गीत
'बाक्अन.' अवार भाषा के इस शब्द के दो अर्थ हैं -
धुन, लय-सुर और तबीयत, किसी व्यक्ति
का हालचाल, संसार का कुशल-मंगल. जब कोई व्यक्ति यह अनुरोध
करना चाहता है - 'मेरे लिए एक धुन बजा दो', तो 'बाक्अन' शब्द कहा जाता है.
जब यह पूछा जाता है - 'तुम्हारी तबीयत कैसी है या तुम्हारा
कैसा हालचाल है?' - तब भी 'बाक्अन'
शब्द कहा जाता है. तो इस तरह हालचाल और गीत - एक ही शब्द में
घुल-मिल जाते हैं.
पंदूरे
पर आलेख -
मृत्यु-सेज पर खंजर
हँसता-गाता व्यक्ति सुलाए
पंदूरा तो मरे हुए को, जीवित करे, उठाए.
शब्दों, बातचीत को छलनी में से छान लो - गीत बन जाएगा. घृणा, क्रोध और प्यार को छलनी में से छान लो - गीत बन जाएगा. घटनाओं, लोगों के काम-काज, पूरे जीवन को छलनी में से छान लो
- गीत बन जाएगा.
पहाड़ी
लोगों का एक गाना तो विशेष रूप से अबूतालिब का मन छूता था. उसमें शब्द तो इने-गिने
थे और उसका सारा सौंदर्य उसकी कारुणिक टेक 'आई! दाई,
दालालाई!' में ही निहित था. येरोश्का ने गाने
के शब्दों का अनुवाद किया - 'एक नौजवान भेड़ों को चराने के
लिए उन्हें गाँव से पहाड़ पर ले गया, रूसी आ गए, उन्होंने गाँव जला दिया, सारे मर्दों को मौत के घाट
उतार दिया और सारी औरतों को बंदी बना लिया. नौजवान पहाड़ से लौटा - जहाँ गाँव था,
वहाँ अब वीराना था, माँ नहीं थी, भाई नहीं थे, घर नहीं था, सिर्फ
एक पेड़ रह गया था. नौजवान पेड़ के नीचे बैठ गया और फूट-फूटकर रोने गला. वह अकेला,
अकेला रह गया और दुखी होते हुए गाने लगा - 'आई,
दाई! दालालाई!' (लेव तोलस्तोय, 'कज्जाक').
...आई, दाई, दाल्ला-लाई, दाल्ला,
दाल्ला, दुल्ला-लाई-दुल्लालाई! पहाड़ों के
प्यारे और दर्द भरे गीतो, तुम्हारा कब, कहाँ तथा कैसे जन्म हुआ? कहाँ से आ गए तुम इतने
अद्भुत और इतने प्यारे?
पंदूरे
पर आलेख -
तुम्हें लगता है कि
ये धुनें तारों का ही कमाल हैं
किंतु ध्वनियों में
गूँजता हमारे दिल का हाल है.
खंजर
पर आलेख -
दो गीत, दो तेज फल, दो पक्ष, दिशाएँ
हैं
उनमें शत्रु की मृत्यु, आजादी की सदाएँ हैं.
पालने
पर आलेख -
व्यक्ति न कोई इस
दुनिया में
अरे, पालने पर जिसके
प्यारी, प्यारी, मधुर लोरियाँ
गीत न माँ के हों
गूँजें.
सड़क-किनारे
के पत्थर पर आलेख -
मार्ग और गाना, बस, ये ही बनते भाग्य जवान के
साथ सदा ही दोनों
रहते, उसके जीवन-प्राण के.
कब्र
के पत्थर पर आलेख -
वह गाता था, लोग उसे तब सुनते थे
अब वह सुनता, लोग यहाँ जब गाते हैं.
पुराने
गीत,
गए गीत... लोरियाँ, शादी के गीत, जुझारू गीत. लंबे और छोटे गीत. कारुणिक और विनोदपूर्ण गीत. सारी पृथ्वी
पर तुम्हें गाया जाता है. शब्द तो माला की तरह रुपहले धागे में पिरोए जाते हैं.
शब्द तो कील की तरह मजबूती से गड़ जाते हैं. शब्द तो मानो किसी सुंदरी के आँसुओं
की तरह सहजता से जन्म लेते और उभरते आते हैं. शब्द किसी सधे, अनुभवी हाथ द्वारा छोड़े गए तीर की तरह ठीक निशाने पर जाकर लगते हैं. शब्द
तेजी से उड़ते हैं और पहाड़ी पगडंडियों की तरह, जिनपर आखिर
तो पृथ्वी के छोर तक जाया जा सकता है, दूर ले जाते हैं.
पंक्तियों
के बीच का स्थान मानो सड़क है जिस पर तुम्हारी प्रियतमा का घर खड़ा है. यह स्थान
तो पिता के खेत की मेंड़ है. यह तो दिन को रात से अलग करनेवाली उषा और सन्ध्या
है.
कागज
पर लिखे और कागज पर न लिखे हुए गीत. किंतु चाहे कोई भी गीत क्यों न हो, उसे गाया जाना चाहिए. गाया न जानेवाला गीत तो मानो उड़ न सकनेवाला परिंदा
है, मानो स्पंदित न होनेवाला, न
धड़कनेवाला दिल है.
हमारे
पहाड़ी इलाकों में कहा जाता है कि चरवाहे जब गीत नहीं गाते हैं तो भेड़ें घास चरना
बंद कर देती हैं. किंतु जब पहाड़ की हरी-भरी ढलान के ऊपर गीत गूँजता है तो कुछ ही
समय पहले जन्मे और घास चरना न जाननेवाले मेमने भी घास चरने लगते हैं.
एक
पहाड़िये ने अपने पहाड़ी दोस्त से कहा कि वह अपनी मातृभाषा में कोई गीत गाए. या तो
मेहमान एक भी गाना नहीं जानता था, या उसे गाना नहीं आता था,
लेकिन उसने यह जवाब दिया कि उसके जनगण में एक भी गाना नहीं है.
'तब तो यह देखना होगा कि आप स्वयं तो हैं या नहीं? गीत-गाने
के बिना जनगण का अस्तित्व नहीं हो सकता!'
आई, दाई, दाल्लालाई! दाला-दाला, दुल्ला-लाई!
गीत-ये तो वे चाबियाँ हैं जिनसे भाषाओं के निषिध संदूक खोले जाते हैं. आई, दाई, दाल्ला-लाई! दाला-दालादुल्ला-लाई!
मैं
यह बताता हूँ कि गीत का जन्म कैसे हुआ. इसके बारे में मैंने बहुत पहले ही एक
कविता रची थी. यहाँ प्रस्तुत है.
खंजर और कुमुज
युवक एक दर्रे के
पीछे
रहता था जो पर्वत पर,
अंजीरों का पेड़, और था
उसकी दौलत, बस, खंजर.
एक अकेली बकरी जिसे
चराता था वन-प्रांगण
में
किसी खान की बेटी
सहसा
समा गई उसके मन में.
युवक साहसी, समझदार भी
शादी का प्रस्ताव
किया,
खान हँसा सुन बात
युवक की
रूखा उसे जवाब दिया -
'एक पेड़,
खंजर के मालिक
तुम अपना मुँह धो रखो,
जाओ, अपने घर जाकर तुम
बकरी अपनी रोज दुहो.'
बेटी की शादी की उससे
सोने की जिसके मुहरें,
ढेरों भेड़-बकरियाँ
जिसकी
चरागाह में वहाँ
चरें.
युवक निराशा-दुख में
डूबा
राख हुआ दिल भी जलकर,
विरह-वेदना में ही
उसने
लिया हाथ में तब
खंजर.
बलि बकरी की उसने दे
दी
और पेड़ भी काट दिया,
बड़े प्यार से जिसको
रोपा
और खींचकर बड़ा किया.
पेड़-तने से कुमुज
बनाया
बाजा यों तैयार किया,
अँतड़ियाँ लेंकर बकरी
की
उस पर उनको तान दिया.
तार छेड़ते ही बाजे
के
उनसे ऐसा स्वर निकला,
पावन-पुस्तक शब्द
कि जैसे
जैसे कोई स्वर्ग-कला.
