मातृभाषा
त्सादा का कब्रिस्तान...
श्वेत कफन से, अंधकार-से ढके हुए
प्रिय पड़ोसियो, तुम कब्रों में दफन यहाँ
तुम हो निकट, न फिर भी घर को लौटोगे
लौटा मैं घर, दूर बहुत जा, कहाँ-कहाँ
यहाँ गाँव में दोस्त
बहुत कम अब मेरे
रिश्तेदार न अब तो
मेरे बहुत रहे,
बड़े बंधु की बेटी, अरे, भतीजी भी
स्वागत मेरा करे न
चाचा मुझे कहे.
हँसमुख, अल्हड़ बच्ची, तुम पर क्या बीती?
साल गुजरते जाएँ, ज्यों जलधार बहे,
खत्म पढ़ाई की स्कूल
की सखियों ने
किंतु जहाँ तुम, वहाँ न कुछ भी शेष रहे.
मुझे बड़ा ही अजब, बेतुका यहाँ लगा
जहाँ न कोई प्राणी, सब सुनसान पड़ा,
वहीं, गाँव के साथी की है कब्र जहाँ
सहसा उसका जुरना बाजा, झनक उठा.
जैसे कभी पुराने वक्तों
में, अब भी
उसके साथी की खंजड़ी
भी गूँज उठी,
मुझको लगा कि अपने
किसी पड़ोसी की
खुशी मनाते हैं वे, उसकी शादी की.
नहीं... यहाँ जो रहते, शोर नहीं करते
कोई भी तो यहाँ नहीं
देता उत्तर...
कब्रिस्तान त्सादा
का, नीरव, गुपचुप
मेरे गाँववासियों का
यह अंतिम घर.
तुम बढ़ते जाते, सीमाएँ फैल रहीं
तंग तुम्हारा होता
जाता हर कोना,
है मुझको मालूम एक
दिन आएगा
मुझे यहीं पर जब आखिर
होगा सोना.
राहें हमें कहीं ले
जाएँ, वे मिलतीं
अंत सभी का एक, सभी आ मिलें यहीं
किंतु त्सादा के कुछ
लोगों की कब्रें
नजर नहीं आती हैं
मुझको यहाँ कहीं
नौजवान भी, बूढ़े कर्मठ सैनिक भी
घर से दूर, अँधेरी कब्रों में सोते,
जाने कहाँ हसन है, कहाँ मुहम्मद है?
घर से कितनी दूर मरे
बेटे-पोते?
अरे बंधुओ, तुम शहीद हो गए कहाँ?
कभी हमारा मिलन न
होगा, ज्ञात मुझे
किंतु तुम्हारी
कब्रें यहाँ त्सादा में
नहीं मिली, दुख देती है यह बात मुझे.
दूर कहीं पर गोली दिल
में तुम्हें लगी
घायल होकर, दूर गाँव से मरे कहीं,
कब्रिस्तान त्सादा
के कब्रें तेरी
जाने, कितनी दूर-दूर तक फैल गई.
ठंडे क्षेत्रों में, अब गर्म प्रदेशों में
बरसे आग, जहाँ हिम के तूफान चलें,
बड़े प्यार से लोग
फूल लेकर आएँ
शीश झुकाकर अपनी
श्रद्धा प्रकट करें.
युद्ध
के समय हमारे गाँव की ग्राम-सोवियत में एक बहुत बड़ा नक्शा लटका हुआ था. उस वक्त
सारे देश में इस तरह के बहुत-से नक्शे लटके हुए थे. आम तौर पर वहाँ लाल झंडियों
के रूप में मोरचे की रेखा अंकित की जाती थी. हमारे नक्शे पर भी झंडियाँ बनी हुई
थीं,
मगर उनका अभिप्राय दूसरा था. ये झंडियाँ उन जगहों पर गाड़ी गई थीं,
जहाँ हमारे त्सादावासी खेत रहे थे. अनेक झंडियाँ थीं नक्शे पर.
उतनी ही, जितने मातृ-हृदय इन तीखे बकसुओं से घायल हुए थे.
हाँ, त्सादा का कब्रिस्तान कुछ छोटा नहीं था, यह पता
चला कि हमारा गाँव भी कुछ छोटा नहीं था.
बेटों
की याद में तड़पनेवाली माताएँ नजूम लगानेवालियों के पास जातीं, नजूम लगानेवालियाँ पहाड़ियों को तसल्ली देतीं - 'देखो,
यह है रास्ता. यह है मोरचा. यह है विजय. तुम्हारा बेटा तुम्हारे
पास लौट आएगा. शांति और अमन-चैन हो जाएगा.'
