(पिछली क़िस्त से आगे)
मिट्टी
तेल के लैम्प की भकभकाती बत्ती से पैदा हो रही धुंएदार रोशनी में थोड़ा श्रम
करने के उपरान्त ही परमौत की आँखें भगौती बुआ को ठीक से देख पाईं. बुआ उसकी
याददाश्त से कहीं ज़्यादा बूढ़ी और झक्की हो चली थीं. ज़ाहिर है शुरू में बुआ ने
परमौत को नहीं पहचाना. हरुवा भन्चक ने कई तरीकों और सन्दर्भों की मदद से परमौत की
पहचान बताने की कोशिश की लेकिन विस्मृति और सनक का मिला-जुला प्रभाव ऐसा था कि वे
बार-बार गड़बड़ा जातीं. हरुवा हल्द्वानी वाले उनके अग्रज अर्थात परमौत के पिताजी का
ज़िक्र करता वे परमौत को अपनी स्वर्गीय जिठानी का बेटा समझने लगतीं. फिर वे गिरधारी
लम्बू पर निगाह डालकर कहतीं - "ये कौन हुआ?" हरुवा जैसे ही गिरधारी का
परिचय देने लगता तो वे परमौत की तरफ आँख उठाकर कहने लगतीं - "पै हरीसौ ... वो
इसके बाबू लोगों ने तो बरेली में मकान लगा लिया था बल ..."
प्रायःआधा
घंटा यूं ही बीत गया. विकट रूप से चट चुका गिरधारी लम्बू परमौत की पसलियों को
एकाधिक बार कौंच चुका था कि चलो अब बहुत हो गया. फिर लाईट आ गयी. बल्ब की मरियल
रोशनी लैम्प से थोड़ी बेहतर थी लेकिन बुआ ने परमौत को नहीं पहचाना. मिठाई का डिब्बा
और फलों का थैला अब जाकर उनकी निगाह में आया. उनकी मोतियाबिन्दी आँखों में थोड़ी सी चमक आई और वे
"चहा बना लाती हूँ हरीसौ ... चहा?" कहती हुईं धीमे कदमों से भीतर चली
गईं.
भगौती
बुआ के जाने पर परमौत ने कमरे का जायजा लेना शुरू किया. जम चुकी धूल और पुरातनता
की हटाई न सकने वाली अभेद्य परत से ढंका भगौती बुआ का नीम-अँधेरा बैठक का कमरा
अपने आप में एक समूचा अजायबघर था. वह जिस कुर्सी पर बैठा था उसके हत्थे पर
रुद्राक्ष की एक बिसराई हुई माला लिपटी हुई थी. गाढ़े नीले रंग की दीवारों पर अनेक
फ्रेम किये हुए चित्र लगाए गए थे. इनमें भगौती बुआ की जवानी का एक ब्लैक एंड
व्हाईट फोटो था जिसे हरुवा ने "बैजन्तीमाला लगने वाली हुई दिदी अपने जमाने
में यार परमौती बॉस" कहकर दुबारा देखने को विवश किया. लहंगा-पिछौड़ा पहले ठेठ
कुमाऊनी परिवेश में किसी गाँव की बाखली के बाहर खड़ी बुआ सचमुच किसी पिक्चर की
हीरोइन लग रही थीं. एक फोटो में साफा बांधे एक मुटल्ले से सज्जन थे जिनकी एक तरफ
की मूंछ तनिक अधिक लम्बी छांटी जाने के कारण श्रद्धेयता की बजाय विद्रूपता और काइयांपन का प्रतिनिधित्व
कर रही थी. कैलेण्डर से काट कर लगाया गया निमीलित नेत्र, जहर का कटोरा मुंह में
लगाए शिवजी का एक फ्रेम था. एक और फ्रेम में पीला फ्रॉक पहने गाल पर काजल का बड़ा
सा टीका धारे एक कलर्ड बच्ची खिलखिल कर रही थी. दीवार से निकले आले पर कुछेक शोपीस सजाये
गए थे - प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बने चार-पांच खजुराहो की नृत्य-सुंदरियों वाले मिनिएचर थे जो चीख-चीख कर
किसी और परिवेश में रखे जाने मांग करते लग रहे थे. पीतल की एशट्रे, सीप-शंखों से
बने एक गोवानी मास्टरपीस और राजस्थानी कठपुतलियों के एक सेट के साथ इस आले को
पूर्णता प्रदान करने की नीयत से भूसे और ऊन से बना छोटा सा एक टैडी कुत्ता स्थापित
किया गया था बटन से बनी जिसकी एक आँख गायब हो चुकी थी. परमौत को याद आया उसकी भाभी
ने भी ऐसे ही अनेक टैडी कुत्ते अपनी बैठक में सजा रखे थे.