तब से कभी न बूढ़ी
होकर
पास प्रेयसी है उसके,
कुमुज और खंजर - ये
दो ही
सिर्फ खजाने हैं
जिसके.
घिरा धुंध में, चट्टानों से
सदा गाँव ऊँचाई पर,
वहीं सामने लटक रहे
हैं
कुमुज साथ में ही
खंजर.
कुमुज
और खंजर. लड़ाई और गीत. प्यार और वीरता. मेरी जनता का इतिहास. इन दो चीजों को
हमारे पहाड़ी लोग सर्वाधिक सम्मानित स्थान देते हैं.
पहाड़ी
घरों में दीवारी कालीनों पर ये दोनों निधियाँ एक-दूसरी के सामने ऐसे टँगी रहती हैं
जैसे कुल चिह्न. पहाड़ी लोग बड़ी सावधानी, आदर और प्यार
से इन्हें हाथों में लेते हैं. आवश्यकता के बिना तो बिल्कुल हाथ में नहीं लेते.
जब कोई व्यक्ति खंजर को कालीन पर से उतारने लगता है तो पीछे से कोई बुजुर्ग जरूर
यह कह उठता है - 'सावधानी से, कहीं
पंदूरे के तार नहीं तोड़ देना.' जब कोई पहाड़िया पंदूरे को
दीवार पर से उतारता है तो पीछे से कोई बुजुर्ग जरूर यह कह उठता है - 'सावधानी से, उँगलियाँ न काट लेना.' खंजर पर पंदूरे और पंदूरे पर खंजर की पच्चीकारी की जाती है. युवती की
चाँदी की पेटी और वक्ष के चाँदी के गहनों पर कुमुज और खंजर को उसी तरह से साथ-साथ
चित्रित किया जाता है, जैसे वे दीवारी कालीन पर साथ-साथ लटकते
रहते हैं. पहाड़ी लोग युद्ध-क्षेत्र में जाते वक्त खंजर और कुमुज को अपने साथ ले
जाते थे. पहाड़ी घर की सम्मानित दीवार सूनी और नंगी-बुच्ची हो जाती थी.
'किंतु युद्ध-क्षेत्र में पंदूरा किसलिए ले जाया जाए?'
'अरे वाह! जैसे ही तारों को झनझनाया जाता है, जैसे ही
उन्हें छुआ जाता है, वैसे ही बाप-दादों का क्षेत्र, प्यारा गाँव और माँ की स्मृतियोंवाला पहाड़ी घर - वह सभी कुछ हमारे पास
आ जाता है. इसी के लिए तो लड़ने और मरने में कोई तुक है.'
'जब तलवारों की टनकार होती है तो गाँव नजदीक आ जाते हैं,' हमारे सूरमा कभी कहा करते थे. किंतु प्यारे गाँवों की राहें पंदूरे की
झनक से अधिक तो कोई कम नहीं करता.
'आई, दाई, दाल्ला-लाई. दाल्ला-दाल्ला-दुल्ला-लाई!'
महमूद
कार्पेथिया के पहाड़ों में गाता था और अपने गाँव, अपने
प्यारे पर्वतों को अपने नजदीक महसूस करता था. उसकी मरियम भी मानो उसके निकट होती
थी. बाद में महमूद ने वसीयत की -
मेरी कब्र जहाँ हो उस
पर, मिट्टी तुम कम डालना
ताकि न ढेले मिट्टी
के, सुनने में बाधा बन पाएँ
ताकि हृदय औ कान सुन
सकें
गीत गाँव में जा
गाएँ.
मेरे प्यारे पंदूरे
को, तुम दफनाना मेरे साथ
ताकि न मेरे गीतों से, वे गहरी निद्रा सो जाएँ,
ताकि दर्द से भरी हुई
आवाज गाँव की सुंदरियाँ
सब ही मेरी सुन पाएँ.
महमूद
ने मानो ऐसे भी कहा था -
पर्वत तक भी झुक जाते
हैं, मेरे पंदूरे को सुनकर
किंतु तुम्हारे दिल
को कैसे द्रवित करूँ, मरियम प्यारी?
साँप-नाग तक लगें
नाचने, मेरे पंदूरे की धुन पर
किंतु तुम्हारे दिल
को कैसे द्रवित करूँ, मरियम प्यारी?
आप
यह जानना चाहते हैं कि पहाड़ी गीत का कैसे जन्म हुआ?
जनता के सपनों में
इसने जन्म लिया
नहीं किसी को ज्ञात
कि कब था यह जन्मा,
यह तो चौड़ी छाती में
मानो पिघला
गर्म रक्त की धाराओं
में यह उबला.
यह तो तारों की ऊँचाई
से आया
दागिस्तानी गाँवों
ने इसको गाया,
सुना सैकड़ों, बहुत पीढ़ियों ने इसको
उससे पहले, जब तुम सुन पाए इसको.
गीत
- ये तो पहाड़ी जल-धाराएँ हैं. गीत - ये तो लड़ाई के मैदान से सरपट घोड़े दौड़ाते
हुए समाचार लेकर आनेवाले हरकारे हैं. गीत - ये तो अचानक मेहमान के रूप में आ
जानेवाले दोस्त हैं, मित्र हैं. आप अपने तरह-तरह
के बाजे-पंदूरा, चोंगूर, चागान,
तुरही, केमांचू, जुरना,
खंजड़ी, हार्मोनियम, ढोल
हाथों में ले लें या चिलमची अथवा ताँबे-काँसे की थाली ही ले लें. ताली से ही ताल
दें. फर्श पर एड़ियाँ ही बजाएँ. सुनिए, तलवारें कैसे तलवारों
से टकराती हैं. सुनिए, प्रेयसी की खिड़की में फेंका हुआ
कंकड़ कैसे तलवारों से टकराता है. हमारे गीतों को गाइए और सुनिए. ये गम और खुशी के
दूत हैं. ये इज्जत-आबरू और बहादुरी के पासपोर्ट हैं, विचारों
और कार्यों के प्रमाणपत्र हैं. ये जवानों को साहसी और बुद्धिमान तथा बूढ़ों और
बुद्धिमानों को जवान बनाते हैं. ये घुड़सवार को घोड़े से उतरने और इन्हें सुनने
को विवश करते हैं. ये पैदल जानेवाले को उछलकर घोड़े पर सवार होने और पक्षी की तरह
उड़ने को मजबूर करते हैं. नशे में धुत को ये नशा दूर करके गंभीर बनाते हैं और अपने
भाग्य के बारे में सोचने को विवश करते हैं और नशे में न होनेवाले को जाँबाज दिलेर
तथा मानो नशे में धुत्त करते हैं. इस दुनिया में किस-किस चीज के बारे में गीत
नहीं हैं! पहाड़ी आदमी को अपने गर्म चूल्हे के पास बैठाइए, उसके
लिए घरेलू, फेनवाली बियर से भरा सींग लाइए और उससे गाने का
अनुरोध कीजिए. वह गाने लगेगा. अगर आप चाहेंगे तो वह सुबह तक गाता रहेगा, सिर्फ आप उससे जोरदार अनुरोध करें और यह भी बता दें कि वह किस बारे में
गाए. प्यार के बारे में? आप प्यार के बारे में भी गीत सुन
सकेंगे.
आई, दाई, दालालाई!
प्यार रक्त-सा लाल, लाल गुललाला-सा
प्यार रात-सा, छल-फरेब-सा, काला-सा.
वह सफेद है, रिबन कि जैसे हो सिर का
वह सफेद है, कफन कि जैसे चादर का.
आसमान के जैसा, वह नीला हिम-सा
वह तो प्यारा तारों
जैसी झिल-मिल-सा.
हिम गिर जाता और
सूखती जल-धारा
प्रेम-पुष्प का रंग
सदा रहता प्यारा.
-
इस दुनिया में सबसे सुंदर क्या है?
-
पहाड़ों में बनफशा का फूल.
-
पहाड़ों में बनफशा के फूल से अधिक सुंदर क्या है?
-
प्रेम.
-
दुनिया में सबसे ज्यादा उज्ज्वल क्या है?
