(पिछली क़िस्त से आगे)
उसी आवेशित क्षण में जैसे परमौत की अगल-बगल का सारा संसार पुनः
जागृत हो गया. सड़क पर उन लोगों की आवाजाही फिर से शुरू हो गयी जो कुछ देर पहले मर
गए थे. चेतना के वापस आते ही परमौत को लगने लगा जैसे समूचे हल्द्वानी शहर ने उसे
पिरिया को अपने साथ मोपेड पर बिठाकर ले जाते देख लिया था और सड़क पर आने-जाने वाला
हर आदमी उसको घूर रहा था. इस से पैदा होने वाली झेंप और सद्यःप्राप्त उपलब्धि से
मिली नासमझ खुशी के मिलेजुले भावनात्मक विलयन ने उसे बजाय बनवारी के पास जाकर अपना
स्कूटर लाने के मोपेड को घर की दिशा में मोड़ देने पर विवश कर दिया. उसे एकांत की घनघोर
आवश्यकता महसूस हो रही थी.
असमय घर आया देख भाभी ने एकाध गैरज़रूरी सवाल पूछे और फिर
अपने कामों में में व्यस्त हो गईं. चाय के लिए पूछे जाने पर उसने मना कर दिया.
बच्चे पड़ोस में ट्यूशन पढ़ने गए थे. परमौत बिस्तर पर लेट गया और दरवाज़े पर एक चोर
निगाह डालने के उपरान्त उसने जेब में रखा पिरिया का रूमाल बाहर निकाल लिया. सफ़ेद
सूती कपड़े के रूमाल में चारों तरफ गुलाबी धागे से पीको की गयी थी और एक कोने में
एक कली दो पत्तियाँ टाइप थोड़ी सी कढ़ाई. रूमाल को बिस्तर पर पूरा फैलाने के बाद
उसने उसके आकार को अपनी हथेली से भी नापा. उसे गौर से देखकर उसके मन में पहली बात
यह आई कि वह उसके अनुमान से बहुत ही छोटा था - इम्तहान के वक्त गुप्त जेबों में
छिपा कर ले जाई जाने वाली नक़ल की पुर्जियों जितना. एकाध फिल्मों में तरह हीरो
द्वारा हीरोइन के रूमाल को पा लिए जाने को जिस महामानवीय उपलब्धि के रूप में
ग्लोरीफ़ाई किया गया था, परमौत अपने भीतर वैसी ही किसी असाधारण भावना का अनुभव करना
चाहता था लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. उसने रूमाल को दूसरी बार सूंघना शुरू किया.
पिरिया की लगाई परफ्यूम की महक में, जिससे उसका हाल ही में अन्तरंग परिचय हुआ था,
पसीने की मरती हुई सी गंध भी मिली हुई थी और परमौत ने नोटिस किया कि पिछले कुछ ही
मिनटों में पसीने की महक ने परफ्यूम पर हावी होना शुरू कर दिया था.
अचानक उसे अपने ऊपर तरस आने लगा. उसका व्यापारी मन रूमाल
के गैरज़रूरी विवरणों को दर्ज करता जा रहा था जबकि उसे इस समय खुशी के मारे फट पड़ना
चाहिए था. इतने लम्बे समय से वह जिस घटना को अपनी कल्पनाओं में हज़ार बार जी चुका
था, वह अभी-अभी घटी थी. उसने अपने आप को डपटा और पिछले तीस-पैंतीस मिनटों के संयोगों
को दुबारा से तरतीबवार जीने में सन्नद्ध हो गया. उसने अपने आप को स्कूटर पर सवार,
गुनगुनाते हुए भीमताल से काठगोदाम पहुँचता हुआ देखा, फिर वह बनवारी के ठीहे पर
लस्सी पी रहा था, फिर तिकोनिया, फिर पाकड़ का पेड़ जिसकी छाँह में पिरिया खड़ी थी ... इसके
बाद के विवरण एक दूसरे में गुज्जीमुज्जी हो जा रहे थे और बार-बार कोशिश करने के
बाद भी वह तय नहीं कर पा रहा था कि पिरिया ने उसका नाम मोची की दुकान पर लिया था
या मोपेड रुकने के बाद. फिर उसे मोची की सूरत याद आई और अखबार में रखा हुआ पिरिया
का सुन्दर पाँव और पाँव का खड़िया जैसा तलुवा और उस तलुवे पर नन्हीं सी लाल फुंसी.
