ने हमजात की तरफ बहुत ध्यान दिया. सर्वोच्च सोवियत के भावी सदस्य के
लिए वे जवान और बहुत तेज घोड़ा लाए. अधिकारियों को दोष देना अनुचित होगा, उन्होंने तो अपनी तरफ से वही करने की कोशिश की, जो
उन्हें बहुत अच्छा प्रतीत हुआ. उन्होंने तो यही समझा कि ऐसे प्यारे मेहमान को
अपने हलके का सबसे अच्छा घोड़ा सवारी के लिए देना चाहिए.
बहत्तर
साल के बुजुर्ग अपने मेजबानों को नाराज नहीं करना चाहते थे और अपने बीते दिनों को
याद कर जवान की तरह कूदकर घोड़े पर सवार हो गए. घोड़ों पर सवार जवानों से घिरे हुए
बुजुर्ग शायद नायबों के बीच इमाम जैसे लग रहे थे.
जवानों
ने अपने घोड़ों पर चाबुक सटकारे और विभिन्न दिशाओं के विभिन्न गाँवों में यह
सूचना देने चले गए कि हमजात जल्दी ही वहाँ पहुँचेंगे. दूसरे घोड़ों की देखा-देखी
हमजात का घोड़ा भी जोश में आकर हवा से बातें करने लगा. बुजुर्ग उसे काबू में न ला
सके और तेज घुड़दौड़ शुरू हो गई. हमजात को जोर के झटके लगे, वे जीन पर अत्यधिक उछलते रहे, उनकी हालत अधिकाधिक
बुरी होती गई और आखिर काठी से नीचे जा गिरे. वे बीमार होकर मखचकला लौटे और यह
बीमारी उनकी जान लेकर ही रही.
'कविताओं के साथ भी ऐसा ही होता है,' पिता जी खाँसते
हुए कहते. 'कवि को अपने अभ्यस्त घोड़े पर ही सवारी करनी
चाहिए, पराये, अनजाने घोड़े पर नहीं
बैठना चाहिए. पराया घोड़ा तो जीन से नीचे फेंक सकता है.'
अपने
पिता जी के बारे में मैं बहुत देर तक बहुत कुछ बता सकता हूँ. मगर अब मैं उनके दोस्त
अबूतालिब के बारे में कुछ बताना चाहता हूँ. कल का सारा दिन मैंने उन्हीं के साथ
बिताया था.
अबूतालिब
के साथ बिताया गया दिन. किसी कारणवश अधूरी रह जानेवाली, ठीक वक्त पर खत्म न की जानेवाली कविता को फिर से बैठकर लिखना और पूरी
करना मेरे लिए सबसे ज्यादा मुश्किल काम होता है. पहाड़ी लोगों में ऐसा कहा जाता
है कि मेढकी इसीलिए अब तक दुम के बिना है कि उसने दुम चिपकाने का काम अगले दिन पर
छोड़ दिया था.
दो
हफ्ते पहले शुरू की गई एक लंबी कविता को खत्म करने का मैंने सुबह से ही इरादा बना
लिया था. काम मुश्किल था और मैंने अपनी आया फ्रोस्या से कहा -
'अगर कोई मेरे बारे में पूछे, तो कह देना कि मैं घर
पर नहीं हूँ. जिसे मेरी जरूरत हो, वह दोपहर के खाने के बाद आ
जाए.'
ऐसी
हिदायत देकर मैं ऊपरवाले कमरे में चला गया और इतमीनान से काम में जुट गया. मगर
सड़क की आवाजें तो मेरे कानों तक पहुँच रही थीं और मुझे बाहरी फाटक की चीं-चर्र
सुनाई दी. कुछ क्षण बाद घर के दरवाजे की घंटी बज उठी. फ्रोस्या की आवाज तो मुझे
सुनाई नहीं दी, मगर अबूतालिब का स्वर मुझ तक पहुँच गया.
मुझे अपनी कुर्सी दहकते तवे या कँटीली झाड़ी जैसी महसूस होने लगी. कभी ऐसा नहीं
हुआ था कि हमजात त्सादासा के घर पर, जो अब रसूल हमजातोव का
घर था, अबूतालिब का स्वागत न हुआ हो, कि
उन्हें घर की दहलीज से वापस लौटना पड़ा हो. ऐसा कभी नहीं हुआ था और हो भी नहीं
सकता था. मगर मैं बड़ी अटपटी स्थिति में था - एक तरफ तो अबूतालिब को लौटने नहीं
दिया जा सकता था और दूसरी तरफ फ्रोस्या को झूठा साबित करना उचित नहीं था, जिसने ईमानदारी से मेरा अनुरोध पूरा करते हुए अबूतालिब से यह कह भी दिया
था कि मैं दोपहर के खाने के बाद ही घर पर लौटूँगा.
मैंने
अपने दिमाग की नहीं, दिल की बात मानी. मैंने
खिड़की में से सिर बाहर निकालकर अपने पिता जी के दोस्त को आवाज दी -
'अंदर आ जाइए, अबूतालिब, मैं
यहाँ हूँ.'
'आह, अल्लाह तुम्हारा भला करे. क्या त्सादा के
हमजात का बेटा लेनदारों से छिपता है?' अबूतालिब ने झटपट अपनी
फर की टोपी उतारी और फ्रोस्या के करीब से गुजरते हुए उसकी तरफ आँख से इशारा करके
कहा - 'रसूल, इस औरत से कह दो कि जब
अबूतालिब इस घर में आता है, तो दरवाजे अपने आप ही खुल जाते
हैं और यह कि उस वक्त तुम, रसूल, हमेशा
घर पर होते हो. अगर तुम घर पर नहीं भी हो, तो भी अबूतालिब इस
घर में खा-पी सकता है और जरूरत होने पर सो भी सकता है.'
'फ्रोस्या का कोई कुसूर नहीं है. मेरी बीवी फातिमात काम पर जाते हुए उसे
सब से यह कहने की हिदायत कर गई थी कि मैं घर पर नहीं हूँ. बीवी मेरी बड़ी फिक्र
करती है.'
'खुशकिस्मत हैं वे जिनकी बीवियाँ हैं और जिनके सिर वे अपने सभी गुनाह मढ़
सकते हैं. पर फातिमात क्या यह भूल गईं कि आज बृहस्पतिवार है?' अपनी गीली, झबरीली फर की टोपी झाड़ते हुए अबूतालिब
ने कहा.
'बृहस्पति को क्या खास बात होती है?'
'इस दिन मैं गुसल करता हूँ. क्या तुमने इस बात की तरफ ध्यान नहीं दिया कि
मैं हर बृहस्पति को हमामघर जाता हूँ और चूँकि हमामघर तुम्हारे घर के पास है,
इसलिए हमेशा यह उम्मीद की जा सकती है कि मैं कुछ देर बैठने,
गपशप करने और सिगरेट के कश लगाने के लिए तुम्हारे यहाँ भी आ सकता
हूँ.'
'आपको हमामघर जाने की क्या जरूरत पड़ी है, अबूतालिब?
आपके तो फ्लैट में ही गुसलखाना और गर्म पानी भी है.'
'गुसलखाना और फव्वारा - ये तो रई की रोटी के टुकड़े जैसे हैं, मगर हमामघर है शादी की दावत के समान. मेरा एक बाग है और हजारों सालों से
पहाड़ों से बहकर आनेवाला एक सोता भी है. मैं इस सोते के पानी से अपने पेड़ों की
सिंचाई करता हूँ. मगर क्या मैं जलपात्र से भी पेड़ों को सींच सकता था? हमामघर को मैं जोरदार पहाड़ी सोता मानता हूँ और तुम्हारे शावर और
गुसलखाने को जलपात्र. नहीं रसूल, इन खिलौनों को तुम बच्चों
के कवि नूरूद्दीन यूसुफोव के लिए ही रहने दो. सुना है कि अब वह कठपुतलियों के लिए
सिनेरियो लिखता है. उसकी कठपुतलियों के लिए वे बढ़िया रहेंगे.'
'हमामघर के बाद चाय पीना बढ़िया रहेगा,' जब हम बरामदे
से कमरे में आए, तो मैंने अबूतालिब को यह सुझाव दिया.
'वल्लाह-चाय भी चलेगी, बिल्लाह-शोरबा भी कुछ बुरा
नहीं रहेगा, तल्लाह-शराब से भी काम चल जाएगा. मगर गुसल के
बाद वोद्का ही सबसे अच्छी रहेगी.'
'शोरबा तो हमारे यहाँ है, मगर कल का. इस वक्त सुबह
है, अभी ताजा शोरबा नहीं पका.'
'हम कल के शोरबे से शुरू करेंगे और तब तक ताजा भी तैयार हो जाएगा.'
फ्रोस्या
ने जब तक मेज लगाई, मैंने विदेशी शराबों के अपने
संग्रह का प्रदर्शन शुरू किया.
सागर
पार के विभिन्न देशों से रंग-बिरंगी सुंदर बोतलों में मैं रम, ब्रांडी, जिन, ह्विस्की,
काल्वादोस, अबसेंट, वेर्मूत,
स्लिवोवित्सा और हंगेरियाई ऊनीकूम आदि लाया था... ब्रांडियाँ भी
तरह-तरह की थीं - मार्टीनी, काम्यू और प्लीस्का.
'जो भी पीना चाहते हैं, वही अपने लिए चुन लें,
अबूतालिब.'
'रसूल, यह सब बकवास तुम मेरे सामने से उठा लो. अगर
पिलाना ही चाहते हो, तो सफेद निशानवाली साधारण वोद्का पिलाओ.
सफेद निशानवाली वोद्का सिर्फ इसीलिए अच्छी नहीं है कि हम उसे जानते हैं, बल्कि इसलिए भी कि वह हमें जानती है. जो कुछ तुम मुझे दिखा रहे हो,
मुमकिन है कि वे बहुत जायकेदार हों, मगर ये
सभी बोतलें बहुत दूर से आई हैं, वे पराई, मेरे लिए अनजानी भाषाओं में बोलती हैं और मैं जिस भाषा में बोलता हूँ,
वह उनकी समझ में नहीं आएगी. इसके अलावा आदत और मिजाज का भी सवाल है.