-
प्रेम.
-
आई,
दाई, दालालाई! आपको और किस चीज के बारे में
गीत सुनाएँ?
-
प्रेम के कारण मरनेवाले प्रेमियों के बारे में.
-
रोमियो और जूलियट, ताहिर और जुहरा, त्रीस्तान और इजोल्डा....
क्या
कुछ कम संख्या थी उनकी हमारे दागिस्तान में! कितने थे हमारे यहाँ ऐसे प्रेमी जो
एक-दूसरे के नहीं बन सके! उनके सपने साकार नहीं हुए, उनके
होंठ और हाथ नहीं मिल सके. अनेक जवानों को जंग निगल गई और अनेक प्रेम के कारण मौत
के मुँह में चले गए. वे उसकी आग में जल गए, ऊँची चट्टानों से
नीचे कूद गए, तूफानी नदियों की लहरों में समा गए. अजाइनी
गाँव की युवती और कुमुख गाँव का युवक. तो यह है उनका किस्सा, उनके प्यार का किस्सा. मैं आपको उनके प्यार का अंत बताता हूँ जिसे
दागिस्तान में सभी जानते हैं.
कुमुख
गाँव का युवक अपनी प्रेमिका को एक नजर देख लेने के लिए अजाइनी गाँव में गया. किंतु
वह नजर नहीं आई. युवक ने चार दिन और चार रातों तक राह देखी. पाँचवें दिन वह अपने
घर लौटने के लिए घोड़े पर सवार हो गया.
उसने नीचे देखा -
सूखी धरती पड़ी नजर
था नीला आकाश कि उसने
जब देखा ऊपर.
अरे, कहाँ से बारिश आई, यह पानी बरसा
नौजवान का अरे, लबादा, जिसने भिगो दिया?
वहाँ प्रेयसी मेसेदा
थी खड़ी हुई छत पर
आँसू बहते यों आँखों
से ज्यों निर्झर झरझर.
- 'चार दिनों-रातों तक मैंने तेरी राह तकी.
किस कारण तुम रहीं कि
मुझसे ऐसे छिपी-छिपी?'
- 'बहुत दूर से ही घोड़े की टापों को सुनकर
चार द्वार, तालों का पहरा बिठा दिया मुझ पर,
मेरे भाइयों ने ही
मुझ पर ऐसा जुल्म किया,
चार दिनों तक मैंने
अपने मन को मार लिया.
किंतु पाँचवें दिन
घोड़े पर जब तुम बैठ गए
मेरे धीरज और सब्र के
बंधन टूट गए,
मैंने चारों दरवाजे
भी, ताले तोड़ दिए
ऐसा प्यार प्रबल है
मेरा, वह तूफान लिए!
मुझे माल की तरह, यहाँ पर बेचा जाता है
सब सौदागर, नहीं किसी से मेरा नाता है.
उससे शादी करना चाहें, जिसे न प्यार करूँ
तुम मत जाओ, रुको यहीं पर, तुमसे यही कहूँ.'
...लेकिन
कुमुख से आनेवाला नौजवान अब रूकना नहीं चाहता था.
'जीन कसा
मैंने घोड़े पर, क्या उतार सकता?
क्या कुछ कहें
पड़ोसी, साथी, यह भी जरा बता?
मंगलमय पथ कहा मित्र
ने मुझको विदा किया
फिर से लौटूँ उसके घर
को, यह संभव है क्या?
मैं जाता हूँ हृदय
तुम्हारे पास छोड़ जाता.'
- 'भाई उसको यों नोचें ज्यों कौवा, नोच खाता.'
- 'बड़ी खुशी से अपनी आँखें छोड़ यहाँ जाऊँ.'
- 'भाई चूसें उन्हें दाख सम, मैं यह बतलाऊँ.
हर हालत में मुझे
छोड़ना ही यदि चाह रहे
गाँव-छोर तक घोड़ा ले
जाओ धीरे-धीरे,
तुम लगाम को थाम, गाँव के बाहर तक जाओ
घूम वहाँ तुम, नजर जरा फिर मुझ पर दौड़ाओ.
घाटी में अपने घोड़े
को, घास खिलाना तुम
और नदी पर ठंडा पानी, उसे पिलाना तुम,
जब हो जाए रात, लबादा ढककर सो जाना
जब जागो तो याद हृदय
में मेरी तुम लाना,
जब बारिश हो यही
समझना, आँसू जल बरसे
बर्फ गिरे तो समझो, मेरा दिल तड़पे, तरसे.'
गर्वीले
नौजवान ने घोड़े पर तीन बार चाबुक बरसाया, तीन बार
पीछे मुड़कर देखा और गाँव से चला गया. तीन सप्ताह बीत गए. हिम ने पर्वतों को ढक
दिया. किस्मत की मारी मेसेदा ने उस व्यक्ति से शादी नहीं करनी चाही जिसे प्यार
नहीं करती थी और इसलिए चट्टान से गिरकर आत्महत्या कर ली. उसी शाम को पिता और
भाइयों ने आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली मेसेदा को बर्फ के तूफान में बाहर सड़कर पर
निकाल दिया था.
उस रात को वह यह गाती
रही थी -
यही चाहती, सौ दुहिताएँ जन्म पिता के घर में लें
पिता उन्हें जल्दी
से बेचें, धन लेकर शादी कर दें.
ताकि शादियों में वह
उनकी, जी भर मौज करें
वह इतनी दौलत, सोना लें, लेकर उसे मरें.
यही कामना, धनी दुलहनें भाई भी ढूँढ़ें
उनके साथ बिताएँ जीवन, प्यार न जिन्हें करें.
वे होंठों को नहीं कि
अपनी दौलत को चूमें
हिमकण जो तन मेरा
काटें, चाँदी में बदलें
पाँव छू रही
नद-धाराएँ, रूपा रूप धरें,
पिता, भाइयों के लालच को, वे कुछ तृप्त करें.
मेरे प्रियतम, हिम का अंधड़, उसका शोर सुनो
रात बिताने को तुम
कोई अच्छी जगह चुनो.
प्रियतम, पाँव-तले हिम-परतें, पाँव संभल, रखो
तुम मत पीछे नजर
घुमाओ, आगे को देखो.
या
तो नौजवान को मौत के मुँह में जाती अपनी मेसेदा की आहें सुनाई दे गई या उसके दिल
ने उसे सब कुछ बता दिया, लेकिन वह पसीने से तर-ब-तर
अपने घोड़े को सरपट दौड़ाता हुआ कुमुख से यहाँ पहुँच गया. उसे शोकपूर्ण घटना का
पता चला. उसने लगामें फेंक दीं, घोड़े को छोड़ दिया. उसने
पेटी खोली और बंदूक उतारकर फेंक दी. बंदूक पत्थर से टकराकर टूट गई. इस दुनिया से
कूच कर चुकी अपनी प्रेयसी के पिता और भाइयों को संबोधित करते हुए नौजवान ने कहा -
'नहीं चाहता
भंग करूँ मैं चैन आपके घर का
और यहीं पर तेज करूँ
मैं फल अपने खंजर का.
नहीं चलाना गोली
चाहूँ और न मैं तो खंजर
सिर्फ चाहता, देखूँ उसका प्यारा मुखड़ा पल भर.
यौवन से मदमाती गोरी
छाती मुझे दिखाएँ
मेरी आँखें, झलक एक बस, अंतिम उसकी पाएँ.'
यह सुन वृद्ध पिता ने
उसके मुँह से कफन हटाया
चेहरा पीला हुआ युवक
का, घिरी मौत की छाया.
गोरी छाती देखी उसने, सिर उसका चकराया
गिरा लड़खड़ा धरती पर
वह, यों अंतिम क्षण आया.
भाग्य
ने उन्हें मिलाकर एक कर दिया था, सिर्फ उनके जिस्म ही
अलग-अलग पड़े हुए थे. इन दोनों का कैसे अंतिम संस्कार किया जाए, इन्हें कैसे दफनाया जाए? तब एक बहुत बड़ी सभी हुई.
पूरे दागिस्तान से बुद्धिमान लोग आए, सब मिलकर सोच-विचार
करने लगे.