उसके दिमाग पर एक साथ इतनी सारी छवियों ने धावा बोला कि उसे लगा जैसे पिरिया उसकी
बगल में आ कर लेट गयी है. उसकी आंखें मुंदी हुई थीं और उसने पिरिया के रूमाल को
अपनी हथेली में भींचा हुआ था जब भाभी की आवाज़ ने उसकी तन्द्रा तोड़ी - "अरे
प्रमोद वो तुम्हारे दोस्त बिष्टजी आये हैं. क्या कहूं उनसे? तीन चक्कर लगा गए हैं
सुबे से बिचारे ..."
पिरिया के ख़्वाबों में खोये परमौत को उस वक्त किसी का आना
बहुत अच्छा तो नहीं लगा लेकिन उसके तीन बार आ चुकने की बात ने उसे उठने पर विवश
किया. उसे लगा था शायद रुद्दरपुर वाला उसका एक बड़ा कस्टमर आया होगा लेकिन एक बार
पुनः ये बिष्ट जी गिरधारी लम्बू निकले. परमौत को देखते ही उसकी आँखों में आंसू आने
को हो गए और वह इतना ही बोल सका - "क्या यार परमौद्दा ..."
परमौत को गिरधारी का आना बहुत अच्छा लगा और वह उसे पहली
दफ़ा अपने कमरे में लेकर गया. उसने चादर को ठीक करने का बहाना बनाते हुए बिस्तर पर
पड़ी रूमाल को जल्दी-जल्दी तकिये के नीचे स्थापित कर दिया. कमरे में घुसते ही उसे
जैसे ही एकांत मिला, गिरधारी परमौत के गले से लग गया और बाकायदा सुबकने लगा.
"क्या हुआ गिरधरौ? अरे हो क्या गया जो ऐसे डाड़
हाल रा तू यार ... "
थोड़ा संयत होकर गिरधारी कुर्सी पर बैठा और शिकायती लहजे
में बोला - "क्या नईं हुआ ये कौ यार परमौद्दा. आज साला तीन चार महीने हो गए
तुमारी कोई खोज-खबर ही नहीं है ... तुम नोट कमाने में ऐसे लगे कि अपने भाई को भूल
गए यार ... हद्द हो गयी ... मल्लब तुम बताओ कि तुमको जो क्या हुआ होगा कि तुमने
गोदाम का राउंड काटना बी बंद कर दिया हो परमौद्दा ..."
परमौत के पास इन सारे सवालों के उत्तर थे भी और नहीं भी
थे. उसने थोड़ा असहज महसूस किया और बात टालने की नीयत से पूछा - "चाय लगाते हो
जरा-जरा गुरु?"
"चाय-हाय छोड़ परमौद्दा. ये बता कि कल को बागेस्वर
चलते हो या नईं? वो नबुवा साला मरने-मरने को हो रा बल वहां ..."
"हैं ...? नब्बू उस्ताद वहां क्या कर रहे होंगे
बागेश्वर में ... मल्लब ..."
"तुम गोदाम आते-जाते रहते तो तुमको पता चलता ना कि
साला कौन क्या कर रा होगा ... चलो तो जरा बाहर को चलते हैं ... बड़ा गरम लग रा साला
..."
परमौत के घर से बनवारी की दुकान तक पहुँचने के अंतराल में
मोपेड पर पीछे बैठे गिरधारी ने परमौत को बताया कि किस तरह उस नाटकीय घटनाक्रम के
चलते नब्बू डीयर को अपनी माँ के साथ बागेश्वर जाना पड़ गया और किस तरह बिना उसे
बताये मैं भी बंबई चला गया और किस तरह हमारी जन्नत को एक वीराने में तब्दील होने
में ज़रा भी वक्त नहीं लगा. परमौत द्वारा गोदाम और गोदाम-मंडल से अकारण बेरुख हो को
जाने भी गिरधारी लम्बू ने लाड़ और अपनेपन के साथ ने एकाधिक बार गरियाया. तात्कालिक
संकट यह था कि पहाड़ से आये किसी आदमी के माध्यम से गिरधारी को पता लगा था कि नब्बू
डीयर की तबीयत बहुत ज़्यादा खराब थी और यह भी कि ढंग का इलाज न मिला तो उसका हैप्पी
बड्डे होने तक का भी चांस था. गोदाम तो तबाह हो ही चुका था.
