(पिछली क़िस्त से आगे)
इस
भावुकतापूर्ण पाल्टी के अगले दिन परमौत ने खुद को किसी अवकाशप्राप्त संत जैसा मनहूस महसूस किया. सुबह-सुबह उसे बस अड्डे जाना पड़ा क्योंकि हरुवा भन्चक का अचानक वापस गाँव जाने का कार्यक्रम
बन गया था. हरुवा को भरसक अपनी औकात भर पैसे वगैरह देकर, बस में बिठाकर और वापस घर
आ कर जब अपने कमरे में अधलेटा परमौत विचारमग्न हुआ तो गिरधारी और मेरी और नब्बू डीयर की संवेदनापूर्ण
सहानुभूति उसे नकली और नाटकीय लगने लगी. उसने पाया कि ज़िन्दगी बगैर पिरिया के भी
खूबसूरत हो सकती है बशर्ते वह सिर्फ पिरिया के ख्यालों में बिताई जाए - और अकेले.
उसके दोस्त उसकी मोहब्बत और उससे पैदा होने वाले मीठे दर्द को किसी भी तरीके से
महसूस कर सकने में अक्षम थे. उसे प्यार-मोहब्बत की राह दिखाने वाला नब्बू डीयर कल्पना
के एक ऐसे गलीज और दयनीय नरक में धंस चुका नज़र आता था जिससे बाहर निकलना उसके बस
की बात नहीं लगती थी.
मार्च के महीने की उस ग्यारह तारीख को परमौत
ने कुछ बड़े फैसले लिए. पहला यह कि वह गोदाम का चक्कर महीने में सिर्फ दो दिन लगाया
करेगा. दूसरा यह कि किसी भी सूरत में गिरधारी लम्बू को पिरिया की शिनाख्त नहीं
कराएगा. तीसरा यह कि बड़े भाई की सलाह मानते हुए बिजनेस को बढ़ाने के लिए जितनी
मेहनत करनी होगी करेगा. चौथा और सबसे बड़ा निर्णय यह था कि वह पिरिया के बारे में
किसी से भी किसी भी तरह की बात नहीं करेगा. पिरिया उसका पर्सनल मामला था और उसे
सार्वजनिक करने के बाद जितनी फजीहत हुई थी उससे अधिक बर्दाश्त करने की उसकी ताकत
नहीं थी. इन फैसलों को उसने बाकायदा अपनी मसाला-हिसाब की डायरी के आख़िरी पन्ने पर
तारिख समेत लिखा और नहा-धो कर रुद्दरपुर की राह लग लिया जहाँ उसने पिछले दो हफ़्तों
से उगाही नहीं की थी.
गोदाम में हम लोगों ने काफी देर तक उस शाम
उसके आने की राह देखी. गिरधारी लम्बू सबसे अधिक व्याकुल था क्योंकि तमाम कोशिशों
के बावजूद वह दिन भर परमौद्दा से नहीं मिल सका था. कम्प्यूटर सेंटर में क्लास शुरू
होने से लेकर आखिर तक वह ठिगने की चाय की दुकान में डटा रहा था जहाँ मिलने का उससे
पिछली रात परमौत ने उससे वायदा किया था. पहाड़ से आई उसकी बूढ़ी बुआ हस्पताल में
भर्ती थी और उसे उनके लिए खाना पहुँचाने जाना था. कुछ देर यूं ही भुनभुनाने के बाद
वह "कल आता हूँ यार" कहकर निकल गया.
जब परमौत आठ बजे तक नहीं आया तो पिछले दो
घंटों से खटर-खटर चैंटू खेलते रहने से चट चुके नब्बू डीयर और मैं मन मारकर अपने घरों
को चल दिए. भोलानाथ बगीचे के पास एक खोखे से निकलता नब्बू डीयर का पुराना जिगरी
छविराम उर्फ़ गणेश उर्फ़ गणिया मिल गया.
उसने हम दोनों को बारी-बारी से गले लगाया.
गणिया की सांस में ताज़ा सूती गयी दारू की सोंधी सी भभक थी. नब्बू डीयर और मैं उस
रात नीले अर्थात कंगले थे और हमारे पास बीड़ी तक खरीदने के पैसे नहीं थे. और दिन
होता तो मैं उसे देखकर ज़रा भी उत्साहित नहीं होता लेकिन उस भभके के मेरी उचक्की
मद्यप आत्मा के भीतर जीवनदायी आशा का संचार करते हुए उसे थोड़ा ज़्यादा कसकर गले
लगने को मजबूर कर दिया. ऐसा करते ही मुझे उसकी कमीज़ के भीतर पेट में अड़ाई हुई बोतल
महसूस हुई.