रंगत
खो चुके प्रागैतिहासिक गलीचे के तार-तार हो चुकने के बाद उसकी इज़्ज़त बचाने का सारा
ज़िम्मा उसके मज़बूत ताने-बाने के भूरे पड़ चुके धागों पर आ चुका था. सामने क्रोशिया
डिज़ायन की मेजपोश पर कवर फटे 'कल्याण' के दो-चार पुराने अंक और इतने ही रामदत्त
वाले पंचांग थे. कुल मिलाकर अवसाद और ऊब की की आलीशान झांकी सजी हुई थी.
गिरधारी
लम्बू और हरुवा भन्चक के मध्य एक दूसरे से अधिक बोर हो चुका दिखने की होड़ लगी हुई
थी और वे फुसफुस करते भगौती बुआ की वृद्धावस्था को लेकर दया, करुणा, उपहास, भय और
शोक जैसे रसों को अभिव्यक्ति देने के उपरान्त
आने वाली चाय के आने के तुरंत बाद वहां से फूटने और पाल्टी की डीटेल्स तय
करना शुरू कर चुके थे. परमौत को शांत देख कर गिरधारी बोल उठा - "बुआ ने तो
तुम्हें पहचाना ही नहीं यार परमौद्दा ... तुमी खाली बुआ-बुआ कह रहे हुए मार
गरमपानी से ही ..."
परमौत
ने होंठों पर उंगली लगाकर उसे चुप रहने का इशारा किया और 'कल्याण' का एक अंक उठाकर
पढ़ने का अभिनय करने लगा. बुआ को भीतर गए दस-पन्द्रह मिनट हो गए थे. हरुवा और
गिरधारी की फुसफुस धीरे-धीरे सामान्य बोलचाल में बदल गयी थी और उनके दरम्यान हरुवा
के नए व्यवसाय की बारीकियों पर गहरा विचार-विमर्श चल रहा था. परमौत ने जैसे ही घड़ी
पर निगाह डाली, उसे नोटिस कर गिरधारी लम्बू ने कहा - "कहाँ जो गयी होगी यार
बुआ ... जने चाय बना रही हैं जने गइया के गोठ दूद लाने गयी हैं ... साम हो गयी यार
परमौद्दा वस्ताज ..."
"मैं
देखता हूँ ..." कहकर हरुवा भन्चक उठा और "दिदी ... ओ दिदी कहा ... कहाँ
है हो दिदी ... ओ दिद ..." का दिदी-जाप करता भीतर चला गया. कुछ ही पलों में
उसकी वापसी हुई. उसके हाथ में परमौत द्वारा हाल ही में खरीदे गए तीन सेब थे जिनमें
से एक में दांत गड़ाता ठहाका मारता हुआ वह बोला - "चहा कहाँ से पीते हो परमौती
... दिदी तो सो गयी ... अब क्या तो उठाता बुढ़िया को तो मैंने कहा मेहमान हुए तुम
लोग तो चलो एक-एक सेब ही सही ... ऐल हिटो अब ... चलो गिरधर गुरु " परमौत ने हरुवा
पर एक कठोर निगाह डाली और उसके हाथ से बाकी दो सेब छीनकर वहीं मेज़ पर रख दिए.
हरुवा ने देखा ही नहीं.
बुआ-विज़िट
में इस तरह एक-डेढ़ घंटा और सौ-सवा सौ रूपये घुस जाने को परमौत ने मन ही मन हरुवा
के भन्चकत्व के समर्पित किया. उसे अचानक अपने ऊपर छा गयी आजिज़ी का भी अहसास हुआ.
बुआ द्वारा खुद को न पहचाने जाने का उसे कोई ऐसा मलाल नहीं हो रहा था लेकिन अब वह
कुछ देर अकेला रहना चाहता था. अल्मोड़े के बाज़ार की सांध्यकालीन चहलपहल का अद्वितीय
ग्लैमर उसे पिरिया की याद से भरने लगा था और उसे कुछ पल पिरिया के रूमाल के साथ
वार्तालाप करने में गुज़ारने का मन हुआ. वे फिर से लोहे के शेर के समीप पहुँच गए
थे. उसने दोनों से कहा कि उसे थोड़ी देर को होटल जाना है और वह उनसे थोड़ी देर बाद
हरुवा द्वारा तय किये अड्डे पर मिल जाएगा.