नहीं, हम एक-दूसरे को बिल्कुल नहीं जानते. ये बोतलें अपरिचित
मेहमानों जैसी हैं, जिनके साथ पहले बातचीत और जान-पहचान करना,
अच्छी तरह घुलना-मिलना जरूरी है. मुझे अंदेशा है कि हम एक-दूसरे को
समझ नहीं पाएँगे. इन्हें अपने दोस्तों-मास्को के लेखकों के लिए रहने दो. इन्हें
उनके लिए भी रख छोड़ो, जो सगी माँ द्वारा अपने घर में पकाए
गए खाने का स्वाद भूल चुके हैं.'
मेरे
संग्रह में वोद्का की एक भी बोतल नहीं थी. मैंने ऐसे जाहिर किया कि अभी दुकान से
बोतल ले आता हूँ. मुझे आशा थी कि अबूतालिब ऐसा करने से मना करेंगे, क्योंकि बाहर बारिश थी, ठंडी हवा चल रही थी और इसके
अलावा घर में पीने को बहुत कुछ था. वैसे तो यह सनक ही थी कि मेज पर बेहतरीन
फ्रांसीसी ब्रांडियों की बोतलें होते हुए भी वोद्का की माँग की जाए.
अबूतालिब
सचमुच ही मुझे जाने से रोकने लगे -
'रसूल, बेशक तुम्हारे बाल पक गए हैं, फिर भी फौरन यह पता चलता है कि तुम अभी बच्चे ही हो. क्या वोद्का लाने
को तुम्हें खुद जाना चाहिए, क्या तुमसे कम उम्र के लोग
नहीं हैं? बाहर अहाते में जाओ, पड़ोस
में रहनेवाले किसी छोकरे से कहो, वही जाकर ले आएगा. मुझ कहीं
जाने की जल्दी नहीं है, मैं खुशी से उसके लौटने का इंतजार
करूँगा.'
अबूतालिब
ने जैसा कहा, मुझे वैसा ही करना पड़ा. मैंने पड़ोस में
रहनेवाले एक छोकरे को पैसे दिए और वही वोद्का लेने भाग गया. अबूतालिब ने इसी बीच
इधर-उधर नजर दौड़ाई.
'तुम्हारे घर में पहाड़ से आया हुआ कोई मेहमान दिखाई नहीं दे रहा. क्या
सचमुच एक भी मेहमान नहीं है?'
'आज तो कोई नहीं है.'
'जब मेरे दोस्त और तुम्हारे पिता हमजात जिंदा थे, तो
इस घर में हमेशा मेहमान होते थे. मेहमानों का होना इसलिए अच्छा रहता है कि उनके
पास हमेशा तंबाकू होता है.'
'तंबाकूनोशी को तो मेरे यहाँ भी कुछ मिल जाएगा.' मैंने
तरह-तरह की बढ़िया सिगरेटों का डिब्बा निकालकर सामने रख दिया.
'ये चिकनी सफेद नलियाँ मेरे लिए नहीं हैं. ये तो तुम मास्कोवालों के लिए
ही ठीक हैं. मुझे तो सिर्फ अपना तेज पहाड़ी तंबाकू ही पसंद है. अपनी तंबाकू की
थैली निकालनी होगी.'
अबूतालिब
ने कुरते के नीचे से बड़ी सारी थैली निकाली और उसे उलटकर उसके तल की सीवन को खुरचा
और एक सिगरेट बनाने के लिए तंबाकू निकाला. बड़ी निपुणता से उन्होंने सिगरेट लपेटी
और जबान से थूक लगाकर चिपकाया.
'खुद बनाई गई इस सिगरेट से भला तुम्हारी इन सीधी डंडियों की तुलना हो सकती
है? मेरी इस सिगरेट का अपना रूप है, वह
किसी और से मिलती-जुलती नहीं. मगर तुम्हारी सभी सिगरेटें एक जैसी हैं. अब तुम्हीं
बताओ मुझे कि डिब्बे में से बनी-बनाई सिगरेट निकालने में या अपने हाथ से ऐसी
सिगरेट बनाने में ज्यादा मजा है? बात यह है कि मैं तो जब
इसे बनाता हूँ, तो उस वक्त भी खुशी हासिल करता हूँ. मैं भला
यह खुशी क्यों गँवाऊँ?'
मैंने
स्विस या बेल्जियम का लाइटर जलाया, मगर
अबूतालिब ने जलते हुए लाइटरवाला मेरा हाथ परे हटा दिया. उन्होंने जेब से इस्पात
का एक टुकड़ा, छोटा-सा चकमक और बटे हुए सूत का टुकड़ा निकाला.
सूत उन्होंने चकमक पर रखा और इस्पात का टुकड़ा मारकर चिनगारी पैदा की. इसके बाद
उन्होंने सूत को हिला-डुलाकर उसे जोर से जलने को विवश किया और उससे सिगरेट जलाई.
जलते हुए सूत को मेरी नाक के पास ले जाकर बोले -
'सूँघो तो, कैसी गंध है इसकी? बढ़िया
है न? और तुम्हारे लाइटर से कैसी गंध आती है?'
कुछ
देर को अबूतालिब धुएँ के बादल में खो गए. धुआँ कुछ गायब हो जाने पर अबूतालिब ने
पूछा -
'यह बताओ रसूल, कि तुम्हारा सिर अभी से क्यों सफेद
हो गया?'
'मालूम नहीं, अबूतालिब.'
'मगर मुझे मालूम है कि मेरा सिर क्यों सफेद है.'
'भला क्यों?'
'मेरा सिर इसलिए सफेद हो गया है कि मुझे वोद्का लाने के लिए दुकान पर
जानेवाले इन छोकरों का हमेशा बहुत इंतजार करना करना पड़ता है. हाँ, रसूल, बच्चे तब तक माँ-बाप की परेशानियों को नहीं
समझ पाते, जब तक उनके अपने बच्चे नहीं हो जाते. ठीक इसी तरह
वे, जो पीते नहीं, हमें नहीं समझ पाते.
वोद्का लाने के लिए उसे भेजना चाहिए, जो खुद उसे प्यार करता
हो, तब देर नहीं होगी.'
इसी
बीच फ्रोस्या ने मेज लगा दी. कुछ देर बाद मेज के बीचोंबीच वोद्का की बोतल भी आ गई.
'ओह,' अबूतालिब ने कहा, 'साधारण
सामूहिक किसानों के बीच मानो सिवुख का अध्यक्ष आ गया हो.' उन्होंने
वोद्का की बोतल लेकर उसे बच्चे की तरह झुलाया - 'अरे,
रे, कितनी बढ़िया बोतल है. शायद इसे लानेवाला
लड़का बहुत ही भला आदमी बनेगा.'
इसी
वक्त मेज पर रखे छोटे-छोटे जामों की तरफ अबूतालिब का ध्यान गया. उनके माथे पर
ऐसे बल पड़ गए मानो मुँह में कोई बहुत कड़वी चीज आ गई हो या दाँत में दर्द हो. उन्होंने
जाम को इधर-उधर घुमाकर देखा, उसमें झाँका - शायद वह
उसमें अपनी सिगरेट का टोटा डालना और इस तरह उस चीज के प्रति अपनी तिरस्कार भावना
व्यक्त करना चाहते थे, जो इसी की अधिकारिणी थी.
मैंने
जार्जियनों द्वारा भेंट किया गया बड़ा-सा सींग-जाम अबूतालिब की तरफ बढ़ा दिया.
बुजुर्ग
कवि ने भिन्न दिशाओं से देर तक उसे गौर से देखा और फिर अपनी राय जाहिर की -
'अच्छा सींग है, मगर यदि इस पर चाँदी न मढ़ी होती,
तो और भी ज्यादा सुंदर लगता. सींग पर यह नक्काशीवाली चाँदी दूल्हे
की पेटी जैसी लगती है. क्या जरूरत है इसकी? क्या चाँदी से
वोद्का अधिक नशेवाली या ज्यादा मजेदार हो जाएगी? नहीं,
रसूल, तुम मुझे मामूली गिलास दो, जो जिंदगी भर मेरे हाथ में रहा है. मुझे मालूम है कि गिलास में कितने घूँट
होते हैं, कब मुझे रुकना और कब पीना जारी रखना चाहिए.'
मैंने
अबूतालिब की यह इच्छा भी पूरी कर दी. उन्होंने वोद्का गिलास में ढाली, उसमें डबल रोटी का छोटा-सा टुकड़ा डाला और दार्गिन भाषा में कहा -
'देरखाब.' इसके बाद एक ही बार में गिलास खाली कर दिया,
साँस ली और कहा - 'पीने से पहले हमेशा 'देरखाब' कहना चाहिए. यह सही है कि उसका अर्थ स्पष्ट
करना मुश्किल है, यह भी मुमकिन है कि उसका कोई विशेष अर्थ हो
भी ही नहीं, पर क्या 'देरखाब' शब्द ऐसे ही समझ में नहीं आ जाता.'
वोद्का
पीने के बाद अबूतालिब ने शोरबे की तश्तरी अपने करीब खींच ली, एक अलग प्लेट में मांस निकाल लिया और शोरबे में डबल रोटी के टुकड़े डाले.
वे धीरे-धीरे, गर्म और जायकेदार शोरबे के हर चमचे का मजा ले
लेकर उसे खाने लगे. जब-तब वे इतमीनान से मांस का छोटा-सा टुकड़ा काटकर भी मुँह में
डाल लेते. मेरे ख्याल में अगर वे उसे किसी दूसरी तरह खाते या अपने जेबी चाकू के
बजाय किसी और चीज से काटते, तो शायद मांस उन्हें इतना
मजेदार न लगता.
शोरबा
और मांस खाने के बाद अबूतालिब ने मेज पर से डबल रोटी के सभी कण इकट्ठे किए और उन्हें
मुँह में डाल लिया. इसके बाद उन्होंने थोड़ी-सी वोद्का और पी तथा मूँछों पर हाथ
फेरा.
'शायद अब चाय पीना पसंद करेंगे?'
'अब फिर से तंबाकू मेरी चाय होगा. रसूल, मुझे यह बताओ
कि सिगरेट दूसरी सभी चीजों से किस बात में भिन्न है?'
'मालूम नहीं.'
'बाकी सभी चीजों को जब खींचा जाता है, तो वे लंबी हो
जाती हैं और यह उलटे छोटी रह जाती है,' अपनी इस भोली-भाली
पहेली से खुश होते हुए वे हँस दिए.
