Saturday, July 22, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - बीस


(पिछली क़िस्त से आगे)

गिरधारी को उसके घर छोड़कर परमौत अपने घर लौटा तो उसने खुद को अजीब सी कैफियत में गिरफ्तार पाया. दिन भर भावनात्मक रूप से निचुड़ जाने के बाद भी उसे थकान नहीं लगी थी. वह छत पर चला  गया. गर्मी अब भी अच्छी खासी थी और कई दिनों के बाद शराब और इतनी सारी शराब पी चुकने के बाद उसके भीतर सांय-सांय करते विचार किसी उबाल की तरह घुमड़ रहे थे. इन विचारों में उसकी पिरिया थी और उसके सुख-दुःख में हमेशा साथ रहा करने वाले दोस्त. उसे डायरी में लिखे वायदों की निस्सारता का अहसास हुआ. उसकी समझ में आ रहा था कि ज़िन्दगी के स्याह-सफ़ेद को इस तरह डायरी में चार वाक्य लिख कर अलग-अलग खांचों में फिट नहीं किया जा सकता.

क्या नब्बू डीयर जैसे दोस्त सिर्फ इस लिए उसके जीवन में थे कि उसकी सुविधा के हिसाब से कभी सह-मद्यप, कभी मसखरे, कभी सलाहकार और कभी कुछ भी नहीं की भूमिकाएं निभाते रहें? क्या पिछले तीन-चार महीनों में चाहे जिस कारण से हुआ हो, उसका निपट स्वार्थी बन जाना उसका अब तक के जीवन का सबसे बड़ा पाप नहीं था? क्या वह किसी के गले से लिपटकर गिरधारी की तरह निष्पाप रोना रो सकता था? क्या उसने गिरधारी और गोदाम के बाकी दोस्तों के साथ दगा नहीं किया था? क्या उनके दुःख को साझा करना उसका नैतिक कर्तव्य नहीं था जिसे गिरधारी लम्बू जैसा परम स्वार्थी प्रतीत होने वाला इंसान ‘धरम’ का नाम दे रहा था? क्या परिवार के जमे-जमाए बिजनेस को बढ़ाते चले जाना और अंततः किसी लाला की तरह मुटाकर टें बोल जाने की तरफ बढ़ते जाना में वह अपने जीवन का कोई अर्थ खोज सकता था?

गहरी सांस लेकर असहाय परमौत ने आंखें उठाकर आसमान की ओर देखा. टेलीफोन एक्सचेंज के ऊपर लगे टावर के ठीक ऊपर हल्का पीला पड़ा हुआ बेडौल चाँद था और उसके मरियल आभामंडल की परिधि के समाप्त होने के बाद छिटपुट तारे देखे जा सकते थे. चाँद-तारों को देख कर उसके मन में गोदाम के कोने में बैठे ‘चाँद सी मैबूबा’ वाले गीत पर प्रवचन देते नब्बू डीयर की इमेज तैर आई. ज़ाहिर है इस इमेज के बाद की अगली इमेज पिरिया की होनी थी. पिरिया का ख़याल आते ही से उस रूमाल की याद आई जिसे वह तकिये के नीचे छुपा आया था. वह दबे से क़दमों ज़ीने की सीढियां उतर कर अपने कमरे में पहुंचा. रुमाल वहीं था. उसे हल्की थकान महसूस हुई और वह जूता पहने-पहने बिस्तर पर लेट गया. छत पर निगाह अटकाए उसने रुमाल को फिर से सूंघा. शाम से अब तक काफी समय बीत गया था और उसमें सिर्फ पसीने की गंध बची रह गयी थी. शराब और अहसासों का मिला-जुला नशा अब पकने लग गया था और परमौत के आत्म-मंथन का दायरा बढ़ रहा था. उसने रुमाल को अच्छे से तहा कर नीचे रखा और एक तरफ को करवट ली. 

क्या पिरिया से सिर्फ ख़याली मोहब्बत की जा सकती थी जबकि वह चौबीसों घंटे शहर के गली-कूचों और उसके अंतर्मन में इस कदर ठोस तरीके से उपस्थित थी. उसके "ल्लै ... अब आपको मेरा नाम बी पता नईं  हुआ” का वह क्या अर्थ निकाले? क्या पिरिया को इस बात का थोड़ा भी अहसास होगा कि वह उसके साथ कैसे-कैसे सपने देखा करता है? लेकिन क्या पिरिया से मोहब्बत करने के मामले में भी उसने वैसी ही अवसरवादिता नहीं दिखाई थी? क्या वह दोस्ती की ही तरह मोहब्बत को भी अपनी सुविधा के हिसाब से नहीं कर रहा था? क्या उसकी अपनी मोहब्बत नब्बू डीयर की उस एकतरफ़ा मोहब्बत जैसी गलीज और काइयां नहीं थी जिसका वह और गोदाम के अन्य दोस्त इस कदर मज़ाक बनाया करते थे? क्या उसने गिरधारी द्वारा पिरिया की फोटो जुगाड़ लाने के प्रस्ताव को बिसराकर अपने सखा का अपमान नहीं किया था?

