मोमिन खां `मोमिन´(1801-1852) का नाम आते ही मिर्जा गालिब की याद आती है। साहित्य की दुनिया में यह किंवदंती मशहूर है कि गालिब ने मोमिन के केवल एक शेर के बदले अपना सारा दीवान देने की पेशकश की थी । `मोमिन´ का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है । वे आला दरजे के हकीम थे साथ ही संगीत,ज्योतिष और शतरंज के महारथी भी । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885) के जमाने में हिन्दी `नई चाल में ढ़ली`। वे कवि,कथाकार , निबंधकार, नाटककार ,इतिहासकार, होने के साथ अपने समय के प्रसिद्ध पत्रकार और अभिनेता भी थे। उर्दू में उन्होने `रसा´ नाम से शायरी की है । मोमिन और भारतेन्दु उर्दू- हिन्दी के आरंभिक निर्माताओं में से हैं। यहां दोनो के साहित्य से एक-एक नमूना पेश है । गौर कीजिए खास क्या है !
वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वो नए गिले वो शिकायतें वो मजे मजे की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयान से पहले ही रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
सुनो जिक्र है कई साल का कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का जिक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
कभी हममें तुममें भी चाह थी कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूं मोमिन-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
•
अब देखिए भारतेंदु जी कैसे इसी मीटर का प्रयोग करते हैं:
वो जो हममें तुममें करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वो नए गिले वो शिकायतें वो मजे मजे की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयान से पहले ही रूठना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
सुनो जिक्र है कई साल का कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का जिक्र क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
कभी हममें तुममें भी चाह थी कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूं मोमिन-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
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अब देखिए भारतेंदु जी कैसे इसी मीटर का प्रयोग करते हैं:
वह अपनी नाथ दयालुता तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
वह जो कौल भक्तों से था किया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
व जो गीध था गनिका व थी व जो व्याध था व मलाह था
इन्हें तुमने ऊंचों की गति दिया तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
जिन बानरों में न रूप था न तो गुन हि था न तो जात थी
उन्हें भाइयो का सा मानना तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
खाना भील के वे जूठे फल, कहीं साग दास के घर पै चल
यूँही लाख किस्से कहूं मैं क्या तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
कहो गोपियों से कहा था क्या, करो याद गीता की भी जरा
वानी वादा भक्त - उधार का तुम्हें याद हो कि न याद हो ।
या तुम्हारा ही `हरिचंद´ है गो फसाद में जग के बंद है
है दास जन्मों का आपका तुम्हें याद हो कि न याद हो ।।
( पोस्ट जारी)
7 comments:
बेहतरीन काम है सिद्धेश्वर बाबू। इसी तरह की मेहनत से हमारा कबाड़खाना समृद्ध होगा। शानदार। मुझे आपकी अगली किस्त का बेसब्री से इंतज़ार है। बहुत शानदार।
बहुत बढ़िया!
बहुत शानदार जवाहिर चा !
बिलकुल आपकी स्टाइल का काम !
utkrishta!
viren dangwal
utkrishta!
viren dangwal
मोमिन खान मोमिन और भारतेंदु जी की शायरी का येः मुवाज़ना काबिलेतारीफ है हिन्दी के दूसरे गज़ल्गो शायरों पर भी कलम चलाने की दरख्वास्त है
itne saalon baad bhi uttna hi taza.
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