'आप बहुत ज्यादा सिगरेटें पीते हैं, अबूतालिब,
आपकी सेहत के लिए क्या ये बुरी नहीं हैं?'
'कहते हैं कि बढ़िया खाने के बाद तो खुद अल्लाह भी तंबाकूनोशी करता है.'
सिगरेट
पीने के बाद अबूतालिब ने अचानक यह पूछा.
'लेखक-संघ की प्रबंध-समिति की बैठक कब होगी?'
'कल.'
'लेखक सहायता कोष में इस बार जैनुद्दीन की अर्जी पर गौर किया जाएगा या नहीं?'
'मालूम नहीं, मगर आपको इससे क्या लेना-देना है?'
'तुम्हें एक किस्सा सुनाता हूँ. जब मैं किशोर था, तो
बछड़े चराता था. मेरे बछड़े बड़े ही भले थे. मैं मजे से धूप में हरी घास पर लेटा
रहता और वे मेरे आस-पास चरते रहते. सभी बहुत खुश थे - मैं भी, बछड़े भी और बछड़ों की मालकिन भी. मगर बाद में मुसीबत आ गई - एक दबंग बछड़े
ने जई के खेत का रास्ता मालूम कर लिया. उसके पीछे-पीछे बाकी बछड़े भी उधर ही जाने
लगे. बस, मेरी चैन की जिंदगी खत्म हो गई. बछड़ों को जई के
खेत की ओर जाने से मैं न रोक सका और इसलिए हर वक्त उनके करीब ही बने रहना पड़ता
था. हमारे कवियों के लिए लेखक सहायता कोष भी ऐसा ही बन गया है. जब तक उन्हें इस
कोष की गंध नहीं आई थी, वे चैन से रहते थे, किताबें लिखते थे. मालूम नहीं कि पहल किसने की, मगर
अब तो जई चरनेवाले मेरे बछड़ों की तरह सभी साहित्यकार सहायता कोष के सपने देखते
हैं. सुबह उठते ही वे कविताएँ नहीं, आर्थिक सहायता पाने के
लिए तरह-तरह की अर्जियाँ लिखने बैठ जाते हैं. सो मैं भी एक अर्जी लिखना चाहता हूँ
और तुम लोग प्रबंध-समिति में उस पर विचार करना.'
'किस बारे में, अबूतालिब? किस
चीज की जरूरत है आपको?'
'यह तो तुम्हें मालूम ही है कि अब तक एक भी डाक्टर मेरा बदन नहीं देख
पाया है. फिर भी मैंने सेनेटोरियम का पास लेने का निर्णय किया है.'
'यही समझिए कि पास आपकी जेब में है. मगर लेखक संघ के बजाय दागिस्तान की
सर्वोच्च सोवियत से इसके लिए अनुरोध करना क्या आपके लिए ज्यादा अच्छा नहीं
रहेगा? आप तो सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मंडल के सदस्य
हैं. लेखकों के सेनेटोरियम के मुकाबले में सरकारी सेनेटोरियम बेहतर है.'
अबूतालिब
सिर हिलाने और जबान चटकारने लगे. उसकी यह चटकारी बहुत ही भिन्न भावनाओं - हर्ष, निराशा, आश्चर्य और जैसा कि इस समय था - असहमति को
व्यक्त कर सकती थी.
'नहीं, रसूल, पहली बात तो यह है
कि सर्वोच्च सोवियत के लिए मुझे अस्थायी रूप से, सिर्फ चार
साल के लिए चुना गया है और लेखक मैं जिंदगी भर के लिए हूँ. दूसरे, दोनों सेनेटोरियमों में कुछ न कुछ त्रुटियाँ तो होंगी ही. तो बताओ कि तुम्हारी
और खापालायेव की आलोचना करना ज्यादा आसान होगा या सर्वोच्च सोवियत की?'
'तो अर्जी लिख दीजिए, कल उस पर गौर कर लेंगे.'
'अर्जी तो मिर्जा लिख देगा, मैंने तो कभी नहीं लिखी,
मगर तुम लोग पास तैयार कर लो,' इतना कहकर
अबूतालिब खड़े हो गए, बाहर जाने को तैयार हो गए.
'अबूतालिब, अब आप कहाँ जाएँगे?'
'प्रकाशन गृह जाना चाहता हूँ. सुना है कि मेरी नई किताब छप गई है. देखना
चाहिए कि बेटा है या बेटी.'
'शाम को अध्यापिका प्रशिक्षण संस्थान में आइएगा, लेखकों
की विद्यार्थियों से भेंट होगी.'
'अच्छी बात है. जुरना साथ लेता आऊँ?'
'आह, अबूतालिब, आप जुरना-वादक
नहीं, कवि हैं. कविता-संग्रह साथ लेते आइए, यही ज्यादा अच्छा रहेगा.'
'तो मुलाकात होगी,' अबूतालिब यह कहकर चले गए.
अध्यापिका
प्रशिक्षण संस्थान में कवि-सम्मेलन शाम के सात बजे शुरू होनेवाला था. बहुजातीय
दागिस्तान के कवि जमा हो रहे थे. सात बजे. मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई. अबूतालिब
कहीं नजर नहीं आए. उनके बिना ही कवि-सम्मेलन आरंभ करना पड़ा. मंच पर एक के बाद एक
कवि आता रहा. हर किसी ने अपनी भाषा में कविता सुनाई. किसी ने लाक, किसी ने कुमीक, किसी ने लेजगीन और किसी ने अवार भाषा
में. एक युवा कवि जब अपनी लंबी कविता सुना रहा था, तो हाल
में बैठे लोगों ने जोर से तालियाँ बजानी शुरू की. यह अबूतालिब गफूरोव मंच पर आए थे.
लड़कियों ने तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया था.
अन्य
दो कवियों की कविताएँ सुनने के बाद मैंने अबूतालिब को इशारा किया कि वे कविता-पाठ
करने को तैयार हो जाएँ. अबूतालिब ने फौरन गंभीर मुद्रा बना ली, ऐसे बैठ गए मानो फोटो खिंचवाने जा रहे हों और मूँछों पर ताव देने लगे. 'देख रहे हो न, तैयार हो रहा हूँ,' बुजुर्ग शायर मानो इस तरह मुझसे यह कहना चाहते थे.
मंच
पर आकर अबूतालिब ने लड़कियों से कभी रूसी, कभी अवार,
और कभी लाक भाषा में कुछ बातचीत की. वे दागिस्तान की हर भाषा
कुछ-कुछ जानते हैं. लाक भाषा में उन्होंने दो कविताएँ सुनाई.
अबूतालिब
ने अपना यह साहित्यिक कार्यक्रम ऐसे जल्दी-जल्दी समाप्त किया मानो यह प्रस्तावना
या भूमिका हो और वे मुख्य चीज के लिए समय बचा रहे हों. हाथ से इशारा करके उन्होंने
तालियाँ बंद करवाई और लड़कियों से पूछा -
'चाहती हैं कि मैं आपको जुरना सुनाऊँ?'
'चाहती हैं, चाहती हैं, सुनाइए.'
लड़कियाँ चिल्लाई.
अबूतालिब
मंच के पीछे से जुरना और मुरली ले आए और धीरे-धीरे कभी एक, तो कभी दूसरा साज बजाने लगे. मगर सभी समझ रहे थे कि यह तो सिर्फ तैयारी हो
रही है, साजों को सुर में किया जा रहा है मानो आवाज को
आजमाकर देखा जा रहा है. यह यकीन हो जाने पर कि साज सुर में हो गए हैं, अबूतालिब ने अचानक मेज से पानी का भरा गिलास उठाया और पानी जुरने में
उँड़ेल दिया.
'खुद पीने से पहले घोड़े को पिलाओ,' पहाड़ी लोग ऐसा
कहते हैं. 'खुद पीने से पहले जुरने को पिलाओ,' पहाड़ों में जुरना-वादक कहते हैं.
अबूतालिब
जुरना बजाने और उसके साथ-साथ खुद भी कभी एक तो कभी दूसरी दिशा में हिलने-डुलने लगे.
जवान लड़कियों से भरा हॉल देखकर अबूतालिब रंग में आ गए थे. शायद उस रात अबूतालिब
का जुरना सारे मखचकला में सुनाई दिया होगा.
अध्यक्ष
मंडल में अपनी जगह पर बैठते हुए अबूतालिब ने सरलता से पूछा -
'क्यों कैसा बजाया मैंने जुरना? बढ़िया न?'
'हाँ, बढ़िया.'
'तो तुमने ऐसे धीरे-धीरे तालियाँ क्यो बजाई? अभी और
तालियाँ बजाओ.'
अबूतालिब
के ये शब्द का सुनकर श्रोता खुशमिजाजी से हँस दिए.
कवि-सम्मेलन
का मैं ही संचालन कर रहा था और मुझे सचमुच ही यह अच्छा नहीं लगा था कि अबूतालिब
जैसे बढ़िया कवि जुरना-वादक के रूप में सामने आए थे. यह तो बिल्कुल वैसी ही बात थी
मानो रूसी कवि येसेनिन कविताएँ सुनाने के बजाय मंच पर नाचने लगें. येसेनिन नाच तो
शायद सकते ही थे. मगर हर चीज का अपना वक्त होता है. शायद अध्यक्षमंडल में बैठा
हुआ मैं नाक-भौंह सिकोड़ता रहा था और मैंने तालियाँ भी कम बजाई थीं और इसीलिए
अबूतालिब के शब्द सुनकर लोग हँस दिए थे.
लड़कियों
के एक दल के साथ चौड़ी सीढ़ी उतरकर हम वहाँ गए, जहाँ हमने
ओवरकोट उतारे थे. ओवरकोट पहनकर मैंने दर्पण में अपने को देखा. उन दिनों ऊँचे,
चौड़े और पैडवाले ओवरकोटों का फैशन था. मैं ऐसा ही ओवरकोट पहने था.
अबूतालिब ने यह देखकर सिर हिलाया -
'पहले तो दुंबे यानी चर्बीवाली बढ़िया खुराक खाकर कंधे चौड़े होते थे और अब
रुई से. पहले तो कुमुज के साथ गीत गाए जाते थे और अब कागज सामने रखकर पढ़े जाते
हैं. बड़ी तब्दीलियाँ हो गई हैं दुनिया में मुझे वे पसंद नहीं हैं.'