पिरिया की फोटो का ख़याल आते ही परमौत का मन अपने आप को लात मारने का हुआ. फोटो होती तो वह अपनी उस से इन सब बातों को कह सकता था ...

किसी बेफिक्र बच्चे की तरह गहरी नींद सोये परमौत को सुबह उठने में देर हुई. जैसे-तैसे दस बजे तक केमू स्टेशन पहुंचकर उसने गिरधारी को प्रतीक्षारत पाया. साढ़े दस पर बागेश्वर की आख़िरी बस थी. उन्होंने फिलहाल अल्मोड़े तक का टिकट लिया.

रास्ते भर कभी फ़िज़ूल की बातों पर हंसी-ठठ्ठा करते, कभी ऊंघते-सोते, भवाली-रातीघाट-खैरना-गरमपानी-लोधिया जैसी बेमतलब नज़र आने वाली लेकिन महान जगहों से गुजरने के बाद तीन बजे के आसपास दोनों अल्मोड़ा स्टेशन पर थे. अल्मोड़ा में बस के आधा घंटा के हॉल्ट के दौरान आगे का कार्यक्रम तय किया जाना था. यह अलग बात थी कि गिरधारी इसके पहले कभी अल्मोड़ा नहीं आया था लेकिन उसका मन था कि उसी रात बागेश्वर पहुँच जाया जाय जबकि परमौत एक रात अल्मोड़े में बिताना चाहता था. पहली नज़र में गिरधारी को अल्मोड़ा बेतरह भाया. नीचे उतरते ही वहां के पुरातन बस अड्डे के गिर्द पसरे आलस, भीड़, बास और गन्दगी के शाश्वत अल्मोड़िया परिवेश का हिस्सा बनाते ही गिरधारी का मन बदल गया. सदियों पहले बनाई गयी सीढ़ियों पर सदियों ही से बगैर नहाए बैठे दो दढ़ियल पागल नागरों की आवाजाही का मुआयना कर रहे थे, मिठाई और रेडीमेड कपड़ों की दुकानों पर पहाड़ के गाँवों से आए हुए असंख्य हकबकाए कुनबे जुटे हुए थे, पेशाबघर की बदबू सड़क पार कर उन तक पहुँच रही थी, गायों और कुत्तों के नियत कोने थे, ट्रैफिक का संचालन करने की नीयत से तैनात किया गया बेचारा लग रहा सिपाही किसी दुकान से माँगी गयी कुर्सी पर बैठा बाकायदा ऊंघ रहा था. सामने से बन्दरटोपी पहने बंगाली पर्यटकों का एक टोला आता दिखाई दिया तो गिरधारी बोला - "बुआ कां रैने वाली हुई तुमारी परमौद्दा ...?"

परमौत ने उसके सवाल का जवाब नहीं दिया और उसे अपने पीछे आने का इशारा किया. परमौत स्टेशन के नज़दीक अवस्थित एक होटल में घुसा ने पर ही मौजूद एक ठीकठाक दिख रहे होटल में कमरा ले लिया.

“बुढ़िया के यहाँ खाली चिक-चिक होने वाली हुई यार गिरधर. अकेली हुई बिचारी. क्या बनाएगी क्या खिलाएगी? बस ज़रा सा मिल कर आ जाएंगे फिर दिखाते हैं तुमको अल्मोड़े के वो क्या कैने वाले हुए जलुवे ...” परमौत ने गिरधारी लम्बू की पीठ पर हल्की सी धौल जमाते हुए कहा. 

कमरे ने अपने अपने झोले डालकर दोनों अल्मोड़े के धारानौला मोहल्ले में रहनेवाली परमौत की बुआ के घर की तरफ चले कि शाम होने के पहले जल्दी-जल्दी इस औपचारिकता को भी निबटा लिया जाय. होटल से बाहर निकल कर उन्होंने सड़क पर सरसरी निगाह डाली. स्कूल-कॉलेज से लौट रही सैकड़ों सुन्दर-हंसोड़-शर्मीली लड़कियों के खी-खी करते झुण्ड के झुण्ड अलग अलग दिशाओं को गतिमान थे जिनकी वजह से ट्रैफिक की सघनता और सौन्दर्यबोध में कई गुना वृद्धि हो गयी लगती थी. चमत्कृत कर देने वाले इस दृश्य को गिरधारी मुंह खोले देख रहा था. उसने इतने नज़दीक से एक साथ इतनी सारी सुन्दर लड़कियां कभी नहीं देखी थीं – हल्द्वानी के डिग्री कॉलेज में भी नहीं. गिरधारी की लार टपकता देख परमौत हौले से मुस्कराया और उसने उसकी कमर में उंगली चुभो कर आँख मारी.