प्रेम
के जाने-माने पैगंबरों ने कहा -
जीवन-दीप बुझ गया
इनका, रुका रक्त-संचार
किंतु बहुत ही सच्चा, असली था दोनों का प्यार.
बेशक तन थे दो, लेकिन थी प्रीत एक ही पाई
दो जीवन थे, किंतु इन्हें तो मौत एक ही आई.
इन दोनों के लिए
बड़ी-सी कब्र एक ही खोदें
ताकि वहाँ पर किसी
तरह भी, जगह न कम हो जाए,
जीवन ने कुछ क्षण को
बेशक इनको अलग किया है
लेकिन इनकी मौत, इन्हीं दोनों को पुनः मिलाए.
एक लबादे में दोनों
को, हम तो साथ लपेटें
एक ढेर से इन दोनों
पर मिट्टी हम बिखराएँ,
सोएँगे जिस एक कब्र
में ये दोनों ही प्रेमी
उसके ऊपर हम दोनों का
पत्थर एक लगाएँ.
जैसा
कहा गया,
सब कुछ वैसे ही किया गया. इन दोनों प्रेमियों की कब्र पर लगे पत्थर
के करीब एक लाल फूल खिल उठा. उसकी पंखुड़ियाँ तो बर्फ के नीचे भी नहीं मुरझाती थीं.
बर्फ इस फूल को छूते ही पिघल जाती थी मानो यह लाल फूल आग हो. कब्र के नीचे एक चश्मा
फूट निकला. लोग उसका पानी पीते हैं. कब्र के दोनों तरफ दो पेड़ उग आए. ऐसे सुंदर
पेड़ तो किस्से-कहानियों में भी नहीं होते. जब ठंडी हवा चलती तो वे अपनी शाखाओं
को इधर-उधर हिलाते-डुलाते हुए अलग हो जाते और जब गर्म हवा चलती तो फिर से मिल जाते
मानो दो प्रेमी - कुमुख का नौजवान और अजाइनी की युवती एक-दूसरे का आलिंगन कर रहे
हों.
मैंने
अली के बारे में भी एक गीत गा दिया होता, लेकिन वह
बहुत ही लंबा है. इसलिए मुझे इस बात की अनुमति दीजिए कि पहले गीत की भाँति उसे
कहीं तो गा दूँ और कहीं अपने शब्दों में बयान कर दूँ.
किसी
गाँव में अली रहता था. उसकी खूबसूरत और जवान बीवी तथा बूढ़ी माँ थी. अली भेड़ें
चराने के लिए लंबे अरसे तक पहाड़ों में चला गया.
एक
दिन कोई आदमी माँ का यह हुक्म लेकर अली के पास आया कि वह अपनी भेड़ें छोड़-छाड़कर
जल्दी से घर पहुँच जाए.
अली
के दिल में बुरे-बुरे ख्याल आने लगे. कोई बड़ी मुसीबत तो नहीं आ गई? घर पर उसकी क्या जरूरत हो सकती थी? लेकिन अगर कोई
बड़ी मुसीबत आ गई है तो जवान बीवी के सिवा किससे इसकी उम्मीद की जा सकती है.
अली
ने संदेशवाहक से पूछा, मगर वह चुप रहा. अली बहुत जोर
देने, उस पर बिगड़ने और खंजर दिखाकर धमकाने लगा. तब इस
संदेशवाहक ने उससे यह कहा -
'अली, तुम्हारी बीवी बेहद सुंदर है
रात मौन, जब घर में सब सो जाते हैं,
मुझे बताओ मित्र, अँधेरे में धीरे
खिड़की के दरवाजे क्यों
खुल जाते हैं?
अली, तुम्हारी बीवी यौवन-मदमाती
हिम से ढकी हुई लेकिन
उस धरती पर,
मुझे बताओ, मीत भला क्यों पाँवों के
चिह्न किसी के आते
हैं यों वहाँ उभर?
नहीं हवा से खिड़की
के पट खुलते हैं
उन्हें खोलती बीवी, जब हो प्रेम-मिलन,
नहीं अँगूठी पहने, जो थी तुमने दी
और न पहने मीत तुम्हारा
यह कंगन.'
जाहिर
है कि अली जल्दी-जल्दी गाँव की तरफ चल दिया. फौरन माँ के पास न जाकर वह सुंदर
जवान बीवी के पास गया. बीवी ने पति का लबादा और समूर की टोपी उतारकर नीचे रखनी
चाहि,
घर की बनी बियर पिलानी चाही, यह चाहा कि वह
सफर की थकान मिटा ले.
- 'अपना कोट उतारो कपड़े
अभी बियर मैं ले आती,'
- 'जब मैं यहाँ नहीं था किसको
रही लबादा पहनाती?'
- 'मेरे स्वामी, फर की टोपी
अब उतार लो तुम, प्यारे,'
- 'किसे पिलाती रही बियर,
जब रहा दूर मैं मन
मारे?'
अली
ने खंजर निकाला और दो बार बीवी पर वार किया.
'अरे सुरमा
अली, रहो किस्मतवाले
बरस तीन सौ जियो
हमारी धरती पर,
मगर सूरमा अली, कि देखो जरा इधर
पड़ी खून में मैं
अपने लथपथ होकर.
तुम पर अल्लाह अपनी
रहमत बरसाए
दुनिया भर की खुशियाँ
प्रियतम तुम पाओ,
केवल यह अनुरोध, उठाकर बाँहों में
मुझे पलंग पर साजन
मेरे ले जाओ.'
- 'यह अनुरोध करूँ पूरा, यदि बतलाओ
नहीं छिपाओ कुछ भी, कह दो सब खुलकर,
नहीं पहनती हो तुम
कहो अँगूठी क्यों?
और कीमती कंगन आता
नहीं नजर.'
- 'तुम खोलो संदूक, सूरमा अली जरा
उसके तल में मिलें
अँगूठी औ' कंगन,
पास नहीं थे जब तुम
ही मेरे साजन
साज-सिंगार दिखाऊँ
किसे रूप, चितवन?'
अली भागकर माँ के पास
गया -
'किसलिए तुमने मुझे बुलवाया है, क्या बात हो गई है?'
'तुम्हारे बिना तुम्हारी बीवी बहुत उदास हो गई थी, बच्चे
भी उदास हो रहे थे. फिर मैंने यह भी सोचा कि तुम भेड़ का ताजा-ताजा गोश्त अपने
साथ ले आओगे. बहुत दिनों से नहीं खाया.'
अली
ने अपना सिर थाम लिया और वह भागकर पत्नी के पास गया.
ज्योति बुझी जाती थी
उसके नयनों की
ठंडे हाथ हुए पत्नी
के, साँस नहीं आए,
आँसू-धारा बहे अली की
आँखों से
पर पत्नी परलोक-धाम
बढ़ती जाए.
खंजर लिया निकाल अली
ने तब अपना
तेज धार का, और खून से सना हुआ,
अपने ऊपर खूब जोर से
वार किया
और निकट पत्नी के, वह भी वहीं गिरा.
तो
ऐसे अंत हुआ इस घटना का. इन दोनों को एक-दूसरे की बगल में दफनाया गया. इनकी कब्र
के नजदीक दो पेड़ उग आए.
तो
मैं और किसकी दास्तान गाऊँ? शायद कामालील बाशीर की?
कौन था यह कामालील बाशीर? वह हमारे दागिस्तान
का, यों कहा जा सकता है, डॉन-जुआन था.
लोगों का कहना है कि जब वह पानी पीता था तो उसके गले से निर्मल जल साफ तौर पर नीचे
उतरता दिखाई देता था. इतनी कोमल थी उसकी त्वचा. उसकी इसी गर्दन को तो उसके पिता
ने काट डाला था. किस कारण? इस कारण कि बेटा बहुत ही ज्यादा
खूबसूरत था.
कामालील
बाशीर तो मर गया, लेकिन प्यार के बारे में तो
उसी तरह गाया जाता है, जैसे पहले गाया जाता था.
बच्चा
तो पालने में ही होता है, लेकिन प्रेम का गीत उसके ऊपर
गूँजने लगता है.
