Tuesday, February 13, 2018

डिओ की तरह बिक जाते हैं लेखक


अमेरिका की जानी मानी साइंस फ़िक्शन लेखिका उर्सुला ले ग्वेन का 88 साल की उम्र में पिछले दिनों निधन हो गया. द लेफ्ट हैंड ऑफ़ डार्कनेस, द फार्दस्ट शोर, द डिसपॉसेस्ड, अ विज़ार्ड ऑफ अर्थसी जैसी उनकी कई मशहूर रचनाएं हैं. नोबेल पुरस्कार भी उर्सुला की रचनाधर्मिता के सम्मान से वंचित रह गया. अमेरिका के प्रतिष्ठित 65वें नेशनल बुक अवार्ड्स के नवंबर 2014 में हुए समारोह में सम्मानित होने के बाद उर्सुला ने जो भाषण दिया था वो यादगार है और भारत समेत समूचे विश्व की समकालीन औत्सिविक और कमर्शियल साहित्यिक-प्रकाशकीय लालसाओं और जमावड़ों पर भी लक्षित है. द गार्जियन में उर्सूला के अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल भाषण से शिवप्रसाद जोशी द्वारा अनूदित.

डिओ की तरह बिक जाते हैं लेखक

-उर्सुला ले ग्वेन


ये ख़ूबसूरत पुरस्कार देने वालों का तहेदिल से शुक्रिया. मेरा परिवार, मेरे एजेंट, मेरे संपादक- जानते हैं कि मेरे यहां होने का अर्थ ये है कि मेरे अलावा ये उनकी बदौलत भी संभव हुआ है. और मैं इसे स्वीकार करते हुए प्रसन्न हूं. और मैं इसे उन तमाम लेखकों के साथ भी बांटते हुए ख़ुश हूं जो इतने लंबे समय से साहित्य से बेदख़ल रहे हैं- फ़ंतासी और विज्ञान गल्प के मेरे साथी लेखक, कल्पना-शक्ति के वे लेखक, जो पिछले 50 साल से इस ख़ूबसूरत ईनाम को तथाकथित रिएलिस्टों को हासिल होता देखते रहे हैं.

ये एक मुश्किल वक़्त है. इस समय हमें ऐसे लेखकों की आवाज़ों की दरकार होगी जो हमारे किसी तरह जिए जाने के विकल्पों को देख सकते हैं, जो हमारे भयग्रस्त समाज और उसकी ऑब्सेसिव प्रौद्योगिकियों के समांतर जीने के अन्य तरीकों को देख सकते हैं और जो उम्मीद के वास्तविक धरातलों की कल्पना भी कर सकते हैं. हमें ऐसे लेखकों की ज़रूरत होगी जो आज़ादी को याद रख सकते हैं. ऐसे कवि, स्वप्नदर्शी- जो एक वृहद यथार्थ के यथार्थवादी होंगे.

ठीक अभी, हमें ऐसे लेखकों की ज़रूरत है जिन्हें एक बाज़ारू वस्तु के उत्पादन और एक कला अभ्यास के बीच का फ़र्क पता है. कॉरपोरेट मुनाफ़े को बढ़ाने और राजस्व को विज्ञापित करने के लिए सेल रणनीतियों को सूट करने वाली लेखन सामग्री तैयार करने का ज़िम्मेदार पुस्तक प्रकाशन या ज़िम्मेदार लेखन से कोई नाता नहीं है.

फिर भी मैं देखती हूं कि सेल्स विभागों का संपादकीय विभागों पर नियंत्रण हो गया है. मैं अपने प्रकाशकों को देखती हूं जो अज्ञानता और लालच की मूर्खतापूर्ण सनक में सार्वजनिक पुस्तकालयों से एक ई-पुस्तक की छह या सात गुना कीमत वसूलते हैं. एक मुनाफ़ाखोर* को हमने अभी देखा ही था जिसने नाफ़रमानी के लिए प्रकाशक को दंडित किया था और लेखकों को कॉरपोरेट फ़तवे के ज़रिए धमकाया गया था. और मैं देखती हूं कि हम अधिकांश लोग, जो उत्पादक हैं- निर्माता हैं, जो किताबें लिखते हैं और उन्हें निर्मित करते हैं- वे इस चीज़ को कुबूल कर लेते हैं- ख़ुद को मुनाफ़ाखोरों के हवाले कर देते हैं, डिओडरन्ट की तरह बेचे जाने के लिए. 

किताबें महज़ कमोडिटी (उत्पाद) नहीं हैं. कला के लक्ष्यों से अक़्सर मुनाफ़े के उद्देश्य का टकराव होता रहता है. हम पूंजीवाद में रहते हैं, इसकी ताक़त अपरिहार्य लगती है- लेकिन ये बात तो महाराजाओं के दैवीय अधिकार पर भी लागू होती थी. किसी भी मनुष्य ताक़त का प्रतिरोध, मनुष्य ही कर सकते हैं या उसे बदल सकते हैं. प्रतिरोध और परिवर्तन अक़्सर कला में प्रारंभ होते हैं. हमारी कला में- शब्दों की कला में- तो कुछ ज़्यादा ही.

लेखक के रूप में मेरा एक लंबा करियर रहा है और ये अच्छा रहा है, अच्छी संगत में. और इस सब के आख़िर में, मैं यह नहीं देखना चाहती हूं कि अमेरिकी साहित्य के साथ विश्वासघात किया जा रहा है. हम लोग, जो लेखन और प्रकाशन के दम पर ज़िंदा है, अपनी उचित हिस्सेदारी चाहते हैं और हरगिज़ हमें ये मांग करनी ही चाहिए. लेकिन ध्यान रहे कि हमारे ख़ूबसूरत ईनाम का नाम मुनाफ़ा नहीं है. उसका नाम हैः आज़ादी.


[* इशारा अमेज़न की ओर है. 2014 में फ्रांसीसी प्रकाशन कंपनी अशैत्अ (Hachette) की ई-किताबों की बिक्री समझौते को लेकर अमेज़न और प्रकाशक की तनातनी हो गई थी जिसके चलते अमेज़न ने अशैत्अ की किताबों और लेखकों की रचनाओं की ख़रीद पर एक तरह से अपना शिकंजा ही कस दिया था- सलमान रुश्दी, स्टीफन किंग समेत कई लेखकों ने बाक़ायदा बयान जारी कर इस हरकत का विरोध भी किया था.]

शिवप्रसाद जोशी

2 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन मधुबाला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

Vinay said...

वाह क्या बात है,

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