“अरे
फ्रेस-ह्रेस होने की कोई दिक्कत जो क्या हुई अपने ठिकाने पर यार भतीजे ... क्या
करते हो होटल जाके ... जो करना है वहीं कर लेना ...”
“फ्रेश
नहीं होना है चचा. काम है जरा सा. तुम एक काम करो. गिरधर गुरु को ले लो अपने साथ
और ये पकड़ो थोड़े नोट. कुछ माल-मत्ता खरीद लेना ढंग का. और ये बताओ कि मिलना कहाँ
पर है .” परमौत ने निर्णायक रूप से कहा.
पैसे
देखकर हरुवा भन्चक ने अपना आग्रह टाल दिया और उसे मिलने की जगह बता दी.
होटल
के कमरे में पहुँचते ही परमौत ने कुंडी बंद की और एयरबैग में से सम्हाला हुआ पिरिया
का रूमाल निकाल लिया. परफ्यूम के निकल जाने के बाद रूमाल बहुत दयनीय दिखने लग गया
था और उस के कारण परमौत के मन में वैसा आह्लाद पैदा नहीं हुआ जैसा शुरू में हुआ
था. रूमाल को देखते हुए उसने सोचना शुरू किया कि पिरिया उस पल क्या कर रही होगी. उसने
पहने हुए कपड़ों, सैंडल, बालों और उँगलियों के बारे में विस्तार से कल्पना करना
शुरू किया लेकिन उसे पिरिया के गोरे तलुवे पर की नन्हीं लाल फुंसी दिखाई देने लगी.
उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गयी और वह मोची की दुकान से कम्प्यूटर सेंटर तक की
प्रेमयात्रा के अलौकिक विवरणों में खो गया. उसने खुद को पिरिया के साथ अल्मोड़ा की
बाजार में खरीदारी करते और बस में साथ सफ़र करते हुए देखा. वह उसे नंदादेवी के
मंदिर ले जाना चाहता था जिसमें वह गिरधारी लम्बू और हरुवा भन्चक के साथ होने के
कारण नहीं जा सका था. पिरिया ने मंदिर वाले पिठ्या का टीका लगाया हुआ है ... वह मुस्कराती हुई
अपने हाथ से उसके माथे पर भी वैसा ही टीका लगा रही है ... उसने दुपट्टे से अपना सर
ढंका हुआ है जैसे आमतौर पर मंदिर जानेवाली लड़कियां-औरतें करती देखी जाती हैं ...
पिरिया उससे कुछ कह रही है और मुंह को हाथ से ढांप कर शर्मीली हंसी हंस रही है ...
परमौत को बहुत अटपटा सा लगने के बावजूद ख़ुशी का दौरा जैसा पड़ा हुआ है और वह सबकी
निगाहें बचाकर उसके कंधे पर एक पल के सौवें हिस्से के लिए अपना हाथ छुआ देता है ...
दरवाज़े
पर हो रही भड़-भड़ ने उसे जगाया. बेकाबू हंस रहे हरुवा और गिरधारी दो-दो टिका आये थे
और भभक रहे थे. परमौत को गुस्सा आया.
“अबे
आ तो रहा था मैं ... चैन नहीं होता तुम लोगों को साला ...”
“अरे
नाराज मत हो यार परमौद्दा ... वहां तेरे बिना मन नहीं लग रा हुआ तो लेने आ गए ...
एक घंटा हो गया तो मैंने कहा हरुवा से कि कहीं कुछ बिमार-हिमार जैसा तो नहीं हो
गया होगा तू ... अब चलो आठ बजने को हो गये ... कब जो करेंगे पाल्टी और कब सोएंगे ...
बागेश्वर नहीं जाना है सुबे-सुबे. अब जल्दी से हमारी फिरकूअन्सी में आ जाने का काम
ठैरा अब.” गिरधारी लम्बू ने पेट में अड़ाया तकरीबन खाली हो गया अद्धा निकाला और मेज़
पर रखे एक गिलास में उसमें बची हुई मात्रा उड़ेल कर, पानी मिलाकर परमौत को थमाया.
