Thursday, July 6, 2017

रसूल हम्ज़ातोव की 'मेरा दाग़िस्तान' का दूसरा खंड - 13

शामिल की माँ का गीत

'गीत-गानों में दो में से कोई एक चीज हो सकती है - या तो हँसी या आँसू. इस वक्‍त हम पहाड़ी लोगों को इन दोनों में से एक भी जरूरत नहीं. हम युद्धरत हैं. साहस को चाहे कैसी भी कठिन परीक्षाओं का सामना क्‍यों न करना पड़े, उसे न तो शिकवा-शिकायत करना चाहिए और न ही रोना-धोना चाहिए. दूसरी ओर, हमारे लिए खुश होने की भी कोई बात नहीं. हमारे दिल गम और दुख-दर्द से भरे हुए हैं. कल मैंने उन जवान लोगों को सजा दी जो मसजिद के करीब नाच और गा रहे थे. वे मूर्ख हैं. फिर कभी ऐसा देखूँगा तो फिर सजा दूँगा. अगर आप लोगों को कविता चाहिए तो कुरान पढ़िए. पैगंबर द्वारा रची गई कविताओं को रटिए. उनकी कविताएँ तो काअबा के फाटकों पर भी खुदी हुई हैं.'

तो इमाम शामिल ने इस तरह दागिस्‍तान में गाने की मनाही कर दी. गानेवाली औरत को झाड़ू से पीटा जाता और मर्द को कोड़े से. हुक्‍म तो हुक्‍म ठहरा. उन सालों में बहुत-से गायकों को कोड़े लगाए गए.

लेकिन क्‍या गीत-गाने को खामोश होने के लिए मजबूर किया जा सकता है? गायक को चुप रहने को विवश किया जा सकता है, किंतु गाने को कभी नहीं. हम कब्रों पर बहुत-से पत्‍थर लगे देखते हैं, वहाँ लोग दफन हैं. लेकिन गीत-गानों की कब्रें किसने देखी हैं?

एक कब्र के पत्‍थर पर मैंने यह पढ़ा - 'मर गया, मरते हैं, मरेंगे.' गीत के बारे में कहा जा सकता है - 'नहीं मरा, नहीं मरता है, नहीं मरेगा.' इस्‍लामी जिहाद के उस जमाने में गीतों-गानों के साथ चाहे कैसा भी बुरा बर्ताव क्‍यों नहीं किया गया, फिर भी वे न केवल जिंदा रहे और हमारे वक्‍तों तक पहुँच गए, बल्कि भाग्‍य की विडंबना देखिए कि उन्‍हें 'शामिल के गाने' कहा जाता है.

हाँ तो शामिल की माँ के गाने के बारे में... उन दिनों में दुश्‍मन की फौजों ने अखूल्‍गो गाँव पर कब्‍जा कर लिया. इस लड़ाई ने अनेक वीरों को जन्‍म दिया, किंतु वे सभी वहाँ युद्ध-क्षेत्र में ही खेत रहे. उन घायलों ने; जो शत्रु के अधीन नहीं होना चाहते थे, अवार क्षेत्र की कोइसू नदी में कूदकर जान दे दी. दुश्‍मन के घेरे में आनेवालों में बच्‍चों सहित शामिल की बहन भी थी.

इस बहुत ही कठिन समय में थका-हारा और घायल इमाम शामिल अपने जन्‍म-गाँव गीमरी में आया. उसने अपने मुरीदों को घोड़े की लगामें पकड़ाई ही थीं कि उसे एक गाना सुनाई दिया. अधिक सही तौर पर कहा जाए तो विलाप सुनाई दिया -

शोक मनाओ, अश्रु बहाओ, गाँव-गाँव में तुम लोगो
तुम यश गाओ, उन वीरों का, रहे नहीं जो धरती पर,
अब अखूल्‍गो पर दुश्‍मन ने, कर अपना अधिकार लिया
रहा न कोई जीवित, सबने प्राण किए हैं न्‍योछावर.