इस दृश्य का बहुत लम्बे समय तक अवलोकन करने के बाद वे लोहे के शेर तक पहुंचने वाली सीढ़ियां चढ़ने लगे. सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने वालों का अजस्र तांता लगा हुआ था.

“अबे सालो ... भौंरा कि पतंगा ...” उनके पीछे कोई जोर से चीखा. परमौत और गिरधारी ने इसे सुन कर भी अनसुना करते हुए चढ़ना जारी रखा. लेकिन जब “अबे परमौती वस्ताज जरा रुको तो हो ...” का स्वर कानों में पड़ा तो दोनों ठिठककर  पलटे. उनके पीछे भागता-हांफता परमौत का चाचा अर्थात हरुवा भंचक आ रहा था.

हरुवा को देखकर दोनों प्रफुल्लित हुए. वहीं सीढ़ियों पर उनका संक्षिप्त गला-मिलन समारोह हुआ जिसके तुरंत बाद हल्द्वानी से आए दोनों मित्रों को ज्ञान हुआ कि हरुवा भंचक हल्की टुन्नावस्था में है. “और गिरधर लाल, हाउ आर यू कहा ... तुमारी सकल देख के लग रहा एभरीथिंग फाइन ही हो रही होगी यार. अल्मोड़े आये हो और साला हरीस चन्न को हवा नहीं लगने दी साली ... गलत बात ठैरी यार भतीजे, कत्तई गलत ...” उत्साह के अतिरेक में आ गया हरुवा दोनों से एक साथ बात कर रहा था.

जब तक परमौत या गिरधारी लम्बू हरुवा की किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया देते, सामने से आ रहे एक बाबा टाइप के आदमी से हरुवा की हाय-हैलो होने लगी और उसने उनसे “तुम चलते रहो आगे को ... लोहे के सेर पर रुके रैना हाँ परमौती बाबू ...” कहकर बाबा के कान में कुछ कहा जिसे सुनकर पहले बाबा और फिर स्वयं हरुवा जोर के ठहाकों में फूट पड़े. हरुवा भंचक और बाबा की मंत्रणा दो-चार मिनट चली जिसकी समाप्ति तक हरुवा के ऐसे आकस्मिक तरीके से टकरा जाने से अचकचाए दोनों मित्र लोहे के शेर तक पहुँच गए थे.

लोहे का यह दयनीय दिखने वाला शेर एक अनूठी कलाकृति है जिसे नगर के मुख्य बाज़ार के तकरीबन केंद्र में ऐसी जगह स्थापित किया गया है जहां इसे स्पॉट तक करने में नए आदमी को अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ सकती है. कई बार तो इसकी ठीक बगल में या इस से सटकर खड़े लोगों को भी यह पूछते हुए पाया गया जाता है कि दाज्यू लोहे का शेर कहाँ होगा. परमौत ने इस शेर को बचपन से देखा हुआ था और वह उसके आगे खड़ा हो गया. गिरधारी आगे जाने को था जब परमौत ने उसकी बांह थामकर रोका. परमौत ने उस पर सवालिया निगाह डाली तो परमौत ने लोहे के शेर की तरफ इशारा कर दिया. गिरधारी लम्बू ने लोहे के शेर को देखा तो अनायास बोल पड़ा – “भंचक लग गयी बिचारे सेर को यार परमौद्दा. कैसा बिरालू के जैसा म्यां-म्यां करने को हो रहा.” परमौत हंस पड़ा. अब वे बाजार की तरफ मुंह कर खड़े हुए. 

संकरे चौक बाज़ार की भयानक चहलपहल और उसमें मौजूद सुन्दर स्त्रियों की बहुलता देख कर गिरधारी लम्बू फिर से बौरा गया और उसने परमौत की तरफ चोर निगाह डाली. परमौत सामने ज़मीन पर फड़ लगाकर बैठी एक बुजुर्ग तिब्बती महिला के सामने लगी जम्बू-हींग-गंदरायणी जैसे एक्ज़ोटिक मसालों की ढेरियों पर ध्यान लगाए था. इस से गिरधारी को अपना महिला दर्शन कार्यक्रम जारी रखने को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला और उसने समय का भरपूर लाभ उठाना शुरू कर दिया.