"एक-एक खींचते हो नबदा डीयर?"
का गणिया का प्रस्ताव हम तीनों को वापस उसी खोखे में घुसा देने को
पर्याप्त था. पुरानी पेटियों के फट्टों से बने फर्नीचर पर एक शताब्दी का मैल बैठा
हुआ था जो मरियल पीली रोशनी में और भी उभर कर दिख रहा था. एक बार निगाह जम जाने के
बाद मैंने नब्बू डीयर से गपियाते गणिया के चेहरे को तनिक ध्यान से देखा. शादी के
बाद उसने अपनी मूंछें मुंडा ली थीं और वह थोड़ा सा मुटा गया था.
लार टपकाता लालची नब्बू डीयर बार-बार उससे
शादी के बाद की डीटेल्स कुरेदने का असफल प्रयास कर रहा था जिन्हें वह किसी
विशेषज्ञ बल्लेबाज की तरह डक कर जाता. फूलन को उसने फूलन नहीं बल्कि
"तुम्हारी भाभी" कहकर संबोधित किया और हमें सूचित किया कि हमारी भाभी को
शराब पीनेवाले लोग अच्छे नहीं लगते और आज उनके मायके जाने के अवसर पर वह कई दिनों
बाद गला तर करने निकला है. "अच्छा हुआ तुम लोग मिल गए यार" कहकर उसने
अपना हमारा अहसानमंद होना भी जताया.
आधे घंटे से कम बखत में हम खोखे से निबटे और
जैसा कि होना ही था कम पड़ गए कोटे की भरपाई के लिए नाहिद सिनेमा के पास वाली संकरी
कीचदार गली में अवस्थित कच्ची के गोदाम का एक दौरा लगाया गया. गणिया ने इस दौरान
अपने गुंडा करियर में आये बदलावों की बाबत ढेर साली तफसीलात बयान कीं और बताया कि
अब उसने छोटी-मोटी मारपीट करना बंद कर दिया है. इन दिनों वह पिथौरागढ़-बागेश्वर से
आने वाली उच्चस्तरीय चरस को एक स्थानीय हलवाई की मदद से लखनऊ-दिल्ली सप्लाई करने
के काम में जम चुका था और आदर्श गृहस्थ बनने की राह पर था.
"मल्लब पुलिस-हुलिस का खतरा नईं होने
वाला हुआ इसमें गणिया गुरु? कहीं धरे गए तो साले मार-मार
के मदनपुरी बना देने वाले हुए बल ..."
"अरे वो सब पैले से ही शैटिल हुआ नबदा. कोई मलाई जो क्या ठैरी साली अकेले खाने को. मठ्ठे का डरम जैसा
हुआ. अब एक-एक कढ़ाई झोली सबके यहाँ पकनी जरूरी हुई. भौत क्वापरेट करके चलाना पड़ता
है. जैसे दस रुपे आये तो दो रुपे बिचारे पुलिस वालों को भी देने ही हुए. उनके भी
बच्चों ने खाना खाना हुआ. दो रुपे बिचारे भांग उगाने वाले फार्मर को देने हुए, दो लाला को. दिल्ली-लखनो वाले अलग. सबके बच्चे ठैरे. जस-तस कर के चार-छे
आने अपने पास भी आ जाने वाले हुए. अब वो क्या कहने वाले ठैरे कि चहा रंगी जाय,
घर वाले बोत्याये रहें ... इतना ही चाइये हुआ. मदनपुरी-हदनपुरी तो
पिक्चर में मार खाने वाले हुए ... "
हम चुपचाप गणिया के ट्रेड सीक्रेट के विवरण
सुन रहे थे और अपनी कंगाली पर हैरत कर रहे थे कि आठवीं के बाद स्कूल छोड़ चुका और
आगामी युगों का ड्रग-माफिया बनने को तैयार यह भुसकैट लौंडा कितने आत्मविश्वास से
लबालब हो गया है. अभी बहुत पुरानी बात नहीं थी जब वह एक गिलास चाय और सूखे फेन के
लालच में नब्बू डीयर के किसी भी आदेश का पालन करने को तत्पर रहता था. हमें और
आतंकित करते हुए उसने जोड़ा -
"गिरटिंग काल्ड और गिफ्ट-हिफ्ट की दुकान खोलती हूँ कह रही थी तुम्हारी भाभी
यार नबदा ... कोई सस्ती दुकान समझ में आएगी तो जरा ध्यान करना हाँ! वो तिकोनिया
में तुमारे चचा की दुकान भी तो थी एक ..."