इस गाने में आगे उन सभी वीरों के नाम गिनाए गए थे जिन्‍होंने वीरगति पाई थी. गीत के रचयिता ने सभी से यह अनुरोध किया था कि वे मातमी पोशाक पहन लें. यह भी कहा गया था कि ऐसे शोक-दुख के बारे में सुनकर सभी पहाड़ी चश्‍मे सूख गए थे. इस गाने में अल्‍लाह से यह प्रार्थना की गई थी कि वह पहाड़ी लोगों की रक्षा करे, इमाम शामिल को शक्ति दे और शामिल के आठ वर्षीय बेटे जमालुद्दीन की जान बचाए जो पीटर्सबर्ग में गोरे जार के बंधकों में से एक था.

शामिल एक पत्‍थर पर बैठ गया, उसने मेहँदी से रँगी हुई अपनी घनी दाढ़ी में उँगलियाँ खोंस लीं, अपने इर्द-गिर्द खड़े लोगों को पैनी नजर से देखा और फिर एक से पूछा -

'यूनुस, इस गाने में कितनी पंक्तियाँ हैं?'

'एक सौ दो पंक्तियाँ हैं, इमाम.'

'इस गाने के रचयिता को ढूँढ़ो और उसे एक सौ कोड़े लगाओ. दो कोड़े मेरे लिए छोड़ देना.'

मुरीद ने फौरन कोड़ा निकाल लिया.

'किसने यह गीत रचा है?'

सब खामोश रहे.

'मैं पूछता हूँ, किसने यह गीत रचा है?'

इसी वक्‍त शामिल की झुकी कमरवाली और दुख में डूबी माँ उसके सामने आकर खड़ी हो गई. उसके हाथ में झाड़ू थी.

'मेरे बेटे, यह गीत मैंने रचा है. हमारे घर में आज मातम है. तुम यह झाड़ू ले लो और अपना हुक्‍म पूरा करो.'

इमाम सोच में डूब गया. इसके बाद उसने माँ के हाथ से झाड़ू ले ली और दीवार का सहारा ले लिया.

'माँ, तुम घर चली जाओ.'

मुड़कर बेटे की ओर देखते हुए माँ घर की ओर चल दी. जैसे ही वह कूचे में गायब हुई, वैसे ही शामिल ने तलवार और कमरबंद तथा अपना चेर्केस्‍का उतार फेंका.

'माँ का पीटा नहीं जा सकता. उसके कुसूर की मुझे, उसके बेटे शामिल को सजा भुगतनी होगी.'

कमर तक नंगा होकर वह जमीन पर लेट गया और उसने अपने मुरीद से कहा -

'तुमने कोड़ा छिपा क्‍यों लिया? उसे निकालो और जो मैं कहता हूँ, वह करो.'

मुरीद दुविधा में पड़ गया. इमाम की त्‍योरी चढ़ गई और मुरीद तो दूसरों से यह ज्‍यादा अच्‍छी तरह जानता था कि इसका क्‍या नतीजा हो सकता है.

मुरीद अपने इमाम को कोड़े मारने लगा, लेकिन बहुत हल्‍के-हल्‍के हाथ से मानो सजा न देकर पुचकार रहा हो. शामिल अचानक उठकर खड़ा हुआ और चिल्‍लाया -

'मेरी जगह पर लेटो!'

मुरीद बेंच पर लेट गया. शामिल ने उसका कोड़ा लेकर तीन बार खूब जोर से उस पर बरसाया. मुरीद की पीठ पर लाल लकीरें उभर आईं.

'ऐसे मारने चाहिए कोड़े. समझ गए? अब शुरू करो और फिर से चालाकी करने की बात नहीं सोचना.'

मुरीद जोर-जोर से कोड़े मारने और गिनने लगा.

'अट्ठाईस, उनतीस...'

'नहीं, अभी तो सत्‍ताईस हुए हैं. बीच में से छोड़ो नहीं, छलाँगें नहीं लगाओ.'

मुरीद पसीने से तर हो रहा था और वह बाएँ हाथ से उसे पोंछता जाता था. इमाम शामिल की पीठ ऐसी पहाड़ी चोटी के समान लग रही थी जिस पर एक-दूसरे को काटते हुए अनेक रास्‍ते और पगडंडियाँ बनी हों अथवा टीले की उस ढाल जैसी जिसे घोड़ों के अनेक झुंडों ने रौंद डाला हो.

