Tuesday, February 13, 2018

ये कंगन मेरे पास आते ही बेरौनक हो गया - महेश वर्मा की कविता


महेश वर्मा 

चील वाली नज़्म
-महेश वर्मा


बुख़ार और कंबल ओढ़ कर सोए इंसान के मुँह की कड़वाहट की भी इसे परवाह नहीं. बुख़ार और धुंधलके के बीच मैं उसकी मक्कारी से आंख मिलाना चाहती हूँ , रात की मक्कारी से. रात अपने पसीने को बहुत किफ़ायत से बरत रही है.

मैं एक करवट में सात बुरे ख्व़ाब और
दूसरी करवट में तीन तरह की प्यास और
मुंह जमीन की ओर करके सोने में
एक कुएं का पानी लिए सोती हूं.
मेरे पास तेईस अफ़साने हैं और तीन क़त्लों  के सुराग.

तीसरे क़त्ल के बाद मैंने हिना से तौबा कर ली.

***

उदास हिनाफ़रोशों के चेहरे से मुझको नफ़रत है
ज़हरफ़रोश इस कूचे में कभी नहीं आए और
इत्रफ़रोशों से तो तांगे वाले भी चिढ़ते थे.

सबसे सुर्ख हिना और
सबसे सुनहले बाल और
सबसे सुर्ख गुलाब और
सबसे सुनहरे चांद की संगत में भी
सबसे चमकीले खंज़र का बदन ठंडा था.

मुझे तो एक नग्मे और
एक गर्म माचिस सी रौशनी पर ही तसल्ली थी.

मुझे बेग़म अख्तर को नहीं सुनना था.
मुझे क़ातिल का ख्व़ाब देखना था.

***

मुझे तो हर उस चीज़ पर यक़ीन हो जाता है
जिस पर किसी दूसरे को यक़ीन नहीं होता

जैसे मिट्टी, जैसे पानी, जैसे उदासी, जैसे धूप,
जैसे खुदपरस्त लोग, जैसे क़ातिल का हुनर...
मैं अपनी हमउम्र मौसेरी बहन से भी कितना कम मिल पाती हूँ  
इस बात की उदासी पर भी उतना ही यक़ीन है
जितना हर एक दूसरी तसल्ली पर

इस बरस भी, मेरा ख्याल है तसल्ली के फूल ख़ूब  बिकेंगे
अगर फूल उम्मीद से अधिक बिके तो मैं  वह सोने का कड़ा ख़रीद लूंगी.

***

ये कंगन भी मैंने उसी शौक से खरीदा था
मेरे पास आते ही बेरौनक हो गया
यह ताबीर भी मैंने बड़े शौक से खरीदी थी
मेरे पास आते ही बेख़्वाब हो गई
ताबीज़ नहीं ताबीर.

***

जाड़े की जिस दोपहर मैं छत पर
अपना अक्स बिछाकर लेट पाई (दुपट्टा
आँखों पे ले लिया कि धूप न चुभे.)

अभी आँख लगी ही कहाँ थी कि चील खत लिए आ गया, अभी यह सोच भी कहां पाई थी कि चील कब से ख़त लाने लगे कि चील ने खत मेरी हथेली पर रखा: मुझे गोश्त का एक टुकड़ा दो

और
जवाब लिखो.

मैं जवाब लिख भी कहाँ पाई थी और गोश्त ला भी कहाँ पाई थी कि फिर उसने कहा कबूतरों की परवाज़ ही कितनी है कि तेरे महबूब का ख़त ला पाएं.

मुझे हैरत भी कहाँ हो पाई के परिंदे इतने बददिमाग़ भी होते हैं
कि चील ने कहा: हाँ होते हैं,

अभी तूने परिंदे ही कितने देखे हैं.

3 comments:

hillwani said...

एक बहुत सच्ची और ठोस और बिल्कुल धीमी आंच की तरह अपनी ही आग के स्तंभ पर थरथराती हुई कविता के लिए आपको बधाई महेश वर्मा. कविता जिस नयी उड़ान की तैयारी में जाती हुई पूरी होती है- कि कहा जाता है कि कविता को ऐसा ही होना चाहिए- आपकी यह कविता तो उसे जैसे साबित करती है-साबित भी क्या कहना/करना...अभी तूने परिंदे ही कितने देखें हैं. बहुत ख़ूब.

शिवप्रसाद जोशी

संतोष त्रिवेदी said...

वाह।वाह।

Unknown said...

वाह