Friday, December 28, 2007

पिंजरे में मुनिया

ज से एक सदी से भी पहले जनाब अकबर इलाहाबादी साहब ने
उस दौर की राजनीति का एक दृष्य लिखा था । देखें , कि आज के दौर
से मिलती-जुलती सी लगती है या नहीं वो सूरत ।


मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार

हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है

हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल

टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर

शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है

नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज

कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही

हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं

दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया

स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें

क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा

क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया

भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई

पंव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

-अकबर इलाहाबादी

(1.दर्शन.2.वांछित.3.तरफ.4.पैगंबरी.5.वस्तु.6.सामने आना.7.गैर लोग.8.दीवाने.9.किफ़ायत का फ़र्ज़)


(हक तो नहीं बनता अशोक भाई ,राजेशजी वाले स्नेह संबोधन को बोलने का मगर आपकी इस उचाटभरी नाराजगी के बाद मनाने के लिए मुझे भी कहना पड़ रहा है - अब मान जा रे , पंडा।टिप्पणी जा नहीं रही है इसलिए पोस्टिंग आप्शन ही काम में ले रहा हूं। )
अजित वडनेरकर

1 comment:

Rajesh Joshi said...

आपकी कोष्ठक वाली टिप्पणी तो अब देखी. अरे पंडा को पंडा कहने का हक़ सभीको है. देखा ना कि रद्दी पेप्पोर रद्दी की हाँक लगाने वाला पंडा किस कदर संजीदा हो गया.


हम कबाड़ी सही कबाड़खाने के,
रूठ जाने का हक़ तो हम भी रखते हैं.

जो मनाओगे मान के हमें अपना,
मान जाने का दम भी रखते हैं.

(शेर नाचीज़ का !!!)