बनवारी के ठीहे तक पहुँचने तक परमौत पशेमानी और अफ़सोस का
जीता-जागता पुतला बन चुका था. उसी मनःस्थिति में उसने गिरधारी को लस्सी और सिगरेट
पिलवाये, अपना स्कूटर वापस लिया, उसमें फिट किये गए बक्सों को उतारा और गिरधारी से
मुखातिब होकर कहा - "अब कितना चूसेगा साली ठुड्डी को यार गिरधर ... चल जल्दी
बैठ तो ..." गिरधारी को पीछे बिठाकर परमौत काठगोदाम और उससे आगे
रानीबाग-भुजियाघाट तक का चक्कर काट आने की मंशा से उस दिशा में निकल पड़ा. स्कूटर को रेस देते समय उसे अचानक भान
हुआ कि वह पिरिया के बजाय नब्बू डीयर के बारे में सोचता हुआ
कातर हो रहा था. अपने सबसे नज़दीकी दोस्तों की ऐसी अनदेखी कर चुकने की अपनी कमीनगी
पर अब उसे शर्म आने लगी थी. उसके अपने स्वार्थ के चक्कर इतनी मेहनत से बनाई गयी
शरणस्थली बर्बाद हो गयी थी.
परमौत ने काठगोदाम के ठेके पर स्कूटर रोका और गिरधारी को
पैसे देकर अद्धा लाने को कहा. काठगोदाम के रेलवे स्टेशन से रात कि निकलने वाली
इकलौती ट्रेन के जाने में अभी समय था और प्लेटफॉर्म दस-बारह मनुष्य और इतने ही
लेंडी कुत्ते फ़िज़ूल कामों में लगे हुए थे. अंग्रेजों के ज़माने में बनाए गए इस
स्टेशन की आरामदेह बेंचें इस हिसाब से बनाई गयी लगती थीं कि बीस मिनट में अद्धा
खेंचने की नीयत रखने वाले महात्माओं को इस सत्कर्म को बेरोकटोक अंजाम देने में
ज़्यादा परेशानी न हो. पानी के लिए एकाधिक नल थे, सामने देखने के लिए एक लैंडस्केप
था जिसमें पहले पटरियां थीं, उनके आगे झोपड़पट्टी, उसके आगे मकानात और उनके भी आगे
वाली गौला नदी से सटी पहाड़ियाँ जो फिलहाल
गर्मी के कारण धूसर नज़र आ रही थीं और परमौत के मन के असमंजस और ग्लानि को
प्रतिविम्बित कर रही थीं. जलते हुए तरल-गरल की थोड़ी सी मात्रा दोनों सखाओं के
पेटों में पहुँची और दोनों की आँखों में बरसों बाद मिले किसी दुर्लभ आनंद की सी
तरावट और संतुष्टि आ गयी.
"अब बता गिरधर बेटे तू बागेश्वर-हागेश्वर क्या कै रा
था उस टैम? ... ये अपने नबदा को जो क्या हुआ होगा साला ये दो-तीन महीने में ही मरने को तैयार हो गया बल ..."
"अरे ऐसे ही हुआ यार परमौद्दा ... खाल्ली हुआ सब साला
... कोई पैंसा-डबल-टका जो क्या ठैरा उसकी फैमली में किसी के पास. मामा हुए उसके वो गोदाम
वाले आर्मी रिटायर ... उन्हीं के दिए से काम चलने वाला हुआ उसका और उसकी ईजा का
... बाबू बिचारे के गाँव रहने वाले हुए बागेस्वर ... बिचारों को वहीं बाई पड़ गयी
हुई उस दिन ... नहीं बता रहा था मैं तुमको जब वो पंडत आया रहा उसके अगले दिन गोदाम
को ... दायाँ सरीर पूरी तरे से घुस गया बल उनका ... लाचार ठैरे ... डबल-हबल सब निल हुआ. नबदा
बिचारा वहां किसी ठेकेदार के साथ काम रहा था बल ... खाना-हाना खाया नहीं होगा ....