फिर
से मैं हमारे एक सीधे-सादे लोक-खेल की याद दिलाना चाहता हूँ.
यह
खेल गीतिमयता, हाजिरजवाबी, आवश्यक
और जल्दी से ठीक शब्द ढूँढ़ पाने की क्षमता का मुकाबला होता है. ऐसा खेल है यह.
दागिस्तान के हर गाँव में लोग इसे जानते हैं. जाड़ों की लंबी रातों में गाँव के
किशोर-किशोरियाँ किसी पहाड़ी घर में जमा हो जाते हैं. वे न तो वोदका पीते है,
न ताश खेलते हैं, न बीज छीलकर खाते हैं और न
बेहूदा हरकतें करते हैं, बल्कि कविता का खेल खेलते हैं यानी
बेंतबाजी करते हैं. यह बहुत बढ़िया बात है न!
एक
छोटी-सी छड़ी लाई जाती है. कोई किशोरी उसे हाथ में ले लेती है. किशोरी इस छड़ी से
किसी किशोर को छूती है और गाती है -
ले लो तुम यह छड़ी, सभी से जो सुंदर
चुनो सुंदरी, जो सबसे हो बढ़-चढ़कर.
किशोर
किसी किशोरी को चुन लेता है और वह स्टूल पर बैठ जाती है. इन दोनों के बीच कविता
में बातचीत शुरू होती है -
अरी हसीना, अरी हसीना
नाम तुम्हारा क्या
है? यह तो बतलाओ,
अरी हसीना, अरी हसीना
किस कुल की, किस मात-पिता की, समझाओ.
बाकी
सभी किशोर तालियाँ बजाते हुए गाते हैं - 'आई, दाई, दालालाई!'
अपना नाम बताया मैंने
किसी और को, नहीं तुम्हें,
वचन प्यार का दे
बैठी हूँ
किसी और को, नहीं तुम्हें.
बाकी
सभी तालियाँ बजाते हुए गाते हैं - 'आई, दाई, दालालाई!'
किशोरी
स्टूल से उठती है, छड़ी से किसी किशोर को चुनती
है जो उसकी जगह बैठ जाता है. यह नया जोड़ा नया काव्य-वार्तालाप आरंभ करता है -
किशोरी -
हिम से पर्वत ढके जा
रहे
राह न कहीं नजर आए,
ढूँढ़े, घास मेमना प्यारा
कहाँ उसे, पर, वह पाए?
किशोर -
हिम तो हर क्षण पिघला
जाता
बहे रुपहली हिम-धारा,
घास वक्ष पर तेरे पाए
अरे, मेमना वह प्यारा.
'आई, दाई, दालालाई!' नया जोड़ा सामने आता है.
किशोरी -
शीतल जल का कुआँ जहाँ
पर
निकट वहीं रहता अजगर,
बकरे का पानी पी लेना
वह कर देता है दूभर.
किशोर -
बेशक रहे वहाँ पर
अजगर
नहीं किसी को उसका डर,
तेरी आँखों के प्यालों
से
वह जल पी लेगा जी भर.
'आई, दाई, दालालाई!' नया जोड़ा सामने आता है.
किशोर -
दर्रे में तूफान
गरजता
बिछी नदी पर हिम-चादर,
तुमसे शादी करना
चाहूँ
और बसाना अपना घर.
किशोरी -
किसी दूसरी गली, गाँव में
ढूँढ़ो तुम अपनी
दुलहन,
नहीं तीतरी अपना सकती
मुर्गीखाने का बंधन.
'आई, दाई, दालालाई!' सभी तालियाँ बजाते और हँसते हैं. ऐसे बीतती हैं जाड़े की लंबी रातें.
प्यार
के बारे में दागिस्तानी गीत-गाने! जब तक इस किशोर ने इस चीज के लिए मिन्नत की कि
यह किशोरी उससे शादी कर ले, दूसरे किशोर किसी तरह की
औपचारिकता के बिना उसे चुरा ले जाते हैं.
जब
तक इस किशोरी के दरवाजे पर शिष्टतापूर्वक दस्तक दी जाती रही, दूसरे किशोर खिड़की में से कूदकर उसके पास जा पहुँचे.
सदियाँ
बीतती रहती हैं, लेकिन गाने ऐसे ही जीते रहते हैं, जिंदा रहते हैं. गायक उन्हें रचते हैं, लेकिन गीत
सभी गायकों को जन्म देते हैं.
क्या
गीत-गाने के बिना शादी हो सकती है, क्या गाने
के बिना एक दिन भी बीत सकता है, क्या कोई आदमी गाने के बिना
जिंदगी बिता सकता है?
हमारे
यहाँ यह कहा जाता है कि जो गाना नहीं जानता, उसे पशुओं
के बाड़े में रहना चाहिए.
यह
भी कहा जाता है कि प्यार से अपरिचित महाबली किसी प्रेम-दीवाने की कमर तक भी नहीं
पहुँचता.
महमूद
के बारे में यह किस्सा सुनाया जाता है. प्रथम विश्व-युद्ध के वक्त वह दागिस्तानी
घुड़सवार रेजिमेंट के साथ कार्पेथिया के मोरचे पर था. उसने अपना प्रसिद्ध गीत 'मरियम' वहीं रचा और महमूद के फौजी साथी उसे पड़ावों
पर गाने लगे. इस गाने की कहानी यह है.
एक
घमासान लड़ाई में रूसी फौजों ने आस्ट्रियाई फौजों को खदेड़कर एक गाँव पर कब्जा कर
लिया. भागते दुश्मनों का पीछा करते हुए महमूद एक गिरजे के करीब पहुँच गया. एक
डरा-सहमा हुआ आस्ट्रियाई गिरजे के दरवाजे से लपककर बाहर आया, लेकिन गुस्से से धधकते एक पहाड़ी घुड़सवार को अपने सामने देखकर फिर से
गिरजे में भाग गया.
इस
घटना के कुछ दिन पहले महमूद का भाई लड़ाई में मारा गया था और वह बदला लेने को
बेकरार था. अधिक सोच-विचार किए बिना वह घोड़े से कूदा, खंजर निकालते हुए यह इरादा बना लिया कि अंदर जाकर फौरन इस आस्ट्रियाई की
जान ले लेगा. लेकिन भागते हुए गिरजे में जाने पर महमूद स्तंभित रह गया.
उसने
आस्ट्रियाई को घुटने टेके हुए ईसा की माँ मरियम की प्रतिमा के सामने प्रार्थना
करते पाया.
दागिस्तान
में तो घुटने टेक देनेवाले पर यों भी हाथ नहीं उठाया जाता और प्रभु ईसा की माँ की
प्रतिमा के सामने प्रार्थना करनेवाले पर हाथ उठाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता
था. इसके अलावा महमूद उस औरत के सौंदर्य से भी स्तंभित रह गया था जिसकी आस्ट्रियाई
पूजा कर रहा था.
महमूद
ने अचानक यह देखा कि उसके सामने उसकी प्रेयसी मूई है, उसी की आँखें हैं, आँखों में उसी की पीड़ा है,
उसी का चेहरा-मोहरा, उसी की पोशाक है. महमूद
के हाथ से खंजर गिर गया. यह तो मालूम नहीं कि इस घटना के बारे में आस्ट्रियाई ने
बाद में क्या कहा, लेकिन गुस्से से उबलता महमूद भी उसके
करीब ही घुटने टेककर ईसाइयों के ढंग से प्रार्थना करने, अटपटे
ढंग से माथे, कंधों और छाती से अपनी उँगलियाँ छुआने लगा.
आस्ट्रियाई कब वहाँ से खिसक गया, महमूद ने यह नहीं देखा.
होश-हवास ठिकाने होने पर उसने अपनी प्रसिद्ध कविता 'मरियम'
यानी मरीया के बारे में कविता रची. महमूद के लिए मूई और मरीया एक ही
बिंब में घुल-मिल गईं. उसने मरीया के बारे में कविता रची, लेकिन
सोचता रहा मूई के बारे में, सृजन किया मूई के संबंध में,
किंतु सोचता रहा मरीया के संबंध में.
