(प्राग से लौटते हुए मैंने वहाँ की याद में एक कप ख़रीदा जिस पर प्राग कासल की तस्वीर छपी थी. कुछ दिन बाद दिल्ली पहुँचा और निर्मल वर्मा को फ़ोन किया. उन्हें बताया कि प्राग में रह रह कर उनकी पंक्तियाँ याद आईँ -- हर कोने, हर होस्पोदा में. "इसीलिए एक कप ले आया हूँ, आपको देने के लिए." सोचा छुट्टियों के बाद गौलापार से लौटते हुए उनसे मिलूँगा और प्राग का वो कप दे दूँगा. गाँव में कुछ ही दिन बीते थे कि एक सुबह अख़बार में ख़बर पढ़ी -- निर्मल वर्मा नहीं रहे. वो कप अब मेरे पास नहीं है.)
प्राग के जिस प्रमुख चौराहे पर आज से पंद्रह साल पहले हज़ारों हज़ार लोगों ने इकट्ठा होकर कम्युनिस्ट शासन को तिरोहित किया, पिछले हफ़्ते मैं वहीं खड़ा था -- तनिक हतप्रभ सा, तनिक भ्रमित और चकित सा.
शहर के ऊपर चमकीली धूप बिखरी थी, सड़कें पर्यटकों से भरी हुई थीं और प्राग के प्रसिद्ध होस्पोदा या शराबख़ानों के बाहर बैठकर लोग बीयर का आनंद ले रहे थे. चेक गणराज्य का उपभोक्ता समाज अपनी पूँजीवादी आज़ादी की एक एक घूँट पूरे आह्लाद और इत्मीनान के साथ चखता नज़र आ रहा था.
जिस सड़क पर चेकोस्लोवाकिया की पुलिस ने 1989 में छात्रों और प्रदर्शनकारियों को लाठियों से पीटा था, आज वहाँ दोनों तरफ़ क़तार से तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमकीले स्टोर हैं. अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर बन-टिक्की बेचने वाली अमरीकी कंपनी मैकडॉनल्ड की लाल-पीली छतरियाँ क़दम क़दम पर नज़र आती हैं. गूची, नेक्स्ट, मैक्स, एडिडास जैसे ब्रांड शहर के हर कोने में एक छलावे की तरह बार बार नज़रें खींचते हैं.
शहर के बीचोंबीच बहने वाली वलतावा नदी के ऊपर चार्ल्स ब्रिज पर तस्वीरें खींचने वालों की भीड़ लगी हुई थी. थोड़ा ऊँचाई पर प्राग कासल अपने मध्यकालीन रुआब और शान के साथ शहर पर झुका हुआ था. सरकारी तंत्र या व्यवस्था के डरावने और अनबूझ चेहरे की झलक देने वाले लेखक फ़्रांज़ काफ़्का ने कई बार बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में इस पुल को पार किया होगा. उन्होंने लेखन के लिए प्राग कासल के अंदर एक छोटी एकांत कोठरी किराए पर ली थी. आज भी प्राग और काफ़्का की कल्पना एक दूसरे के बिना नहीं की जा सकती. अपने उपन्यासों के सन्निपाती और सताए गए चरित्रों की तरह काफ़्का भी प्राग शहर में एक जगह से दूसरी जगह ठिकाना बदलते रहे और अंत में टीबी की बीमारी ने उनकी जान ले ली.
थोड़ा ग़ौर करें तो इस शहर की तहों में यूरोप के बेचैनी भरे वर्षों की सीलन अपने आसपास महसूस की जा सकती है. ये शहर यूरोप में हुए युद्धों का गवाह रहा है. यहाँ जब कम्युनिस्टों ने हिटलर के नात्सियों के ख़िलाफ़ लोहा लिया तो उन्हें गाँव के ग़रीबों, शहर के कामगारों, छात्रों और बुद्धिजीवियों ने पूरा समर्थन दिया. पर जब कम्युनिस्ट पार्टी चंद लोगों के हाथों में सिमट कर जनता पर जासूसी करने की मशीन बन गई तो वही लोग सड़कों पर उतर आए.
स्तारो मेस्ती या पुराने शहर में प्रमुख चौक के चारों ओर भव्य इमारतें, शंक्वाकार गिरजाघर, गिरजाघरों में शाम को होने वाले संगीत कॉनसर्ट का प्रचार करती चेक युवतियाँ, चिकने पत्थरों पर पड़ती घोड़ों की टापों की आवाज़ें -- सब कुछ किसी छंद में बँधा हुआ सा महसूस होता है. काफ़ी देर तक इसी चिकने पत्थरों वाले फ़र्श पर धूप में लेटने के बाद मैं उठा और टिन गिरजाघर के पीछे वाली गली के एक होस्पोदा में जा बैठा.
ये वो प्राग था जिससे निर्मल वर्मा की किताबों के ज़रिए मेरा पहला परिचय हुआ था. किताबों के उस प्राग में एक अजब सा निचाटपन और एक झीनी सी उदासी और बिरानेपन के बावजूद कुछ ऐसा था जिसे आप छू सकें, महसूस कर सकें और अपनी स्मृति के पुराने पन्नों में संजो कर रख सकें. होस्पोदा शब्द सबसे पहले मैंने उन्हीं किताबों में पढ़ा था और अब मैं ख़ुद एक होस्पोदा की कुर्सी पर बैठा था. मेरे सामने सुनहरे बालों वाला एक चेक युवक किसी लापरवाह संगीत की धुन में हिल रहा था.