'कवि-सम्मेलन में देर से क्यों आए थे, अबूतालिब?'
'मैं तो बिल्कुल तैयार होकर घर से निकलने ही वाला था कि अचानक अवार थिएटर
का एक कलाकार मेरे पास भागा आया...'
'अवार थिएटर को आपकी क्या जरूरत पड़ गई?'
'बात यह है कि उनके खेल में शादी का दृश्य आता है. अब तो शादी के बिना एक
भी खेल नहीं होता. मगर जुरना-वादक बीमार हो गया. जुरने के बिना भला क्या शादी हो
सकती है? इसलिए उन्होंने मुझे सिर्फ दस मिनट तक जुरना बजाने
के लिए बुलवा भेजा. मगर जब तक हम थिएटर पहुँचे, जब तक शादी
शुरू हुई, वक्त तो बीतता गया. मैंने ऐसे दो गीत बजाए कि
दर्शक खेल को भूल-भालकर सिर्फ मुझे ही सुनते रहे. अगर मैं देर गए रात तक जुरना
बजाता रहता, तो भी वे बैठे सुनते रहते.'
'प्रसिद्ध कवि अबूतालिब गफूरोव और जनतंत्र की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष
मंडल के सदस्य की जगह अगर मैं होता, तो जुरना-वादक के रूप
में कभी वहाँ न जाता.'
'अबूतालिब तुमसे यह बेहतर जानता है कि उसे क्या करना और क्या नहीं करना
चाहिए.'
'आप प्रकाशन गृह तो हो आए न? आपकी किताब का क्या हाल
है?'
'अल्लाह का शुक्र है कि किताब छप गई. अल्लाह का शुक्र है कि कुछ पैसे मिल
गए. अल्लाह का शुक्र है कि कर्ज अदा कर दिया. अल्लाह का शुक्र है कि बत्तख खरीद
ली.'
'तो 'मागारीच' (दावत) होगी?'
'किसकी?'
'संपादक, चित्रकार और लेखपाल की. उन सभी की, जिन्होंने पुस्तक के प्रकाशन में भाग लिया है.'
'संपादक की 'मागारीच'?' अबूतालिब
तो गुस्से से चलते-चलते रुक भी गए. 'उसकी 'मागारीच' नहीं, 'मागोरोच'
होनी चाहिए.' अवार भाषा में 'मागोरोच' का अर्थ है मरम्मत या पिटाई करना. अपने
बढ़िया शब्द-खिलवाड़ से खुश होकर अबूतालिब देर तक हँसते रहे. इसके बाद अपनी बात
जारी रखते हुए बोले -
'सुनो रसूल, लोग कहते हैं कि अगर कोई दागिस्तानी
अपने बेटों की सुन्नत कराएगा, तो उसे नौकरी, यहाँ तक कि पार्टी से भी बर्खास्त किया जा सकता है. उन संपादकों का पत्ता
क्यों नहीं काटा जाता, जो मेरी कविताओं को लुंज-पुंज बनाते
हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े करते हैं? संपादित
कविता देखते ही मैं तुम्हें यह बता सकता हूँ कि संपादक किस गाँव की बोली में
ढालने की कोशिश करता है.' अबूतालिब अचानक खामोश हो गए और फिर
मुस्कराकर बोले - 'हाँ, वह औरत जो
करारनामे पर दस्तखत कराती है, वह बढ़िया है. अहा, क्या बढ़िया औरत है वह. इस औरत का मैंने बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया.'
'और क्या कहा आपने उसे? शायद कोई तोहफा दिया?'
'मैंने उससे कहा कि अगर उसके यहाँ कोई खराब, बदरंग या
टूटा-फूटा बर्तन हो, तो वह उसे मेरे पास ले आए. मैं उसकी
मरम्मत कर दूँगा, टाँका लगा दूँगा और वह नए जैसा हो जाएगा.'
अबूतालिब
की यह शरारत मुझे अवार थिएटर में उनके जुरना-वादन से भी ज्यादा खली. बाड़ के पास
ताँबे के टुकड़ों का ढेर देखकर मैंने बुजुर्ग शायर को जान-बूझकर चिढ़ाते हुए कहा -
'पहले जब आप टीनगर थे, तो शायद उन दिनों पुराने बर्तन
यहाँ इस तरह न पड़े रहते. आप इन्हें इकट्ठा करके घर ले जाते?'
'नहीं, मुझे इन्हें ले जाने का मौका न मिलता,
रसूल,' अबूतालिब ने खुशमिजाजी से जवाब दिया. 'इन्हें तो मुझसे पहले ही दूसरे उठा ले गए होते.'
रास्ते
में हमें देर से जानेवाला एक राहगीर मिल गया. अबूतालिब ने किसी तरह की हिचक-झिझक
के बिना उसे रोका, उससे तंबाकू और दियासलाई
माँगी और सिगरेट पीने लगे.
साफ
बात यह है कि अबूतालिब की ऐसी हरकतें मुझे अच्छी नहीं लगीं. दागिस्तान के जन-कवि, अपने सारे जनतंत्र के विख्यात व्यक्ति और सरकार के सदस्य, वे कभी तो रंगमंच पर जुरना बजाते थे, कभी प्रकाशनगृह
की सेक्रेटरी के बर्तनों की मरम्मत करने को तैयार थे, कभी
देर से रात को मखचकला की सड़क पर मिल जानेवाले राहगीर से तंबाकू माँगते थे. मगर
मैंने बुजुर्ग की लानत-मलामत नहीं की. मुझे डर था कि वे नाराज हो जाएँगे. चुनांचे
मैंने उनसे यह कहा -
'आप काफी बड़ी उम्र के हो चुके हैं, अबूतालिब. अगर आप
सिगरेट पीना छोड़ दें, तो क्या यह आपकी सेहत के लिए ज्यादा
अच्छा नहीं रहेगा?'
'मतलब यह कि आज सिगरेट पीना छोड़ दो, कल बर्तनों की
मरम्मत करना छोड़ दो और परसों जुरना बजाना छोड़ दो. ऐसा करने पर तो मैं अपने आप
ही कविता-रचना बंद कर दूँगा, वे खुद-ब-खुद ही मुझसे दूर भाग
जाएँगी. वे उसी अबूतालिब से परिचित हैं और प्यार करती हैं, जो
बर्तनों की मरम्मत करता है, सिगरेटें पीता है और जुरना
बजाता है. अगर मैं अबूतालिब ही नहीं रहूँगा, तो मेरी कविताओं
को मेरी क्या जरूरत रहेगी? मैं अबूतालिब गफूरोव हूँ,
रसूल हमजातोव नहीं, जो सिगरेट पीना चाहता और
बर्तनों की मरम्मत नहीं कर सकता, मगर लेखक-संघ का संचालन
करने में समर्थ है. इसी तरह मैं न तो यूसुफ खापालायेव हूँ, न
नूरूद्दीन यूसुफोव, न मक्सिम गोर्की और न ही जोश्चेंको...'
(उन दिनों जोश्चेंको की कड़ी आलोचना हो रही थी और इसलिए अबूतालिब का उसका
नाम भी याद आ गया.)
'पहाड़ी बकरा पहाड़ों के सिवा कहाँ छिप सकता है? नाला
दर्रे के सिवा कहाँ बह सकता है? तुम मेरे सिर पर पराई फर की
टोपी नहीं रखो. तुम हाथ धोकर मेरे अतीत के पीछे क्यों पड़े हो? हाँ, मैं कभी जुरनावादक, चरवाहा
और टीनगर था. मगर क्या मुझे अपने अतीत पर शर्म आती है? वह
अतीत भी तो मेरा ही था, मुझ अबूतालिब का. रसूल, मैं इस वक्त तुमसे जो कह रहा हूँ, मेरे इन शब्दों
को याद कर लो. अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो
भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा. मैंने बीवियों को छोड़ा और बीवियों ने मुझे.
मगर मैं जो काम करना जानता हूँ, वह मुझे छोड़कर नहीं जा सकता
और न ही मैं उसे छोड़ सकता हूँ.'
हाँ, यही थे बुजुर्ग शायर अबूतालिब, मेरे पिता के दोस्त.
वे ऐसे ही थे और इसी रूप में उन्हें ग्रहण करना चाहिए. अगर वे बदल जाते, तो अबूतालिब और कवि भी न रहते.
एक
और किस्सा सुनाता हूँ, जिसका शीर्षक हो सकता है -
अबूतालिब का नया फ्लैट. यह तब की बात है, जब मुझे दागिस्तान
के लेखक-संघ का अध्यक्ष चुना ही गया था. यह ऐसा पद है, जिसमें
कर्तव्यों की तुलना में अधिकार ज्यादा हैं. अगर कोई खुद ही अपने लिए काम न खोजे,
तो मजे से अपना मूलभूत कार्य यानी कविताएँ रचना जारी रख सकता है.
मगर मैं उस वक्त जोशीला नौजवान था. मैंने सरगर्मी दिखानी शुरू की. मैं अपने पद से
संबंधित सभी तरह के काम ढूँढ़ने लगा -
मेरे
ख्याल में अगर कोई आदमी अपने घर की मजबूती और दृढ़ता जाँचना चाहता है, तो वह शहतीरों, कोने के आधार-स्तंभों यानी सभी तरह
के स्तंभों को ही जाँचना शुरू करता है. मैंने ध्यान से देखा और इस नतीजे पर
पहुँचा कि चार जन-कवि - लेजगीन ताहिर खूरियूक्स्की, कुमीक
अली गाजीयेव, अवार जाहिद हाजीयेव और लाक अबूतालिब गफूरोव
दागिस्तान के लेखक-संघ के आधार-स्तंभ हैं. यह समझने के बाद मैंने अपनी कार्रवाई
की योजना बनाई. मैंने यह तय किया कि अगर दागिस्तान के सरकारी प्रतिनिधि से इन चार
महारथियों की भेंट कराई जाए, तो अच्छा रहे, कवि उसे अपनी जरूरतें बताएँगे और सरकारी प्रतिनिधि कवियों के सामने अपनी
इच्छाएँ व्यक्त कर सकेगा.