इसके
बाद तो महमूद प्रेम के सिवा किसी दूसरी चीज को इस दुनिया में मान्यता ही नहीं
देता था. उसकी आत्मा दूसरे गीतों को ग्रहण ही नहीं करती थी. दागिस्तान के कवियों
में अन्य कोई भी ऐसा नहीं था जो उसकी भावनाओं के आवेग की ऊँचाई को छू सकता, उसके गीतों की गहराई तक जा सकता. उसे तो इस बात की चेतना ही नहीं रही थी
कि वह कविता रच रहा है, कि कविता में बात कर रहा है, कि बोल नहीं रहा है, बल्कि गा रहा है. मानो कोई
दूसरा ही उसकी जगह बोल और गा रहा हो. वह मूई और उसके प्रति अपनी भावनाओं को ही
अपनी सारी सफलताओं का श्रेय देता था. अगर उसका कोई दोस्त उससे मूई की बात नहीं
करता था तो वह उसकी बात ही सुनना बंद कर देता था.
महमूद
के बारे में मेरे पिता जी ने मुझे यह बताया था.
महमूद
के पास बहुत से लोग आने लगे, लेकिन केवल प्रेम-दीवाने
ही आते थे. वे महमूद के शब्दों की शक्ति को समझते थे और उससे अपने लिए कविता रचने
का अनुरोध करते थे. ऐसा प्रेमी भी आता जिसे पहली बार किसी लड़की से प्रेम होता था
और वह नहीं जानता था कि उससे इस बात की चर्चा कैसे करे. ऐसा प्रेमी भी आता था
जिसकी प्रेयसी ने किसी दूसरे से शादी कर ली थी और यह बेचारा यह नहीं जानता था कि
अपने विरह-व्यथित हृदय का क्या करे. ऐसा व्यक्ति भी आता जिसे किसी विधवा से
प्रेम हो जाता जो अपने दिवंगत पति के प्रति ही निष्ठावान बनी रहती और प्रेमी यह
नहीं जानता था कि उस विधवा के दिल को कैसे मोम करे.
महमूद
के पास ऐसे प्रेमी भी आते जिनकी प्रेयसियों ने उनके साथ बेवफाई की थी. ऐसे भी आते
जिनके दिल प्रेम का प्रतिदान न मिलने के कारण तड़पते थे. ऐसे भी आते जिनका अपनी
प्रेयसियों से झगड़ा हो जाता था. ऐसे भी आते जो बिछुड़ जाते थे.
जितने
लोग हैं,
उतने ही प्रेम-दीवाने हैं. जितने प्रेम-दीवाने हैं, उनके प्रेम के रूप भी उतने ही भिन्न हैं. दो प्रेमी एक जैसे नहीं होते.
महमूद
प्रत्येक विशेष प्रेम-समस्या के अनुरूप कविता रचता. प्रेमी आपस में मिल जाते, जिनके बीच झगड़ा हो गया था, उनमें सुलह हो जाती,
कठोर और दुख में डूबी विधवा का दिल मोम हो जाता, झिझकते-घबराते युवक के दिल में साहस का संचार हो जाता, बेवफाई करनेवाले शर्म से पानी-पानी हो जाते, धोखा
खानेवाले क्षमा कर देते.
एक
बार महमूद से पूछा गया -
'तुम बहुत ही अलग-अलग लोगों की मनःस्थिति के अनुरूप कविताएँ कैसे रच लेते
हो?'
'सब लोगों का भाग्य एक मानव के हृदय में ही समा सकता है. क्या मैं उनके
बारे में कविता रचता हूँ? उनके प्यार? उनकी वेदनाओं के बारे में? नहीं, मैं तो अपने बारे में कविता रचता हूँ. लकड़ी का कोयला बनानेवाले एक गरीब
आदमी के बेटे को यानी मुझे चढ़ती जवानी के दिनों में ही बेलता गाँव की रहनेवाली
मूई से प्रेम हो गया था. बाद में मूई की किसी दूसरे से शादी हो गई. मेरा दिल खून
के आँसू रो दिया. साल बीते और मूई के पति का देहांत हो गया. मेरी आत्मा को पहले
की तरह ही चैन नहीं मिला... नहीं, मैं प्रेम के बारे में सभी
कुछ जानता हूँ और मुझे दूसरों के संबंध में कविता रचने की कोई जरूरत नहीं.'
कहते
हैं कि महमूद के पास युद्ध में खेत रहे या वीरगति पाने वालों के बारे में कविता
रचने का अनुरोध लेकर भी लोग आते थे. बेटों की माताएँ, भाइयों की बहनें, पतियों की पत्नियाँ और वरों की
मंगेतरें ऐसी प्रार्थनाएँ लेकर आतीं. किंतु महमूद एक भी ऐसी कविता न रच पाता. वह
उत्तर देता -
'अगर युद्ध में भी मैंने प्रेम की कविताएँ रचीं तो मैं शांतिपूर्ण गाँव में
युद्ध के बारे में कैसे लिख सकता हूँ?'
लेकिन
पहाड़ी लोग इस सिलसिले में यह भी कहते हैं - 'शांति के गीत
का असली महत्व तभी समझ में आता है जब लड़ाई होती है.' वे यह
भी कहते हैं - 'अपने प्रेम की परीक्षा लेनी हो तो
युद्ध-क्षेत्र में जाइए.'
खंजर
दुधारी होता है - उसकी एक धार है - मातृभूमि के प्रति प्यार, दूसरी - शत्रु के प्रति घृणा. पंदूरे के दो तार होते हैं - एक तार घृणा का
गीत गाता है, दूसरा प्यार का.
हमारे
पहाड़ी लोगों के बारे में कहा जाता है कि जब वे एक हाथ से प्रेयसी का आलिंगन किए
हुए लेटे होते हैं तो उनका दूसरा हाथ खंजर को थामे रहता है. अकारण ही तो हमारे
बहुत-से गीत और पुराने किस्से-कहानियाँ खंजर के वार के साथ समाप्त नहीं होते हैं.
लेकिन बहुत-से किस्से-कहानियाँ इस तरह भी खत्म होते हैं कि पहाड़ी आदमी अपनी
प्रेमिका को जीन पर अपने आगे बिठाए हुए गाँव लौटता है.
पहाड़ों
में जब पुरानी कब्रों को खोदा जाता है तो उनमें खंजर और तलवारें मिलती हैं.
'वहाँ पंदूरा क्यों नहीं मिलता?'
'पंदूरे जीवितों के लिए रह जाते हैं, ताकि जीवित
दिवंगत वीरों के बारे में गाने गाएँ. इसलिए अगर हमारी पृथ्वी पर सारे शस्त्रास्त्र
लुप्त हो जाएँगे, एक भी खंजर बाकी नहीं रहेगा, तो गीत तो तब भी लुप्त नहीं होगा.'
मेरे
पिता जी कहा करते थे कि साधारण मेहमान तो तुम्हारे घर का मेहमान होता है. लेकिन
गायक-अतिथि, संगीतज्ञ-अतिथि - यह सारे गाँव का अतिथि
होता है. सारा गाँव उसका स्वागत और उसे विदा करता है. मिसाल के तौर पर, महमूद का हर जगह पर गवर्नर से भी बढ़कर स्वागत-सत्कार किया जाता था.
शायद इसीलिए गवर्नरों को स्वतंत्र कवि-गायक अच्छे नहीं लगते थे?
पिता
जी ने यह किस्सा दुनिया कि कैसे दो मुसाफिर दागिस्तान में से जा रहे थे. जब शाम
का झुटपुटा हो गया तो एक मुसाफिर ने दूसरे से कहा -
'क्या हमारे लिए, आराम करने का वक्त नहीं हो गया?
जल्द ही रात हो जाएगी. में देख रहा हूँ कि तुम थक और ठिठुर गए हो.
देखो, वह सामने गाँव नजर आ रहा है. हम उधर ही चले जाते हैं
और वहाँ रात बिताने की कोई जगह ढूँढ़ लेते हैं.'
'मैं तो सचमुच ही थक और ठिठुर गया हूँ. शायद मैं तो बीमार भी हो गया हूँ.
लेकिन इस गाँव में मैं नहीं ठहरूँगा.'
