Friday, October 5, 2007

पीले दैत्य का नगर भाग एक

१९०६ में विख्यात रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की कुछ महीनों के लिए अमेरिका गए थे। अमेरीकी महानगरों का जो वीभत्स रूप उन्होने देखा, उसका वर्णन उनकी अपेक्षाकृत कम चर्चित पुस्तक 'पीले दैत्य का नगर' में पाया जाता है। संवाद प्रकाशन से जल्द आने वाली इस किताब का पहला अध्याय आप के लिए प्रस्तुत है।

भारत पर हो रहे बाजारवाद के हमले के परिप्रेक्ष्य में यह एक डराने और चेताने वाला दस्तावेज है।


पीले दैत्य का नगर


… धरती और समुद्र के ऊपर धुंए में घुले कोहरे की पर्त टंगी हुई है¸ और एक महीन धीमी बारिश शहर की अंधेरी इमारतों और सड़क के कीचड़ पर गिर रही है।

आप्रवासीगण जहाज के कोने पर इकठ्ठा होते हैं और उत्सुकताभरी आंखों से आशा और संशय; भय और आनन्द के साथ अपने चारों तरफ निगाह डालते हैं।

“वह कौन है?” एक पोलिश लड़की हौले से पूछती है और आश्चर्य के साथ स्टेच्यू आफ लिबर्टी को देखती है।

“अमरीकी ईश्वर” कोई जवाब देता है।

तांबे से बनी हुई विशाल स्त्री आकृति सिर से पांव तक जंग से ढंकी हुई है। उसका ठण्डा चेहरा कोहरे में समुद्र के विस्तार को देख रहा है मानो तांबा सूर्य की प्रतीक्षा कर रहा हो कि वह आए और दृष्टिहीन आंखों को दृष्टि प्रदान करे। लिबर्टी के पैरों के पास बहुत थोड़ी जमीन है। लगता है वह समुद्र से पथराई लहरों के किसी प्लेटफार्म पर उभर आई है। समुद्र और जहाजों के पालों के ऊपर ऊंची उठी उसकी बांह उसकी आकृति को शालीन बनाती है। उसके हाथ में कस कर पकड़ी गई मशाल तीखी लपट में विस्फोटित होने ही वाली लगती है और जो सलेटी धंए को हटाकर आसपास की हर चीज को आनन्द और उजास से भर देगी।

जमीन की जिस पट्टी पर वह खड़ी है उसके चारों तरफ पानी में बड़े बड़े लोहे के जहाज प्रागैतिहासिक दानवों की तरह तैर रहे हैं और छोटी छोटी नावें भूखे शिकारी जानवरों जैसी चक्कर काट रही हैं। परीकथाओं के दैत्यों की तरह गुस्सैल तीखी सीटियों में साइरन बजते हैं। लंगरों की जंजीरें खड़खड़ाती हैं और समुद्र की लहरें उदासी के साथ किनारे पर थपेड़ों में टूट रही हैं।

हरेक चीज तनाव के साथ जल्दी जल्दी भाग रही है। पीले झाग की परत पानी पर है और स्टीमरों के स्क्रू और पैडल उसे छपछपा रहे हैं।

और हर चीज - लोहा¸ पत्थर¸ पानी और लकड़ी - बिना धूप के बिना गीत और बिना खुशी के इस थकानभरे अकेले जीवन के खिलाफ विद्रोह करती लग रही है। हरेक चीज चिल्ला चिंघाड़ रही है और मनुष्य के विरोध में काम कर रही किसी रहस्यमय ताकत का बेमन से आज्ञापालन करती लग रही है। तेल लोहे जूठन और कूड़े से गन्दा कर दिए गए पानी के ऊपर एक ठण्डी दुष्ट ताकत अदृश्य तरीके से लगातार मेहनत करती लग रही है। ऊब और बेमन के साथ यह ताकत इस विशाल मशीन को चला रही है जिसमें जहाज छोटे हिस्सों जैसे हैं और आदमी लोहे और लकड़ी की इस गन्द में बेमतलब कीलों और अदृश्य बिन्दुओं जैसे।

शोर से बहराया हुआ निर्जीव चीजों के इस पागल नाच से घबराया हुआ धुंए और तेल में सना हुआ दो पैरों वाला एक जीव जेबों में गहरे हाथ डाले उत्सुकता से मुझे देखता है। उसके चेहरे पर तेल और गन्दगी है जिसे मानवीय आंखों की चमक नहीं दांतों की सफेदी थोड़ा कम करती लगती है।