तो
प्रादेशिक पार्टी समिति के सेक्रेटरी अब्दुर्रहमान दानीयालोव से हमारी बातें हो
रही थीं. चाय की चुसकियाँ लेते हुए अनौपचारिक ढंग से खुलकर बातें की जा रही थीं.
मेरे कवियों की खुशी का तो पारावार नहीं था और चारों एक ही आवाज में यह कह रहे थे
कि हमारे लेखक-संघ का नया प्रधान रसूल हमजातोव कितना अच्छा आदमी है. साथी
दानीयालोव को जन-कवियों से बातचीत करते हुए खुशी हो रही थी और वे भी मन ही मन रसूल
की तारीफ कर रहे थे. मगर मैं ऐसे जाहिर कर रहा था मानो मेरा इस मामले से कोई
सरोकार ही न हो.
हम
लोगों ने दागिस्तान, जीवन और कविताओं की चर्चा की.
आखिर प्रादेशिक समिति के सेक्रेटरी ने कहा कि हर कवि अपनी कोई न कोई इच्छा व्यक्त
करे. ताहिर खूरियूक्स्की ने सबसे पहले अपनी बात कही -
'साथी, दानीयालोव, मुझे इस चीज
से बहुत दुख होता है कि ठंड पड़ने पर बहुत-सी भेड़ें चरागाहों में मर जाती हैं. क्या
गर्मियों में बहुत ज्यादा आदमियों को वहाँ भेजना मुमकिन नहीं, ताकि वे जाड़े भर के लिए चारा तैयार कर लिया करें?'
साथी
दानीयालोव ने कवि के शब्द नोट कर लिए और पूछा -
'कुछ और भी कहना है आपको?'
'हमारे खूरियूक गाँव के सामूहिक फार्म के लिए क्या एक मोटर देना संभव नहीं?'
अब
गाजीयेव अली की बारी आई. उन्होंने अपना मुँह खोला और सेक्रेटरी समेत, हम सभी को अपने पुराने और सड़े हुए दाँत दिखाए.
'क्या मेरे मुँह में अच्छे, नए दाँत नहीं लगवाए जा
सकते? इनसे खाने में तकलीफ होती है. दाँतों के बिना गाने में
भी तो मजा नहीं आता. जब कविता-पाठ करता हूँ, तो सिसकारी-सी
निकलती है.'
गाजीयेव
ने उसी वक्त इस चीज का अमली तौर पर प्रदर्शन भी किया कि दाँतों के बिना कविता-पाठ
में कितनी असुविधा होती है. उन्होंने खासाफयूर्त नगर कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष
को कविता के रूप में भेजी गई अर्जी सुनाई. कविता में बुजुर्ग कवि को घर गर्माने के
लिए कोयला देने की मार्मिक प्रार्थना की गई थी.
'तो मिला कोयला?' दानीयालोव ने पूछा.
'पिछले साल से मामला लटकता चला आ रहा है.'
सेक्रेटरी
ने फिर से कागज पर कुछ लिखा और हम जाहिद हाजीयेव की बात सुनने के लिए तैयार हुए.
'जवान लोग कन्सर्टो में गाने के बजाय चिल्लाते हैं. अपनी चीख-चिल्लाहट
से वे अच्छे लोक-गीतों का सत्यानाश करते हैं. नए गीत ऐसे हैं कि गायकों को
चाहे-अनचाहे चीखने के लिए मजबूर करते हैं. यह सब बंद होना चाहिए. रेडियो पर प्रेम
के बारे में बहुत ही ज्यादा गाया जाता है. कुछ गायक तो प्राचीन दंत-कथाओं की
हूरों का स्तुति-गान भी करते हैं. साथी दानीयालोव, उनसे
कहिए कि वे हूरों का नहीं, बल्कि हमारे कृषि के अग्रणी
कर्मियों का गौरव-गान करें.'
अपनी
बात कहने के बाद हाजीयेव मेरी ओर मुड़े और कान में फुसफुसाए -
'इसके अलावा, यह भी पता चला है कि कल शाहतामानोव और
सुलेमानोव ने रेस्तराँ में शराब पी. लेखकों के लिए शराब पीने की मनाही करनी चाहिए.
इस सिलसिले में मैं तुमसे अकेले में बात करने आऊँगा.'
इसके
बाद अबूतालिब की बारी आई.
'प्यारे अब्दुर्रहमान,' अबूतालिब ने प्रथम
सेक्रेटरी को संबोधित करते हुए कहा, 'मेरी नवीनतम पत्नी ने
मेरे लिए बेटा जना है.'
'नवीनतम' पत्नी से आपका क्या मतलब है?'
'मेरी बहुत-सी बीवियाँ हो चुकी हैं. मैं कर ही क्या सकता हूँ - अखबारों
में मेरे फोटो छपते हैं, रेडियो पर मेरी चर्चा की जाती है,
खूब चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को बताया जाता है कि मैं दागिस्तान का
जन-कवि हूँ, संसद-सदस्य हूँ, राजकीय
पुरस्कारों से सम्मानित हो चुका हूँ. भोली-भाली नारियाँ इन बातों के फेर में पड़
जाती हैं, धोखा खा जाती हैं. वे सोचती हैं कि अगर मैं इतना
नामी-गरामी आदमी हूँ, तो महल में रहता हूँगा, मेरे यहाँ माल-मते से संदूक और दौलत से थैलियाँ भरी होंगी. बस, वे मुझसे शादी कर लेती हैं. मगर बाद में वे गरीब अबूतालिब को तलघर में
बैठा पाती हैं. यह उन्हें अच्छा नहीं लगता और वे मुझे छोड़कर भाग जाती हैं.
इसीलिए मेरी बहुत बार शादी हुई है. हाँ, प्यारे अब्दुर्रहमान,
मेरे गीत तो बुलबुलों की तरह आकाश में उड़ानें भरते हैं मगर मैं खुद
तलघर में ही जिंदगी काटता जा रहा हूँ. दयनीय तलघर से मैं अपने स्वर्णिम गीत आकाश
में उड़ाता हूँ. अब मेरी नई बीवी, जिसने मुझे बेटा दिया है,
इस बात की धमकी दे रही है कि अगर मैं अच्छा और नया फ्लैट हासिल
नहीं करूँगा, तो वह मुझे छोड़कर चली जाएगी. वह बच्चे को
छाती से चिपकाए हुए चल देगी... सुनो अब्दुर्रहमान, वह अभी
गई नहीं, मगर मुझे उसके लिए अफसोस होने लगा है, तुम मेरा परिवार नहीं तोड़ो, मुझे ऐसा चूल्हा दे दो,
जहाँ मैं अपना पतीला टिका सकूँ. मैं सत्तर को पार कर चुका हूँ और
मेरी गाड़ी ऊपर की तरफ नहीं, नीचे को जा रही है. इसके अलावा
यह भी सुन लो कि अगर तुम मुझे फ्लैट दे दोगे, तो मैं तुम्हें
भी अपने यहाँ आने की दावत दूँगा.'
एक
हफ्ता भी नहीं बीता कि अबूतालिब को नए फ्लैट की चाबी मिल गई. अलविदा प्यारे तलघर.
हमारे अबूतालिब पुश्किन सड़क के एक नए मकान की तीसरी मंजिल के तीन कमरोंवाले फ्लैट
में चले गए थे.
एक
दिन सड़क पर अबूतालिब से मेरी मुलाकता हो गई. देखकर उन्होंने ऐसा जाहिर किया मानो
लोहे के टुकड़ों के अंबार में, जिसके पास से वे गुजर थे,
कुछ ढूँढ रहे हों.
'सलाम अबूतालिब, कैसी जिंदगी चल रही है नई जगह पर?
फ्लैट तो पसंद है न?'
'कई दिनों से घंटी ढूँढ़ रहा हूँ ताकि उसे घर के पास लटकाकर बजाऊँ और तुम्हें,
त्सादा गाँव के हमजात के बेटे को, अपने यहाँ
मेहमान बुलाऊँ. तीन बार मैंने सागर की तरफ खिड़की खोली और इस उम्मीद से जुरना
बजाया कि तुम उसे सुनोगे और उसकी पुकार पर कान देकर चले आओगे. मगर ऐसा लगता है कि
बहुत बड़ी घंटी के बिना काम नहीं चलेगा. चलकर ढूँढ़ता हूँ.'
हम
इसी वक्त अबूतालिब का नया घर देखने चल दिए. वहाँ तो सिर्फ दीवारें ही दीवारें थीं.
फर्श पर जहाँ-तहाँ वे ऊल-जलूल चीजें पड़ी थीं, जिन्हें
अबूतालिब तलघर से अपने साथ ले आए थे. पुराना जुरना, कुमुज,
लुहार की पुरानी धौंकनियाँ (खुदा ही जाने कि नए फ्लैट में उन्हें
उनकी क्या जरूरत थी), मिट्टी के तेल के पुराने स्टोव,
चिलमचियाँ, बालटियाँ, गागरें,
घुटनों तक के बूट, भेड़ की खाल का कोट.
पहाड़ों पर से बूढ़े लोग अबूतालिब के यहाँ मेहमान आते और सो भी अपने किसी काम-धंधे
के सिलसिले में दौड़-धूप करने. उनकी खुरजियाँ भी पुरानी होतीं. किसी ऐसे ही मेहमान
की खाली खुरजी हाथ में उठाए हुए अबूतालिब ने कहा -
'किस्मत की मारी खुरजी, तू खाली क्यों है? अगर तू भेड़ के मांस जैसी किसी भारी चीज से भरी होती, तो मेरे मेहमान को इंतजार न करना पड़ता. इसीलिए कि तू खाली है, लोगों को कितनी बार बेकार ही चाग पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है.'
तो
अबूतालिब ने नजरों से ऐसी जगह ढूँढ़ते हुए, जहाँ मुझे
बैठा सकते, खाली खुरजी को बुरी तरह कोसा. आखिर जब उन्हें
ऐसी कोई जगह न मिली, तो उन्होंने बड़ा-सा छुरा मेरे हाथ में
थमाया और मुझे खिड़की के पास ले जाकर अहाते में एक छानी की तरफ इशारा करते हुए
बोले -
'वहाँ एक बत्तख बैठी है. जाओ, जाकर उसे हलाल कर डालो.
बस, वही हमारा खाना हो जाएगा.'