आखिर यह यातना समाप्‍त हुई. मुरीद हाँफता हुआ एक तरफ को हट गया. शामिल ने कपड़े पहने, हथियार बाँध लिए. लोगों को संबोधित करते हुए उसने कहा -

'पहाड़ी लोगो, हमें लड़ना है. हमारे पास गीत रचने और उन्‍हें गाने तथा किस्‍से-कहानियाँ सुनाने का वक्‍त नहीं है. यही ज्‍यादा अच्‍छा होगा कि दुश्‍मन हमारे बारे में गीत गाएँ. हमारी तलवारें उन्‍हें यह सिखा देंगी. आँसू पोंछ लो और तलवारों की धारें तेज करो. हमने अखूल्‍गो खो दिया, लेकिन दागिस्‍तान तो अभी कायम है, लड़ाई तो खत्‍म नहीं हुई.'

इस दिन के पच्‍चीस साल बाद तक दागिस्‍तान दुश्‍मन से लोहा लेता रहा, उस वक्‍त तक जबकि आखिरी लड़ाई खत्‍म नहीं हो गई और गुनीब दुश्‍मन के हाथों में नहीं चला गया.

गुनीब की लड़ाई, जो कई दिनों तक जारी रही, जब अपने पूरे जोर पर थी, तो एक दिन इमाम मसजिद में इबादत कर रहा था.

'ऐसी मुसीबत तो दागिस्‍तान ने पहले कभी नहीं जानी थी.' शामिल की पहली, बड़ी बीवी ने कहा.

'तुम गलती कर रही हो, पातीमात, दागिस्‍तान इससे पहले भी एक मुसीबत जान चुका है.'

'वह कौन-सी?'

'जब मैंने तुम्‍हारे जैसी बीवी के होते हुए भी एक और बीवी बना ली थी यानी शुआइनात से शादी कर ली थी.'

शामिल हँस पड़ा. इसी मसजिद में लेटे हुए उसके घायल मुरीद भी हँस पड़े. ऐसे लगा मानो इमाम को पहली बार हँसते सुनकर सारा दागिस्‍तान हँस पड़ा हो.

वह दागिस्‍तान की सबसे मुश्किल घड़ी में हँसा था, जब वह सब कुछ नष्‍ट हो रहा था जिसका उसने निर्माण किया था और जिस पर उसे गर्व था. वह अपने कैदी बनाए जाने के कुछ घंटे पहले हँसा था.

शामिल अचानक खामोश और संजीदा हो गया. अपनी तीनों बीवियों को उसने गुरीब के पत्‍थरों पर अपने करीब बिठा लिया और उनसे अनुरोध किया -

'मुझे वह गाना सुनाओ जो अल्‍लाह को प्‍यारी हो गई मेरी माँ ने रचा था.'

पातीमात, नापीसात और शुआइनात ने गाना शुरू किया -

शोक मनाओ, अश्रु बहाओ
गाँव-गाँव में तुम लोगो...

गाने की अंतिम ध्‍वनियाँ शांत हो रही थीं. आसमान में चाँद चमक रहा था. इमाम उदास हो गया...

'इसे फिर से गाओ.'

पातीमात, नापीसात और शुआइनात इसी गाने को फिर से गाने लगीं. इस बार यह गाना दूर तक पहुँच गया. इसे चाँदनी में चमकती और दुख में डूबी चट्टानों, बेदमजनूं और गुनीब के चिनारों ने सुना.

'इसे तीसरी बार गाओ!' शामिल ने ऊँची आवाज में कहा.

गाने की ध्‍वनियाँ और आगे पहुँच गईं. इसे अब गुनीब के करीब जलते गाँवों और दूर के पहाड़ों में खामोश सभी गाँवों तथा दिवंगत मुरीदों ने अपनी कब्रों में सुना. किंतु इसी समय पौ फट गई, फिर से घमासान लड़ाई होने लगी, आखिरी लड़ाई. जब हथियारों का शोर और गूँज खत्‍म हुई तो गाने की ध्‍वनियाँ नहीं रही थीं.

