Monday, December 10, 2007

बाबा त्रिलोचन और जीने की कला

कल त्रिलोचन जी का देहावसान हो गया। भाषा में उनकी सतत प्रयोगधर्मिता और जीवन के प्रति गहरा अनुराग उन्हें एक अद्वितीय कवि बनाता है। जीवन के बाद के वर्षों में बीमारी और नैसर्गिक विस्मृति से लगातार लड़ते हुए भी उन्होने काव्यकर्म नहीं छोडा। उनके आखिरी कविता संग्रह 'जीने की कला' का ज़िक्र तक करने में हिन्दी पत्रिकाओं ने कृपणता बरती। यह हमारी भाषा के झंडाबरदारों का दोगलापन तो है ही, खुद हिन्दी भाषी समाज भी इस दारिद्र्य के लिए ज़िम्मेदार है।

बाबा त्रिलोचन से मेरी आखिरी मुलाक़ात करीब दो साल पहले हरिद्वार में हुई थी। वे तब भी काफी बीमार थे। मुझे याद है उन के सिरहाने 'निराला ग्रंथावली' के सारे खंड करीने से धरे हुए थे। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ, उन्हें मेरी याद थी और १९९२ में नैनीताल की उस शाम की भी जब उन्होने मुझे कुपात्र के पहले कविता संग्रह का विमोचन किया था। बतौर उपहार मुझे उन्होने अपने हस्ताक्षरों समेत अपने अन्तिम कविता संग्रह 'जीने की कला' की एक प्रति दी। यह संग्रह २००३ में किताबघर से छपा था। यानी बाबा की आयु उस संग्रह के प्रकाशन के समय ८६ वर्ष थी। संग्रह की अधिकतर रचनाएं २००२ की हैं। हो सकता है हमारे महान आलोचकों को उस संग्रह में कोई नया वाद (या विवाद) देखने को नहीं मिला हो, लेकिन इस अदम्य कवि की अदम्य काव्य ऊर्जा का आदर तो किया ही जा सकता था।

संग्रह में बाबा भाषा का अपना खास सौष्ठव बनाए रखते हैं, और जीवन की छोटी छोटी चीजों को ओब्ज़र्व करते चलते हैं। और उनके भीतर बसा खिलन्द्ड़ मसखरा तो लगातार अपनी चिर परिचित सूरत दिखाता ही रहता है। उसी संग्रह से पढिये एक कविता 'धरम की कमाई':

सौंर और गोंड स्त्रियाँ चिरौंजी बनिए की दुकान
पर ले जाती हैं। बनिया तराजू के एक पल्ले पर नमक
और दूसरे पर चिरौंजी बराबर तोल कर दिखा देता है
और कहता है, हम तो ईमान की कमाई खाते
हैं।

स्त्रियाँ नमक ले कर घर जाती हैं। बनिया
मिठाइयां बनाता और बेचता है। उस की दुकान
का नाम है। अब वह चिरौंजी की बर्फी बनाता है,
दूर दूर तक उस की चर्चा है। गाहक दुकान पर
पूछते हुए जाते हैं। कीन कर ले जाते हैं, खाते और खिलाते
हैं।

बनिया धरम करम की चर्चा करता है। कहता
है, धरम का दिया खाते हैं, भगवान् के गुण गाते हैं।

(२.११.२००२)

*इसे मोहल्ले पर भी देखें

1 comment:

प्रणाम पर्यटन said...

BABA KE NIDHAN KI KHBAR SE PURE HINDI KAVYA JAGAT KO DHKKA LAGA.
JISKI PURTI AB SAMBHAV NAHI HAI.
YAH SAHI HAI KI UNKE JANSE "HINDI
PAGATISEEL KAVITA "KI ANTIM KADI BHI HAM SE DOOR HO GAI.
INDUR HINDI SAMITI(NIZAMABAD, A.P.)
UNHAIN APANI SADHANJALI ARPIT KARTA HI.

PRADEEP SRIVASTAVA.
NIZAMABAD A.P.