जहाजों और नावों की भीड़ में हमारा स्टीमर धीरे धीरे जगह बनाता आगे बढ़ता है। आप्रवासियों के चेहरे अजीब तरीके से सलेटी और बेरंग हैं। उन सब की आंखों में भेड़ों जैसा समानता का भाव है। जहाज के एक तरफ इकठ्ठा खड़े हुए वे खामोशी से कोहरे को देख रहे हैं।

इस कोहरे में खोखली आवाज छोड़ती एक बेहद विशाल चीज पैदा होती है; उस का आकार बढ़ता जाता है¸ उसकी भारी बदबूदार सांस लोगों तक पहुंचती है और उसकी आवाज में धमकी है।

यह एक शहर है। यह न्यूयार्क है। किनारे पर बीस मंजिले अंधेरे बेआवाज स्काइस्क्रेपर खड़े हैं। सुन्दर दिखने की इच्छा से हीन ये चौकोर बड़ी इमारतें उदासी और भय पैदा करतीं उठती चली गई हैं। अपनी ऊंचाई पर थोथा गर्व करने वाले हर मकान की बदसूरती को महसूस किया जा सकता है। खिड़कियों पर फूल नहीं हैं और कहीं भी बच्चे नजर नहीं आते।

इस दूरी से शहर ऊबड़खाबड़ काले दांतों वाले एक विशाल जबड़े जैसा दिखता है। वह आसमान में काले धुंए के बादल छोड़ता अपने मोटापे से तंग किसी खाऊ की तरह फूंफूं करता है।

शहर में प्रवेश करना पत्थर और लोहे के किसी पेट में घुसने जैसा है - एक पेट दसियों लाख लोगों को निगल चुका है और उन्हें चबाता हुआ पचा रहा है।

सड़क एक फिसलनभरा लालची गला है जिसकी गहराइयों में शहर के भोजन के काले टुकड़ों जैसे जीवित लोग तैरते हैं। अपनी विजय का जश्न मनाते लोहे की खड़खड़ ऊपर नीचे हर जगह है। जीवन से भरपूर और सोने की ताकत से जगा हुआ बेआवाज पत्थर पर आराम करता हुआ अपनी जंजीर की कड़ियों को लगातार बढ़ाता हुआ वह आदमी के गिर्द अपना जाल फेंकता है¸ उसका गला घोंटता है¸ उसके खून और मस्तिष्क को चूसता है¸ उसकी मांसपेशियों और नसों को निगल जाता है।

विशाल कीड़ों जैसी रेलगाड़ियां अपने पीछे कारों को घसीटती चलती हैं; गाड़ियों के हार्न मोटी बत्तखों जैसी आवाजें निकालते हैं¸ बिजली के तार बेमन से भन्नाते हैं¸ जिस तरह स्पंज नमी को सोख लेता है उसी तरह हवा ने अपने भीतर तमाम आवाजों को सोख लिया है और वह कांप रही है। इस गन्दभरे शहर के ऊपर उसकी फैक्टि्रयों के धुंए में मिली यह हवा ऊंची कालिखपुती दीवारों पर टंगी रहती है।

चौराहों और सार्वजनिक उद्यानों में पेड़ों पर धूल से ढंकी पत्तियां निर्जीव तरीके से टहनियों पर झुकी रहती हैं और काले स्मारक उठे होते हैं। मूर्तियों के चेहरों पर धूल की मोटी पर्त होती है ; जिन आंखों में कभी अपने देश के लिए प्यार की चमक थी वे अब शहर की धूल से ढंकी हुई हैं। तांबे के बने ये लोग ऊंची इमारतों के जाल के बीच इस कदर निर्जीव और अकेले हैं। ऊंची दीवारों की छायाओं में बौनों जितने कद वाले ये लोग अपने आसपास के कोलाहल और पागलपन के बीच अपना रास्ता खो चुके हैं और आधे अंधे हो चुकने के बाद दर्दभरे दिलों के साथ अपने पैरों के आसपास लोगों की भूखी चहलपहल को देखा करते हैं। नन्ही काली आकृतियां जल्दी जल्दी इन स्मारकों के बगल से गुजरती है और उनमें से कोई भी इन नायकों की तरफ निगाह नहीं डालतीं। राजधानी के पशु ने लोगों की स्मृति से स्वतंत्रता का निर्माण करने वालों के महत्व को मिटा दिया है।

तांबे के ये लोग हमेशा एक ही उदास विचार में खोए लगते हैं:

“क्या मैंने ऐसे जीवन का निर्माण करने की सोची थी?”