'क्यों?'
'क्योंकि यह गाँव उदासी भरा है. यहाँ आज तक किसी ने किसी को गाते नहीं
सुना.'
बहुत
मुमकिन है कि मुमकिन है कि मुसाफिरों के रास्ते में ऐसा गाँव आ गया हो. लेकिन
पूरे दागिस्तान के बारे में तो कोई भी यह नहीं कह सकता कि यह ऐसा देश है, जहाँ गाने सुनाई नहीं देते और इसलिए वह इससे बचकर निकल जाएँ.
बेस्तूजेव-मारलीन्स्की
ने अपनी पुस्तक में दागिस्तानी गीतों को स्थान दिया है और बेलीन्स्की ने इनके
बारे में यह कहा था कि वे स्वयं पुस्तक से अधिक मूल्यवान हैं. उन्होंने कहा था
कि पुश्किन को भी उन्हें अपना कहते हुए शर्म महसूस न होती.
तरुण
लेर्मोंतोव भी तेमीरखान - शूरा में पहाड़ी गीत-गाने सुनते रहे थे. बेशक वह हमारी
भाषा नहीं समझते थे, फिर भी उनसे आनंद-विभोर होते
थे.
प्रोफेसर
उस्लार ने कहा था कि गुनीब गाँव की धुनें - मानवजाति के लिए अद्भुत उपहार हैं.
किसने
हमें ये धुनें और ये गीत-गाने दिए? पहाड़ी
लोगों में किसने ऐसी भावनाएँ पैदा कीं? उकाबों और घोड़ों ने,
तलवारों और घास ने, पालने तथा चार कोइसू
नदियों ने, कास्पी सागर की लहरों और महमूद की प्रेमिका
मरियम ने, दागिस्तान के पूरे इतिहास और उसमें विद्यमान सभी
भाषाओं ने, पूरे दागिस्तान ने.
अबूतालिब
से एक बार पूछा गया -
'दागिस्तान में कितने कवि हैं?'
'कोई तीस-चालीस लाख होंगे.'
'यह कैसे? हमारी कुल आबादी ही दस लाख है!'
'हर आदमी की आत्मा में तीन-चार गीत-गाने होते हैं. हाँ, यह सही है कि न तो सभी और न हमेशा ही लोग उन्हें गाते हैं. सभी को यह
मालूम भी नहीं होता.'
'फिर भी सबसे अच्छे गायक-कवि कौन-से हैं?'
'हमेशा ही अच्छे से भी अच्छा गायक-कवि मिल जाएगा. लेकिन एक का मैं उल्लेख
कर सकता हूँ.'
'कौन है वह?'
'दागिस्तानी माँ. कुल मिलकार पहाड़ी लोगों के यहाँ तीन गाने माने जाते हैं.'
'कौन-से?'
'पहला गाना तो पहाड़िन-माँ तब गाती है, जब उसके यहाँ
बेटे का जन्म होता है और वह उसके पालने के करीब बैठती है.'
'और दूसरा?'
'दूसरा गाना पहाड़िन-माँ तब गाती है, जब बेटे से वंचित
हो जाती है.'
'और तीसरा?'
'तीसरा गाना - बाकी सभी गाने हैं.'
हाँ, माँ... वही खिलने और मुरझाने, जन्म लेने और मरने,
इस दुनिया में आने तथा यहाँ से जानेवाले की सच्ची और अनुरागमयी
साक्षी होती है. माँ, जो पालना झुलाती है, बच्चे को गोद में लिए रहती है और जो हमेशा के लिए छोड़कर जानेवाले बेटे
को गले लगाती है.
यही
है सौंदर्य, सत्य और गौरव.
अच्छे-बुरे
लोग होते हैं, यहाँ तक कि अच्छे-बुरे गीत-गाने भी होते
हैं. किंतु माँ तो हमेशा अद्भुत होती है और माँ का गाना भी अद्भुत होता है.
मेरे
पालने के ऊपर जो गाने गाए गए, जाहिर है, मुझे वे याद नहीं. लेकिन बाद में मैंने विभिन्न गाँवों में बहुत-से अच्छे
गाने, अच्छी लोरियाँ सुनीं. उदाहरण के लिए उनमें से एक प्रस्तुत
है -
शक्ति बटोरोगे तुम
बेटे और बड़े हो जाओगे
विकट भेड़िये के
दाँतों से, मांस छीन तुम लाओगे.
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, फुरती ऐसी आएगी
चीते के पंजों से वह
तो, झपट परिंदा लाएगी.
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, तुमको सब फन आएँगे
बात बड़ों की तुम
मानोगे, मीत बहुत बन जाएँगे.
मेरे लाल, बड़े तुम होगे, समझदार बन जाओगे
तंग पालना हो जाने पर, पंख लगा उड़ जाओगे.
जन्म दिया है मेंने
तुमको, मेरे पूत रहोगे तुम
जो दामाद बनाए तुमको, उसको सास कहोगे तुम.
मेरे बेटे, तुम जवान हो पत्नी प्यारी लाओगे
प्यारे देश, वतन की खातिर, गीत मधुरतम गाओगे.
कितना
विश्वास है इस लोरी में! पिता जी कहा करते थे कि एक भी ऐसी माँ नहीं है जो गा न
सकती हो. ऐसी माँ नहीं है जिसकी आत्मा में कवि न बसा हो.
खुश्क, गर्म मौसम में बारिश - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
बरसाती गर्मी में
सूरज - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
होंठ शहद से
मीठे-मीठे - मेरे बच्चे, वे तुम हो.
काले अंगूरों-सी
आँखें - मेरे बच्चे, वे तुम हो.
नाम शहद से बढ़कर
मीठा - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
चैन नयन को जो मुख
देता - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
धड़क रहा है जो सजीव
दिल - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
स्पंदित दिल की चाबी
जैसे - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
जो संदूक मढ़ा चाँदी
से - मेरे बच्चे, वह तुम हो.
जो संदूक भरा सोने से
- मेरे बच्चे, वह तुम हो.
अब तुम धागे के गोले
से
गोली फिर तुम बनो मगर,
बनो हथौड़ा ऐसा भारी
जो
तोड़े पर्वत, पत्थर.
तीर बनोगे ऐसे जो तो
बैठे ठीक निशाने पर,
नर्तक तुम तो सुघड़
बनोगे
गायक जिसका मधुमय स्वर.
गली-मुहल्ले के
लड़कों में
तेज सभी से दौड़ोगे,
घुड़दौड़ों में सब
युवकों को
तुम तो पीछे छोड़ोगे.
घाटी में से तेज तुम्हारा
घोड़ा उड़ता जाएगा,
बादल बन नभ में जा
पहुँचे
वह जो धूल उड़ाएगा.
मेरे
पिता जी कहा करते थे कि जिसने माँ की लोरी नहीं, सुनी
वह बालक तो मानो अनाथ के रूप में ही बड़ा हुआ है. लेकिन जिसके पालने के ऊपर हमारे
दागिस्तानी गाने गाए गए हैं, वह तो माँ-बाप के बिना बड़ा
होने पर भी अनाथ नहीं है. किंतु यदि उसकी न तो माँ है और न बाप तो किसने ये गान
गाए? खुद दागिस्तान, ऊँचे-ऊँचे
पर्वतों ने ये गाने गाए, ऊँचे पर्वतों से बहनेवाले नद-नालों
ने गाए, पहाड़ों में रहनेवाले लोगों ने गाए -
स्वर्ण-सुनहरे धागों
के गोले जैसी - बिटिया है मेरी.
रजत-रुपहले चमचम करते
फीते-सी - बिटिया है मेरी.
ऊँचे पर्वत पर जो
चमके चंदा-सी - बिटिया है मेरी.
पर्वत पर जो कूदे नन्ही
बकरी-सी - बिटिया है मेरी.
कायर, बुजदिल दूर हटो तुम
नहीं मिलेगी कायर को
- बिटिया मेरी
झेंपू फाटक पर मत
घूमो
नहीं मिलेगी झेंपू को
- बिटिया मेरी.
वासंती, चटकीले सुंदर फूलों-सी - बिटिया है मेरी.