नजूम
लगानेवालियाँ चालाकी से काम लेती थीं. लेकिन विजय के बारे में उन्होंने गलती नहीं
की थी. रेइखस्ताग की दीवार पर अन्य आलेखों के साथ-साथ संगीन से खुदा हुआ यह आलेख
भी अंकित है - 'हम दागिस्तानी हैं.'
फिर
से बूढ़े,
औरतें और बच्चे अपने घरों की छतों पर खड़े होकर दूर तक नजर दौड़ाते
थे. किंतु अब वे अपने सूरमाओं को विदा नहीं देते थे, बल्कि
उनका स्वागत करते थे. पहाड़ी मार्गों पर लोगों की कतारें नहीं थीं. वे गए तो एक
साथ थे, मगर लौट रहे थे एक-एक ही. कुछ औरतें अपने सिरों पर
चटकीले और अन्य काले रूमाल बाँधे थीं. लौटनेवाले जवानों से दूसरों की माँएँ पूछती
थीं -
'मेरा ओमार कहाँ है?'
'तुमने मेरे अली को तो नहीं देखा?'
'मेरा मुहम्मद जल्द ही वापस आ जाएगा?'
मेरी
अम्माँ ने भी अपने सिर पर काला रूमाल बाँध रखा था. उनके दो बेटे, मेरे दो भाई - मुहम्मद और अखील्वी मोरचे से नहीं लौटे थे. उनमें से अनेक
वापस नहीं आए थे जिन्हें अम्माँ अपनी खिड़कियों से नीज्नी वन-प्रांगण में खेलते
देखती रही थीं. वे नहीं लौटे जिनके बारे में नजूम लगानेवालियों ने जल्द ही लौटने
की भविष्यवाणी की थी. हमारे छोटे से गाँव में एक सौ व्यक्ति वापस नहीं आए. पूरे
दागिस्तान में एक लाख लोग नहीं लौटे.
मैं
नक्शे पर लगी झंडियों को देखता हूँ, जगहों के
नाम पढ़ता हूँ और हमवतनों के नाम याद करता हूँ. मुहम्मद गाजीयेव बारेंत्सेव सागर
में ही रह गया. टेंकची मुहम्मद जागीद अब्दुलमानापोव सिंफरोपोल में शहीद हुआ.
मशीनगन चालक खानपाशा नूरादीलोव, जो चेचेन जाति का, मगर दागिस्तान का बेटा था, स्तालिनग्राद में खेत
रहा. बहादुर कामालोव ने इटली में छापेमारों का नेतृत्व करते हुए वीरगति पाई.
हर
पहाड़ी गाँव में पिरामिडी स्मारक खड़े हैं और उन पर नाम ही नाम लिखे हैं. उनके
करीब पहुँचने पर पहाड़ी लोग घोड़ों से नीचे उतर आते हैं और पैदल चलनेवाले अपने
सिरों पर से समूर की टोपी उतार लेते हैं.
पहाड़ों
में शहीदों के नामवाले चश्मे बहते हैं. बुजुर्ग लोग चश्मों के करीब बैठते हैं, क्योंकि वे पानी की भाषा समझते हैं. हर घर में बहुत ही आदर के स्थान पर
उनके छविचित्र लटके हुए हैं जो चिर युवा और चरि सुंदर बने रहेंगे.
जब
कभी मैं दूर-दराज की किसी यात्रा से लौटता हूँ तो कुछ माताएँ दिल में छिपी आशा लिए
हुए मुझसे पूछती हैं - 'संयोगवश मेरे बेटे से तुम्हारी
कहीं मुलाकात तो नहीं हुई?' इसी तरह मन में आशा और कसक लिए
हुए वे सारसों के लंबे-लंबे काफिलों को जाते हुए देखती रहती हैं. मैं भी अपने करीब
से उड़े जाते सारसों पर से अपनी नजर नहीं हटा पाता हूँ.
2 comments:
जय हो!!
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस पर आपका योगदान सराहनीय है. हम आपका अभिनन्दन करते हैं. हिन्दी ब्लॉग जगत आबाद रहे. अनंत शुभकामनायें. नियमित लिखें. साधुवाद.. आज पोस्ट लिख टैग करे ब्लॉग को आबाद करने के लिए
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बढ़िया !
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