उनके आसपास जीवन स्टोव पर धरे किसी सूप सा उबलता है और छोटे छोटे लोग इस भंवर में गायब होते जाते हैं जैसे शोरबे में भोजन के कण गायब होते हैं जैसे समुद्र में माचिस की तीली गायब होती है। अपने लगातार भूखा रहने वाले मुंह में यह शहर लोगों को एक के बाद एक कर निगलता जाता है।
तांबे के कुछ नायकों ने अपने हाथ गिरा दिए हैं जबकि कुछ ने अपनी बांहें लोगों के सिरों के ऊपर चेतावनी में उठा रखे हैं :

“बन्द करो यह सब। यह जीवन नहीं पागलपन है।?”

पत्थर कांच और लोहे की बनी इस उदास फन्तासी के दमघोंटू भय में और अतिशय भूख के बबर्र शोर में सड़क के जीवन की ऊहापोह के बीच ये सभी लोग असंगत लगते हैं।

एक रात प्लेटफामो से उतर कर वे सताए गए लोगों की भारी चाल के साथ शहर की गलियों से गुजरते हुए वे अपने अकेलेपन की यंत्रणा को शहर से दूर पहुंचा देंगे : खेतों में जहां चांद चमक रहा है और ताजी हवा और पवित्र शान्ति है। अगर एक आदमी अपनी सारी जिन्दगी अपने देश के लिए मशक्कत करता रहा हो तो यह निश्चित तौर पर उसका हक है कि उसकी मौत के बाद उसे शान्ति से रहने को छोड़ दिया जाए।

तमाम दिशाओं को जाने वाली गलियों और सड़कों के ऊपर जल्दीबाजी में गुजरते लोग होते हैं। पत्थर की दीवारों के गहरे छिद्रों ने उन्हें चूस लेना होता है। लोहे के विजयभरे नाद ¸ बिजली की तीखी सीटीभरी आवाज¸ इस्पात या पत्थर के किसी नए निर्माण के शोर ने मानवीय आवाजों को अपने में डुबा लिया है जिस तरह तूफान चिड़ियों की आवाजों को डुबा लेता है।

लोगों के चेहरों पर एक गतिहीन शान्ति का भाव होता है ; जाहिर है उन में से सारे लोग जीवन का गुलाम बन चुके होने से बेखबर हैं जिसमें वे शहर नाम के दैत्य का भोजन भर हैं। अपनी दयनीय धृष्टता में वे खुद को अपने भाग्य का स्वामी समझने की कल्पना करते हैं। उनके आजाद होने की चेतना कभी कभी उनकी आंखों में झलकती है लेकिन साफ है कि वे इस बात को नहीं समझते कि उनकी आजादी बढ़ई के हाथ में धरी कुल्हाड़ी की आजादी है किसी लुहार के हथौड़े की आजादी है उस अदृश्य कारीगर के हाथ में थमी ईंट की आजादी है जो एक मक्कार मुस्कराहट के साथ हर किसी के लिए एक विशाल लेकिन दमघोंटू कारागार का निर्माण कर रहा है। उनमें कई चेहरे पौरुष से भरपूर होते हैं लेकिन आप को सब से पहले उन के दांत दिखाई पड़ते हैं। अन्दरूनी स्वतंत्रता यानी आत्मा की स्वतंत्रता इन लोगों की आंखों में कतई नहीं चमकती। और उनकी स्वतंत्रताहीन ऊर्जा को देखकर किसी चाकू की ठण्डी चमक याद आती है जिसे अभी कुन्द होना बाकी है। यह पीले दैत्य - सोने¸ के हाथों में किसी अंधे उपकरण की आजादी है।

मैं इतना बड़ा शहर पहली बार देख रहा हूं और आज से पहले लोग मुझे कभी भी इस कदर बेमतलब और गुलाम नजर नहीं आए हैं। साथ ही मैं आज तक कभी इस कदर त्रासद तरीके से संतुष्ट लोगों से नहीं मिला हूं जो एक पेटू के भूखे और गन्दे पेट के भीतर रहते हैं : यह पेटू लालच के कारण मानसिक रूप से कमजोर पड़ चुका है और जानवरों जैसी प्रसन्न आवाजें निकालता हुआ दिमाग और नसों को अपना भोजन बनाता जाता है …