मैंने
छानी का दरवाजा खोला, किसी तरह बत्तख को पकड़ा. जब
मैंने उसे हलाल करना शुरू किया, तो वह बुरी तरह छटपटाने लगी.
ऊपर से अबूतालिब की आवाज सुनाई दी -
'कौन ऐसे हलाल करता है? बत्तख का सिर दूसरी ओर कर दो.
क्या तुम यह भी नहीं जानते कि मक्का किधर है?'
कुल
मिलाकर,
मैंने अपना काम अच्छी तरह से पूरा कर दिया और यहाँ तक कि अबूतालिब
भी तारीफ किए बिना न रह सके.
जैसा
कि हमारे यहाँ कहते हैं, अबूतालिब ने चूल्हे पर पतीले
का जीन चढ़ाया और देर तक खाना पकाने के काम में उलझे रहे. इसी बीच मैंने फ्लैट का
अच्छी तरह से जायजा ले लिया. बुजुर्ग शायर बेशक तलघर से निकलकर नए फ्लैट में आ
बसे थे, मगर पुराने पतीले से लेकर पुरानी आदतों तक तलघर की
अपनी सारी जिंदगी यहाँ अपने साथ ले आए थे. फ्लैट में एक भी कुर्सी, मेज, अलमारी, पलंग यानी किसी
भी तरह का कोई फर्नीचर नहीं था.
'कविताएँ कहाँ बैठकर लिखते हैं, अबूतालिब?'
'इन कमरों में तो अब तक मैंने काम की एक भी कविता नहीं लिखी. शुरू में तो
मैं पुराने तलघर में कविता लिखने जाता था. मगर अब वहाँ किसी चित्रकार का स्टूडियो
बना दिया गया है. अल्लाह गवाह है, उस तलघर के मुकाबले में
मुझे यहाँ नींद भी बुरी आती है. वहाँ मेरा खर्च भी कम होता था और मेरे पास वक्त
भी ज्यादा रहता था. लोग भी इस बुरी तरह से परेशान नहीं करते थे. कभी कोई
भूले-बिसरे ही उस तलघर में आता था. हाँ, यह सच है कि वहाँ से
समुद्र की झलक नहीं मिलती थी. मगर अब वह हर वक्त बूढ़े अबूतालिब की आँखों के
सामने रहता है.'
अबूतालिब
देर तक कास्पियन सागर को गौर से देखते रहे, जो इस वक्त
तूफान के जोरदार थपेड़ों के कारण नीला-सफेद हो रहा था. मैंने उन्हें सागर को
देखने दिया, किसी तरह का खलल नहीं डाला. हम खामोश रहे. कुछ
देर बाद अबूतालिब ने कहा - 'रसूल, मैं
तुम्हें अपनी जिंदगी के दो दिनों, एक सबसे ज्यादा खुशी और
एक सबसे ज्यादा गम के दिन के बारे में बताता हूँ.'
'बताइए.'
'बात यह है रसूल, कि यों तो मेरी जिंदगी में खुशी के
बहुत दिन आए हैं. राजकीय पदक मिला - मुझे खुशी हुई; फ्लैट की
चाबी मिली - मुझे खुशी हुई; तीसरे दशक में जब लाल सेना ने
फौजी घोड़ा दिया - मुझे खुशी हुई. उन दिनों घोड़े पर सवार हो मैं लाल सेना के साथ
जाता था, दस्ते का जुरना-वादक था. लड़ाई के रास्तों पर
मेरा घोड़ा कमांडर के घोड़े के बिल्कुल पीछे रहता था. इससे भी मुझे खुशी होती थी.
मगर फिर भी मेरी सबसे पहली और सबसे बड़ी खुशी वह नहीं थी.
'मेरी जिंदगी में सबसे ज्यादा खुशी का दिन तब आया था, जब मैं ग्यारह साल का था और बछड़े चराता था. मेरे पिता ने जिंदगी में
पहली बार मुझे जूते भेंट किए. वे नए जूते पाकर मेरी आत्मा में गर्व की जो भावना
पैदा हुई, उसे बयान करने के लिए शब्द नहीं मिल सकते. मैं अब
बेधड़क उन खड्डों में और उन पगडंडियों पर जाता, जहाँ एक ही
दिन पहले तक नुकीले, ठंडे पत्थरों से मेरे पाँव जख्मी हो
जाते थे. अब मैं दृढ़ता से इन पत्थरों पर पैर रखता, न दर्द
और न ठंड महसूस करता.
'मेरी खुशी तीन दिन तक बनी रही और उनके बाद मेरी जिंदगी के सबसे कड़वे मिनट
आए. चौथे दिन पिता जी बोले -
'सुनो अबूतालिब, तुम्हारे पास अब नए, मजबूत जूते हैं, तुम्हारे पास लाठी है और ग्यारह
साल तक तुम इस धरती पर जी भी चुके हो. वक्त आ गया है कि अपनी रोजी-रोटी की फिक्र
में अब तुम अपनी राह पकड़ो.'
'पिता जी ने कहा कि मैं गाँव-गाँव घूमकर भीख माँगा करूँ. उस वक्त मेरे दिल
पर जैसी गुजरी, वैसी तो बाकी सारी जिंदगी में भी नहीं गुजरी.
मेरी आँखों से आँसू तो बाद में भी बहे, मगर वैसे कड़वे आँसू
वे नहीं थे.
'एक लेखक ने मेरे बारे में कहा है कि 'अबूतालिब को
नया फ्लैट मिल गया है. देखेंगे कि उसमें वह कैसी कविताएँ लिखता है.' जैसे कि मुझे यह मालूम न हो कि कविताएँ फ्लैट पर निर्भर नहीं करतीं. अपनी
कविताओं के लिए कवि खुद फ्लैट है. कवि का हृदय ही उसकी कविता का घर है. मेरे जीवन
के सुख-दुख के सभी क्षण मेरी आत्मा में साँस लेते हैं. मैं खुद कहाँ रहता हूँ,
इसका कोई महत्व नहीं है.'
अबूतालिब
के फ्लैट ने मुझे परेशान कर दिया. मैंने दागिस्तान जनतंत्र के कर्ता-धर्ताओं से
उसकी चर्चा की. यह तय पाया गया कि अबूतालिब की किताब 'अबाबीलें दक्षिण को उड़ती हैं' की रायल्टी का एक
हिस्सा कवि के नए फ्लैट के लिए नया और अच्छा फर्नीचर खरीदने के लिए इस्तेमाल
किया जाए. इसके लिए 'कारगुजारी की तिकड़ी' बनाई गई : दागिस्तान के पुस्तक-प्रकाशन गृह के डायरेक्टर, व्यापार-मंत्री और मुझे यह काम सौंपा गया. हमें जरूरी फर्नीचर ढूँढ़ना,
खरीदना और अबूतालिब के घर पहुँचाना था. इस काम के सिलसिले में पैदा
होनेवाले सभी मामलों के बारे में सारी बातचीत करने का भार मुझे सौंपा गया.
हम
तीनों ने मखचकला के सभी फर्नीचर-गोदामों के चक्कर लगाए और जरूरी फर्नीचर चुन लिया.
सोने के कमरे के लिए, ताकि हमारे जन-कवि मजे से
आराम करें, लिखने-पढ़ने के कमरे के लिए ताकि वे अपनी बढ़िया
कविताएँ रचें, खाने-पीने के कमरे के लिए, ताकि वे लजीज पकवान खाएँ और मीठे पेय पिएँ.
हमारा
ख्याल था कि यह सारा फर्नीचर पाकर और उसे करीने से सजाकर अबूतालिब हम लोगों के
प्रति आभार प्रकट करने भागे आएँगे. मगर उनसे तो हमें सहज शुक्रिया या यह भी सुनने
को नहीं मिला कि फर्नीचर पहुँच गया है. तब हमने खुद ही अबूतालिब के यहाँ जाकर यह
देखने का फैसला किया कि हमारे खरीदे हुए फर्नीचर का उन्होंने क्या किया है.
हमें
दरवाजे पर दस्तक देने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि
फ्लैट का दरवाजा खुला था. हम कमरे में दाखिल हुए. खाने की मेज के करीब अबूतालिब
अपने परिवार के साथ कालीन पर बैठे थे. घर के सभी लोग घेरा बनाए हुए उकड़ूँ बैठे थे
और उनके सामने अखबार पर खाना रखा हुआ था. अबूतालिब प्लेट में से दही खा रहे थे.
खाने की चमकती हुई मेज की तरफ अबूतालिब ऐसे देख रहे थे मानो वह आलिंगन में बँधने
को आतुर कोई लड़की हो, मगर जिसे बाँहों में कसने की अबूतालिब
की कोई इच्छा न हो.
दूसरे
कमरे में हमें लिखने की बहुत ही बढ़िया मेज दिखाई दी. उस पर कागज रखे थे. जिन्हें
छुआ तक नहीं गया था, पेन और स्याही की दवात रखी
थी. ये सभी चीजें और खुद मेज भी इस्तेमाल की चीजों के बजाय संग्रहालय में
प्रदर्शित वस्तुओं जैसी अधिक लगती थीं. कमरे के एक कोने में फर्श पर अरबी लिपि
में लिखे हुए कुछ कागज पड़े थे.
'अबूतालिब, क्या आप आधुनिक लिपि नहीं जानते?'
'जानता हूँ, मगर पुराने ढंग से लिखने की आदत पड़ी हुई
है. पहले अरबी लिपि में लिख लेता हूँ और फिर संपादक के लिए आजकल की लिपि में नकल
करता हूँ यानी खुद अपनी रचनाओं का रूपांतर करता हूँ.'
'पलंग पर एक बार भी नहीं सोए,' अबूतालिब की बीवी ने
हमें बताया. 'बेकार ही आपने इतनी महँगी चीजें खरीदीं.'
'पलंग की भी खूब कही! शुरू में शहर में अपनी जिंदगी के पहले साल में मैं
तकिए की जगह पत्थर रख लेता था और तकिए के मुकाबले में ज्यादा गहरी नींद सोता था.
जब बछड़े चराया करता था, उन्हीं दिनों मुझे पत्थर पर सिर
रखकर सोने की आदत पड़ गई थी.'