दो-तीन मिनट में हो-हो करता हरुवा भंचक पहुँच गया और उसने एक-एक कर दोनों से दूसरी बार गले मिलकर अपना पिछ्ला डायलाग रिपीट करते हुए उनके चुपचाप अल्मोड़ा आने पर थोड़ी सी नकली नाराजगी ज़ाहिर की. परमौत और गिरधारी से बगैर उनके भविष्य के कार्यक्रम की बाबत कोई सवाल किये उसने अपनी तरफ से प्रस्ताव रखा – “ऐसा करते हैं भतीजे पहले तुम को मिला के लाते हैं भगौती दी से. मैं तो हर दूसरे दिन जाने वाला हुआ वहां. तो पैले तुमारी बुबू के यहाँ जाते हैं फिर उसके बाद जो है हम करने वाले हुए फश्क्लाश पाल्टी.”

“तुम क्या ले जाओगे हम तो पैले ही वहीं जा रहे चचा ... तुम तो ये बताओ कि अल्मोड़े में तुम क्या कर रहे हो और ये साली दिनदहाड़े घुटकी कहाँ से लगा आए कि मार बम्पुलिस जैसे भभका मार रहे हो पैनचो ...”

दिनदहाड़े किये गए मद्यकर्म की भतीजे से ऐसी तारीफ़ सुनकर मुदित हरुवा के होंठ आधे गालों तक पसर गए और उसने किसी गुप्त सूचना का खुलासा जैसा करते हुए फुसफुस स्वर में कहा – “ठेला डाल रखा है यार एक अल्मोड़ा-रानीखेत रूट पर. आजकल खूब रहीस लोग मकान-हकान लगा रहे हैं दिल्ली-फिल्ली से आके उधर मजखाली-द्वारसों साइड. वहीं ईंट-पत्थर का ढुलान चल्ला इन दिनों. अरे ... अभी मुझको मिला नहीं था वो सीढ़ी पर ... क्या नाम कहते हैं उसका ... वो महेसिया ... अरे वोई दाढ़ी वाला वो जिससे बात कर रहा हुआ मैं अब्बी ... उसके सांथ पाल्टनरी कर रखी है ... थोड़ा पौपल्टी वगैरा का काम भी सुरु है ... अरे ऑफिश बना रखा है नैन्ताड़ीदीवाल में यार भतीजे ...”

चार महीने पहले कंगालावस्था में हल्द्वानी पहुंचे हरुवा के अल्मोड़ा में ट्रांसपोर्टर-कम-प्रॉपर्टी डीलर बन चुकने की कहानी गिरधारी को विश्वसनीय लगी लेकिन दो और दो चार मिलाकर परमौत समझ गया कि बचपन से ऊंची छोड़ने की आदत से मजबूर हरुवा झूठ बोल रहा था. कभी संकरी और कभी और भी अधिक संकरी हो जा रही अल्मोड़े की ऐतिहासिक बाज़ार से रास्ते में बुआ के लिए फल-मिठाई वगैरह खरीदे गए. फिर दो तरफ पत्थर की दीवारों से घिरी डेढ़-दो फुट चौड़ी बदबूदार गली से होते हुए उन्होंने धारानौला का रुख किया. सीढ़ियां उतरते हुए अचानक गिरधारी का पैर ताज़े गोबर पर पड़ा और वह गिरते-गिरते परमौत पर लधर जैसा गया. परमौत के हाथ से केलों की थैली नीचे गिर गयी. गोबर ही में गिरी थैली को लात से साइड करते हुए परमौत ने नारा जैसा लगाया – “जय हो भंचक देवता की!” और ठठ्ठा मार कर हंसा.

भगौती बुआ का घर अपने आप में एक वास्तुशिल्पीय अजूबा था जिसका प्रवेश दोमंजिले में अवस्थित छत पर बनी एक झिरीनुमा खोह में था. इस खोह से होकर पाताल को जैसा जाने वाला एक सीढ़ीदार, संकरा और अँधेरा गलियारा था. इस गलियारे में एकाधिक बार भबरी जाने की परमौत की बचपन की ठोस यादें थीं. परमौत के पीछे हरुवा था और हरुवा के पीछे अपने जूतों को लगातार ज़मीन पर घिसता आ रहा गिरधारी लम्बू.

घुप्प अँधेरे में खड़े रहकर पांच मिनट तक लगातार बुआ के दरवाज़े पर खटखटाने के बाद “को मर रौ न्हल ...  को मर रौ न्हल” का जाप करता गालियों से सुसज्जित स्त्री-स्वर सुनाई दिया तो हरुवा हल्की आवाज़ में बोला – “बुढ़िया मल्लब आने को बाद में कहेगी मरने को पहले ...”

अंदर से कुंडी खोलने की खटखट हुई. दरवाज़ा खुला और बुआ ने लाईट जलाकर जैसे ही “कौन है” कहा लाईट चली गयी – “आ जा हरीसौ ... तेरे आत्ते ही जाने वाली हुई ये आगहालण लाईट हम्मेसा ... ज़रा रुक तो लम्फू लाती हूँ बज्यौण ...”

(जारी)


1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह :) लोहे का अदृश्य शेर गजब ।