लोगों के बारे में बात करना दर्दनाक और भयानक है।

संकरी सड़क पर तीसरी मंजिल की ऊंचाई पर शोर करती भागती रेलगाड़ी आग से बचने के रास्तों के ऊबभरे जालों होती गुजरती है। खिड़कियां खुली हुई हैं और हर किसी में आकृतियों को देखा जा सकता है। कुछ लोग अपनी डेस्कों पर सिर झुकाए काम कर रहे हैं या सिलाई कर रहे हैं या कुछ गिन रहे हैं। कुछ लोग खिड़कियों से लगे मिनट मिनट में गुजरती जाती रेलगाड़ियों को देख रहे हैं। बूढ़े जवान और बच्चे सभी एक समान तरीके से निश्चिन्त नजर आते हैं। वे इस निरुद्देश्य श्रम के आदी हो चुके हैं। वे इस बात को सोचने के भी आदी हो चुके हैं कि उनके श्रम का कोई उद्देश्य है। लोहे के शासन के प्रति उनके भीतर कतई गुस्सा नहीं है न उसकी विजय के प्रति नफरत। रेलगाड़ियों के गुजरने से मकानों की दीवारें हिलती हैं - औरतों के सीने और आदमियों के सिर हिलते हैं; छज्जों पर खड़े बच्चों की देहें हिलती हैं और रेलगाड़ी का गुजरना उन्हें बताता जाता है कि यह घृणास्पद जीवन उनके लिए एक निश्चितता की तरह आने वाला है। इस तरह लगातार हिलाए जा रहे मस्तिष्कों के लिए निश्चित ही यह असंभव होता होगा कि वे अपने विचारों को सुन्दर पैटर्नो में बुन सकें और जीवित लोगों के लिए यह असंभव होता होगा कि वे पैदा हो पाने का सपना देख सकें।

सामने से खुले ब्लाउज वाली एक बूढ़ी स्त्री के काले चेहरे की छवि सामने से गुजरती है। रेल के लिए रास्ता बनाती यातना पाई विषैली हवा भय के कारण खिड़कियों में चली गई है और उस स्त्री के बाल किसी सलेटी चिड़िया के पंखों की तरह फड़फड़ाते हैं। उसने अपनी सीसा बन चुकी धुंधली आंखें बन्द कर ली हैं। और वह गायब हो गई है।

घरों के भीतर दिखने वाले दृश्यों में पुराने चीथड़ों से ढंके बिस्तर हैं और मेजों पर जूठन और गन्दे बरतन हैं। आप की इच्छा होती है कि खिड़कियों पर फूल होते और उनसे बाहर कोई किताब पढ़ता नजर आता। दीवारें ऐसे गुजरती हैं जैसे वे गल गई हों। यह किसी लगातार आती बाढ़ जैसा होता है जिसमें बेआवाज लोग बेचारगी के साथ बहते जाते हैं।

एक खिड़की के धूलभरे कांच के पीछे एक पल को एक गंजा सिर चमकता है। वह सिर कारीगरों की बेन्च के ऊपर सहमति में हिल रहा है। लाल बालों वाली एक छरहरी लड़की खिड़की पर बैठी मोजा बुन रही है और उसकी गहरी आंखें फन्दे गिनने में मसरूफ हैं। हवा की धारा ने उसे खिड़की से पीछे खिसका दिया है पर वह अपने काम से सिर नहीं उठाती और न ही अपनी पोशाक ठीक करती है जिसे हवा ने अव्यवस्थित कर दिया है। करीब पांच साल के दो लड़के बालकनी पर गिट्टियों से मकान बना रहे हैं। रेल के कारण उनका बनाया ढांचा गिर जाता है। बच्चे गिट्टियों को श्रमपूर्वक थामते हैं कि कहीं वे बालकनी की रेलिंग के डंडों के बीच के खाली स्थान से नीचे सड़क पर न गिर जाएं। वे उस रेल को नहीं देखते जिसने उनके प्रयासों पर पानी फेर दिया है। एक पल को देखे गए ये चेहरे और और ज्यादा चेहरे किसी एक संपूर्ण के हिस्सों जैसे दिखते हैं - एक बड़े संपूर्ण के जिसे सूक्ष्मतम टुकड़ों में तोड़कर रेत में मिला दिया गया है।


अनुवाद : अशोक पाण्डे

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