"चचा जरा हरामी और हुड्ड टाइप के हैं, तू जानने वाला हुआ यार गणिया ... ऐसा किराया मांगने लगते हैं जैसे दुकान
नईं साला फकरुद्दीन का किला बना रखा होगा.
परसों वो अपने गिरधारी का मामू आया रहा कि चचा दुकान देते हो किराए पर. ... तो ...
उसको इतना किराया कह दिया कि बिचारा तीन दिन से वो क्या कैने वाले हुए डिप्रेसन की
दवाई खा रहा है बल ... तो ... चचा की दुकान की बात तो छोड़ो साले को. हाँ आगे
सुबासनगर साइड में कहता है तो वहां सस्ते किराए पे कोई जगे मिल सकने वाली हुई
..."
"अरे किराए पर जो क्या चइये नबदा ...
खरीदने की बात कर रा हुआ मैं ..."
बातचीत में इसके बाद एक दीर्घ विराम आया. जहाँ
मैं और नब्बू डीयर अपने आप को खासा दिमागदार समझते थे और शायद थे भी और हमारे पास
बीड़ी के पैसे तक नहीं थे. उधर कुल यानी छः-आठ महीनों में सतत निपट चिलमनगन रहा
करने वाले गणिया ने चरस के कारोबार से इतने पैसे खींच डाले थे कि वह तिकोनिया जैसी
मौके की जगह पर प्रॉपर्टी खरीदने का माद्दा रखता था. यह हम दोनों के लिए भयानक
सदमा था. यह हमारे लिए आत्मग्लानि के चुल्लू में डूब जाने का अवसर भी था.
उसके बाद अगले दसेक मिनट हम चुपचाप चलते रहे
और सिर्फ गणिया बोलता रहा. वह बोल रहा था और हम सुन नहीं रहे थे. वह अपने और और
हमारी भाभी के आगामी स्वप्नलोक की बानगी पेश कर रहा था और हम अपने दलिद्दर पर हैरत
कर रहे थे. दिमाग ने कुंद होना शुरू कर दिया था. भला हुआ, गणिया और हमारी भाभी का आशियाना आ गया था.
पांच-पांच बार गले मिलकर और बीस-बीस बार हाथ
मिलाकर गणिया ने हमें अंततः अपने प्रेमपाश से मुक्त किया और गुडनाईट कहकर आगे
जल्दी मिलने का वादा किया.
नब्बू डीयर और मैं मनहूसियत और नशे की
मिलीजुली कैफियत में चल रहे थे. रोजाना के टाइमटेबल के हिसाब से अभी अभी घर जाने
का समय नहीं हुआ था और करीब आधा घंटा और तबाह किया जा सकता था. तकरीबन पूरा चाँद
आसमान पर टंगा हुआ था और सामने सड़क पर एक अरसे से टूटी हुई पाइपलाइन से बह रहे
पानी की छोटी-मोटी नदी बह रही थी. चाँद की परछाईं दूर तक उस पानी में एक लम्बी
लकीर बनाती हमारे साथ-साथ चल रही थी. नब्बू डीयर अमूमन इतनी देर तक खामोश नहीं रह
सकता था लेकिन अभी-अभी गणिया ने जिस तरह हमें बिना बताये हमारी औकात बताई थी उसके
बाद वह अपने हिल्ले से रपट गया था. वह कोई मनहूस गीत वगैरह भी नहीं गा रहा जबकि 'ऐ गम-ए-दिल क्या करूं' टाइप का ह्रदयविदारक समां
बंधा हुआ था.
और दिन होता तो हम चारों यार इकठ्ठे इस पल का
भरपूर मज़ा ले रहे होते और जीवन को और अधिक आनंद से भर देने के नायब तरीके खोज रहे होते.
ऊपर से आज परमौत भी नहीं आया था.
"चल परमौद्दा के यहाँ चलते हैं यार
पंडत" अचानक नब्बू डीयर ने प्रस्ताव दिया.
"अभी?"
"हाँ, मल्लब अभी,"
उसने एक अजीब सी हौकलेट निगाह मुझ पर डाली और बिना मेरे उत्तर की
प्रतीक्षा किये उस कीचड़वाले शॉर्टकट में मुड़ गया जो जंगलात कॉलोनी से होता परमौत
के घर की दिशा में जाता था.
