भारतेन्दु ने अपने छोटे से जीवन काल में गद्य और पद्य में इतना लिखा है कि आज के धांसू और धुरंधर लिक्खाड़ भी चीं बोल जाएं । उनके साहित्य की छवियां रंगबिरंगी हैं जो परम्परा का हिस्सा होते हुए भी परम्परा का अतिक्रमण करती दिखाई देती हैं । हिन्दी साहित्य को उनका योगदान तो जग जाहिर है । इस सिलसिले में बड़े-बड़े विद्वान बड़ी -बड़ी किताबें और लम्बे-लम्बे लेख लिख गये हैं । भारतेन्दु ने संस्कृत में भी काव्य रचना की है । उर्दू में तो वे `रसा´ थे ही ।उनके कुछ काव्य संग्रहों का मंगलाचरण संस्कृत में है । कुछ कवितायें/कविताओं के हिस्से संस्कृत में हैं। लीजिए भारतेन्दु रचित संस्कृत काव्य का नमूना पेश है -
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं ।।
एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत।
भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।
( `अंग्रेज स्तोत्र ´ से )
( अर्थात इससे विद्यार्थी को विद्या , धन चाहने वाले को धन , स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका- (अंग्रेज - स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का अधिकारी होता है । )
निन्दतो बहुभिलोकैमुखस्वासपरागमुखै: ।
बल:हीना क्रियाहीनो मूत्रकृतलुण्ठतेक्षितौ ।।
पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा यावल्लुंठतिभूतले ।
उत्थाय च पुन: पीत्वा नरोमुक्तिमवाप्नुयात् ।।
( `अथ मदिरास्तवराज ´ से )
( अर्थात भले ही कुछ लोग इसकी - मदिरा की - निन्दा करते हों किन्तु बहुतों के मुख से निकलने वाली सांस को यह सुवासित करने का कार्य करती है । यह अलग बात है कि यह बल और क्रिया से हीन कर मूत्र से सिंचित धरा पर क्यों न धराशायी कर दे फिर भी मदिरा का सेवनकर्ता पीता है , पीता है , बार -बार पीता है और तब तक पीता है ,जब तक कि धरती माता का चुम्बन न करने लगे । वह फिर उठता है ,फिर पीता है और तब तक पीता जाता है जब तक कि उसकी नर देह को मुक्ति नहीं मिल जाती ।)
( पोस्ट जारी)
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।
स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं ।।
एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत।
भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।
( `अंग्रेज स्तोत्र ´ से )
( अर्थात इससे विद्यार्थी को विद्या , धन चाहने वाले को धन , स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका- (अंग्रेज - स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का अधिकारी होता है । )
निन्दतो बहुभिलोकैमुखस्वासपरागमुखै: ।
बल:हीना क्रियाहीनो मूत्रकृतलुण्ठतेक्षितौ ।।
पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा यावल्लुंठतिभूतले ।
उत्थाय च पुन: पीत्वा नरोमुक्तिमवाप्नुयात् ।।
( `अथ मदिरास्तवराज ´ से )
( अर्थात भले ही कुछ लोग इसकी - मदिरा की - निन्दा करते हों किन्तु बहुतों के मुख से निकलने वाली सांस को यह सुवासित करने का कार्य करती है । यह अलग बात है कि यह बल और क्रिया से हीन कर मूत्र से सिंचित धरा पर क्यों न धराशायी कर दे फिर भी मदिरा का सेवनकर्ता पीता है , पीता है , बार -बार पीता है और तब तक पीता है ,जब तक कि धरती माता का चुम्बन न करने लगे । वह फिर उठता है ,फिर पीता है और तब तक पीता जाता है जब तक कि उसकी नर देह को मुक्ति नहीं मिल जाती ।)
( पोस्ट जारी)
3 comments:
वाह वाह! इन्तजार रहेगा।
भारतेन्दु की अति सुन्दर और रोचक रचनायों का रसास्वादन कराने के लिये साधुवाद!
सिद्धेश्वर भाई,
वीरेन डँगवाल के लिए एक्सक्लूसिव टिप्पणी के बाद उम्मीद थी कि आपकी ओर से कुछ लाल-पीली प्रतिक्रियाएँ मिलेंगी. लेकिन आप ठहरे भलेमानुस, ख़ामोश रहे.
अब इस बार भारतेंदु के बारे मे वो जानकारियाँ मिलीं कि तबियत ख़ुश हो गई. हिन्दी के ध्वजाधारी भारतेंदु के 'रसा'वतार पर क्यों पर्दा डाले रहते हैं.
विस्तार से पढ़ने का मन है इस अनपढ़ को. सुझाएँ.
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