इमाम शामिल सम्‍मानित बंदी बन चुका था. उसके शस्‍त्रास्‍त्र और घोड़े लौटा दिए गए थे, उसकी बीवियाँ भी उसके पास ही छोड़ दी गई थीं, लेकिन उसका दागिस्‍तान उसके पास नहीं छोड़ा गया था, वे उसे कहीं दूर उत्‍तर में ले गए थे. दागिस्‍तान का तो एक गीत ही बाकी रह गया था जिसे उसकी बूढ़ी माँ ने कभी रचा था. शुरू में सम्‍मानित बंदी को उसकी तीन बीवियाँ यह गाना सुनाती रहीं. बाद में नापीसात और शुआइनात रह गईं. कुछ और अरसे बाद, दूरस्‍थ अरब रेगिस्‍तान में आखिरी साँस लेते हुए शामिल को उसकी दोनों बड़ी बीवियों के बाद जिंदा रह जानेवाली उसकी अंतिम बीवी शुआइनात यह अंतिम गाना सुनाती रही.

जब शुआइनात की चर्चा चलती तो मेरे पिता जी कहते -

'शामिल के घर में वह सबसे ज्‍यादा खूबसूरत औरत थी. वह इमाम की आखिरी बीवी और उसका पहला प्‍यार थी. सभी पहाड़ी लोगों की तरह इमाम भी हमारे रस्‍म-रिवाजों के मुताबिक शादियाँ करता था. लेकिन यह बीवी तो संयोग से मिलनेवाला पुरस्‍कार थी. जब शामिल के एक बहुत ही बहादुर नायब अखबेर्दिल मुहम्‍मद ने मोज्‍दोक पर धावा बोला तो वह आर्मीनी सौदागर की बेटी, बहुत ही खूबसूरत आन्‍ना को वहाँ से उड़ा लाया. आन्‍ना की शादी होने के कुछ दिन पहले ही ऐसा हुआ था. मुरीद अपने इस शिकार को लबादे में लपेटे हुए इमाम के महल में ले गया. जब लबादा उतारा गया तो इमाम को दो बड़ी-बड़ी, नीली आँखों के सिवा, जो मानो दागिस्‍तान के नीले आकाश से बनाई गई हों, और कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. ये आँखें किसी भी तरह के डर-भय के बिना इमाम को एकटक देख रही थीं. वे पतले, नर्म चमड़े के बूट, इमाम के हथियार, उसकी दाढ़ी और आँखों को देख रही थीं. आर्मीनी युवती ने अपने सामने ऐसा आदमी देखा जिसे किसी तरह भी जवान या सुंदर नहीं कहा जा सकता था. लेकिन उसकी शक्‍ल-सूरत में कुछ तो ऐसा था जो अपनी तरफ खींचता था, आकर्षित करता था. उसके व्‍यक्तित्‍व में रोब-दाब और शक्ति के साथ-साथ कोमलता तथा उदारता की भी अनुभूति होती थी. इन दोनों की आँखें मिलीं. कठोर सैनिक ने अपने दिल में कुछ कमजोरी महसूस की. वह ऐसी कमजोरी का आदी नहीं था और इसलिए डर गया. इसी वक्‍त उसकी रोबीली आवाज गूँज उठी -

'इस लड़की को फौरन वहीं छोड़ आओ, जहाँ से लाए हो.'

'किसलिए इमाम? इतनी हसीन लड़की है. इसमें तो कहीं कोई कमी ही नहीं है.'

'मैं जानता हूँ कि किसलिए ऐसा करना चाहिए और तुम्‍हारा काम तो घोड़े पर जीन कसना है.'

'इसे वापस लौटाने के बदले में क्‍या लिया जाए?'

'बदले में कुछ भी लिए बिना ही लौटा देना.'

अखबेर्दिल मुहम्‍मद को बड़ी हैरानी हुई. शामिल ने बदले में कुछ लिए बिना कभी कोई कैदी रिहा नहीं किया था. लेकिन वह इमाम के सामने एतराज करने की हिम्‍मत नहीं कर सकता था.