'तो मतलब यह है कि हमने आपके लिए जो चीजें खरीदी हैं, आप उनसे खुश नहीं हैं? पढ़़ने-लिखने के कमरे के
फर्नीचर से, इन कुर्सियों, इस मेज और
अलमारी से?'
'फर्नीचर बहुत अच्छा है. मगर वह मेरे पड़ोसी गोडफ्रीड हसनोव के लिए ज्यादा
अच्छा रहता.'
'गोडफ्रीड हसनोव अच्छा पड़ोसी है?'
'मुमकिन है कि वह अच्छा आदमी हो, मगर हमारे बीच तो
खट-पट ही रहती है.'
'वह क्यों?'
'वह कुछ अधिक ही सुसंस्कृत है. इसके अलावा मैं कुछ ज्यादा ही देहाती हूँ
और वह ज्यादा ही शहरी है. मैं कुछ ज्यादा ही पहाड़ी हूँ और वह ज्यादा ही मैदानी
है. हमारी फर की टोपियाँ भी अलग-अलग हैं. शायद सिर भी एक जैसे नहीं हैं. मैं अपनी
धरती का बेटा हूँ और वह अपने धंधे का. वह मेरे जुरने और उसकी धुन को बर्दाश्त
नहीं कर सकता और मैं उसके पियानो और सिंफोनी को. उसके संगीत का मजा लेने की कोशिश
करता हूँ, मगर नहीं ले पाता. यही हाल उसका है - मैं जुरना
हाथ में लेता ही हूँ कि वह दरवाजा खटखटाने लगता है - 'अबूतालिब
तुम मुझे काम नहीं करने देते!' मैं उससे झूठ-मूठ कहता हूँ कि
यह तो रेडियो से आवाज आ रही है. वास्तव में कई बार ऐसा हुआ भी है कि उसने उस वक्त
मेरा दरवाजा खटखआया, जब रेडियो पर जुरना-वादन हो रहा था. तो
यह समझना चाहिए कि वह न सिर्फ मुझे जुरना-वादन हो रहा था. तो यह समझना चाहिए कि वह
न सिर्फ मुझे जुरना-वादन से, बल्कि रेडियो पर उसे सुनने से
भी मना करता है. थोड़े में यह कि हम एक-दूसरे से बिल्कुल अलग आदमी हैं. मेरे यहाँ
पहाड़ों और देहातों से खुरजियोंवाले, उसके यहाँ मास्को से
थैलेवाले मेहमान आते हैं. मैं बूजा और लहसुनवाले खीनकालों से अपने मेहमानों की
खातिर करता हूँ और वह अपने मेहमानों के सामने ब्रांडी और कॉफी पेश करता है. मैं
मंडी में जाता हूँ, वह दुकानों पर. जब मैं सोता हूँ, तो वह अपना संगीत रचता है, और जब वह सोता है,
तो मैं अपनी कविताएँ लिखता हूँ. उसे शहरी क्यारियों में खिलनेवाले
फूल पसंद हैं और मुझे ऊँची पहाड़ी चरागाहों में महकती हुई घासें. सुन रहे हैं न,
वह इस वक्त भी अपनी कोई सिंफोनी बजा रहा है.'
अबूतालिब
के पड़ोसी को हम अच्छी तरह जानते थे. वह दागिस्तान और रूसी संघ का प्रतिष्ठित
कला कार्यकर्ता गोडफ्रीड अलीयेविच हसनोव था. उन दिनों वह पियानो के लिए अपना कंसर्ट
रच रहा था. मैंने बहुत खुशी से उसका सूक्ष्म और प्रेरणापूर्ण संगीत सुना. मेरे
दिमाग में यह ख्याल आया - 'इन दो बड़ी और जोरदार
प्रतिभाओं - अबूतालिब की साधारण जन-प्रतिभा और हसनोव की व्यावसायिक तथा सुशिक्षित
प्रतिभा - को यदि मिलाकर एक कर दिया जाए, तो वास्तव में ही
कैसी अद्भुत सिंफोनी बन सकती है!'
मेरे
दिमाग में यह बात भी आई कि अगर अपनी कविताओं, अपनी
किताबों में मैं इन दो धाराओं - अपनी जनता का सरल चरित्र, उसकी
निश्छल खुली आत्मा तथा सधी हुई व्यावसायिक दक्षता - को मिला सकूँ, तो यह बहुत बड़ी सफलता होगी. मैं चाहता हूँ कि अबूतालिब और गोडफ्रीड मेरी
कविताओं में घुल-मिल जाएँ. मैं चाहता हूँ कि मेरे कृतित्व में वे वास्तविक जीवन
जैसे नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण पड़ोसी हों.
हाँ, मैं इन दो सिद्धांतों के शांतिपूर्ण हेल-मेल की आशा करता हूँ किंतु यदि
ऐसा संभव नहीं हो सकता और मुझे चुनने के लिए मजबूर ही होना पड़े... तो मैं आजकल के
बढ़िया-से-बढ़िया पेय की तुलना में पहाड़ी चश्मे की ठंडी, निर्मल
धारा को ही तरजीह दूँगा. मेरा अभिप्राय यह है कि संस्कृति, सभ्यता
और पेशे की सूक्ष्मता - अगर इनका अभाव है - तो इन्हें प्राप्त किया जा सकता है.
मगर जातीयता की भावना और लोक-भावना व्यक्ति को जन्म से ही मिलती है. जन-कवि और
जुरना-वादक अबूतालिब अन्य परिस्थितियों में पेशेवर संगीतज्ञ और स्वरकार भी बन
सकते थे, मगर मेरे ख्याल में पेशेवर स्वरकार और संगीतज्ञ
गोडफ्रीड के लिए कभी भी साधारण जन-गायक बनना संभव नहीं था.
जब
हम अबूतालिब से विदा लेकर चलने को हुए, तो अचानक
उन्होंने पूछा -
'रसूल, मेरे यहाँ क्या टेलीफोन नहीं लग सकता?'
'आप तो लिखने की मेज और पलंग का भी इस्तेमाल नहीं करते, तो टेलीफोन का क्या करेंगे?'
'टेलीफोन पर मैं अपना जुरना बजाया करूँगा. कभी मास्को में निकोलाई तीखोनोव
को तो कभी अपने सामूहिक फार्म के अध्यक्ष को जुरना सुनाया करूँगा. मेरे अध्यक्ष
को यह तो मालूम होना ही चाहिए कि मेरा जुरना पहले जैसे वही गीत गाता है. टेलीफोन
पर मेरा जुरना सुनकर अध्यक्ष यह समझ जाएगा कि मेरे शहरी फ्लैट में हमारे पहाड़ों
की ध्वनियाँ और गंधें साँस लेती हैं.'
'हटाइए अबूतालिब, पहाड़ों की गंध से महकी हुई आपकी
धुनें टेलीफोन के बिना ही मास्को तक, आपके जन्म-गाँव तक और
दागिस्तान के सभी गाँवों तक पहुँच जाएँगी. वे पहाड़ों से भी ऊँची उड़ानें भरती
हुई धरती के ओर-छोर तक जा पहुँचेंगी.'
अब
मैं अबूतालिब से विदा लेता हूँ और वह घटना सुनाता हूँ, जो मेरे साथ और मेरे पिता जी के साथ घटी.
संस्मरण.
न जाने क्यों, मगर हम दोनों एक-दूसरे को अपनी कविताएँ
नहीं सुनाते थे, यहाँ तक कि उनकी चर्चा भी नहीं करते थे.
पिता जी की नई कविताओं का मुझे तभी पता चलता था, जब वे छप
जाती थीं या जब उन्हें रेडियो से प्रसारित किया जाता था. या फिर जब यार-दोस्त उन
कविताओं को सुनकर उनकी चर्चा करते थे. इसी तरह पिता जी को भी मेरी नई कविताओं के
छप जाने तक उनके बारे में कुछ भी मालूम नहीं होता था.
1949 में अवार समाचार-पत्र में मेरी लंबी कविता 'मेरा
जन्म-वर्ष' छपी. जाहिर है कि वह पत्र पिता जी के हाथों में
भी पहुँचा और अचानक पेंसिल के निशानोंवाली एक प्रति मेरे हाथ लग गई. मैंने क्या
पाया कि पिता जी ने बहुत ध्यान से मेरी कविता पढ़ी थी और बहुत-सी पंक्तियों को
अपने ढंग से बदल दिया था. यह देखना कुछ मुश्किल नहीं था कि पिता जी ने मेरी अधिक
अलंकृत पंक्तियों को ही बदला था, उन्हें मेरी अधिक जटिल
लक्षणाएँ, अधिक चटकीली उपमाएँ पसंद नहीं आई थीं. मेरी
पंक्तियों के ऊपर लिखी पंक्तियों में पिता जी ने अधिक सीधे-सादे, स्पष्ट और समझ में आनेवाले ढंग से विचारों को व्यक्त करने का प्रयास
किया था.
मुझे
अब तक इस बात का बहुत अफसोस है कि हमजात द्वारा सुधारी गई पंक्तियोंवाला यह पत्र
सुरक्षित नहीं रहा. मेरी यह आदत है कि जैसे ही कविताएँ छप जाती हैं, मैं उनके प्रारंभिक रूपों और पांडुलिपियों के विभिन्न रूपों की प्रतियाँ
जला डालता हूँ.
पिता
जी के अधिकांश सुधारों से मुझे खुशी हुई. मैंने देखा कि कविता बेहतर हो गई है, मगर बहुत-से सुधारों से मैं सहमत नहीं था. मैंने पिता जी से कहा -
'यह सही है कि आप मुझसे अधिक बुद्धिमान, प्रतिभाशाली
और अधिक बड़े कवि हैं. मगर मैं दूसरे युग का कवि हूँ. मैं दूसरी साहित्यिक
प्रवृत्ति से संबंध रखता हूँ, मेरी साहित्यिक रुचियाँ दूसरी
हैं, शैली दूसरी है - सभी कुछ दूसरा है. इन सुधारों में
हमजात त्सादासा की छाप बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती है. मगर मैं तो हमजात नहीं
हूँ, सिर्फ रसूल हमजातोव हूँ. मुझे अपनी शैली, अपने ढंग का अनुकरण करने दीजिए.'