पिरिया
वाले सपनीले संसार इन शराबखोर दिल के टुकड़ों के हसीनतर संसार में ला कर पटक दिए गए
परमौत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था सो उसने एक सांस में गिलास को खाली कर दिया.
गिरधारी और हरुवा प्रमुदित होते हुए एक साथ बोले – “यौ ... गज्जब परमौद्दा!”
हरुवा
भंचक ने कहीं से एक गाँठ-लगा गांधी आश्रम वाला थैला जुगाड़ कर लिया था जो उसके
कन्धों पर लटका हुआ था. थैले के भीतर रात के लिए पर्याप्त रसद अर्थात बकौल हरुवा भन्चक,
फश्क्लाश पाल्टी का सामान धरा हुआ था. भीमसिंह का खोखा उनकी पहली मंजिल था.
नंदादेवी
मंदिर के नज़दीक एक अँधेरे कोने में अवस्थित यह खोखा अल्मोड़ा नगर में तारीखी
महत्त्व रखता था. अपनी स्थापना के बाद ही से हर शाम भीमसिंह उर्फ़ भीमदा का यह आस्ताना
नगर की तीन-चार पीढ़ियों का सबसे सुरक्षित शरणस्थल बन जाता था. यहाँ आप बाहर से लाई
कच्ची-पक्की कैसी भी पी सकते थे. दुकान बंद हो जाने या ड्राई डे होने की सूरत में यहाँ
पव्वों में भर कर फ़ौज की घोड़िया शराब उपलब्ध कराई जाती थी, मेन्यू में धर्मपारायण व
शाकाहारी लोगों के लिए सूखी मटर के मिर्च-अटे जहरीले छोले हुआ करते थे. मांसाहारी
पापियों का मेन्यू थोड़ा अधिक आकर्षक इस मायने में होता था कि उक्त मटर को उबले अंडे के
साथ प्रस्तुत किया जाने के अलावा भुटुवा, चांप, कलेजी, खरोड़े और गणुवे का सूप जैसी
दुर्लभ डेलीकेसीज़ उसका हिस्सा थीं. जिस अल्मोड़ा शहर की आधी आबादी रात आठ बजे सोने
चली जाती थी उसी के ह्रदयस्थल में मौजूद यह महान जनसेवा केंद्र आधी रात या उसके के
बाद तक अपनी सेवाएं दिए चला जा रहा था – साल-दर-साल.
खोखे
का हुस्न उस रात भी अपने उठान पर था. बीड़ी-सिगरेट का धुआं घने कोहरे में रूपांतरित
होकर छत पर टंगा हुआ था और सभी मेजों पर गंभीर विमर्श चल रहे थे. थोड़ा ध्यान देने
पर स्पष्ट हो जाता था कि अल्मोड़ा नगर एक ऐतिहासिक पर्यटक केंद्र होने के साथ-साथ
संसार के महानतम दार्शनिकों, अध्येताओं, चित्रकारों, फिल्म-निर्देशकों,
इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, कवि-शायरों और ठलुवों का एक ऐसा गहवारा था जिस पर बीबीसी
और वॉइस ऑफ़ अमेरिका वगैरह ने निगाह डालना और दस्तावेजीकृत करना बाकी थी.
हरुवा
के थैले को निबटाने में सहयोग देने के उद्देश्य से उसका वही बाबा-टाइप दोस्त
महेसिया एक मेज़ घेरे बैठा ही पहले से ही मौजूद था. महेसिया का असली नाम ज़ाहिर है
महेश था. तीन पत्ती के खेल में विश्वविजेता का खिताब जीत चुकने पर उसे अपनी
अन्तरंग मंडली में महेसिया फल्लास के नाम से भी जाना जाता था. यह दीगर है कि हरुवा
भंचक की उस से दोस्ती अभी नई-नई थी और वह उसके फल्लासायाम से अपरिचित था.
शकल
से ही चरसी और तस्कर नज़र आने वाला महेशिया फल्लास पहले परमौत और गिरधारी को
नहीं पसंद नहीं आया. शुरू में सारी बातें हरुवा ही करता रहा. उसने हल्द्वानी से
आये मेहमानों का महेसिया से परिचय कराया. उसके बाद उसने सभी की तारीफ में कसीदे काढ़े.