वासंती, सुंदर फूलों की माला-सी - बिटिया है मेरी.
हरित तृणों के कोमल
कालीनों जैसी - बिटिया है मेरी.
रेवड़ तीन अगर भेजोगे
भेड़ों के
नहीं भौंह तक बेटी की
तुमको दूँगी,
तीन थैलियाँ सोने की
यदि भेजोगे
नहीं गाल तक बेटी का
तुमको दूँगी,
तीन थैलियों के बदले
में मैं तुमको
नहीं गाल का गुल तक बेटी
का दूँगी,
काले कौवे को मैं उसे
नहीं दूँगी
और दयालु मोर, न उसको मैं दूँगी
अरी, तीतरी तुम मेरी
नन्ही-सी सारस मेरी.
दूसरी माँ दूसरे ढंग
से गाती है -
मार गिराए डंडे से जो
चीते को
बेटी उसको दे दूँगी,
घूँसे से चट्टान तोड़
दे जो पत्थर
बेटी उसको दे दूँगी,
कोड़े से जो दुर्ग
जीत ले, साहस से
बेटी उसको दे दूँगी,
जो पनीर की तरह काट
दे चंदा को
बेटी उसको दे दूँगी,
जो रोके नदिया की
बहती धारा को
बेटी उसको दे दूँगी,
किसी फूल की तरह
सितारा जो तोड़े
बेटी उसको दे दूँगी,
पंख पवन के आसानी से
जो बाँधे
बेटी उसको दे दूँगी,
सेब सरीखे लाल-लाल
गालोंवाली
प्यारी बिटिया तू
मेरी.
या
फिर इच्छा को व्यक्त करनेवाला यह गीत -
जब तक फूल कहीं पर
कोई खिल पाए
मेरी बिटिया उससे
पहले खिल जाए.
जब तक नदियाँ उमड़ें
पानी से भरकर
घनी वेणियाँ बिटिया
की गूँथूँ सुंदर.
नहीं गिरा है हिम तो
अब तक धरती पर
आए लोग सगाई-संदेसा
लेकर.
लोग सगाई करने को ही
यदि आ जाएँ
शहद भरा पीपा वह अपने
संग लाएँ.
भेड़-बकरियाँ और
मेमने वे लाएँ
है दुलहन का बाप, उन्हें हम बतलाएँ.
पास पिता के चुस्त, तेज, घोड़े भेजें
और पिता का वे ऐसे
सम्मान करें.
पालने
के ऊपर गाया जानेवाला यह कामना-गीत -
इससे पूर्व कि गीत
भोर का पहला पक्षी गाए
गेहूँ के खेतों में
कोई बिटिया को बहलाए.
इससे पहले, दूर कहीं पर कोयल कूके वन में
मेरी बिटिया
खेले-कूदे चरागाह-आँगन में.
सुंदरियाँ सिंगार
करें औ' निकलें जब तक सजकर
मेरी बिटिया ले आएगी
चश्मे से जल भरकर.
अगर
लोरियाँ न होतीं तो दुनिया में शायद दूसरे गीत भी न होते. लोगों की जिंदगी में
रंगीनी न होती, वीर-कृत्य कम होते, जीवन में कविता कम होती.
माताएँ
- वही पहली कवयित्रियाँ होती हैं. वही अपने बेटों-बेटियों की आत्मा में कविता के
बीज रोपती हैं जो बाद में अंकुर बनकर फूटते हैं, फूलों
के रूप में खिलते हैं. पुरुष अपने जीवन के सबसे कठिन, बोझल
और भयानक दिनों में इन लोरियों को याद करते हैं.
एक
डरपोक सैनिक से हाजी-मुरात ने कहा था - 'शायद तुम्हारे
पालने के ऊपर तुम्हारी माँ ने लोरी नहीं गाई थी.'
किंतु
जब खुद हाजी-मुरात शामिल के साथ गद्दारी करके उसके दुश्मनों से जा मिला तो शामिल
ने तिरस्कारपूर्वक कहा था - 'वह माँ की लोरी भूल गया
है.'
और
हाजी-मुरात की माँ की लोरी यह थी -
मुख पर ला मुस्कान
सुनो तुम
मैं जो गीत सुनाती
हूँ,
एक वीर का किस्सा
तुमको
बेटे वीर, बताती हूँ.
खड्ग बगल में बड़े
गर्व से
वह अपनी लटकाता था,
सरपट घोड़े पर वह
उछले
वश में उसको लाता था
तेज पहाड़ी नदियों सम
वह
लाँघा करता सीमाएँ
तेज खड्ग से काटे वह
तो
ऊँची पर्वत-मालाएँ.
सदी पुराने शाह बलूत
को
एक हाथ से वह मोड़े,
तू भी वीर बने वैसा
ही
वीरों से नाता जोड़े.
माँ
बेटे के मुस्कराते हुए प्यारे-से चेहरे को देखती थी और अपनी लोरी के शब्दों पर
विश्वास करती थी. वह नहीं जानती थी कि उसके बेटे, हाजी-मुरात
को कैसी-कैसी कठिन परीक्षाओं का सामना करना होगा.
यह
मालूम होने पर कि हाजी-मुरात अपने अगुआ शामिल को छोड़कर उसके दुश्मनों के साथ जा
मिला है,
माँ ने दूसरा गाना गाया -
तुम चट्टानों से भी
खड्डों में कूदे
नहीं किसी ऊँचाई से
तुम घबराए,
किंतु गिरा है अब
जितने गहरे तल में
उससे निकल न तू वापस
घर को आए.
हमले जब-जब हुए
पर्वतों पर तेरे
घने अँधेरे कभी न
आड़े आ पाए,
तू शिकार खुद बना, किंतु अब दुश्मन का
नहीं लौटकर अब तो तू
घर को आए.
मेरे, माँ के दिन भी अब तो काले हैं
उनमें कटुता, सूनेपन के हैं साए,
उन फंदों से, उन फौलादी पंजों से
निकल न सकता कभी न
वापस घर आए.
तिरस्कार यदि करे
जार का, शामिल का
बात समझ में सबकी यह
तो आ जाए,
किया निरादर अरे, पर्वतों का तूने
कभी न वापस अब तो तू
घर को आए.
जैसा
कि सर्वविदित है, बाद में हाजी-मुरात ने
रूसियों का साथ छोड़कर फिर से अपने लोगों के पास आना चाहा था. लेकिन भागने के वक्त
ही वह मारा गया था और मृत हाजी-मुरात का सिर काट दिया गया था. तब पहाड़ों में माँ
के एक अन्य गाने का जन्म हुआ -
चले हाथ भरपूर खड्ग
के, कंधों पर सिर नहीं रहा,
यह तो झूठी बात है,
बहुत जरूरत
युद्ध-परिषदों और भिड़ंतों में उसकी
यह हम सबको ज्ञात है.
सड़क-किनारे दफन कहीं
पर, सिर के बिना धड़ उसका है
ये बातें निस्सार
हैं,
घिरे किलों, युद्धों में उसके, हाथ और कंधे अब तक
हम सबके आधार हैं.
तुम यह तलवारों से
पूछो, तेज खंजरों से पूछो
क्या अब हाजी नहीं
यहाँ?
चट्टानों से क्या
बारूदी, गंध नहीं अब आती है?
और न उड़ता वहाँ धुआँ?
उसका नाम गरुड़-सा
उड़कर, पहुँचा ऊँचे श्रृंगों पर
किंतु अंत में
धुँधलाया,
तलवारें सीधी कर
देंगी, सब बल साथ मिटाएँगी
धब्बा जो उस पर आया.
माँ
का गाना - वह मानव के सभी गीतों का आरंभ-बिंदु, उनका स्रोत
है. प्रथम मुस्कान और अंतिम आँसू - ऐसा है माँ का गीत.
गीतों
का जन्म दिल में होता है, फिर दिल उन्हें जबान तक
पहुँचाता है, इसके बाद जबान उनको सभी लोगों के दिलों तक
पहुँचाती है और सभी लोगों के दिल गीत को आनेवाली सदियों को सौंप देते हैं.
ऐसे
गीतों की चर्चा करना भी यहाँ उचित ही होगा.
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