अपनी इस कैदी से उसने कहा -

'मैं अभी तुम्‍हें तुम्‍हारे माँ-बाप के पास वापस छोड़ आता हूँ. उन्‍हें बहुत खुशी होगी. तुम उनसे कह देना कि शामिल डाकू-लुटेरा नहीं है.'

जब मुरीद के उक्‍त शब्‍दों का अनुवाद किया गया तो आन्‍ना ने हैरानी से शामिल की तरफ देखा. सभी ने यह समझा कि उसे अपनी इस खुशकिस्‍मती पर यकीन नहीं हो रहा है.

उससे दूसरी बार यह कहा गया -

'इमाम को उसका बहुत अफसोस है, जो हुआ है. वह बदले में कुछ भी लिए बिना तुम्‍हें मुक्‍त कर रहा है.'

तब खूबसूरत आन्‍ना ने शामिल को संबोधित करते हुए कहा -

', दागिस्‍तान के रहनुमा. मुझे तो कोई भी भगाकर नहीं लाया है. मैं तो तुम्‍हारी बंदी बनने के लिए खुद ही यहाँ चली आई हूँ.'

'यह कैसे, किसलिए?'

'ताकि उस सूरमा को अपनी आँखों से देख सकूँ जिसकी सारा काकेशिया, सारी दुनिया चर्चा करती है. तुम्‍हारे मन में जो भी आए, तुम वह कर सकते हो, लेकिन अपनी मर्जी से चुनी हुई इस कैद को मैं किसी भी हालत में नहीं बदलूँगी. मैं यहाँ से कहीं भी नहीं जाऊँगी.'

'नहीं, तुम्‍हारा यहाँ से आना ही ज्‍यादा अच्‍छा होगा.'

'यह तुम कह रहे हो, यह शामिल कह रहा है जिसे सभी बहादुर मर्द मानते हैं.'

'ऐसा अल्‍लाह कह रहा है.'

'खुदा ऐसा नहीं कह सकता.'

'मेरा अल्‍लाह और तुम्‍हारा खुदा अलग-अलग जबान बोलते हैं.'

'दागिस्‍तान के रहनुमा, आज से मैं तुम्‍हारी बंदी, तुम्‍हारी दासी हूँ. आज से तुम्‍हारा अल्‍लाह ही मेरा खुदा होगा. बचपन में ही मैंने तुम्‍हारे बारे में गाने सुने थे. उनमें से एक मुझे याद रह गया है. उसने मेरे दिल में घर कर लिया है.'

आर्मीनी युवती अचानक किसी की भी समझ में न आनेवाली भाषा में एक प्‍यारा गाना गाने लगी. ऊँचे पर्वतों के पीछे से आसमान में चाँद निकल आया. और आर्मीनिया की बेटी अभी भी शामिल के बारे में गाना गाती जा रही थी.

मुरीद अंदर आया.

'इमाम, घोड़े पर जीन कसा जा चुका है. मैं इस लड़की को ले जा सकता हूँ?'

'इसे यहीं रहने दो. इसे यह गाना अंत तक गाना होगा, बेशक इसके लिए उसे पूरी जिंदगी ही दरकार हो.'

कुछ दिनों बाद दागिस्‍तान में दबी-दबी कानाफूसी होने लगी. सड़क पर एक आदमी दूसरे के कान में, एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के लोगों के कानों में फुसफुसाते -

'सुना तुमने? शामिल ने एक और बीवी बना ली है.'

'धर्म-ईमान को माननेवाले इमाम ने एक आर्मीनी लड़की से शादी कर ली है.'

'एक काफिर लड़की अब इमाम की पगड़ी धोती है. प्रार्थना की जगह वह उसे गाने सुनाती है.'