टीबी-टाबी जैसा क्याप्प कुछ हो गया है बल बिचारे को ... मरता है साला भलै अब ..."
परमौत ने अपने जीवन में इस तरह की किसी स्थिति का सामना
नहीं किया था जहां पैसे की इतनी तंगी से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता पड़ा हो. उसे
अपनी पतलून की जेब में धरी नोट की गड्डी का ख़याल आया फिर यह भी कि ऐसे पैसे के
होने का क्या फ़ायदा था जब आपका सबसे पक्का दोस्त बागेश्वर जैसी नामुराद जगह पर
टीबी से मर रहा हो. परमौत ग्लानि के दलदल में थोड़ा और धंस गया.
वह तनिक असहाय स्वर में बोला - "अब क्या करेंगे यार
गिरधर गुरु ... क्या होता है अब ...?"
"...
करना वही ठैरा परमौद्दा जो धरम कैने वाला हुआ ... मल्लब मैं तो कल
सुबे जा रहा बागेश्वर नब्बू डीयर को हल्द्वानी लाने को ... देखी जाएगी साली ...
चार-छै सौ रुपे बचा रखे थे मैंने इमर्जेंटी के लिए ..."
"... मल्लब ... अकेले .... "
"मेरे पास कौन से साले ड्राईबर-फ्राईबर घर में लगे
ठैरे परमौती वस्ताज ... अकेले ही जाना हुआ ... और क्या फिर ... तुम चलते हो तो ऐसा
कहो ..."
प्रोजेक्ट-बागेश्वर में शामिल होने के लिए गिरधारी लम्बू ने परमौत
को दूसरी बार प्रस्ताव दिया. परमौत को पहली बार अहसास हुआ कि उसे अपने आप को
बचाए रख सकने के लिए गिरधारी लम्बू के साथ जाना ही होगा.
काठगोदाम रेलवे स्टेशन वाले अद्धे के उपरान्त एक और वैसी
ही शीशी लेकर उन्होंने सीधे गोदाम जाने का फैसला किया. चाभी गिरधारी के पास धरी
रहती थी. शटर खोलकर गोदाम में घुसे तो बंद कमरे की भीषण गर्मी और बदबू के असहनीय
भभके ने उनका स्वागत किया. स्थिति सामान्य होने पर उन्होंने देखा कि मेरे और नब्बू
द्वारा खले गए चैंटू के अंतिम खेल के प्रमाणस्वरूप माचिस की डिब्बी गिलास के भीतर
घुसी हुई थी और खेल की मेज़ पर जमी हुई धूल के बीच स्कोरबोर्ड लिखनेवाली कॉपी खुली
रखी हुई थी. खुली हुई यह कॉपी का स्कोर बता रहा था कि खेल के पूरा होने से पहले ही
खिलाड़ी किसी कारणवश उसे बीच में छोड़कर चले गए थे. गिरधारी लम्बू और परमौत इस
स्थिति में नहीं थे कि उस शाम की घटनाओं की ठीकठीक कल्पना कर पाते जब नब्बू डीयर
और मैं देर तक परमौत का इंतज़ार करते रहे थे. परमौत ने बेहद अपनेपन के साथ कॉपी का
मुआयना किया और अपनी निगाहें गोदाम के चप्पे-चप्पे पर डालना शुरू किया - बगैर
ढक्कन वाला टू-इन-वन, पव्वे-अद्धों की सूरत में कबाड़ी को बेचे जाने की राह देख रहा
शराब का बेशुमार बारदाना, टीन के बेमतलब पत्तरों का चट्टा, दो दर्जन से अधिक जगहों
पर सिगरेट से दगा हुआ एक अदद गद्दा, दस-बारह कैसेट, तीस-चालीस किताबें-पत्रिकाएँ,
पुराने अखबार, एक छड़ी, दीवार पर समांथा फॉक्स का धूसरित हो चूका आदमकद पोस्टर और सिगरेट की ठुड्डियों से
भरी पीतल की पुरानी एशट्रे. कोने पर दीवार में बनाए गए सरिया निकले, सीमेंट के एक
छोटे से बेडौल स्लैब के ऊपर पता नहीं कब से नब्बू डीयर का फूटा हुआ माउथ ऑर्गन रखा
हुआ था जिसे बजाना हम में से किसी को नहीं आ सका. नब्बू डीयर ने शुरू शुरू में यह
बण्डल फेंकी थी कि उसकी प्रेमिका ने वह माउथऑर्गन उसके किसी बर्थडे में उपहार में
दिया था. बाद में अपनी पोल खुल जाने के पहले ही उन्होंने स्वीकारोक्ति की थी कि
दरअसल वह यंत्र पीलीभीत में रहनेवाले उनके एक जन्मजात चोट्टे मौसेरे भाई का था जिससे
उन्हें बचपन से ही दुश्मनी थी और इसी वजह से वह उसे कभी वहां से चुरा लाया था.