महफ़िल के थोड़ा सा जमते ही स्थिति बदलना शुरू हुई. महेसिया को ढेर सारे शेर और
फ़िल्मी गानों के गीत याद थे और मेज़ पर चल रही बातों में उसका अपना योगदान इन्हीं की
मदद से साहित्य के रूप में बाहर आ रहा था. यही उसका यूएसपी था. मिसाल के तौर पर जब हरुवा ने उस शाम बुआ
के घर पर हुए वाकये का ज़िक्र छेड़ा तो दार्शनिक अंदाज़ में महेसिया बोला – “ ये तो वही
हुआ यार ना ... कि इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल”. हरुवा ने कुछ कहना शुरू ही किया
था कि उसने अपना आगे जोड़ा - “जग में रै जाएंगे प्यारे तेरे बोल.”
“गजज्ब
यार महेसी ... गज्जब कहा तूने ... बोल ही रह जाने वाले शाले दुनिया में ... है नईं
है परमौती गुरु ...” वह अचानक इमोशनल हो गया – “वो अपने
पंडत को होना चइए था यार आज. और नब्बू गुरू जो होता तो क्या बात हो जाती ... सायरी
तो उसको बी खूब आने वाली हुई ... बस ज़रा डाड़ जादे मारने वाला हुआ बिचारा ...खूब दोस्ती
हो जाती उसकी महेसिया गुरु से ...”
“सायरी
की क्या बात हुई यार हरदा. ल्लै ...” महेसिया फल्लास रंग में आने लगा. उसने अपनी बदबूदार
बीड़ी सामने पड़े कटोरे में बुझाते हुए शेर अर्ज़ किया –
“हर नजर को एक नजर की तलास है,
हर चेरे में कुछ तो ऐशाश है,
आपशे दोश्ती हम यूं ही जो क्या कर बैठे ‘महेस’,
क्या करें हमारी पशंद ही कुछ खाश है”
“आहा
गज्जब महेसी गुरु गज्जब ....” हरुवा को पर्याप्त चढ़ चुकी थी और वह खीसें निपोरे महेसिया
की तारीफ़ कर रहा था. उसने दो-तीन दफा ताली भी बजाई. परमौत और गिरधारी ने भी शेर की
दाद दी. खासतौर पर परमौत ने क्योंकि उसे लगा महेसिया फल्लास का शेर किसी और के बजाय
पिरिया के बारे में ज्यादा था. उसने शेर दुबारा सुनाने की गुजारिश की.
मुक़र्रर
से उत्साहित होकर महेसिया ने बाकायदा एक छोटी-मोती काव्य गोष्ठी को अंजाम दे दिया.
परमौत उसके हर शेर को ध्यान से सुनता और उसे पिरिया से जोड़कर देखता. महेशिया उसे अच्छा
लगने लगा था. थैले में रखा माल निबट गया था और बोतल को किसी भीगे कपड़े की तरह निचोड़ते
हुए हरुवा ने बची खुची बूंदों को अपने गिलास में डाला और गिरधारी की तरफ आँख मारते
हुए कहा – “बस एक और लास्ट सुना दे यार महेसी ... अपने परमौती वस्ताज के लिए ...
बिचारा बड़े टाइम से एक लौंडिया के चक्कर में घुघता बना हुआ है ...”
महेसिया
का यह अन्तिम शेर मारक था –
“खुस्बू की
तरे आशपाश बिखर जाइंगे,
शुकून बन के दिल में उतर जाइंगे,
महशूश करने की कोसिस तो कीजिये ‘महेस’
दूर होकर भी आपके पाश नजर आइंगे”
शुकून बन के दिल में उतर जाइंगे,
महशूश करने की कोसिस तो कीजिये ‘महेस’
दूर होकर भी आपके पाश नजर आइंगे”
पिरिया
की दिशा में छोटा सा संकेत करने की हरुवा की इस कमीनी हरकत को परमौत ने माफ़ करना ही था
क्योंकि दूर-पास रहने का जो खेल वह इतने समय से पिरिया के साथ खेल रहा था, उसकी महानता
को महेसिया फल्लास ने चार लाइनों के माध्यम से ज़बान दे दी थी. भीम दा से कागज़-पेन माँगा
गया और महेसिया ने परमौत को ये महाकाव्यात्मक पंक्तियाँ लिख कर उपहार में दीं.
(जारी)
2 comments:
वाह।
जबरदस्त... पकड़.. एक. सांस. मे पढ. गया
Post a Comment