ये उन्नीस सौ नवासी की वैलवेट रिवौल्यूशन के बाद जवान हुई उस पीढ़ी का नौजवान था जिनके लिए कम्युनिस्ट शासन का ख़त्म होना एक सड़ी गली और बोझ बन चुकी व्यवस्था का ख़त्म होना था. वो अमरीका में रह चुका था और वहाँ से भी उकता कर अपने घर लौटा था. उत्सुक्तावश मैं पूछ बैठा – अब कहाँ जाना चाहेंगे. जवाब था – क्यूबा !! और वो भी फ़िदेल कास्त्रो के जीवित रहते हुए.
प्राग शहर में कुछ ऐसा है जो बार बार आपको आमंत्रित करता है. और वहाँ लौट लौट कर जाने वाले आपको बताएंगे कि हर बार कुछ गुत्थियाँ अनसुलझी ही रह जाती हैं.
12 comments:
जोशी जी आखिरकार आपने कुछ चिपकाया और बहुत अच्छा चिपकाया !
बहुत अच्छा
बहुत अच्छा.
निर्मल वर्मा मेरे परंदीदा लेखकों में से एक हैं. उन्हें पढ़कर प्राग के बारे में मन में कई छवियां बनी हैं. प्राग की नई छवि दिखाकर आपने अच्छा किया.
main kal hai prague say lauta hoon,abhi hang over utara nahi,kuch photo ashok ko cd main bhaijooga-kabaadkhaanay main chipkany kay liyay.
dinesh semwal
प्राग पर पोस्ट पढ़कर एकबारगी तो ऐसा लगा कि ब्लॉग का नाम कबाड़खाना गलत रखा है, लेकिन फिर सोचा,ठीक है..यकीन मानिए ये कबाड़खाना किसी झुग्गी-झोपड़ी के कबाड़खाने का अर्थ नहीं देता। ये बहुत ही पॉश इलाके का कबाड़खाना है, जहां फालतू और बेकार समझी जानेवाली चीजों के प्रति हम जैसे लोगों की हसरत बनी रहती है, जिसे जुटा पाना अपन के लिए आसान नहीं है। प्राग तो और भी लोग जाते हैं लेकिन डीलिंग के लिए, आप गए फीलिंग के लिए, उनके लिए कुछ बांचना मीडिल क्लास मेंटलिटी की निशानी और आपके लिए शेयरिंग,बहुत अच्छा लगा।
सचमुच राजेश , बहुत अच्छा लिखा है ं प्राग या प्राहा को लेकर जो छवि बनी -सी है वह निर्मल वर्मा के वे दिन को लेकर बनी है जिसे नैनीताल की सर्द रातों में बांचा था । यह वृतांत मरी उस रूमानियत को तोड़ने चाला है ं बधाई और धन्यवाद कि इसी बहाने राजेश जो का कुछ पढ़ा तो ।
बेहतरीन आलेख है। पिछले साल इन्ही दिनों मैं भी प्राहा में था। बहुत कुछ याद आया। शुक्रिया जोशी जी। अब तो लिखने का तरीका आ गया न। अब रेगुलर हो जाओ भाई।
राजेश ने अपने संस्मरणों में निर्मल वर्मा जैसी उदासी को बनाए रखा है। निर्मल वर्मा को साम्यवादी चेकोस्लोवाकिया उदास करता था और राजेश ने इसे एक युग के बाद चेक रिपब्लिक में महसूस किया। लाजवाब! कबाड़खाने की वह पीढ़ी, जिसका वैचारिक जन्म `समाजवाद के खात्मे´ के बाद हुआ और जिसके लिए कम्युनिज्म तानाशाही का ही पर्यायवाची शब्द है, काश इस उदासी को महसूस कर पाती!
लगता है राजेश जी की तकनीकी बाधा दूर हो गई है और आगे भी हमें उनके संस्मरणों की तात मिलती रहेगी।
बढ़िया !
प्रत्यक्षा, आशुतोष, सिद्धेश्वर, विनीत कुमार, दिनेश, भूपेन, काकेश, कांतिमोहन, अनुनाद और कबाड़-शिरोमणि अशोक पंडा !!
आप सब लोगों ने टिप्पणी की तो अब आगे शिकायत मत कीजिएगा. अगला अहवाल क्यूबा यात्रा का होगा. ये मत कहिएगा -- नमाज़ पढ़ने गए थे, रोज़े गले पड़ गए. क्योंकि अब तो रोज़े गले पड़ ही गए हैं.
वाह दाज्यू, खुश कित्ताई। बहुत दिनों से इंटरनेट की पहुंच से बाहर थी इसलिए प्रतिक्रिया में यह विलंब। मैं बहुत घुमंतु टाइप नहीं हूं लेकिन कुछ गिनी-चुनी जगहें हैं जहां मैं एक बार जरूर जाना चाहती हूं और उनमें प्राग एक है। निर्मल वर्मा की कहानियों में यहां के हास्टलों का ठंडा सूनापन, बीयर बारों का अजनबियत से भरा अपनापन, पिघलती बर्फ से बनते पानी के चहबच्चे और पगलाई इच्छाओं से भरा प्यार इतनी रूमानियत के साथ होता है कि एक पाठक के तौर पर आप लेखक के साथ उन जगहों पर घूमते हैं। आपने प्राग के एक दूसरे ही पहलू को बहुत खूबसूरती के साथ दिखाया, धन्यवाद।
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