परमौत ने माउथऑर्गन उठा किया और उसे अपनी पतलून पर पोंछकर
उसमें फूंक मारी. अजीबोगरीब किस्म की च्वां-प्वां की सी ध्वनि निकली जिसने गोदाम के
शटर के बाहर बैठे कुत्ते को हकबका सा दिया और उसने भौंकना शुरू कर दिया.
परमौत नोस्टाल्जिया के गटर में घुस गया. उसने अद्धा मुंह
में लगाकर एक लंबा घूँट लिया और गिरधारी से मुखातिब हुआ - "और ये हमारे साले
पंडत को बंबई किसने भेजा दिया होगा यार? यहीं रैता ... टूसन-फूसन पढ़ाता, ईजा-बाबू
के साथ रैता ... वो अच्छा हुआ या साला बंबई जैसी हौकलेट जगे पे अपनी ऐसी-तैसी करा
रा वो अच्छा हुआ ... हैं?"
"तुझे कैसे पता परमौद्दा कि पंडत की वहां ऐसी-तैसी हो
रही होगी ..."
"गिरधारी गुरु, एक बात समझ लो बाबू, बंबई में कोई
साला खुस नहीं रैता सिवाय टाटा-बिल्डा के ... और क्या कैते हैं वो राजेस खन्ना-देबानन के अलावे ... बाकी सब सालों का क्या हुआ? ... भागते रहो चूतियों की तरह ...
लटके रहो साले बस-ट्रेन के उप्पर ... मैंने देख रखा हुआ साला बंबई-हम्बई पैले ... बाबू
ले के गए थे एक बार ददा और मुझको ..."
"तो तू कह रहा हुआ परमौद्दा कि पंडत को भी बंबई में वैसी
ही टीबी-टाबी हो सकने वाली हुई ... ये अजीबी टाइप फुकसटपंथी है साली - मल्लब हल्द्वानी छोड़
के जहाँ जाए वहां बीमार पड़ जाने वाला हुआ आदमी बल ... ल्लै! ..."
गिरधारी और परमौत उस रात एक बजे तक प्रेमालाप करते रहे जिसके
समापन पर यह तय हुआ कि वे दोनों अगली सुबह नौ-दस बजे बागेश्वर का रुख करेंगे. हुआ
तो एक रात अल्मोड़े में परमौत की बुआ के घर बिताई जाएगी और उसके अगले दिन बागेश्वर जाकर
नब्बू डीयर को हल्द्वानी लाने का जुगाड़ बनाया जाएगा.
"हाँ लौट के पंडत के घर जा के उसका नम्बर-हम्बर पता लगाते
हैं परमौद्दा. बड़े गुलसन नंदा बन्ने गए हैं साले ..."
(जारी)
1 comment:
एक बेहतरीन उपन्यास तैयार हो रहा है, मगर प्लीज इसे कॉम्प्लीमेंट न समझकर बेहतरी की जिज्ञासा के ही रूप में देखना.वक़्त से पहले बहुत हल्ले से हिंदी का लेखक लकवा जाता है. हिंदी में 99% लेखकों का ऐसा ही हाल हुआ है. मुझे उम्मीद है तुम्हारे अन्दर इस बाहरी लकझक से निर्लिप्त रह सकने का विवेक है. इसी ले में चलते रहो, यह तुम्हारी ही उपलब्धि नहीं, हम सब की है.
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