'तुम्हारी बात सही नहीं है. तुम्हारी कविताओं में तुम्हारी शैली,
तुम्हारे ढंग यानी तुम्हारी पसंद और प्रकृति का गौण स्थान होना
चाहिए. अपनी जनता की पसंद और प्रकृति को प्रथम स्थान देना चाहिए. सबसे पहले तो
तुम पहाड़ी हो, अवार हो और उसके बाद ही रसूल हमजातोव हो.
अपनी कविताओं में तुम अपनी भावनाओं को ऐसे अभिव्यक्ति देते हो, जैसे किसी एक पहाड़ी लोगों की भावनाओं और उनके मिजाज के लिए बिल्कुल
अजनबी होंगी, तो तुम्हारा ढंग केवल ढंग ही बनकर रह जाएगा और
तुम्हारी कविताएँ सुंदर और शायद दिलचस्प खिलौने ही बनकर रह जाएँगी. अगर बादल ही
नहीं होंगे, तो बारिश कहाँ से होगी? आकाश
ही नहीं होगा, तो बर्फ कहाँ से गिरेगी? अगर अवारिस्तान, अवार जाति ही नहीं होगी, तो रसूल हमजातोव कहाँ से आएगा? अगर सदियों के दौरान
तुम्हारी जनता के लिए बनाए गए नियम ही नहीं होंगे, तो तुम्हारे
अपने नियम कहाँ से बन जाएँगे?'
तो
एक बार ऐसी बातचीत हुई थी मेरी अपने पिता जी से. मेरे जीवन के बाकी सभी वर्षों, मेरी बाकी सभी राहों ने बाद में इसी बात की पुष्टि की कि पिता जी ने उस
वक्त जो कुछ कहा था, वह सही था.
तीसरी
बीवी का किस्सा. एक नौजवान दागिस्तानी कवि मास्को के साहित्य-संस्थान में
पढ़ने गया. एक साल बीता, तो अचानक उसने यह ऐलान कर
दिया कि अपनी बीवी, दूरस्थ पहाड़ी औरत को तलाक दे रहा है.
'किसलिए तलाक दे रहे हो?' हमने उससे पूछा, 'बहुत अर्सा नहीं हुआ तुम्हें शादी किए और जहाँ तक हमें मालूम है तुमने
उससे इसीलिए शादी की थी कि उसे प्रेम करते थे. तो अब क्या हो गया?'
'हमारे बीच अब कुछ भी तो सामान्य नहीं है. वह शेक्सपीयर से अपरिचित है,
उसने 'येव्गेनी ओनेगिन' नहीं पढ़ा, उसे यह मालूम नहीं कि 'लेक स्कूल' किसे कहते हैं और उसने मेरिमे के बारे
में भी कभी नहीं सुना.'
कुछ
ही समय बाद नौजवान कवि मास्कोवासिनी पत्नी के साथ, जिसने
संभवतः मेरिमे और शेक्सपीयर के बारे में सुना था, मखचकला
आया. हमारे शहर में वह सिर्फ एक साल रही और फिर उसे मास्को लौटना पड़ा, क्योंकि पति ने उसे तलाक दे दिया था.
'तुमने उसे तलाक क्यों दे दिया?' हमने उससे पूछा. 'तुमने हाल ही में शादी की थी और वह भी इसलिए कि उसे प्यार करते थे. तो अब
क्या हो गया?'
'इसलिए कि हमारे बीच कुछ भी तो सामान्य नहीं था. वह अवार भाषा का एक भी
शब्द नहीं जानती, अवार रीति-रिवाजों से अपरिचित है, पहाड़ी लोगों, मेरे हमवतनों का मिजाज नहीं समझती,
उसे उनका अपने घर में आना अच्छा नहीं लगता. वह एक भी अवार कहावत,
अवार पहेली या गीत नहीं जानती.'
'तो अब तुम क्या करोगे.'
'शायद तीसरी बार शादी करनी पड़ेगी.'
मुझे
लगता है कि तीसरी बीवी खोजने के पहले इस नौजवान कवि को खुद अपने को समझना चाहिए.
मैं
चाहता हूँ कि मेरी किताब में अवार पर्वत भी हों और शेक्सपीयर के सॉनेट भी. यही
कामना है कि मेरी किताब वह तीसरी बीवी हो, जिसे नौजवान
दागिस्तानी कवि अभी तक खोज रहा है.
नोटबुक
से. मखचकला में चालीस फ्लैटोंवाला लेखक-भवन बनाया गया. फ्लैटों का बँटवारा शुरू
हुआ. कुछ लेखकों ने कहा कि प्रतिभा के अनुसार फ्लैट बाँटे जाएँ, दूसरे बोले कि बच्चों की संख्या को ध्यान में रखा जाए.
यह
तो कहना ही पड़ेगा कि लेखकों में फ्लैटों का बँटवारा मुश्किल काम है. मगर
जैसे-तैसे यह काम सिरे चढ़ गया. चालीस लेखकों के परिवार इन फ्लैटों में आ बसे, उन्होंने गृह-प्रवेश की दावतें उड़ा लीं. अगले दिन बीस लेखकों की बीवियाँ
एक साथ मास्को रवाना हो गई. वे कुछ दिन बाद ऐसी थकी-हारी और दुबली-पतली होकर
लौटीं मानो जंग के मोर्चे से आई हों. कुछ दिन बीतने पर मालगाड़ी से मास्को का नया
फर्नीचर हमारे शहर पहुँचने लगा.
हुआ
यह कि शुरू में वे बहुत देर तक फर्नीचर खोजती और चुनती रहीं. बाद में एक ने हिम्मत
करके फर्नीचर खरीद लिया. दूसरी बीवियाँ यह नहीं चाहती थीं कि उनका फर्नीचर घटिया
हो. बदकिस्मती से पहली बीवी ने सबसे महँगा फर्नीचर खरीदा था और उससे ज्यादा
महँगा फर्नीचर खरीदकर बाजी मार लेना मुमकिन नहीं था. नतीजा यह हुआ कि बीस के बीस
फ्लैट कंधे के दाँतों की तरह बिल्कुल एक जैसे लगते हैं. ऐसे फ्लैट में आने पर यह
नहीं कहा जा सकता कि इसमें अवार लोग रहते हैं.
रहे
दूसरे बीस फ्लैट, तो उनकी दहलीज पर कदम रखते ही
सुखाए हुए मांस और घर की बनी सासेजों, बूजा, भेड़ की खाल और भेड़ की भुनी हुई चर्बी की तेज गंध नाक में घुस जाएगी. हाँ,
यहाँ इस बात का तो पता चलता है कि अवार लोग रहते हैं, मगर यह अनुभव नहीं होता कि वक्त की नब्ज को समझने और महसूस करनेवाले
लेखक रहते हैं.
मैं
चाहता हूँ कि मेरी किताब का हर पाठक फौरन यह समझ जाए कि यहाँ अवार रहते हैं, मगर साथ ही वह यह भी समझ जाए कि यहाँ उसका समकालीन, 20वीं शताब्दी का आदमी रहता है.
मैं
न तो सिर्फ धूप और न सिर्फ छाया ही चाहता हूँ. मेरे फ्लैट में ऐसी बड़ी-बड़ी
खिड़कियाँ हों, जिनमें से धूप छने, मगर
उसमें छायादार एकांत-शांत कोने भी हों. मेरी चाह है कि मेरे फ्लैट में हर मेहमान
आराम, सुविधा और बेतकल्लुफी महसूस करे, कि वह वहाँ से जाना न चाहे, या शायद (मेहमानों के
बारे में) यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे अफसोस के साथ वहाँ से जाएँ और खुशी से
फिर लौटना चाहें.
एक
बार जापान में विभिन्न देशों के हम प्रतिनिधि अपने दिलों पर पड़ी उस देश की छाप
के संबंध में पारस्परिक चर्चा करने लगे. हम उस फव्वारे के करीब खड़े थे, जो उन्हीं दागिस्तानी पत्थरों से बना प्रतीत होता था, जो हमारे गाँव में उस जगह लगे हुए हैं, जहाँ लोगों
की मजलिस जमती है.
'अद्भुत देश है,' सबसे पहले अमरीकी स्वरकार बोला,
'मुझे तो जापान में जैसे औद्योगिक उन्नतिवाले अमरीका का रूप दिखाई
दे रहा है.'
'अजी नहीं,' हैटी के पत्रकार ने आपत्ति की. 'मैं अभी-अभी एक जापानी गाँव से लौटा हूँ, जापान तो
हमारे छोटे-से द्वीप से ही अत्यधिक मिलता-जुलता है.'
'जनाब, आप लोगों की बहस बेकार है, पेरिस के सभी सुख-दुख यहाँ एक साथ इकट्ठे हो गए हैं,' फ्रांसीसी वास्तुशिल्पी ने उन दोनों से अलग अपना मत प्रकट किया.
मगर
मैं जापानी फव्वारे के उन पत्थरों को देख रहा था, जो
अवार गाँव से लाए गए प्रतीत होते थे, और सोच रहा था,
'अद्भुत देश है जापान. उसमें वह सभी कुछ है, जो
दुनिया के दूसरे सभी देशों में है, मगर फिर भी वह अन्य किसी
देश के समान नहीं है. वह जापान है.'
मेरी
किताब,
तुम में भी हर कोई अपने को देख सके, फिर भी
तुम मेरी किताब रहना, अपना अलग रूप बनाए रखना, अन्य सभी किताबों से भिन्न रहना. तुम मेरा अवार, मेरा
दागिस्तानी घर हो. इस घर में उस सब के करीब ही, जो सदियों
से रहा है, वह भी दिखाई दे, जो यहाँ
कभी नहीं रहा.
पिता
जी कहा करते थे कि जिस साहित्यिक रचना में लेखक स्पष्ट दिखाई नहीं देता, वह सवार के बिना भागे जाते घोड़े के समान है.
कहते
हैं कि एक पहाड़ी के घर में लगातार बेटियाँ ही जन्म लेती थीं, मगर वह बेटा चाहता था. हर आदमी उस बदकिस्मत बाप को कोई-न-कोई सलाह देना
अपना कर्तव्य समझता था. इतनी सलाहें मिलीं उसे कि आखिर वह झल्ला उठा और बोला -
'बस, रहने दीजिए अपनी सलाहों को. उन्हें सुनते-सुनते
मैं जो कुछ करना जानता था, वह सब भी भूल गया.'
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