सारे दागिस्‍तान में यह कानाफूसी होने लगी. लेकिन ये अफवाहें सच्‍ची थीं. इमाम ने तीसरी बीवी से शादी कर ली. आन्‍ना ने इस्लाम कबूल कर लिया, पहाड़ी ढंग से दुपट्टा ओढ़ लिया और अवार जाति का नाम ग्रहण करके आन्‍ना से शुआइनात बन गई. इमाम को वही खाना सबसे ज्‍यादा लजीज लगता था जो शुआइनात पकाती थी, वही बिस्‍तर सबसे ज्‍यादा नर्म लगता था जो वह बिछाती थी. उसी का कमरा सबसे ज्‍यादा रोशन और सुखद लगता था, उसी की बोली सबसे अधिक प्‍यारी लगती थी. इमाम का कठोर चेहरा नर्म, स्‍नेहपूर्ण और दयालु हो गया. मोज्‍दोक से अनेक बार शुआइनात के माता-पिता द्वारा भेजे गए संदेशवाहक यह अनुरोध लेकर शामिल के पास आए कि वह बदले में कोई भी कीमत लेकर, जो खुद ही तय करे, उसे वापस घर भेज दे. शामिल यह सब शुआइनात को बताता, लेकिन उसका एक ही जवाब होता -

'इमाम, तुम मेरे पति हो. बेशक मेरी गर्दन काट डालो, लेकिन मैं घर नहीं जाऊँगी.'

इमाम मोज्‍दोक से आनेवाले संदेशवाहकों को बीवी का यही जवाब सुना देता. एक बार शुआइनात का सगा भाई इमाम के पास आया. इमाम ने उसका प्रेमपूर्वक आदर-सत्‍कार किया, उसे शुआइनात से मिलने और उससे बातचीत करने की इजाजत दे दी. बहन-भाई दो घंटे तक एकांत में रहे. भाई ने बहन से पिता के दुख और माँ के आँसुओं की चर्चा की, यह कहा कि घर पर उसकी जिंदगी कितनी खुशी भरी होगी, उस बदकिस्‍मत, जवान वर का जिक्र किया जो अभी तक उससे मुहब्‍बत करता था.

सब बेसूद रहा. शुआइनात ने इनकार कर दिया और भाई अपना-सा मुँह लेकर वापस चला गया.

इमाम की पहली बीवी पातीमात ने अच्‍छा-सा मौका पाकर शामिल से कहा -

'इमाम, चारों तरफ खून बह रहा है, लोग मर रहे हैं. तुम प्रार्थना की तरह शुआइनात के गाने कैसे सुन सकते हो? तुमने तो दागिस्‍तान में गाने की मनाही कर दी है. तुमने तो अपनी माँ के गाने से भी इनकार कर दिया था.'

'पातीमात,' इमाम ने जवाब दिया, 'शुआइनात वे गाने गाती है जो हमारे दुश्‍मन हमारे बारे में गाते हैं. अगर मैं आँसुओं से भरे गानों के प्रचार की इजाजत दे देता तो वे दुश्‍मन तक पहुँच जाते और दुश्‍मन हमारे बारे में दूसरे ही ढंग से सोचने लगता. तब मुझे उन माताओं से आँखें मिलाते हुए शर्म आती जिनके बेटे मेरे साथ जंग के मैदानों में जाकर खेत रहे हैं. लेकिन दुश्‍मन हमारे बारे में बेशक गाने गाते रहें. मैं खुशी से उन्‍हें सुनूँगा और उन्‍हें सुनने के लिए दूसरों को भी अपने पास बुला लूँगा.'

पातीमात के दुख का कारण यह नहीं था कि इमाम जवान बीवी के गाने सुनता था, बल्कि यह कि अपनी पहली दोनों बीवियों को वह पहले की तरह अपने दुख-सुख का भागी नहीं बनाता था. जल्द ही निम्‍न घटना घट गई.

एक बार इमाम को यह सूचना दी गई कि रूस का गोरा जार उसके बेटे जमालुद्दीन को, जो उस वक्‍त पीटर्सबर्ग के सैनिक विद्यालय में शिक्षा पा रहा था, शुआइनात के बदले में लौटाने को तैयार है. ऐसा करना तो बड़ा मुश्किल था. इमाम ने इनकार कर दिया. इस तरह की संभावना के बारे में शामिल ने किसी को नहीं बताया, लेकिन यह खबर किसी तरह पातीमात तक पहुँच ही गई.

एक दिन वह अपनी जवान प्रतिद्वंद्विनी के पास गई.

'शुआइनात, मुझे यह वचन देती हो कि अल्‍लाह के सिवा हमारी बातचीत और कोई नहीं जान पाएगा?'

'वचन देती हूँ.'