परमौत के घर पर अँधेरा था. सारी बत्तियां बुझी
हुई थीं. हम कुछ देर ठिठके खड़े रहे. मैं वापस मुड़ने को हुआ तो नब्बू डीयर ने ने
"एक मिनट रुक" कहा. वह आगे बढ़कर दरवाज़े की घंटी बजाने वाला ही था पर
उसने वैसा नहीं किया.
"ताला लगा है घर पर यार ..." उसने
मुझे वहीं से सूचित किया.
परमौत के घर पर किसी के न होने के विषय पर
हमें करीब दो मिनट तक बातचीत की पर चूंकि हमारा मतलब परमौत के घर या परिवार से था
ही नहीं और परमौत की कोई खबर हमें नहीं थी सो इस बारे में बात करना थोड़ा बेवकूफाना
लगा. हम फिर चुप हो गए.
"चल रोडवेज़ चलके सिगरेट धूंसते हैं एक-एक
घर जाने से पैले ..." नब्बू डीयर ने पुरानी स्टाइल की बंडी की चोर जेब से कुछ सिक्कों के रूप में बची अपनी
समूची सीक्रेट पूंजी निकाले हुए कहा.
रोडवेज़ से सिगरेट खरीद कर हम पत्थर की उसी
बेंच पर जा कर बैठे जिस पर उस दिन गिरधारी और परमौत बैठे थे. मैं इत्मीनान से कश
खेंच रहा था. नब्बू ने बेमन से आधी पी हुई सिगरेट को किसी हेय चीज़ की तरह अपने
पैरों तले कुचला और अचानक बहुत रुआंसी आवाज़ में बोला - "यार पंडत कल सुबे
बागेश्वर जा रहा मैं ..."
"हैं ...?" मैंने उस पर बेफिक्र सी सवालिया निगाह डाली.
"मैं कल सुबे जा रहा हूँ बागेश्वर ...
बाबू को फालिज पड़ गयी परसों बल ... गाँव से कोई आया था आज. ईजा ने मार डाड़ाडाड़ कर
रखी है तब से. यार पंडत ... ऐसा समझ ले कि हम्मेसा के लिए जा रहा हूँ यार ये
हल्द्वानी छोड़ के साली ..."
"अरे नब्बू ... कैसे ... क्या ... मल्लब
..." मैं कुछ बोल पाता इसके पहले ही नब्बू की सतत डबडबाई रहनेवाली आँखों से
आंसू बहना शुरू हो गए.
मुझे नब्बू की इमोशनल हालत पर नहीं बल्कि उसकी
विपन्नता पर तरस आ रहा था और परमौत पर बेबात का गुस्सा भी कि उसने आज गोदाम न आकर
कितनी बड़ी ग़लती की है. वह आया होता तो नब्बू की जेब में सौ-पचास-दस-बीस कुछ भी डाल
ही देता जिसकी उसे इस वक्त भयानक दरकार हो रही होगी. परमौत और पैसों की याद आने पर
मुझे अपनी खुद की असहायता पर भी खीझ आई लेकिन किया कुछ नहीं जा सकता था. सच तो यह
था कि नब्बू डीयर को हौसला देने को समूची गोदाममंडली ने इस वक़्त यहाँ होना चाहिए
था.
कोई डेढ़-दो मिनट बेकाबू रोने के बाद नब्बू ने
मैली आस्तीन से आँखें पोंछीं और एक झटके में उठकर तेज़ी से उठकर चल दिया. मैं अब भी
बेंच पर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठा हुआ था. जलती सिगरेट उँगलियों में लगी तो मुझे अहसास
हुआ कि नब्बू जा रहा है. नशे के हलके सुरूर में मुझे वह दृश्य बेहद फ़िल्मी और
रूमानी लगा. मुझे उठ कर नब्बू को रोकना चाहिए था और उसके साथ कम से कम उसके घर तक
जाना चाहिए था. मुझे उसके गले लगकर उसे विदा कहनी चाहिए थी. मैंने ऐसा कुछ नहीं
किया.
कुछ देर बाद जब मैं घर पहुंचा तो विचारों की
अभूतपूर्व खलबली के कारण काफी देर नींद नहीं आई. पहले गणिया और उसके बाद नब्बू
डीयर ने मेरी अंतरात्मा का भूसा भर दिया था. अपने आप से वादे करने और कमर कस लेने
का बखत आ गया था. जीवन नाम का पहले से ही हारा माना जा चुका रण एक और पराजय के लिए
ललकार रहा था.
गोदाम बिखर रहा था.
(जारी)
1 comment:
आखिर इंतजार की घड़ियाँ समाप्त हो ही गई. शुक्रिया अशोक जी. :)
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