'तुम तो मुझसे कहीं बेहतर यह जानती हो कि पिछले कुछ अरसे से शामिल को नींद नहीं आती है, वह बहुत परेशान और व्‍यथित रहता है.'

'हाँ, मैं यह देख रही हूँ, पातीमात, देख रही हूँ.'

'तुम्‍हें मालूम है कि ऐसा क्‍यों है?'

'मुझे मालूम नहीं.'

'मुझे मालूम है. अगर तुम चाहो तो उसका इलाज कर सकती हो.'

'तो वह इलाज मुझे बताओ, मुझे बताओ, मेरी प्‍यारी.'

'तुमने मेरे और शामिल के बेटे जमालुद्दीन के बारे में तो जरूर सुना होगा?'

'हाँ, सुना है.'

'उसका यहाँ लौट आना तुम पर निर्भर करता है. तुम अपनी माँ को याद करती रहती हो. मैं भी माँ हूँ. मैंने दस साल से अपने बेटे को नहीं देखा है. मदद करो! मेरी खातिर नहीं, शामिल की खातिर ही ऐसा करो.'

'शामिल की खातिर मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ लेकिन कैसे मदद करूँ?'

'अगर तुम अपने माँ-बाप के यहाँ वापस चली जाओ तो जार हमें हमारा बेटा जमालुद्दीन लौटा देगा. मुझे मेरा बेटा लौटा दो. इसके लिए अल्‍लाह तुम्‍हें जन्‍नत में जगह देगा. मैं तुम्‍हारी मिन्‍नत करती हूँ.'

शुआइनात की आँखों में आँसू चमक उठे.

'सब कुछ करूँगी, पातीमात, सब कुछ करूँगी,' उसने कहा और चली गई.

अपने कमरे में जाकर वह कालीन पर गिर गई. शुरू में देर तक रोती रही, फिर दर्द भरा गीत गाने लगी. शामिल घर आया.

'क्‍या माजरा है, शुआइनात?'

'इमाम, मुझे मेरे माता-पिता के यहाँ जाने की इजाजत दे दो.'

'यह तुम क्‍या कह रही हो?'

'मुझे उनके पास लौटना ही चाहिए.'

'किसलिए? कैसी बात कह रही हो? तुमने तो खुद ही इनकार किया था और अब मैं तुम्‍हें इसकी इजाजत नहीं दे सकता.'

'शामिल, मुझे मेरे घर भेज दो. दूसरा कोई चारा नहीं है.'

'लगता है कि तुम बीमार हो.'

'मैं चाहती हूँ कि तुम जमालुद्दीन से मिल सको.'

'ओह, तो यह मामला है! तुम कहीं नहीं जाओगी, शुआइनात. अगर मैं उसे तुम्‍हारे बदले में ही हासिल कर सकता हूँ तो मैं हमेशा के लिए उसके बिना रहना बेहतर समझूँगा. अगर वह मेरा बेटा है तो खुद ही अपनी माँ, अपने वतन तक पहुँचने की राह खोज लेगा. मैं तुम्‍हारे बनाए रास्‍ते पर अपने बेटे के पास नहीं जाऊँगा. मैं उसके पास पहुँचने का ऐसा रास्‍ता खोजूँगा जो मेरी और उसकी शान के लायक होगा. यही ज्‍यादा अच्‍छा कि तुम मेरा घोड़ा ले आओ.'

शुआइनात फाटक से इमाम का घोड़ा ले आई. उसने खूँटी से चाबुक उतारकर उसे दे दिया.


शामिल के सभी अभियानों, उसकी सभी यात्राओं में - वे चाहे दागिस्‍तान, पीटर्सबर्ग, कालूगा या अरब धरती से संबंधित थीं - उसकी बीवी शुआइनात इमाम की जिंदगी की आखिरी घड़ी तक हमेशा उसके साथ रही. आज भी, हमारे जमाने में भी इस अद्भुत औरत के बारे में किस्‍से-कहानियाँ सुनाए जाते हैं. आखिर तो उसने इस चीज में भी मदद की कि इमाम का बेटा जमालुद्दीन उसके पास लौट आया. लेकिन यह एक अलग कहानी है.

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